मौन / सुप्रिया सिंह 'वीणा'
आज उसकी आत्मा ने मौन का प्रतिकार किया जब उसने मौत को करीब से देखा। क्योंकि नियती ने उसे वाणी से ही नहीं आत्मा से भी मौन कर दिया था। याद आया अपना वह उत्साही मन जब सब कुछ पा लेने की चाह में अकेली लड़की खेतो की पगडंदियो पर चलते हुए रोज़ दो कीलोमेटेर स्कूल का सफ़र तय करती थी। किंतु पंचायत के फरमान ने उसके परो को ततछन काट दिया। वह आहत हुई निराश हुई फिर भी मौन रही। अब घर का सामान और ज़मीन गिरवी रख कर उसके लिए दहेज जुटाया जा रहा था फिर आनन-फानन में ब्याह। मौन और लंबी हो गयी। माँ ने कहा बेटी अब हम तेरे लिए गैर है वह अपने। सच तो यह है कि आजतक यह समझ ही नहीं आया की कौन अपना है और कौन बेगाना। फिर शुरू हुआ अत्याचार और तिरस्कार का अंतहीन अध्याय। मन ने प्रतिकार करना छोर दिया, दिमाग़ ने सोचना। अंततः वह शिला बनी, एक जीवित प्रतिमा। पुनः उसकी जगह एक नवीन प्रतिमा लाने का उपक्रम हो रहा था इसीलिए उसे विसरजित कर दिया गया। आज अपनी दूर्दशा पर वह चीत्कार कर रही है-ग़लत! ग़लत! सब ग़लत! क्यों साहा मैने आख़िर क्यो। काश मैने समय रहते मौन की तोड़ा होता तो मेरी स्थिति कुछ और होती। अपनी दुर्गति के ज़िम्मेदार सिर्फ़ मैं हू केवल मैं क्योंकि जो अपनी सहायता स्वयं नहीं करता, कोई उसका सहयोग नहीं करता।