मौसम / एक्वेरियम / ममता व्यास
प्रकृति को प्रेम के माध्यम से ही जाना जाता है। गर नहीं होता प्रेम तो कभी नहीं आती ये अनुभूति, ये संसार तो सभी के लिए एक जैसा ही है फिर क्यों नहीं देख पाती हर नजर? जब आसमान लिखता है धरती को प्रेम-पत्र ओस की बूंद से। जब लहरें, मनाती हैं जड़ किनारों को, हम सभी किसी न किसी बहाने से मौसम का हाल जान लेते हैं और इस बहाने से दुनिया भी देख लेते हैं, लेकिन फिर भी एक सवाल रह गया अनसुलझा, सब सिखा गया कोई लेकिन ये रहस्य नहीं बताया उसने कि मौसम और मौसम के बीच बंट जाता है जो, उस मौसम को क्या कहते हैं?
अव्वल तो मौसम बदलने के बाद वह आएगा नहीं, हाँ अगर आ भी गया तो वह बदला हुआ-सा ही आयेगा, वह पहली-सी मोहब्बत नहीं लाएगा और ना ही पायेगा यहाँ आकर।
मौसम और मौसम के बीच जो बंट गया वह प्यार था। जिसे बांट दिया गया टुकड़ों में। हम सहेज नहीं सके, बचा नहीं सके. उसे धूप में जलने से, सर्दी में जमने से, बरसात में भीगने से और-और और पतझड़ में झरने से। ये मौसम होता है गंवाने का, खो देने का, अफसोस का, पछतावे का। ये वह थोड़ी न समझाएगा! ये तो ज़िन्दगी समझाएगी पल-पल है न?