मौन: अंतस की शुद्धतम अभिव्यक्ति / सिद्धार्थ सिंह 'मुक्त'
मनुष्य सदैव से अपनी संवेदनाओं और भावनाओं की अभिव्यक्ति करता रहा है, कभी गाकर, कभी लिखकर, कभी नृत्य से और कभी चित्रकारी से| वैसे तो सभी जीवों में संवेदनाएं होती हैं और वो उन्हें व्यक्त भी करते हैं परन्तु मनुष्य भावनात्मक स्तर पर अधिक परिष्कृत होने की संभावना रखता है| मनुष्य अपनी भावनाओं को अधिक सशक्त विधि से अभिव्यक्त करने की भी क्षमता रखता है| मनुष्य अपनी भावना को कभी शब्दों के वस्त्र पहना देता है तो कभी नृत्य की भाव-भंगिमाओं में भरकर प्रस्तुत करता है| कभी संगीत की लय के उतार-चढ़ाव पर भावना को आरोपित करता है तो कभी रंगों के अद्भुत समन्वय में भावना को व्यवस्थित करता है|
लेकिन क्या आपने कभी अनुभव किया कि इन सब अभिव्यक्तियों के केंद्र में क्या है? जिसने अनुभव किया है वो जानता है कि इसका केंद्र प्रेम है| जब हम प्रेम में होते हैं तो किसी ऐसे स्रोत से जुड़ जाते हैं जहाँ से हममें आनंद प्रवाहित होने लगता है| उस आनंद को छिपा पाना संभव नहीं होता इसलिए वो हमसे व्यक्त होने लगता है| हम चाहें किसी व्यक्ति विशेष के प्रेम में हों, प्रकृति के प्रेम में हों या अज्ञात के प्रेम में, किन्तु ह्रदय के उद्गार रोक पाना बहुत कठिन होता है| सामान्यतया तो हम उधार से काम चला लेते हैं- उधार के गीत, उधार की प्रार्थनाएं, उधार की भाव-भंगिमाएं, उधार के चित्र और उधार के शब्द| किन्तु जब एक बार प्रेम में हम अपनी अस्मिता और स्मृति खोने को तैयार हो जाते हैं तो किसी और के गाये गीत और किसी और की लिखी प्रार्थनाएं याद नहीं रह जाती हैं|
"प्रेम जितना गहरा होता जाता है, उद्गार उतने ही मौलिक होते जाते हैं| "गहरे प्रेम में जो अभिव्यक्ति होती है वो पूरी तरह नयी होती है| इस क्रम में एक और अवस्था आती है- एक ऐसा क्षण आता है जिसमें शब्द खो जाते हैं और मौन उतर आता है| मौन के पहले तक हमारी अस्मिता सूक्ष्म रूप में बची रहती है और शब्दों, लय, रंगों और भाव-भंगिमाओं के नए-नए समन्वय बनाकर हमें भ्रमित करती है कि वो विसर्जित हो चुकी है| किन्तु अस्मिता के पूर्ण विसर्जन के पश्चात हमारा मौन में प्रवेश होता है| "मौन परम मौलिकता है और अंतस की शुद्धतम अभिव्यक्ति है|" यदि हम इस अद्भुत अवस्था कभी अनुभव करें और कुछ समय पश्चात इसका स्मरण करना चाहें कि क्या हुआ था तो स्मरण नहीं कर पायेंगे क्यूंकि इस अवस्था में स्मृति एकत्र कर सकने वाला कारक अहंकार होता ही नहीं|