मौक़ा / दीपक मशाल
महान संत ने नश्वर देह को त्याग दिया। करोड़ों-अरबों की संपत्ति के उनके ट्रस्ट के विशाल सभागार में उस महान आत्मा के आखिरी दर्शन के लिए भक्तों का तांता लग गया। संत के अंतिम दर्शन के लिए दर्शनार्थियों के पद, प्रतिष्ठा और जेब के वजन के अनुसार पार्थिव देह से भक्तों की दूरी तय कर दी गई। जो जितना महत्वपूर्ण वह देह के उतने ही करीब से दर्शन कर पा रहा था।
संत के भक्तों में कई बड़े खिलाड़ी, फ़िल्मी सितारे, नेता और अफसर थे। लगभग सबका आना तय था।
तभी पता चला कि सबसे बड़े भक्तों में एक महान खिलाड़ी सपरिवार दर्शन को पहुँच गए। व्यवस्थापक उनको वीवीआईपी दर्शन वाले घेरे में ले आये, संत की निष्प्राण देह के सबसे करीब। दर्शन कर महान खिलाड़ी अचानक सुबकने लगा, व्यवस्थापक ने तुरंत सांत्वना देने के लिए उसके कन्धों पर हाथ रखा और आत्मीयता दर्शाते हुए खिलाड़ी के सर को अपने कंधे पर रख लिया। मगर उसकी निगाहें किसी और दिशा में लगी थीं, किसी को खोजती हुई सी।
खिलाड़ी के जाते ही व्यवस्थापक अब तुरंत उस दिशा में लपका और झुंझलाते हुए एक कैमरामैन से पूछा- 'कहाँ चले गए थे तुम, क्या मैंने इसीलिये स्पेशली बुक किया था तुम्हें?'
'जी सर, यहीं तो था, बैठकर सही एंगल बना रहा था। एकदम परफेक्ट नैचुरल पोज आया है'
व्यवस्थापक ने कुछ निश्चिंत होते हुए कहा- 'गुड, अभी नेता जी और हीरो भी आने वाले हैं, एलर्ट रहना। ऐसे मौके बार-बार नहीं आते।'