मौत आनी है / प्रमोद यादव

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कभी-कभी मैं भी आप सब की तरह निहायत ही बेवकूफी – भरी बातें सोच लेता हूँ। एक दिन बैठे-बैठे अनायास ही भेजे में एक बात आई कि अगर व्यक्ति को ये मालूम हो जाये कि अमुक दिन, अमुक समय (मान लो चार दिन बाद, चार बजकर चार मिनट पर) उसकी मौत मुकर्रर है तो इन चार दिनों में वह क्या-क्या होमवर्क करेगा। कैसे जियेगा वह यह चार दिन। रो-रोकर जियेगा या क्रांतिकारियों की तरह हंसकर। हाथ पर हाथ धरे बैठा रहेगा या कोई काम भी करेगा। मौत की सजा पाए कैदियों की तरह टेंशन में जियेगा या साधु-बाबाओं की तरह कूल-कूल मरेगा। इन्हीं तथ्यों का अध्ययन करने कुछ खास लोगों के इंटरव्यू लिये। प्रस्तुत है उसकी एकबानगी –

सबसे पहले मैंने एक कवि महोदय को पकड़ा। दिन हो या रात, सुबह हो या शाम, अपनी उटपटांग कविताओं से उसने पूरे शहर का जीना हराम किये था। सबसे पहले इसे ही डराने का प्लान किया। उनसे कहा – ‘ कविवर, अगर आपको मालूम हो जाये कि चार दिन बाद, चार बजकर चार मिनट पर आपकी मृत्यु निश्चित है तो इन चार दिनों में आप क्या-कुछ करेंगे, संक्षेप में अपनी ‘ प्रायरिटीस ’ बताएं। बहादुरी के साथ जियेंगे या घुट-घुट कर? ‘ वे बोले – ‘घुट-घुट कर तो अभी जी रहे हैं बंधु। रात-रात भर नींद हराम कर,अपने दिमाग को तार-तार कर नित-नवीन कविताएँ लिखो। और दिन को कोई सुननेवाला नहीं। किसी के पास फुर्सत ही नहीं। कोई समझने वाला नहीं। अजीब जमाना आ गया है, साहित्य से किसी को सरोकार ही नहीं। मौत आये तो आये। हमें कोई डर नहीं (हम तो वैसे भी मरे हुए हैं)। एक काव्य-संग्रह छ्प जाये और किसी बड़े साहित्यकार के हाथों विमोचित हो जाये, यही कोशिश इन चार दिनों में करेंगे। इसके बाद ही मरने का आनंद आएगा वरना मेरी आत्मा भटकती रहेगी। ’

एक व्यापारी से जब यह बात कही तो वह लगभग उछल-सा गया- ‘ चार दिन बाद मौत? अरे चार दिनों में तो मैं उन पैसों को गिन भी न पाऊंगा जो अब तक कमाए हैं। सबसे पहले तो अपने चारों लड़कों से हिसाब लूँगा। पट्ठों ने कभी ठीक से हिसाब नहीं दिया। फिर बीबी के सारे गहने उतरवाकर लाकर में डाल दूँगा। मेरे मरने के बाद गहनों का उसे क्या काम? सेठ किरोडीमल हमेशा मेरे कारोबार में मेरा दुश्मन रहा है। वक्त-बेवक्त मुझे मारता रहा है। इस बार मैं उसे मारूंगा। चार दिनों के लिये बिना किसी लिखा-पढ़ी के चालीस लाख रूपये उससे चलाव मांगूंगा। चौथे दिन में सटक लूँगा। मेरे सटकते ही साला वो भी सटक जाएगा। ’

मैंने पूछा- ‘ और कुछ? ‘

शर्माते हुए, कान में फुसफुसाते बोले – ‘ प्लीज। किसी को ना बताइयो। मेरी पत्नीनुमा एक औरत और है। बाहरवाली। चम्पाबाई। पैसे मांग-मांगकर मुझे कंगाल कर दी है। अपनी मौत की दुखद खबर (दुखद- उसी के लिये) सबसे पहले उसे ही सुनाऊंगा ताकि चार दिन तक वह भी मरती रहे। मेरे बाद तो उसे मरना ही है। ’

एक नये - नवेले मंत्री से जब यह बात कही तो वे बौखला-से गये, बोले – ‘ क्यों डरा रहे हो भाई। सत्ता-सुख भोगे अभी चार दिन भी नहीं हुए और आप सत्ता-च्युत की बातें कर रहे। न कोई हवाला न कोई घोटाला ना कोई टू जी ना कोई आबंटन और। हमें टपकाने की बातें कर रहे हैं। ’

‘ अरे मंत्रीजी, मैंने सिर्फ कल्पना करने को कहा है। ’ मैंने जवाब दिया - ‘ बताएं, इन चार दिनों में क्या-कुछ करेंगे? शांति के साथ मरेंगे या क्रांति के साथ?

वे संजीदा होकर बोले – ‘ मरने की तारीख ब्राडकास्ट हो जाये तो फिर क्या शांति और क्या क्रांति। फिर भी अपनी प्राथमिकताएं बताता हूँ। चार दिनों में कम से कम चार सौ कार्यों का उद्घाटन अथवा भूमिपूजन करूँगा। जिन-जिन लोगों के काम करने का वादा किया है,उनसे काम के पहले ही दाम वसुलूँगा। अब चार दिन में राज्यमंत्री से केबिनेट या मुख्यमंत्री तो बन सकता नहीं फिर भी मुख्यमंत्रीजी से निवेदन करूँगा कि ‘ नायक ‘ फिल्म के नायक की तरह मुझे एक दिन के लिये मुख्यमंत्री बना दे ताकि मेरा सपना साकार हो और मैं चैन से मर सकूँ। ‘

बालीवुड की एक नवोदित अभिनेत्री से बात की तो वह तमक गई, बोली- ‘ शुभ-शुभ बोलो जी। हमने तो अभी तक किसी फिल्म में आईटम सांग भी नहीं किया और हमें निपटाने की सोच रहे हो? चार दिन बाद अगर सचमुच टा-टा करने की नौबत आती है तो सबसे पहले यही चाहूंगी कि “ शीला की जवानी “, “ मुन्नी बदनाम हुई “, “ फेविकोल से “या “ छम्मक-छल्लो “, से भी बेहतर ठुमके लगा, बालीवुड की सभी हिरोइनों को पीछे धकेल दूँ। तभी मर पाऊंगी वरना यमराज जी आके बैठे रहें- मुझे नहीं जाना उनके साथ। ’

अंत में एक भिखारी से जब बाते की तो वह बेखौफ होकर बोला – ‘ चार दिन में तो सब कुछ निपटा दूँगा। कल ही हिसाब-किताब किया है। पूरे चौतीस लाख रूपये भीख से बटोरे हैं। पत्नी होती तो सब उसके नाम चढा देता। अब तो अपने दोनों दामादों को जो सदर नाका और गोल बाजार इलाके में भीख मांगते हैं - दस-दस लाख दे दूँगा। उनकी शादी में ज्यादा कुछ नहीं दे पाया था। बाकी के चौदह लाख रूपये सेक्टर नाईन चौक में जो एक हसीन भिखारन बैठती है, उसके खाते में डाल दूँगा। शुरूआती दिनों में सामने वही बैठती थी दस-दस घंटे नान-स्टाप। उसे देख-देख कर ही बैठना सीखा था। कई बार वह मेरी पत्नी की तरह भी रही। पर कई बार रूठने पर वह दूसरे के साथ भी बैठ जाती। कुल मिलाकर आज भी वो मुझे अच्छी लगती है। इसलिए उसका भी हक बनता है। मैं तो कल ही यह सब निपटा दूँगा। ’

‘ बाकी के तीन दिन क्या करोगे भाई? ‘ मैंने प्रश्न दागा।

उसने ‘ आती क्या खंडाला ‘ स्टाइल में जवाब दिया – ‘ ऐश करेंगे। सेक्टर नाईन चौक में। और क्या। ? ‘

उसके इस जवाब ने मुझे काफी प्रभावित किया कि मौत चाहे चार दिन बाद आये या चालीस दिन बाद, आदमी को ऐश के लिये जरुर समय बचाकर रखना चाहिए। मौत तो आनी-जानी है। अपना काम करेगी ही। हमें भी अपना काम (ऐश) करते रहना चाहिये। मेरी तरह ज्यादा अनाप-शनाप बातें सोच दिमाग खराब नहीं करना चाहिय्रे। चलता हूँ। मेरा भी समय हो गया (ऐश करने का)। नमस्ते...