मोह / अशोक भाटिया

Gadya Kosh से
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पिताजी अब नहीं रहे थे। बस अस्सी साल की बूढ़ी माँ है। उसे यह घर छोड़ना होगा। हफ्ते-भर से बेटा आया हुआ है। माँ को ले जाने से पहले सारा सामान ठिकाने लगाना है, लेकिन कैसे लगाए? जिस अलमारी को खोलो, वहीं पर सामान मुंबई की लोकल गाड़ी की तरह ठुंसा पड़ा है। बेटा कुछ सालों से कहता आ रहा हे कि मोटा सामान निकाल दो, लेकिन माँ का फालतू का मोह कभी इस बात को नहीं माना। ले-देकर थोड़ी सी छोटी-मोटी चीज़ें, माली और कामवाली को दे दी थीं, बस। आते ही बेटे ने सबसे पहले ट्रंकों वाला कमरा देखा था। कमरा मानों ट्रंको का शोरूम ही था। लोहे की बाबे आदम के जमाने की तीन पेटियां, फिर बड़े ट्रंक से छोटी अटैची तक कोई पन्द्रह नग बड़े करीने से ईटों पर सजे हुए। पेटियों में ही दस बारह रजाइयां, गद्दे और इतने ही कम्बल, खेस, चादरें - माँ बता चुकी थी। बताओ किसलिए संभाल रखा है यह सब? कितनी बार कहा है, मोह छोड़ो, पर नहीं।

एक खीझ के साथ बेटे ने कपबोर्ड के खाने देखने शुरू किये। वहां बदबूदार सीलन भरे खानों में बेतरतीब कपड़ों का आतंककारी साम्राज्य था। हर खाने में पोलीथीन के ढेर सारे लिफाफे, मानो किसी स्कीम के तहत मुफ्त मिल रहे थे। फालतू के मोह ने घर को कबाड़खाना बना दिया है, उसने धीमे से कहा।

वह चाय बनाने रसोई में गया, वहां के सामान पर नज़र पड़ते ही ठिठक गया। सामने ही सात, आठ फ्राईपैन और एक से पांच लीटर तक हर साइज़ के कुकर पंक्तिबद्ध पड़े मुस्कुरा रहे थे। बताओ, इतनों की क्या जरुरत थी। दो जीव और सारे जहाँ का सामान! चार-चार मुली कुतरे किसलिए, जब एक बार में एक का ही इस्तेमाल होना है। दर्जन भर तो चाकू इकट्ठे कर रखे हैं, जैसे किसी का कत्ल करना हो। कोने में दर्जन भर छोटी बड़ी कड़छियां, जिराफ की तरह गर्दन निकाले खड़ी थीं। मारे क्रोध के वह चाय बनाए बिना बाहर आ गया।

माँ- बेटे में पिछले एक हफ्ते से सामान खपाने की कवायद होती रही है। बच्चों के लिए, मंदिर में देने के लिए, जमादार, कूड़े-कबाड़ी और जल-प्रवाह के लिए हिस्से बनाए जाते रहे हैं।

आज माँ ने सबसे बड़ा ट्रंक खोलने के लिए बेटे को चाबियां थमाईं। ट्रंक नीचे उतारने पर माँ ने सामान देखना शुरू किया। सबसे ऊपर कोई पचासेक स्कार्फ और टोपियां रखी थीं। मां ठण्ड बहुत मानती है, पर बेटे के सब्र का बांध टूट गया, बोला - क्या बेकार का ढेर इकट्ठा कर रखा है। इतनी टोपियों का क्या मतलब है, इनमें से पांच-पांच रख लो बस।“

“ये हलके और ज्यादा ठंडे मौसम के लिए अलग-अलग हैं, ये सब साथ लेकर जाऊंगी।“

क्रुद्ध बेटा बेबस था। टोपियों के नीचे आठ-दस स्वैटर देखकर बेटे का पारा फिर चढ़ गया। स्वेटरों की एक अलमारी तो पहले ही ठूंस रखी हैं, उसने सोचा। पर मां वहां कोई खास चीज़ तलाश रही थी। स्वेटरों के बीच से गत्ते का डिब्बा उसे मिल गया, जिसे उसने बेटे की तरफ बढ़ा दिया।

अब इसमें क्या है, बेटा मानो तड़प उठा।

मां ने डिब्बा खोला और कहा कि ये तू रख। हलके रंग के नवजात शिशु जैसे मुलायम जालीदार दो स्वेटर बेटे को देते हुए मां ने कहा, मेरे पोते-पोती का ब्याह होगा, उनके बच्चों के लिए हैं।” कहते हुए मां के झुर्रीदार चेहरे पर रंगत आ गई।

एक क्षण में बेटे का सारा क्रोध बह गया। वह संज्ञा-शून्य सा हो गया, फिर आंसुओं की धार बह निकली।