मौन मुस्कान की मार / सुषमा गुप्ता

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मौन मुस्कान की मार :आशुतोष राणा जी प्रथम संस्करण 2018,मूल्य दो‌ सौ रुपये, पृष्ठ :200,,प्रभात प्रकाशन,4/19 आसफ अली रोड, नई दिल्ली 110002

आशुतोष राणा जी के बहुआयामी व्यक्तित्व से कौन परिचित नहीं। अभिनय के क्षेत्र में वह जितने अच्छे कलाकार हैं उतने ही उम्दा लेखक भी हैं। उनकी पुस्तक ‘मौन मुस्कान की मार’ जीवन दर्शन का एक व्यापक आसमान समेटे है। इसमें सम्मिलित सत्ताईस व्यंग्य रचनाओं पर बहुत कुछ पहले ही कहा जा चुका है। इसमें कोई शक नहीं है कि विविध विषयों पर आधारित यह सब रचनाएँ एक से बढ़कर एक हैं ,बेजोड़ हैं, और बेहद सशक्त भी। मुझे इस किताब में जिस बात ने सबसे ज़्यादा आकर्षित किया वह है व्यंग्य के ज़रिए दी जानेवाली सीख, वरना ज़्यादातर व्यंग्य रचनाओं में समस्या का बखान या बखिया उधेड़ना तो होता है पर उन समस्याओं का समाधान क्या होना चाहिए , ऐसा कुछ भी पढ़ने, समझने को नहीं मिलता । आशुतोष जी की रचनाओं में सबसे खूबसूरत यही बात है । जीवन दर्शन पर लिखे उनके अनेक लेखों के जरिए हम पहले ही यह जानते हैं की विभिन्न विषयों पर उनकी कितनी गहरी पकड़ है ।

किताब शुरू होती है , कन्वे की कॉफी से।

आशुतोष जी का बात कहने का अंदाज़ ‘अपनी बात’ कहने के लिए भी निराला ही है। बचपन का प्रसंग कन्वे की कॉफी वाला जिसको उन्होंने इस पुस्तक का आधार बताया है , अपने आप में एक बहुत बड़ी शिक्षा देता है । व्यंग्य विधा एक बहुत ही कठिन विधा है,जिसमें आशुतोष राणा को महारत हासिल है। हँसी-हँसी में बात कह जाना और ऐसे कह जाना जो दिल-दिमाग पर गहरी छाप छोड़ दे, यह आशुतोष जी की खासियत है। मैं यहाँ पर उनकी हर रचना में से अपनी पसंद की कुछ पंक्तियाँ हाईलाइट कर रही हूँ।

लामचंद्र की लाल बत्ती , जिसका मुख्य किरदार जीवन भर लाल बत्ती वाली गाड़ी की लालसा में लगा रहता है और न मिल पाने पर अपना मानसिक संतुलन ही खोने के कगार पर पँहुचने लगता है । यह रचना जीवन में लगभग भुला ही दिए गए एक बड़े सच की तरफ हमारा ध्यान खींचती है ।

“सफलता पूर्वक जीवन जीने के लिए जितना महत्व संकल्प का होता है, शांतिपूर्ण जीवन जीने के लिए उतना ही महत्व विकल्प का भी होता है। विकल्प जहाँ जीवन में शांति की सृष्टि करते हैं वही संकल्प कभी-कभी अशांति का कारक होता है।”

दूसरी रचना -‘गप्पी और पप्पी’ध्यान आकर्षित करती है , आज के समाज में फैली हुई उस दिखावे की देवी की ओर जो वर्तमान में सबसे ज़्यादा पूजनीय है । परंपरा , धर्म , मूल्य सब को कटघरे में खड़ा कर चुकी है यह देवी।पंक्तियाँ देखिए-

“जिसमें शक्ति है , उसी की भक्ति है, वाले कंटेंपरेरी फार्मूले को अप्लाई करो ,तुम सफल ही नहीं, सिद्ध प्रसिद्ध भी हो जाओ।” यही सब तो हो रहा है वर्तमान परिदृश्य में।

तीसरी रचना-‘गंधी वृक्ष’ “हत्या से अधिक घातक चरित्र हत्या होती है।” स्तब्ध हैं न इस कटुसत्य को पढ़कर ! सीधे मन मस्तिष्क पर चोट करती है यह पंक्ति। सच का साथ देने वाले जिस इंसान को डरा-धमका कर चुप नहीं कराया जा सकता अक्सर उसको सार्वजनिक रूप से शर्मिंदा कर मानसिक रूप से तोड़ दिया जाता है।इसी रचना के अंत में जगहों का नाम बदलने का उल्लेख भी किया गया है और बहुत शानदार तरीके से आशुतोष जी ने उसे चित्रित भी किया है।

“हम सामान्य जन हैं। बदलाव नहीं, बर्दाश्त ही हमारा भाग्य है । हम गरीब लोग हैं । हमें नाम से क्या मतलब। हमें तो काम से मतलब है। इस सच्चाई को हम जानते हैं कि नाम बदलने से नियति नहीं बदलती।”

आए दिन सरकारें नाम बदलने के फेर में करोड़ों रुपए फूँक रही हैं पर उन इलाकों की उन्नति में उस से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला यह सच सब जानते समझते हुए भी मौन साधे हैं।

‘आभासी क्रांति’ करारा तमाचा है, उन लोगों की मानसिकता पर जो देश की कानून व्यवस्था और सामाजिक-नैतिक शिष्टाचार का पालन करने में कोई रुचि नहीं रखते लेकिन सोशल मीडिया पर देशभक्ति, नैतिक मूल्य,समाज उत्थान इत्यादि, के समर्थन या विरोध में आंदोलन चलाएँगे और

ऐसा प्रोजेक्ट करेंगे कि पूरे देश में इनसे बड़ा देशभक्त और ज़िम्मेदार नागरिक कोई नहीं ।

आशुतोष जी की बेजोड़ पंक्तियाँ..

“देश चलता नहीं, मचलता है/मुद्दा हल नहीं होता ,उछलता है

जंग मैदान पर नहीं मीडिया पर जारी है /आज तेरी तो कल मेरी बारी है।”

‘भक्क नारायण महाराज’-यह लिखा तो उन्होंने अपने बचपन का प्रसंग है पर यह किसी बोधकथा से कम नहीं। नारायण महाराज को कुछ लड़के रोज़ तंग करते, उसके बावजूद वह उनकी तारीफ करते,उनको इनाम देते ,मार नहीं । एक दिन इसी ताकत के नशे में उन लड़कों ने अपने से शक्तिशाली आदमी को छेड़ दिया जिसका परिणाम बहुत बुरा भुगता। नारायण महाराज की शिक्षा “आजकल कुछ ना बोलना भी एक किस्म का विरोध माना जाता है । इसलिए वह मत बोलो जो तुमको अच्छा लगता है वह बोलो जो उसको अच्छा लगता है । क्योंकि जबर आदमी को तुम सामने से नहीं जीत सकते इसलिए जबर के आगे नहीं उसके पीछे चवन्नी चिपका दो वह खुद ही दीवार से मूँड़ मार लेगा।”

कहीं न कही चाणक्य नीति भी यही सिखाती है । पहले सामने वाले की शक्ति का सही आंकलन करो और अपनी रणनीति उसी के आधार पर बनाओ । जीत निश्चित है। व्यवहारकुशल होना भी आज के युग में किसी बड़े चैलेंज से कम नहीं।

‘अंतरात्मा का जंतर मंतर और तंत्र’-गज़ब कटाक्ष । सारे सही-गलत के पैमाने फायदे-नुकसान के तराज़ू में तुलते है फिर ज़रूरत अनुसार इस्तेमाल होते हैं।”अंतरात्मा जब तक आप विपक्ष में हैं ,तब तक जागती रहती है ,लेकिन जैसे ही आप सत्ता में आए यह फटाक से सो जाती है । फिर आपके कान पर नगाड़े भी बज रहे हो यह नहीं उठती।”

है न एकदम खरी बात !,कभी-कभी तो मैं भी सोच में पड़ जाती हूँ कि इस देश में राजतंत्र है या प्रजातंत्र।

बीसीपी उर्फ भग्गू पटेल–अजब-गजब दुनिया के गज़ब-गज़ब गोरखधंधे । यह ऐसे आदमी की सक्सेस स्टोरी है जिसने रंग-बिरंगे पत्थरों को अंधविश्वास के नाम पर बेच कर करोड़ों कमा लिए। सच में लोगों के मन में पलने वाले अंधविश्वास का फायदा उठाकर क्या नहीं किया जा सकता ।

“काम होगा ऐसा कहकर कोई भी पत्थर पकड़ा दो फिर देखो वह खुद ही कोई कसर नहीं छोड़ेगा पत्थर को सही साबित करने के लिए । जी जान लगा देगा। सफल होते हैं वे और श्रेय मिलता है पत्थर को।”

बात बहुत ही सटीक बताई उन्होंने ,

“विश्वास परिणाम है और अंधविश्वास प्रक्रिया। हम विश्वास भी पूरी ईमानदारी से नहीं करते इसलिए फेल हो जाते हैं । खुली आँखों से किए गए काम नहीं , बंद आँखों से किए गए काम ही चमत्कार की श्रेणी में आते हैं। जितने भी चमत्कारी लोग हुए हैं, उन्होंने लोगों की आँखें खोली नहीं बल्कि खुली आँखों को बंद किया है।”

बात बेहद कड़वी है पर है सोलह आने सच्ची।

‘आत्माराम विज्ञानी’-कहते हैं आत्मा अजर-अमर है। इस रचना के ज़रिए उन्होंने आत्मा के भी दो प्रकार बताए हैं । एक वह आत्मा है ,जो मृत्यु के बाद ब्रह्माण्ड में एक्ज़िस्ट करती हैं और दूसरी वे आत्माएँ है जो ज़िंदा शरीरों में मृत हैं । आज सोशल मीडिया पर फेक आईडी बनाकर लोगों को प्रताड़ित करने वाले ऐसी असंख्य मृत आत्माएँ हैं , जिनका प्रमुख धर्म ही परपीड़ा में सुख ढूँढना है । इस परपीड़ा के सुख का एक नाम ट्रोलिंग भी है। पंक्तियाँ..

“आजकल जली जलाई बीड़ी से बीड़ी जलाने का ज़माना है । अपनी माचिस लेकर कोई नहीं घूमता । कलयुग में प्रसिद्ध होने के लिए आपको सत्कर्म करने की ज़रूरत नहीं है । यह लंबा रास्ता है । आप तो बस किसी सत्कर्म करने वाले प्रतिष्ठित प्रसिद्ध आदमी को घेर लें और उसके सभी कर्मों पर प्रश्नचिन्ह लगा उसकी ऐसी तैसी करके प्रतिष्ठा को धराशाई कर दें । यह इंस्टेंट फार्मूला है। यू विल बी फेमस इन शॉर्ट स्पैन ऑफ टाइम। मेबी यू विल गेट सम अवार्ड सम डे पर रिवार्ड तो पक्का है।” कितना सही कहा उन्होंने-“भ्रष्टाचार से ज़्यादा घातक मिथ्याचार है।”

‘राम रवा लपटा महाराज’-यह रचना पौराणिक कथाओं और कलयुग में हो रही घटनाओं के संयोग को माध्यम बना , जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढ़ाती है ।

“हम धर्म को तो मानते हैं धर्म की नहीं। हम गीता को मानते हैं गीता की नहीं मानते।”

हम लोग धर्म को स्थापित करना चाहते हैं ,पर धर्म के आचरण पर चलना नहीं चाहते।

यही तो हो रहा है आज के समाज में । गीता कुरान के नाम पर लड़ सब रहे हैं पर उसमें जो लिखा है उसके अनुसार आचरण किसी का नहीं।

‘लाठी गली’ –यूँ तो आप इस रचना को पढ़कर हँस-हँसकर लोटपोट हो जाएँगे ,पर दरअसल यह रचना अंतस् में एक गहरी टीस छोड़ जाएगी । डॉक्टरी का पेशा आज किस हद तक गिर चुका है इसका एक शानदार चित्रण तो इसमें है ही ,पर पैसे की हवस ने इस नोबल प्रोफेशन की भी वह हालत कर दी है कि आम आदमी बेहद दयनीय स्थिति में आ गया है। स्वस्थ होते हुए भी डॉक्टर पचास तरह के टेस्ट लिख देगा और आपको यकीन दिला देगा कि आपको कोई ना कोई ऐसी भयानक बीमारी ज़रूर है ,जिसका इलाज उसी डॉक्टर से लेना बेहद ज़रूरी हैं।

“अनपढ़ आदमी की मार शरीर पर होती है ,लेकिन पढ़े-लिखे लोग मन मस्तिष्क पर चोट करते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि तन को खंडित करने से कहीं अधिक लाभ मन को खंडित करने में होता है। किसी को नष्ट करना है तो उसको नहीं , उसके विश्वास को नष्ट कर दो। उसका विवेक स्वयं समाप्त हो जाएगा ।”

यह कलियुग है। कलयुग में जो हो रहा है उसका दो पंक्ति में राणा जी ने सार खूब ही लिखा है–

“त्रेता युग में दूध मिला था ,और द्वापर में घी। /यह कलयुग है प्यारे भैया ,मूर्ख बनाकर पी।।”

अब हो तो यही रहा है ,पर भले आदमी को अपना संयम कैसे बचाए रखना है यह भी अपने अगले दोहे के माध्यम से उन्होंने साफ कर दिया।

“सतयुग का धन सत्य था और त्रेता का धीर। /द्वापर युग में वीरता, कलयुग का धन पीर।।”

‘बिस्पाद गुधौलिया’विशुद्ध व्यंग्य। इस पाद कथा को पढ़कर मैं बस हँसती चली गई।

हालाँकि जीवन का एक गूढ़ ज्ञान इस रचना के अंत में भी है कि न्याय वेदना पर नहीं विवेक पर आधारित होता है और जिस पर समाज को न्याय देने की जिम्मेदारी हो उसका संवेदनशील होना ठीक नहीं।

‘चित्त और वित्त’ –पान वाले की दुकान पर भाई साहब जैसे बुद्धिजीवियों के द्वारा दिया गया चूकिया ज्ञान , न सिर्फ वर्तमान के सोशल मीडिया युग में प्रचलित रचनाचोर , जो स्वचुरित रचना को स्वरचित के नाम से सोशल मीडिया पर सरका देते हैं ,उनके ऊपर करारा व्यंग्य है बल्कि उनकी मानसिकता पर भी गहरी चोट है जो क्रेडिट कार्ड मानसिकता पर जीते हैं। अपनी जेब से ज़्यादा खर्च करते हैं कि कल चुका देंगे । उधार पर ऐश करने में इनको ज़रा भी शर्मिंदगी नहीं है । इंस्टॉलमेंट देते- देते एक दिन यह डिफॉल्टर हो जाते हैं पर उधार लेना बंद नहीं करते । इज्ज़त का चाहे कचरा हो जाए पर सुख-सुविधाओं में कमी नहीं आनी चाहिए।

‘गुंचई जी का गीता ज्ञान’-भ्रष्ट राजनीति का बहुत बड़ा उदाहरण है यह रचना ‌। नोटबंदी के नाम पर क्या नहीं हुआ । सफेद-काले के चक्कर में मंदिरों का, पेट्रोल पंपों का किस तरीके से उपयोग किया गया ,कालेधन को सफेद करने के लिए, यह भी हम सब जानते हैं । और यह बात तो उन्होंने बड़ी पते की लिखी कि “भले ही तुम काला रखे रखो, किंतु अपना कंठ फाड़कर सफेद के पक्ष में सिंहनाद करो। उसकी पैरवी करो तो संसार तुम्हें सफेद मानकर सफेदी की चमकार ज़्यादा देर तक ज़ोरदार कह कर तुम्हारी जय-जय करेगा।” देखा जाए तो इस पूरे नोटबंदी के खेल का यही तो नतीजा हुआ बस,पर फिर वही खासियत आशुतोष जी की ,कि उनकी किसी भी रचना का अंत कभी निगेटिव बात पर नहीं होता यहाँ भी उन्होंने एक पॉजिटिव अंत दिया है ।

“जो नीति से प्राप्त हो वह लक्ष्मी ।

जो अनीति से मिले वह अलक्ष्मी ।जो नीति और प्रीति से अर्जित किया जाए वे महालक्ष्मी। महालक्ष्मी की उपासना करो।”

‘मैं का मोह’-इस रचना में गजब का नारद पुराण है।नारद और मायापती को माध्यम बना वर्तमान परिदृश्य को क्या ही खूब उकेरा है।फेक लीडर्स और फेक फॉलोअर्स की जो जुगलबंदी चल रही है वर्तमान में, उसकी महिमा का गजब चित्रण है। इस चाटुकर जमात की खूब बखिया उधेड़ी है।

‘हैप्पी बर्थडे बापू’-क्या सपना देखा था बापू ने और सच में क्या हाल हो गया है देश का। इस रचना को पढ़कर कुछ देर मन मस्तिष्क में सन्नाटा सा ही छा गया । वाकई देश राम भरोसे ही चल रहा है। बापू की दी ,सारी सीख पूरी तरह से भुला दी गई हैं। पर राणा जी जैसे विद्वान लोग अलख जगाते रहेंगे तो शायद दो-चार परसेंट लोगों पर कुछ असर हो जाए।

‘तीन बत्ती की सिंहासन बत्तीसी’-दुनिया कर्म से नहीं बड़बोलेपन से ज़्यादा चल रही है , और वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य तो इस कथन को पूरी तरह सही भी साबित कर रहा है। बड़बोलेपन पर किया गया गूढ़ कटाक्ष है यह रचना पर अपनी इस रचना में भी आखिर में उन्होंने वही अपना एक सिग्नेचर पॉजिटिव नोट भी छोड़ा है -“बोलो चालो बको मत ।देखो भालो तको मत। खाओ पियो ,छको मत ।खेलो कूदो, थको मत।”

‘अर्थी का अर्थ’“जीवन में अर्थ की अति हो जाती है तब वह अर्थी कहलाता है।”

यह समाज में फैली विसंगति पर किया गया बेहद ही गहरा कटाक्ष है। हम सारी उम्र भौतिक चीजों के पीछे भागते रहते हैं, शरीर को सुख संपन्नता से भरने के लिए और आत्मा की तृप्ति के लिए किए जाने वाले कार्यों पर रत्ती भर भी ध्यान नहीं देते । ये पंक्तियाँ देखिए ..

“तुम्हारी आत्मा तो शरीर के सुख के लिए काम करती है ;लेकिन क्या तुम्हारा शरीर कभी आत्मा के कल्याण के लिए प्रयास करता है? नहीं।”

“तुम्हारा जिंदा होना तुम्हारे जागे होने का प्रमाण नहीं है “

“सफलताएँ तुम्हें तृष्णा देती हैं ,उपलब्धियाँ तुम्हें तृप्ति से भर्ती हैं । ज़िंदा शरीर और मरी हुई आत्मा या ज़िंदा आत्मा और मरा हुआ शरीर दोनों ही आश्रित रहते हैं । सिर्फ़ किसी एक को ही महत्त्व देना हमारे असंतोष का कारण है । शरीर की रुचि सफलता में होती है और आत्मा की उपलब्धि में।” आशुतोष जी ने अपने हर व्यंग्य में जीवन को बेहतर ढंग से जीने के लिए गहरी सीख लिख छोड़ी है । अब उसे कितना ग्रहण कर पाते हैं यह पढ़ने वाले पर और उसकी गहराई समझ सकने वाले पर है।

‘धप्पू‘-इस रचना को पढ़कर मेरा मन बेहद कसैला हो गया । कसैला इसलिए नहीं कि रचना में कमी थी ,बल्कि इसलिए कि यह समाज में व्याप्त उस घिनौनी सच्चाई का सामना कराती है कि कैसे हमारी आँखों के सामने रोज़ नए राजनीतिक गठबंधन बनते-बिगड़ते हैं । कभी एक हो जाते हैं ,कभी एक-दूसरे के दुश्मन हो जाते हैं। इन सब में आम आदमी पिसता रहता है और वह इसलिए पिसता है ;क्योंकि वह यह सब समझते हुए भी अपने आँख , कान और मुँह बंद रखता है। यकीनन सच का यह आईना मन को विचलित करता है।

‘सब्र का फल और कब्र का फल’-इस रचना के अंत में हमेशा याद रखने योग्य शिक्षा दी गईं हैं जो आप जब यह किताब पढ़ेंगे तब पढ़ ही लेंगे, पर इसके अलावा भी इस रचना में कईं बड़ी दिलचस्प बातें है –

“कुतर्क की प्रवृत्ति कथ्यपरक होती है, जिसमें तथ्य और सत्य का कोई स्थान नहीं होता।”

“कुतर्क शोर प्रधान होता है ,इस में तर्क की संवाद स्थापित करने वाली प्रवृत्ति नहीं होती। कुतर्क की शक्ति ही कथ्य में होती है ;इसलिए लगातार बोलते रहना इसका स्वभाव है । कुतर्क के कथ्य रूपी एकालाप,प्रलाप,विलाप की तीव्रता और शोर इतना भीषण होता है इसमें तर्क के तथ्य और सत्य सुनाई नहीं पड़ते इसलिए कुतर्क से निपटने का एकमात्र कारगर तरीका है ‘मौन’।”

क्या ही खूब कहा न!

‘मनोविज्ञान के कुछ क्रांतिकारी सूत्र’-वाकई सच में ऐसे जादुई क्रांतिकारी सूत्र हैं जिन्हें पढ़कर आप हँसते-हँसते भी, सोच में पड़ जाएँगे और रचना के अंत में कह उठेंगे, वाह रे कलयुग!

‘यश और राज की दीवार’-राजनीति के गंदे खेल में जो मातृभूमि की ऐसी -तैसी फेरी जा रही है , यह रचना उस पर केंद्रित है पर कुछ पंक्तियाँ, जिन्होंने मुझे खास आकर्षित किया –

“किसी भी प्रकार का तुष्टीकरण जो वर्ग विशेष के उत्थान के नाम पर किया जाता है, मूलत: वर्ग विशेष के कल्याण के लिए नहीं, बल्कि स्वयं के लाभ के लिए किया जाता है। यह समाज हित के नाम पर स्वहित को सिद्ध करने की प्रक्रिया है। किसी को तुष्ट कर हम स्वयं पुष्ट होते हैं। तुष्टीकरण सुप्त को जागृत करने के लिए नहीं बल्कि जागृत को सुप्त करने वाला सुवासित इंजेक्शन है। यह औषधि के नाम पर भेजा जाने वाला मादक द्रव्य है।”

पर‌ सामान्य जन इस बात को कब समझ पाएगा, यह वाकई बेहद चिंताजनक है।

‘G’ की शक्ति-इस रचना में आशुतोष जी ने जीएसटी की जो गजब की व्याख्या की है। कितनी देर तक हँसना ही बंद नहीं हुआ मेरा। सहज सरल शब्दों में ,गॉड, गुड, साइलेंट, तपस्या , थ्रिल ,ट्रबल यानी जी एस टी के कितने ही मारक अर्थ! क्या कमाल का शोध किया है उन्होंने।रचना के अंत तक आते-आते मेरे होंठों पर बड़ी सी मुस्कान थी और मुँह से निकला , भई वाह!

‘मकर सक्रांति नहीं कर की क्रांति’-यह कर की क्रांति पढ़कर तो मेरा भी दिमाग चक्कर खा गया वाकई। त्योहार में शुभकामनाएँ और पर्व में चेतावनी। कमाल ही विश्लेषण किया है।

कहाँ-कहाँ से क्या-क्या ढूँढ़ लाए हैं आशुतोष जी।अद्भुत ।

‘मुरली मनोहर श्याम बिहारी उर्फ बड्डे’-वर्तमान राजनीति पर किया गया ,क्या ही मारक व्यंग्य है । मौन और नमो-नमो के बीच का फर्क बहुत ही सटीक शब्दों में उन्होंने समझाया है ।

“भक्तों का जाप तारक भी होता है और मारक भी होता है। अगर सुखी रहना चाहते हो, तो होशियारी से जाप करो ।” कितना सटीक संदेश है भक्तों वाली राजनीति के लिए!

‘मौन मुस्कान की मार’ –यह तो शीर्षक ही अपने आप में गज़ब है और आशुतोष जी पर बिल्कुल फिट भी।जब आप अपनी मारक मुस्कान लिए सामने वाले पर सधी दृष्टि बनाए रखते हैं ,तो ज्ञान की शेखी बघारने वाले अच्छे-अच्छे पोंगा पंडितों का बौखला जाना निश्चित ही है ।

“मुस्कान एक अद्भुत अस्त्र है, जो मुखर वाचाल और वाक्य प्रदूषण पैदा करने वाले व्यक्ति को नष्ट ही नहीं ध्वस्त भी कर देता है।” आशुतोष जी का दिया यह मंत्र सदा याद रखने योग्य है ।

इसमें कोई शक नहीं, संयम भरी मौन मुस्कान , सामने वाले के अभिमान पर गहरी चोट छोड़ती है।

‘शॉर्टकट/कटशॉर्ट’-इस रचना की बॉटम लाइन से शुरुआत करते हैं –

“मिस यूज़ द यूज़फुल ।”

इस रचना की प्रस्तुति बड़ी ही मज़ेदार है । एसएमएस के जरिए पूरी कन्वरसेशन हमारे सामने रखी गई है जो दर्शाती है कितने शातिर तरीके से लोग आपका इस्तेमाल करते हैं, आपको भान भी नहीं हो पाता।वैसे आशुतोष जी , वी बोथ सेलिंग इन द सेम बोट ,क्योंकि ऐसे कटशार्ट मैसेजेस अक्सर मुझे भी समझ नहीं आते ।बाकी बालक ने बिल्कुल ठीक कहा है

“यू नीड टू एजुकेट योरसेल्फ।” एजुकेट होने के मायने अब वाकई बदल चुकें हैं। वरना मिसयूज़ होना तो तय ही है ।

मौन मुस्कान की मार एक बेहद शानदार किताब है ,जिसका अपने निजी संग्रह में होना मेरे लिए गर्व की बात है । मौन‌ मुस्कान की अपार सफलता के लिए आशुतोष जी को बहुत बधाई एवं शुभकामनाएँ।