मौके की ताक में / अब क्या हो? / सहजानन्द सरस्वती
मगर हमें आशा नहीं कि वे ऐसा करेंगे। राजनीति बड़ी गंदी चीज है, बुरी है और उनकी राजनीति का यह तकाजा है कि ऐसा ही करें। वह तो मौके की ताक में थे ही और देखा कि वह आ गया है। फिर चूकने क्यों लगे? नई पार्टी बनाने में उसे जनसाधारण के सामने लाने और प्रसिध्द करने में एक खासी मुद्दत लगेगी। तब तक क्या ये लोग दूसरों की मर्जी पर रहेंगे? दुनिया बेदर्द है। यहाँ किसी को कोई पूछता नहीं। बात की बात में पहले के सभी किए-कराए को लोग भूल जाते और बड़े-बड़े तक को दूध की मक्खी की तरह उठा फेंकते हैं। तब ये नेता खतरा क्यों मोल लें? एक बात और भी है। कांग्रेस की बातें गोल-मोल रही हैं और उसके बारे में लोगों की वैसी आदत भी पड़ गई है। फलत: ज्यादा परवाह नहीं करते। अत: आगे भी उसी की पूँछ पकड़ना हमारे नेता सुरक्षित समझते हैं। लेकिन नई आर्थिक पार्टी बनाने के बाद तो वे लोग अपने आप को जनता की बेमुरव्वत समालोचन की तोप के मुँह पर खड़ा कर देंगे। तब तो उनकी हर बात की जाँच-पड़ताल वह बेदर्दी के साथ करेगी। पुराने ऋषि-मुनियों के अनुयायी आज पाप भी करें तो लोग बर्दाश्त करे जाते हैं। मगर उनके विरुध्द जानेवालों की एक भी बात सुनने को रवादार नहीं जब तक वह पुराने साँचे में ढली न हो। जनता की इस मनोवृत्ति को हमारे नेता खूब समझते हैं और इससे लाभ उठाना चाहते हैं।
नेता लोग यह भी देखते हैं कि चाहे कुछ लोग मेढकों की तरह टर्र-टर्र भले ही करते रहें। फिर भी संगठित रूप से आज ऐसी कोई भी आवाज नहीं उठ सकती, जो हमें रोक सके, हमारी इस चातुरी का, इस कूटनीति का सफल भंडाफोड़ कर सके। वे स्पष्ट देखते हैं कि उनकी चाल के विरुध्द पर्याप्त प्रचार कर के जनता को उभाड़ने और इस तरह उन्हें रुक जाने को विवश करनेवाली कोई भी जबर्दस्त ताकत, संगठित शक्ति देश में रह नहीं गई है, और दरअसल किसान-मजदूरों के लिए यह सबसे बड़ा खतरा है। आज प्राय: सभी समाचारपत्र मालदारों के हाथ में होने से नेताओं की चाल का ही समर्थन करते हैं, करेंगे। रेडियो, सिनेमा और प्रेस उन्हीं के हाथ में हैं। सरकार की सारी मशीनरी उन्हीं के साथ है, उन्हीं की दासी है। वे चाहे जितना भी पैसा खर्च कर सकते हैं और 'ऊँट बिलैया ले गई, तो हाँ जी-हाँ जी कहना' को अक्षरश: चरितार्थ करे सकते हैं। चाहें तो अनंत प्रचारक भर्ती कर के उनसे भाड़े के टट्टू का काम ले सकते हैं। जाब्ता फौजदारी, क्रिमिनल प्रोसीजर कोड, जेल, पुलिस की लाठी और फौज की गोली भी आज उन्हीं के हाथ में है जिसके द्वारा विरोधिायों की आवाज को हजार बहाने कर के आसानी से कुचला जा सकता है। पंडित, पुजारी, मौलवी और पादरी भी जरूरत होने पर उन्हीं के इशारे पर नाच सकते हैं और दुर्भाग्य से इनका असर हमारे देश में बहुत ज्यादा है। फिर ऐसे मौके से ये लीडर चूकनेवाले कब हैं?