मोह पाश (कहानी) / अशोक कुमार शुक्ला
कथा साहित्य
- मोह पाश
प्रिय सार्थक,
अभी अभी सुबह की सैर से वापस लौटकर घर में कदम रखा तो तुम्हारा लिखा खत मिला जो तुमने जाने से पहले मुझे लिखा था। पढा, पढकर बहुत कुछ जाना, तुम्हारे तबादले की सूचना तो जैसे वज्रपात बनकर टूट पडी है मुझ पर। जानते हो तुमने बडी दिलेरी और सहजता के साथ यह तो लिख दिया कि तुम अपने नये सरकारी दायित्व को निभाने के लिये जा रहे हो, लेकिन क्या यह सेाचा है कि विगत छः माह में जो कुछ मेरे साथ जो कुछ घटा है उससे मैं कैसे निबटूगी ? सचमुच तुम्हारी जैसी सहजता मुझमें नहीं है। यह तुम्हारी सहजता ही तो थी जो सुबह की चाय का प्याला मेरे साथ पीने के लिये ठीक उस समय चले आते थे जब मेरा सुबह की सैर से लौट कर आने का समय होता था। यह वही घर है और वही सोफा जिस पर सुबह की पहली किरण की तरह सबसे पहले आकर तुम बैठे होते थे । तुम्हारा सहजतापूर्ण तरीके से चाय पिलाने का आग्रह करना याद आने लगा है -
' श्वेता जी, प्लीज ! क्या एक कप चाय मिल सकेगी ?'
'हॉ -हॉ, क्यों नहीं ! मैं भी सुबह टहलने के बाद आप के साथ ही चाय पीना और अखबार पढना पसंद करती हू'
और फिर मैं किचन में जाकर चाय का पानी चढा आती लेकिन उसके बाद वापिस आकर अखवार की सुर्खियो मे ऐसा डूब जाती कि चाय लाने का होश ही नहीं रहता। तुम अपलक मुझे निहारते रहते फिर आहिस्ता से टोकते-
'मैडम ! अब जरा अखबार पर दया करिये और चाय की हालत पर भी गौर फरमाइये।'
'ओह नो !मैं तो भूल ही गयी थी! '
मैं तेज कदमों से किचन की ओर चली जाती ओर लौटते हुए अपने हाथ में चाय की ट्े लेकर ही लौटती। तुम चाय का प्याला लगभग छीनते हुऐ मुझसे लपक लेते औैर हडबडी में चाय पीते हुये कहते-
'मैडम ! चाय के बाद अभी आफिस जाने से पहले मुझे बहुत से काम निबटाने हैं।'
शायद इसीलिये मैं चाय जल्दी बनाकर नहीं लाना चाहती थी! तुम अभी चाय पीकर चले जाओगे। आखिर क्यों करते हो इतना काम ? कुछ पल अपने लिये क्यों नहीं जीते ? मै नहीं चाहती कि तुम इतनी जल्दी चले जाओ।
'फिर क्या चाहती है आप ?'
तुम्हारे यह पूंछने पर मै अक्सर मैान हो जाती। मै चाहती थी कि इस सवाल का जवाब तुम्हे खुद समझना चाहिये। आखिर मैं भी तो समय की तपती भठ्ठी में झुलसने के बाद वर्षा की ठंढी फुहारों से भीगने की अपेक्षा कर सकती थी। पर तुम थे कि कुछ कहते ही न थे।
एक दुर्घटना में मणि की मृत्यु के बाद मेरे जीवन में यह पहला अवसर था जब किसी के प्रति मेरे मन में सद्भाव उमडा था। मणि भी इसी विभाग में कार्यरत थे जिसमें तुम हो । ओहदे मे वे तुम्हारे बारबर थे पर उम्र में तुमसे बडे रहे होंगे। सच पूॅछो तो उम्र में ही नहीं बल्कि हिम्मत में , तजुर्बे में ,और जिन्दादिली में भी वे तुमसे बहुत बडे थे। गंभीर से गंभीर चुनौतियो को चुटकी मे हल करने का साहस रखने वाले थें। अपने सहकर्मियो के साथ हर समय एक सावधान प्रहरी की तरह तैनात रहने वाली अटल चट्टान जैसे थे।दूसरे के हिस्से की चुनौतियॉ भी अपने में समेटने का साहस रखने वाले फरिश्ते जैसे थे वो। तभी तो उस दिन दफनाती बाढ में अपने वरिष्ठ अधिकारी के स्थान पर गॉव वालो को राहत देने खुद ही निकल पडे और ऐसा गये कि फिर लैाटकर हम तक नहीं पहुचे। अपने पीछे एक वर्षीय पुत्र और उसकी ऐसी अभागन मॉ छोडकर गये जिसने वैवाहिक जीवन के बारे में अभी अभी सपनों की दुनिया में प्रवेश भर किया था। कुछ घरेलू झगडे और चंद रुपये बस इतनी ही पूंजी थी मेरे पास। मैने अपनी मरजी से इनके साथ रहने का फैसला किया था सो घर वालों ने भी उन कठिन क्षणों में मुझे अकेला छोड दिया था। उन परीक्षा के क्षणों में अगर कोई हाथ मदद को आगे बढता भी था तो मुझे ऐसा लगता जैसे अभी अभी भेडिये से आदमी बना है और अवसर पाते ही मुझे दबोचने के लिये ही आगे बढ कर आया है। ऐसी कठिन राह पर चलते हुये मैने खुद को संभाला और मणि के के विभाग मे एक छोटी नौकरी कर ली। भेडियों से आदमी में तबदील हुए जानवरो से अपने आप को बचाने के लिये मॉ के अनमने रवैये के बाद भी यहॉ मॉ के घर में आकर रहने लगी।
साल दर साल इस छोटे शहर में अपने आप को व्यवस्थित करती रही और सामाजिक भेडियो से निबटती रही। पता नहीं यह मेरा भृम था या मेरा नसीब कि मेरे सामने आने वाला हर चेहरा किसी कुत्ते की लपलपाती जीभ जैसा या लोमड जैसा ही जान पडता था मुझे। ऐसे में हमारे विभागीय अधिकारी के रूप में तैनाती पाकर तुम भी इसी शहर आये। तुम्हारे आने से पहले तुम्हारे एक मित्र ने तुम्हारे बारे में बहुत सी बातें बतायी, उन बातो का समेकित प्रभाव कुछ ऐसा मन पर पडा कि तुम्हारे आने से पहले ही तुम्हे देखने की चाहत पैदा हो गयी। तुम्हारी दिलकश हॅसी, चिंतारहित व्यक्तित्व, विभागीय उलझनों को सरलता से सुलझाने का अंदाज, मुझे इतना भाया कि मै जान भी न पायी कि कब मेरे अंतरमन में बरषों से जमा लावा पिघलने लगा है।
अभी कल की ही तो बात लगती है जब मै कई दिनो से बीमार थी और आफिस नही आ सकी थी तो तुमने मुझे फोन किया था। उस फोन काल ने सचमुच मन के दरवाजे पर दस्तक दी थी और तभी अंतरमन में बरषों से जमे लावे का कुछ अंश पिघल कर बह निकला। तुमने उसकी ऑच महसूस की या नही मै नहीं जानती लेकिन इतना जानती हू कि उसके बाद लगभग हर शाम अगर तुमसे फोन पर बात न कर लेती तो कुछ अधूरापन सा लगता था।और तुम भी मुझमें घ्यान देने लगे थे।मै क्या पहनती हॅू? क्या करती हू? कैसे रहती हू ? इन सबमें तुम्हारी रुचि बढ गयी थी। अपनी सुबह की शुरुआत अब तुम मेरे साथ चाय पीकर करने लगे थे। चाय की प्याली के साथ अक्सर तुम्हारा वही सवाल मुझे मौन कर देता था-
' फिर क्या चाहती है आप ? '
आखिर एक सुबह इस सवाल के जवाब में मै चुप न रह सकी और मैान टूट गया-
' मैं चाहती हूॅ कि तुम इसी तरह सुकून से सोफे पर बैठे रहें और मै आपको अपलक चाय पीते देखती रहूॅ, बस।'
' आखिर कब तक ? ' तुमने तडाक से फिर सवाल दाग दिया।
'मालूम नहीं ! लेकिन शायद घर में सब के जागने तक। ' मैने अपनी कही बात को हॅसी में टालने की कोशिश की।
' तो इसका मतलब आप सबसे नजरे बचाकर चोरी से मुझे चाय पिलना चाहती हैं ? ' तुम्हारा जवाब सुनकर मैं कुछ अचकचा गयी परन्तु अपनी अचकचाहट छिपाकर मैने जवाब दिया-
' नहीं ऐसी बात नहीं है । लेकिन मेरी भी अपनी कुछ मजबूरियॉ हैं! '
' मजबूरियॉ ?--वह क्या हैं ? '
' यह घर मेरी निजी संपति नहीं है। मॉ का है मेरी बहन और उसका पति रहते हैं एक अविवाहित बहन रहती हैं मेरा बेटा रहता है। जरूरी तो नहीं कि ये सब लोग मुझे वे सारे काम करने की इजाजत दें जेा मुझे अच्छे लगते हों ? '
मेरे इस जवाब ने तुम्हें मौन कर दिया था लेकिन इस वार्तालाप के बाद मैने अपने आप को कुछ हल्का महसूस किया और यह पाया कि उस दिन के बाद तुमने मुझे आप के स्थान पर तुम कहना शुरू कर दिया था। पता नहीं क्यों अब मुझे तुम्हारा व्यवहार मणि का जैसा होने का आभास देने लगा था। वही जिन्दादिली, वही दिलकश हॅसी, चिंतारहित व्यक्तित्व और विभागीय उलझनों के बीच मुझसे बातें करने का समय निकाल लेने का अंदाज और किसी के साथ मेरा बाते करने पर अनमना हो जाना पुरानी गजलें सुनना ।सब कुछ वैसा ही लगता था।
ऐसे में एक दिन वह भी आया जब हम लोग एक साथ मंदिर गये और ईश्वर की आराधना की। पूजा के बाद तुमने अपने और मेरे बेटे के माथे पर टीका लगाया और फिर मंदिर प्रांगण में हम बैठने ही जा रहे थे कि मेरा माथा खाली देखकर तुमने उस पर भी टीका लगा दिया जैसे किसी खाली कैनवास पर रंगो का सजा दिया हो। एक अधूरी तस्वीर को जैसे पूरा करना चाहा हो। यह तुम्हारा पहला स्पर्श था जो मैने मन के कोरेां से अनुभूत किया तुमने जिस सहजता से मेरे माथे पर वह टीका लगाया था वह मुझे बहुत असहज कर गया था। उस रात मैं सो न सकी थी। न जाने कितने रंग कितने सपने और कितने अपेक्षाऐ बरबस उमड पडी थीं। मैं चाहती थी कि तुम ऐसा कुछ कहो जो मेरी मानसिक हलचल को राहत दे इसीलिए मैने उस दिन तुमसे मंदिर में तुमसे कहा था-
' कुछ कहते क्यों नहीं ? बोलो जो तुम्हारे मन में है। अगर आज यहॉ कुछ न कह सके तेा फिर शायद फिर कभी न कह सकोगे। '
लेकिन मेरे अंतरमन की आवाज शायद तुमने नहीे सुनी या सुनकर अनसुना कर दिया कह नहीं सकती।
उस शाम काफी पीने के लिये हम लोग रेलवे स्टेशन गये और काफी पीने के बाद बहुत देर तक रेलवे पुल पर बैठकर आती जाती रेलगाडियों को देखते रहे उस दिन तुमने अपने हाथों में मेरी हथेलियों को थाम लिया था और बहुत देर तक रेलवे पुल पर बैठे रहे। मुझे ऐसा लगा कि जैसे हम जीवन की नीरसता भरी शाम को उल्हास भरे दिन से जोडने वाले किसी पुल बैठे हों। तुम्हारा अपने हाथों से मेरी हथेलियों को थामना ऐसा जान पडता था जैसे धुप्प अंधेरे में कोई रोशनी की किरण फूट पडी हो या किसी बिछडे हुऐ अबोध को अपनी मॉ के आने की आहट मिली हो। तुम्हारा यह स्पर्श भी मन के सुर्ख श्याम पन्नो पर कुछ रेखाये उकेर गया था।
उस शाम जब मैने गरमा गरम पनीर के साथ चावल खाने की इच्छा व्यक्त की तो तुमने अपने घर पर खाना खाने का आग्रह किया सो मै रात के खाने पर अपने बेटे के साथ तुम्हारे घर चली आयी थी।मेरा बेटा भी तुम्हारे साथ समय बिताना अच्छा महसूस करता था। उस रात खाना खाने के बाद बेटे को नींद आने लगी सेा मैं तुम्हारे आवास पर ही रुक गयी क्योकि मै जीना चाहती थी ! तुम्हारे स्पर्श की ऑच का अनुभव करना चाहती थी ,मगर क्यों ? यह मै आज तक नही समझ पायी हूॅ ?
उस रात जो कुछ हुआ उसके लिये शायद तुम्हारे मन में उहापोह था इसीलिये तुम बहुत उदास और अनमने से हो गये थे और खुद को धृणित और पापी समझने लगे थे परन्तु तुम यह क्यो नहीं समझ पाये कि प्रेम की चरम परिणति धृणित नहीं हो सकती,। आत्म स्वीकृति से सृजन की दिशा में उठा कोई कदम पाप की नहीं अपितु संतुष्ठि की उद्घोषणा होता है। तुम्हारी आत्म ग्लानि के स्वर मेरे अंतःस्थल मे बजते वीणा के स्वरों के सामने बहुत क्षीण थे । सच में श्राद्व के अभाव मे वर्षो से भटकती पुरखों की आत्मा को मिले तर्पण सरीखा था तुम्हारा स्पर्श!
अभी एक माह ही तो बीता था कि फिर पहाडों पर बने मंदिर में देवी मॅा की आराधना हेतु जाना हुआ वहॉ अपने अंदर कई नये परिवर्तन अनुभव करने लगी थी सो मंदिर से लौटकर तुरन्त डाक्टर को दिखाने गयी। डाक्टर से यह जानकर आवाक रह गयी कि तुम्हारे प्रति मेरे प्रेम की चरम परिणति वात्सल्य का रूप धारण करने लगी थी और मेरे अंतःस्थल में तुम्हारे प्रेम का वृक्ष पल्लवित होने के साथ ही मेरे शरीर के मॉस की ओट में तुम्हारी पृतिकृति का भी सृजन होने लगा था।
यह सब जादू जैसा था जिसे मैने सच होते पाया था।यह जानकर मेरी मनोदशा किसी ऐसे अबोध बच्चे जैसी हो गयी थी जो भूख से विभ्हवल होकर चीख रहा हो और उसे खाने को विषैला फल दे दिया गया हो। ऐसा विषैला और वर्जित फल जिसके जहर का अंश हम दोनो के अस्थित्व को हौले हौले मिटा सकता था। सहसा मुझे आदम और हौव्वा का स्मरण हो आया, शायद इसी तरह प्रेम के वशीभूत होकर हौव्वा ने ऐसा ही वर्जित फल खाया होगा जिससे उसकी ऑखों में ऐसी दिव्य रोशनी पैदा हो गयी थी जिसने उसे संसार के उन आलंबो को द्वष्ठि सुलभ कर दिया था जो पूर्व में अदृष्य थे। प्रेम के वर्जित फल की विषता कर आभास होने के बाद भी मेरा अंतरमन कुछ दिनो के लिये सपनेां के संसार में जीने की जिद कर रहा था। विष को धारण करने वाले किसी नीलकंठ की तरह जीने की इच्छा जागृत हो उठी थी इसलिये मैने इस तथ्य को तुम्हे तुरंत नहीं बताया क्योकि तुम इस सपने को जीने नहीं दोगे सो एक पक्ष के लिये ही सही पर मातृत्व और वात्सल्य की अनुभूति पाने की इच्छा ने मुझे अमानवीय और हत्यारा बनने से रोक लिया सोचा कुछ दिन इन भावनाओं के साथ जी लूॅ फिर उसके बाद अमानवीय हो जाउॅगी या जैसा तुम कहोगे वैसा करूॅगी। इस तथ्य को मैने तुम्हें पहले नहीं बताया जिसके लिये मैं तुम्हारी दोषी हूॅ और तुम्हारे द्वारा दी जाने वाली सजा की प्रतीक्षा करूगी।
- तुम्हारी अपराधिनी
- श्वेता