म्हारी गत / हरीश बी. शर्मा
कोई भी रचनाकार आपरै समै सूं उबर नीं कसे। इण ढाळै म्हैं किंयां म्हारै सागै चालतै समै नैं अदीठो कर रचना कर सकूं ? रचना अर समै री इण जुगलबंदी सूं ‘सतोळियो’ बण्यो, जको बार-बार दड़ी मारण नैं उकसावै। जिंयां ही खोरिया नीचै पड़ै, फेर कोई सतोळियो बणाय जावै। खिंडावण अर बणावण नैं भी म्हैं अेक जुगलबंदी मानूं, जकी म्हारै मांय भी चालै। उणी तरयां जिंयां चैभाटै पर सतोळियो खेलता टींगरां बिचाळै चालै। जद-जद म्हैं म्हारै अपणापै सूं हारूं, सीधो टींगरां में जाय भिळ जाऊं। बै चावै ज्यूं करूं। कदैई बै घोड़ो बणाय टिक-टिक-टिक करै तो कदैई म्हारै सांमी आपरी बफार काढण सूं भी नीं चूकै। म्हारै कनै उणां री बातां रा जबाब नीं हुवै। जबाब नीं मिलै जद बै भी म्हनैं आप जैड़ो मान‘र टोळ में रळाय लेवै। कोई तीजो कैवै जद चेतो आवै पण तद तांई खासी देर हुयगी हुवै। सतोळिया फेर सजण लागै। म्हैं जाणूं फेर कोई दड़ी मारसी। भरोसो है कै कोई सतोळियो फेर सजावण नैं आवैलो।
औ संग्रै उणांनै, जका म्हनैं टोळ में रळा लेवै .......
हरीश बी. शर्मा