यज्ञचक्र / गीताधर्म और मार्क्सीवाद / सहजानन्द सरस्वती
गीता में यज्ञ और यज्ञचक्र की भी बात आई है। यों तो हिंदुओं की पोथियों में इस बात की चर्चा भरी पड़ी है। उपनिषदों में भी यह बात कुछ निराले ढंग से ही आई है। मगर गीता का ढंग कुछ दूसरा ही है, जो ज्यादा व्यावहारिक एवं आकर्षक है। उपनिषद् रूपक के ढंग से यज्ञ और हवन का आलंकारिक वर्णन करते हैं और धर्मशास्त्र या पुराण इन्हें स्वर्ग, नरक या मुक्ति और बैकुंठ ही लिए करने की आज्ञा देते हैं। उनने यज्ञों को पूरा धार्मिक रूप दे दिया है। फिर तो स्वर्ग-नरक की बात आई जाती है और हुक्म या आज्ञा (Order or command) की भी जरूरत होई जाती है। हाँ, मनुस्मृति में 'अग्नौप्रास्ताssहुति: सम्यगादित्यमुपतिष्ठते। आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं तत: प्रजा:' (3। 76) वचन आया है। इसमें गीता की बातों का कुछ स्थूल आभास पाया जाता है। यह श्लोक इतना तो कहता ही है कि 'यज्ञ-यागादि के समय अग्नि में जो कुछ ठीक-ठीक हवन किया जाता है वह सूर्य तक पहुँचता है, सूर्य से वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्न होता है और अन्न से प्राणियों की उत्पत्ति तथा वृद्धि होती है।'
महाभारत के शांतिपर्व के 261वें अध्याय का ग्यारहवाँ श्लोक भी ऐसा ही है। इससे इतना तो साफ होई जाता है कि उस समय लोगों का खयाल यज्ञ के संबंध में केवल स्वर्गादि तक ही सीमित न रह के समाज की व्यवस्था और उसके भरण-पोषण तक भी गया था। लोग यह मानने लगे थे कि समाज कल्याण के लिए - प्राणियों के सीधे भरण-पोषण आदि के लिए - भी यज्ञ एक जरूरी चीज है। धर्म के रूप में यज्ञ के करने से पुण्य के जरिए लोगों को अन्न-वस्त्रादि प्राप्त होंगे इस खयाल के सिवाय यह विचार भी जड़ पकड़ चुका था कि यज्ञ से सीधे ही वृष्टि में सहायता होती है और उससे अन्नादि उत्पन्न होते हैं।
बेशक, मीमांसकों ने कारीरी नामक याग के बारे में यह भी कहा है कि उसके करने से अवर्षण मिट जाता है और वृष्टि होती है - 'कारीर्या वृष्टिकामो यजेत।' मगर आमतौर से सभी यज्ञयागों के बारे में उनका ऐसा मत है नहीं। इसीलिए मनुस्मृति और शांतिपर्व के उक्त वचन उस समय के लोगों के विचारों की प्रगति के सूचक हैं। उससे पता चलता है कि किस प्रकार सामान्य रूप से पुण्यप्राप्ति, स्वर्गप्राप्ति आदि से आगे बढ़ के क्रमश: कारीरी यज्ञ के द्वारा सामान्यत: सभी यज्ञों का उपयोग समाजहित के काम में सीधे होने लगा। उपनिषदों के समय में ऋषियों ने और पीछे दार्शनिकों ने भी जो यह स्वीकार किया कि अग्नि से जल और जल से पृथिवी के द्वारा अन्नादि उत्पन्न हुए और इस प्रकार प्राणि-सृष्टि का विकास हुआ उसका भी संबंध इस यज्ञवाली प्रक्रिया से है या नहीं और अगर है तो कितना यह कहना असंभव है। यज्ञ और अग्नि का संबंध पुराने लोग अविच्छिन्न मानते थे। इसीलिए यह खयाल स्वाभाविक है कि शायद वह बात भी इसी सिलसिले में आई हो। मगर हमें तो उतने गहरे पानी में उतरना है नहीं। हम तो गीता की ही बात देखना चाहते हैं।
इससे पहले कि हम इस यज्ञ के बारे में गीता का मंतव्य या उसकी विशेषता बताएँ यह जान लेना आवश्यक है कि गीता में कहाँ-कहाँ यज्ञ का जिक्र है और किस प्रसंग में। यों तो यज्ञ के बारे में गीता का एक रुख और भाव हम बहुत पहले बता चुके हैं और कह चुके हैं कि उसमें क्या खूबी है। मगर यहाँ उसके दूसरे ही पहलू का वर्णन करना है। इस विवेचन से पहले कही गई बात पर भी काफी प्रकाश पड़ जाएगा। गीता की यह यज्ञ वाली बात जो अपना निरालापन रखती है उसे भी हम बखूबी जान सकेंगे।
गीता में तीसरे ही अध्याय से यज्ञ की बात शुरू हो के चौथे में उसका खूब विस्तार है। पाँचवें में भी यज्ञ शब्द अंत के 29वें श्लोक में आया है। सिर्फ छठे में वह पाया नहीं जाता। फिर लगातार सात, आठ, नौ, दस, ग्यारह और बारह अधयायों में यज्ञ की बात आती है। यह ठीक है कि बारहवें में यज्ञ शब्द नहीं आता। मगर तीसरे अध्याय में 'यज्ञार्थ' (3। 9) शब्द आया है और 'अहं क्रतुरहं यज्ञ:' (9। 16) में भगवान को ही यज्ञ कहा है। 'यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि' (10। 25) में भी भगवान को ही जप यज्ञ कहा है। फिर बारहवें के 10वें श्लोक में 'सत्कर्म', तथा 'मदर्थ कर्म' शब्द आए हैं। इसीलिए उसे भी जप यज्ञ ही माना है। बीच वाले 13, 14, 15 अध्यायों में यज्ञ की चर्चा नहीं है। उसके बाद 16, 17, 18 में स्थान-स्थान पर आई है। इससे स्पष्ट है कि गीता की दृष्टि से यज्ञ की महत्ता बहुत है, और है वह व्यापक चीज। गीता की खास-खास बातों में एक यह भी है।
अब जरा उसके स्वरूप का विचार करें। सबसे पहले तीसरे अध्याय के 9-16 श्लोकों को ही लें। इन आठ श्लोकों में यज्ञ और यज्ञचक्र की बात आई है। यहाँ यज्ञ का कोई भी ब्योरा नहीं दिया गया है और न उसका विशेष विश्लेषण ही किया गया है। केवल इतना ही कहा गया है कि 'जो कर्म यज्ञ के लिए हो उससे बंधन नहीं होता है, किंतु और-और कर्मों से ही' - “यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधन:” (3। 9)। इसके बाद यज्ञ को प्राणियों के लिए जरूरी और कल्याणकारी कहके 14-16 श्लोकों में एक शृंखला ऐसी बनाई है जो चक्र की तरह गोल हो जाती है और उसके बीच में यज्ञ आ जाता है। इसी को यज्ञचक्र कह के इसे निरंतर चालू रखने पर बड़ा ही जोर दिया है। 13वें तथा 16वें श्लोकों में यज्ञ न करनेवालों की सख्त शिकायत भी की गई है। यहाँ तक कह दिया है कि जो इस चक्र को निरंतर चालू न रखे वह पतित तथा गुनहगार है और उसका जीना बेकार है!
चौथे अध्याय की यह दशा है कि उसके 23-33 श्लोकों में यज्ञ का बहुत ज्यादा ब्योरा दिया गया है। इन ग्यारह श्लोकों में जो पहला - 23वाँ - है उसमें तो वही बात कही गई है जो तीसरे के 9वें में कि 'यज्ञार्थ कर्म सोलहों आना जड़-मूल से विलीन हो जाता है। फिर बंधन में कौन डालेगा?' - “यज्ञायाचरत: कर्म समग्रं प्रविलीयते।” इसके बाद यज्ञों की किस्में 24वें से शुरू होके 33वें तक बताई गई हैं। बीच के 31वें में तो यहाँ तक - साफ कह दिया है कि 'जो यज्ञ नहीं करता उसका दुनियावी काम तक तो चली नहीं सकता, परलोक की बात तो दूर रहे' - “नायं लोकोऽस्त्ययज्ञस्य कुतोऽन्य: कुरुसत्तम।” इससे एक तो यज्ञ की व्यापकता तथा समाजोपयोगिता सिद्ध होती है - यह बात पक्की हो जाती है कि वह समाज को कायम रखने के लिए अनिवार्य है। दूसरे यह कि पूर्व के सात श्लोकों में जिन यज्ञों को गिनाया है वह केवल नमूने की तौर पर ही हैं। इसीलिए 28वें श्लोक में गोल-गोल बात ही कही भी गई है कि - 'द्रव्यों से संबंध रखने वाले, तप-संबंधी, योग-संबंधी, ज्ञान-संबंधी और सद्ग्रंथसंबंधी अनेक यज्ञ हैं' - “द्रव्ययज्ञास्तपोयज्ञा योगयज्ञास्तथाऽपरे। स्वाध्यायज्ञानयज्ञाश्च यतय: संशितव्रता:।” फिर 32वें श्लोक में भी इसकी पुष्टि कर दी गई है कि 'इस प्रकार के अनेक यज्ञ वेदादि सद्ग्रंथों में बताए गए हैं और सभी के सभी क्रियात्मक या क्रियासाध्य हैं' - “एवं बहुविधा यज्ञा वितता ब्रह्मणो मुखे। कर्मजान्विद्धितान्सर्वान्।” आखिर में ज्ञानयज्ञ को और यज्ञों से उत्तम कह के इस प्रसंग को पूरा किया है। फिर ज्ञान की प्राप्ति का विचार शुरू किया है।
पाँचवें अध्याय में तो एक ही बार अंतिम - 29वें श्लोक में यज्ञ शब्द आया ही है। उसमें इतना ही कहा गया है कि परमात्मा ही यज्ञों तथा तपों को स्वीकार करने वाला एवं सभी पदार्थों का बड़ों से बड़ा शासक और नियंत्रणकर्त्ता है। लेकिन यह बात भी है कि सबों का कल्याण भी वह चाहता है - 'भोक्तारं यज्ञतपसां' आदि। यह दूसरी बात है कि चौथे अध्याय में जिस प्राणायाम को यज्ञ कहा है उसी का कुछ अधिक विवरण और तरीका इस अध्याय में दिया गया है। छठे में तो प्राणायाम की ही विधि विशेष रूप से दी गई है। फलत: इस दृष्टि से तो वह भी यज्ञ प्रतिपादक ही है।
सातवें अध्याय की यह हालत है कि उसके 20 से 23 तक के चार श्लोकों में निचले दर्जे के - जघन्य - यज्ञों का वर्णन करके अंत में कह दिया है कि जो भगवान के लिए यज्ञ करता है वही सबसे अच्छा है। यह एक अजीब-सी बात है कि जिसकी मर्जी जिस चीज में हो उसकी श्रद्धा उसी में मजबूत कर दी जाती है। यह काम खुद भगवान करते हैं ऐसी बात 'तस्यतस्याचलां श्रद्धां' (21) में साफ ही कही गई है। इसका एक मतलब तो यही है कि छोटी-छोटी चीजों में एकाग्रता होने और श्रद्धा जम जाने पर मनुष्य का अपने दिल-दिमाग पर काबू होने लगता है। इसलिए मौका पड़ने पर ऊँची चीज में भी वह उसे लगा सकता है। एकाएक वैसी चीज में लगाना असंभव होता है। इसीलिए पतंजलि ने योगसूत्रों में साफ ही कहा है कि 'यथाभिमतधयानाद्वा' (1। 39)। इसके भाष्य में व्यास ने लिखा है कि 'यदेवाभिमतं तदेव ध्यायेत्। तत्र लब्धस्थितिकमन्यत्रापि स्थितिपदं लभते' - “जिसी में मन लगे उसी का ध्यान करे। जब उसमें मन जमते-जमते स्थिर होने लगेगा तो उससे हटा के दूसरे में भी स्थिर किया जा सकता है।” दूसरी बात यह है कि धर्म तो श्रद्धा की ही चीज है, यह पहले ही कहा जा चुका है। वह न छोटा है न बड़ा, और न ऊँचा है न नीचा। वह कैसा है यह सब कुछ निर्भर करता है इस बात पर कि उसमें हमारी श्रद्धा कैसी है, हमारे दिल-दिमाग, हमारी जबान और हमारे हाथ-पाँवों में - इन चारों में - सामंजस्य कहाँ तक है और हम सच्चे तथा ईमानदार कहाँ तक हैं। इसीलिए यह सामंजस्य पूर्ण न होने के कारण ही कमअक्ल लोगों के कर्मों को तुच्छ फलवाला कहा है 'अंतवत्तु फलं तेषां तद्भवत्यल्पमेधसाम्' (7। 23)। लेकिन जिनका सामंजस्य दूसरा हो गया है उनके लिए कहा है कि वे भगवान रूप ही हैं - 'मद्भक्ता यांति मामपि' (7। 23)। इस अध्याय के अंत के 30वें श्लोक में 'अधियज्ञ' के रूप में यज्ञ का नाम लेकर प्रश्न किया है कि वह क्या है, कौन है? अधियज्ञ आदि की बात हम स्वतंत्र रूप से आगे लिखेंगे।
आठवें अध्याय के तो आरंभ में ही उसी अधियज्ञ के बारे में दूसरे ही श्लोक में प्रश्न किया गया है कि वह है कौन-सा पदार्थ? फिर इसी का उत्तर चौथे श्लोक में आया है कि भगवान ही इस शरीर के भीतर अधियज्ञ हैं - 'अधियज्ञोऽहमेवात्र देहे देहभृतां वर।' मगर इससे पूर्व के तीसरे श्लोक में कर्म किसे कहते हैं, पूर्व के इस प्रश्न का जो उत्तर दिया गया है कि 'पदार्थों के उत्पादन और पालन का कारण जो त्याग या विसर्जन है वही कर्म कहा जाता है' - “भूतभावोद्भवकरो विसर्ग: कर्मसंज्ञित:”, वह भी यज्ञ का ही निरूपण है। क्योंकि जैसा कि कह चुके हैं, तीसरे अध्याय में तो वृष्टि आदि के द्वारा यज्ञ का यही काम कहा ही गया है। इसी अध्याय के अंतिम - 28वें श्लोक में भी यज्ञ शब्द आया है। मगर उसका यही मतलब है कि यज्ञ कोई उत्तम चीज है जिसका फल बहुत ही सुंदर और रमणीय होता है। इससे ज्यादा कुछ नहीं कहा गया है।
नवें अध्याय के 15-16, तथा 20-28 श्लोकों में इस यज्ञ का विस्तार पाया जाता है। 15वें में ज्ञान-यज्ञ का ही विभिन्न रूप बता के दिखाया है कि उसके द्वारा कैसे भगवान की पूजा होती है। 16वें में भगवान को ही यज्ञ करार दे के वैदिक यज्ञ के साधन घी, अग्नि आदि को भी भगवान का ही स्वरूप कह दिया है। 20-21 श्लोकों में वैदिक सोम-यागादि का क्या परिणाम होता है और स्वर्ग पहुँच के उस यज्ञ के करने वाले फिर क्योंकर कुछी दिनों बाद लौट आते तथा जन्म लेते हैं, यह बताया गया है। 22वें में पुनरपि उसी ज्ञान-यज्ञ के महत्त्व का वर्णन है। 23-25 श्लोकों में सातवें अध्याय की ही तरह दूसरे-दूसरे देवताओं के यज्ञों की बात कह के उसमें इतना और जोड़ दिया है कि वह भी भगवान की ही पूजा है; हालाँकि जैसी चाहिए वैसी नहीं है। क्योंकि उसे करने वाले यह बात तो समझ पाते नहीं कि यह भी भगवत्पूजा ही है। इसीलिए वे चूकते हैं - उनका पतन होता है। जिस चीज में मन लगाइए वहीं पहुँचिएगा - वही बनिएगा, यही तो नियम है और वे लोग तो दूसरों में - भूत-प्रेत, पितर आदि में - ही मन लगाते हैं, उसी भावना से यज्ञ या पूजन करते हैं। फिर उन्हें भगवान कैसे मिलें? यही उनका चूकना है।
इस अध्याय के 26-28 तीन श्लोकों में जो कुछ कहा गया है वह है तो यज्ञ ही। मगर है वह बहुत बड़ी चीज। कोई भी काम, जो निश्चित कर दिया गया हो, करते रहिए। बस, वही भगवत्पूजा होती है यदि इसी भावना से वह काम किया जाए, यही अमूल्य मंतव्य इन श्लोकों में कहा गया है। कर्मों के छुटकारे के लिए खुद कर्म ही किस प्रकार साबुन का काम करते हैं, यही चीज यहाँ पाई जाती है। इन श्लोकों के सिवाय पीछे के 19वें श्लोक में भी कुछ ऐसी बात कही गई है जिससे पता चलता है कि उसमें भी यज्ञ का ही निरूपण है। भगवान को तो उससे पूर्व के 16वें श्लोक में यज्ञ कहा ही है। मगर इसमें जो यह कहा गया है कि 'मैं ही वर्षा रोकता हूँ और उसे जारी भी करता हूँ' - “अहं वर्षं निगृह्वाम्यत्सृजामि च”, उससे पता चलता है कि यज्ञ का ही उल्लेख है। क्योंकि तीसरे अध्याय में तो कही दिया है कि 'यज्ञ से ही वृष्टि होती है' - “यज्ञाद्भवति पर्जन्य:।” 'उत्सृजामि' शब्द का अर्थ है उत्सर्ग या छोड़ना - बाधा हटा देना। आठवें में जो विसर्ग कहा गया है वही है यह उत्सर्ग। यज्ञों से वृष्टि की बाधा हटके पानी बरसता है। नवें अध्याय के अंत के 34वें श्लोक में भी 'मद्याजी' शब्द मिलता है, जिसका अर्थ है 'मेरा - भगवान का - यज्ञ करनेवाला - भगवत्पूजा'। इसी श्लोक के प्राय: तीन चरण अठारहवें अध्याय के 65वें श्लोक में भी ज्यों के त्यों पाए जाते हैं। अर्थ भी यही है।
दसवें अध्याय के तो केवल 25वें श्लोक में जप यज्ञ की बात आई है। इसके बारे में हम भी इस प्रसंग के शुरू में ही कह चुके हैं। ग्यारहवें अध्याय के 'नवेदयज्ञाध्ययनैर्नदानै:' (48), तथा 'नदानेन नचेज्यया' (53) श्लोकों में यज्ञ और इज्या शब्द आए हैं। इज्या का वही अर्थ है जो यज्ञ का। यहाँ केवल यज्ञ का उल्लेख है। कोई खास बात नहीं है। बारहवें अध्याय के 10वें श्लोक में 'मदर्थ' या भगवान के लिए किए जाने वाले कर्मों का उल्लेख है और यज्ञार्थ कर्म की बात तो कही चुके हैं। इसीलिए वहाँ भी यज्ञ की ही बात है।
सोलहवें अध्याय में यज्ञ का जिक्र है केवल 15वें तथा 17वें श्लोकों में । यह बात बहुत अच्छी तरह ईश्वरवाद के प्रसंग में लिखी जा चुकी है। हाँ, सत्रहवें अध्याय में यज्ञ की बात बार-बार अनेक रूप मंव आई है। पहले और चौथे श्लोक में श्रद्धापूर्वक यज्ञादि करने और सात्त्विक यज्ञों का साधारण उल्लेख है। कोई विवरण नहीं है। हाँ, इतना कह दिया है कि कैसों की यज्ञपूजा किस प्रकार की होती है। यज्ञ के सात्त्विक आदि तीन प्रकार यजनीय और पूजनीय पदार्थों के ही हिसाब से बताए गए हैं। फिर आगे के 11-13 - तीन - श्लोकों में यज्ञ के कर्त्ता के अपने ही भावों और विचारों के अनुसार यज्ञ के वही सात्त्विक आदि तीन भेद बताए गए हैं। इसके बाद 23-25 - तीन - श्लोकों में और कुछ न कह के यज्ञादि कर्मों की त्रुटियों के पूरा करने का सीधा उपाय बताया गया है कि श्रद्धा के साथ-साथ यदि ओंतत्सत् बोल के उन्हें किया जाए तो उनमें अधूरापन रही नहीं जाता - वे सात्त्विक बन जाते हैं। यही बात 27-28 श्लोकों में भी पाई जाती है। 28वें में हुत शब्द का अर्थ यज्ञ ही है। 27वें का 'तदर्थीयकर्म' भी इसी मानी में आया है। यज्ञार्थ और तदर्थ एक ही चीज है।
अठारहवें अध्याय के 65वें के सिवाय 70वें श्लोक में भी ज्ञानयज्ञ का उल्लेख है। गीता के उपसंहार में ज्ञानयज्ञ का नाम लेना कुछ महत्त्व रखता है। पहले भी तो कही चुके हैं कि और यज्ञों से ज्ञानयज्ञ श्रेष्ठ है। वही बात यहाँ याद हो आई है। खूबी तो यह है कि उस श्लोक में गीता के पढ़नेवाले को ही कहा है कि वही ज्ञानयज्ञ के द्वारा भगवान की पूजा करता है। इस प्रकार पठन-पाठन को ज्ञानयज्ञ के भीतर डाल के गीता ने सुंदर पथ-प्रदर्शन किया है। यज्ञ का अर्थ समझने के लिए कुंजी भी दे दी है। इस अध्याय के प्रारंभ के 3, 5, 6 श्लोकों में भी यज्ञ, दान, तप इन तीन कर्मों का बार-बार उल्लेख किया है और कहा है कि ये बुनियादी कर्म हैं। इन्हें किसी भी दशा में छोड़ नहीं सकते। इस तरह यज्ञ का महत्त्व सिद्ध कर दिया है।
इतनी दूर तक गीता के यज्ञ का सामान्य तथा विशेष विचार कर लेने के बाद अब हमें मौका मिलता है कि उसकी तह में घुस के देखें कि यह क्या चीज है। तीसरे अध्याय में जो यज्ञचक्र बताया गया है वह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। उससे इस मामले पर काफी प्रकाश पड़ता है। इसलिए पहले उसे ही देखें कि उसकी हकीकत क्या है। वहाँ यह क्रम पाया जाता है कि कर्मों से यज्ञ का स्वरूप तैयार होता है, वह पूर्ण होता है - यज्ञ से वृष्टि होती है, वृष्टि से अन्न होता है, अन्न से भूतों यानी पदार्थों तथा प्राणियों का भरण-पोषण होता है और उनकी उत्पत्ति भी होती है। इस प्रकार जो एक शृंखला तैयार की गई है उसके एक सिरे पर भूत आ जाते हैं। भूत का असल तात्पर्य है ऐसे पदार्थों से जिनका अस्तित्व पाया जाए - यानी सत्ताधारी पदार्थमात्र। उसी शृंखला के दूसरे सिरे पर कर्म पाया जाता है, ऐसा खयाल हो सकता है। होना भी ऐसा ही चाहिए। क्योंकि कर्म का ही संबंध पदार्थ से मिलाना है और यही चीज गीता को अभिमत भी है। मगर इससे चक्र तैयार हो पाता नहीं। क्योंकि जब तक शृंखला के दोनों सिरे - छोर - मिल न जाएँ, जुट न जाएँ, चक्र होगा कैसे? चक्र का तो मतलब ही है कि शृंखला के भीतर वाले सभी पदार्थों का लगाव एक सिरे से रहे और कहीं भी वह लगाव टूटने न पाए। फलत: एक बार एक पदार्थ को शुरू कर दिया और वह चक्र खुद-ब-खुद चालू रहेगा। केवल शृंखला रहने पर और चक्र न होने पर यह बात नहीं हो सकती। तब तो बार-बार शृंखला की लड़ियों के किनारे पहुँच के नए सिरे से शुरू करने की बात आ जाएगी। मगर चक्र में किनारे की बात ही नहीं होती। सभी लड़ियाँ बीच में ही होती हैं।
यह ठीक है कि भूतों का तो कर्मों से ताल्लुक हई। भूतों में ही तो क्रिया पाई जाती और क्रिया से यज्ञ का संबंध हो के चक्र चालू रहता है। किनारे का सवाल भी अब नहीं उठता। यही सर्वजनसिद्ध बात है भी। मगर इसमें दो चीजों की कमी रह जाती है। एक तो यह बात निरी मशीन जैसी चीज हो जाती है। भूतों की क्रिया के पीछे कोई ज्ञान, दिमाग या पद्धति है, या कि यों ही वह क्रिया चालू है, जैसे घड़ी की सुइयों की क्रिया चालू रहती है? यह प्रश्न उठता है और इसका उत्तर जरूरी है। मगर इस चक्र में इसका उत्तर नहीं मिलता है। दूसरी बात यह है कि हमें तो अपने ही दिल-दिमाग के अनुसार कर्मों के करने का हक है, गीता का यह सिद्धांत बताया जा चुका है इस चक्र में यह बात भी साफ हो पाती नहीं और इसके बिना काम ठीक होता नहीं।
इसीलिए तीसरे अध्याय में उस शृंखला में दो लड़ें और भी जुटी हैं जो इस कमी की पूर्ति कर देती हैं। दोई कमियाँ थीं और दो लड़ें जुट गईं। वहाँ कहा गया है कि अक्षर से ब्रह्म और ब्रह्म से कर्म पैदा होता है। कर्म का तो यज्ञ के द्वारा उस शृंखला में लगाव हई। मगर प्रश्न यह होता है कि चक्र बनता है कैसे? अक्षर से शुरू करके भूतों पर खात्मा हो जाने पर मिलान तो होती नहीं। भूत और अक्षर तो दो जुदी चीजें हैं न? यह भी नहीं कि जैसे भूतों से कर्म बनते हों - उनके ही द्वारा कर्म होते हों - वैसे ही भूतों से अक्षर होता हो या बनता हो। फलत: भारी अड़चन आ जाती है। दोनों कमियों की पूर्ति कैसे हो गई यह बात तो अलग ही है - इसका भी पता नहीं चलता।
इस पहेली को सुलझाने के लिए हमें ब्रह्म और अक्षर को पहले जान लेना होगा कि ये दोनों हैं क्या। पहले ही ब्रह्म को लें। गीता में ब्रह्म शब्द तीन अर्थों में आया है। यों तो ब्रह्म शब्द का अर्थ है बृहत या बड़ा - बहुत बड़ा, सबसे बड़ा। आमतौर से ब्रह्म कहते हैं परमात्मा या भगवान को ही। उसे इसीलिए समंब्रह्म, परंब्रह्म या परब्रह्म और अक्षरब्रह्म भी कहा करते हैं। ब्रह्म शब्द गीता में कुल मिला के प्राय: तिरपन बार आया है। अध्याय और श्लोक जिनमें यह शब्द मिलता है इस तरह हैं - (2। 72), (3। 15), (4। 24, 25, 31, 32), (5। 16, 10, 19, 20, 21, 24, 25, 26), (6। 14, 28, 38, 44), (7। 29), (8। 1, 3, 11, 13, 16, 17, 24), (10। 12), (11। 15, 37), (13। 4, 12), (14। 3, 4, 26, 27), (17। 14, 23, 24), (18। 42, 50, 53, 54)। किसी-किसी श्लोक में कई-कई बार आने के कारण 50 बार से ज्यादा हो जाता है।
मगर यदि पूर्वा पर विचार किया जाए तो पता चलेगा कि पाँच ही अर्थों में यह शब्द प्रयुक्त हुआ है। परमात्मा के अर्थ में तो बार-बार आया है और सबसे ज्यादा आया है। ब्राह्मण जाति के अर्थ में केवल एक बार अठारहवें अध्याय के 42वें श्लोक में पाया जाता है। यों तो इसी ब्रह्म शब्द से बना ब्राह्मण शब्द कई बार आया है। प्रकृति या माया के अर्थ में चौदहवें अध्याय के 3, 4 श्लोकों में पाया जाता है। असल में उसके साथ महत शब्द लगा है और उसका अर्थ है महान या महत्तत्त्व। प्रकृति से जिस तत्व की उत्पत्ति वेदांत और सांख्यदर्शनों में मानी जाती है उसे ही महान, महत या महत्तत्त्व कहते हैं। तेरहवें अध्याय के 5वें श्लोक में जिसे बुद्धि कहा है वह यही महत है। यह है समष्टि या व्यापक बुद्धि, न कि जीवों की जुदा-जुदा। वहाँ जिसे अव्यक्त कहा है वही है प्रकृति और चौदहवें में उसी को ब्रह्म कहा है। सातवें अध्याय के चौथे श्लोक में भी उसे बुद्धि और अव्यक्त को अहंकार कह दिया है। वहाँ मन का अर्थ है अहंकार और अहंकार का प्रकृति अर्थ है। चौदहवें में महत शब्द के संबंध से ब्रह्म का अर्थ प्रकृति हो जाता है। प्रकृति से ही तो विस्तार या सृष्टि का पसारा शुरू होता है और सबसे पहले समष्टि बुद्धि पैदा होती है। इसीलिए प्रकृति का विशेषण महत दे दिया है। महत्तत्त्व भी तो प्रकृति से जुदा नहीं है, जैसे मिट्टी से घड़ा।
ब्रह्म शब्द का चौथा अर्थ है हिरण्यगर्भ या ब्रह्मा। उसी को अव्यक्त भी कहा है। आठवें अध्याय के 16, 17 श्लोकों में ब्रह्मा के ही अर्थ में ब्रह्म शब्द और अठारहवें में अव्यक्त शब्द आया है। ग्यारहवें अध्याय के 15वें में भी ब्रह्म शब्द का ब्रह्मा ही अर्थ है। छठे के 14वें तथा सत्रहवें अध्याय के 14वंा श्लोक में ब्रह्मचारी एवं ब्रह्मचर्यवाला ब्रह्म शब्द वेद के ही अर्थ में सर्वत्र आता है और वहाँ भी आया है। चौथे के 'ब्रह्मणोमुखे' का ब्रह्म शब्द भी वेद का ही वाचक है। इसी प्रकार छठे अध्याय के 44वें श्लोक में जो ब्रह्म शब्द है वह भी वेदार्थक ही है। उसके पूर्व में 'शब्द' शब्द लग जाने से दूसरे अर्थ की गुंजाइश वहाँ रही नहीं जाती। तीसरे अध्याय में जो यज्ञचक्र के सिलसिले में ब्रह्म शब्द आया है वह भी वेद का ही वाचक है। शेष ब्रह्म शब्द परब्रह्म या परमात्मा के ही अर्थ में आए हैं। शायद ही कहीं परमात्मा के सिवाय उक्त शेष चार अर्थों में किसी में आए हों।
असल में तो ब्रह्म शब्द के तीन ही मुख्य अर्थ गीता में पाए जाते हैं और ये हैं वेद, परमात्मा, प्रकृति। यह भी कही चुके हैं कि आमतौर से ब्रह्म का अर्थ परमात्मा ही होता है। शेष अर्थ या तो प्रसंग से जाने जाते हैं, या किसी विशेषण के फलस्वरूप। दृष्टांत के लिए प्रकृति के अर्थ में ब्रह्म शब्द का प्रयोग होने के समय प्रसंग तो हई। पर, उसी के साथ महत विशेषण भी जुटा है। यही बात वेद के अर्थ में भी है। शब्द ब्रह्म की बात अभी कही गई है। 'ब्रह्मणोमुखे' में जो ब्रह्म का अर्थ वेद होता है वह प्रसंगवश ही समझा जाता है। यज्ञों का विस्तार वेदों में ही है। उसे ही वेद का मुख कह दिया है। मुख है प्रधान अंग। इसीलिए मुख और मुख्य शब्द प्रधानार्थक हैं। वेदों के प्रधान अंशों में यज्ञों का ही विस्तार पाया जाता भी है। जिन लोगों ने यहाँ 'ब्रह्मणोमुखे' में ब्रह्म का अर्थ परमात्मा किया है उन्हें क्या कहा जाए ? यज्ञों का विस्तार वेदों में ही तो है। भगवान के मुख में विस्तार है, यह अजीब बात है। हमें आश्चर्य तो तब और होता है जब वही लोग 'त्रिविद्या मां सोमपा:' (9। 20), तथा 'त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना:' (9। 21), में खुद स्वीकार करते हैं कि त्रयी या तीनों वेदों में यज्ञयागादि का ही विशेष वर्णन है। फिर यहाँ वही अर्थ क्यों नहीं किया जाए? तीसरे अध्याय में भी ब्रह्म का विशेषण सर्वगत है। गम् धातु संस्कृत में ज्ञान के अर्थ भी प्रयुक्त होती है। इसीलिए अवगत शब्द का अर्थ है जाना हुआ। इस प्रकार सर्वगत शब्द का अर्थ है सब चीजों को जनाने या बतानेवाला। खुद वेद शब्द का अर्थ है ज्ञान। ज्ञान से ही तो सब चीजें प्रकाशित होती हैं या जानी जाती हैं। इसीलिए यहाँ अर्थ हो जाता है कि सभी बातों को अवगत कराने वाले वेदों से ही कर्म आते हैं, पैदा होते हैं या जाने जाते हैं। वेद का तो काम केवल बताना ही है न?
यह तो सभी वेदज्ञ जानते हैं कि यज्ञयागादि सभी प्रकार के कर्मों पर बहुत ज्यादा जोर वेदों ने दिया है। मीमांसा दर्शन उन्हीं वेद वाक्यों के आधार पर कर्मों का विस्तृत विवेचन करता है। श्रौत तथा स्मार्त्त सूत्रग्रंथ इन्हीं वैदिक कर्मों की विधियाँ बताते हैं। यहाँ तक कि यजुर्वेद के अंतिम - चालीसवें - अध्याय के दूसरे मंत्र में साफ ही कह दिया है कि 'कर्मों को करते रह के ही इस दुनिया में सौ साल जीने की इच्छा करे; क्योंकि मनुष्य में कर्मों का लेप न हो - वे मनुष्य को बंधन में न डालें - इसका दूसरा उपाय हई नहीं' - “कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतं समा:। एवं त्वयि नान्यथेतोऽस्ति न कर्म लिप्यते नरे॥” यह तो कही चुके हैं कि गीता ने भी कर्मों को ही उनके बंधन के धोने का साबुन बताया है। उसने इसकी तरकीब भी सुझाई है।
परंतु दरअसल ब्रह्म के दोई भेद किए गए हैं। मुंडक उपनिषद् के प्रथम खंड में ही जिसे परा एवं अपरा विद्या के रूप में 'द्वे विद्ये वेदितव्ये' कहा है, उसी चीज को सफाई के साथ महाभारत के शांतिपर्व के (231-6। 269-1) दो श्लोकों में, जो हू-ब-हू एक ही हैं, कह दिया है कि 'ब्रह्म तो दोई हैं - पर तथा अपर या शब्द ब्रह्म और परब्रह्म। जो शब्दब्रह्म में प्रवीण हो जाता है वही परब्रह्म को जान पाता है' - “द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्द ब्रह्म परं च यत्। शब्दब्रह्मणि निष्णात: परं ब्रह्माधिगच्छति॥” इन्हीं दो में से शब्द-ब्रह्म को गीता के तृतीय अध्याय में सर्वगत ब्रह्म और पर-ब्रह्म को अक्षर कहा है। आठवें (8। 3) में उसे ही अक्षरब्रह्म और परमब्रह्म भी कहा है। और भी स्थान-स्थान पर यही बात पाई जाती है।
इस प्रकार सर्वगत वेद से यदि कर्मों की जानकारी होती है तो यह शंका कि कर्मों के पीछे ज्ञान और दिमाग है या नहीं, अपने आप मिट जाती है। वेद तो ज्ञान को कहते ही हैं। इसलिए मानना पड़ता है कि यज्ञयागादि कर्म घड़ी की सुई की चाल जैसे न हो के ज्ञानपूर्वक होते हैं। इनकी व्यवस्था ही ऐसी है। इसीलिए तो जवाबदेही भी करने वालों पर आती है। अब सिर्फ दूसरी शंका रह जाती है कि लोगों को समझ-बूझ के करने की बात है या नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि किसी की प्रेरणा से विवश हो के ही कर्म करने पड़ते हैं। इसका उत्तर 'ब्रह्म अक्षर से पैदा हुआ' - "ब्रह्माक्षर समुद्भवम्" पद देते हैं। श्वेताश्वर उपनिषद् के अंतिम - छठे - अध्याय में एक मंत्र आता है कि 'जो परमात्मा सबसे पहले ब्रह्मा को पैदा करके उसे वेदों का ज्ञान कराता है' - “यो ब्रह्माण विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोत तस्मै” (6। 18)। जगह-जगह वैदिक ग्रंथों में यही बात पाई जाती है। मनु आदि ने भी यही लिखा है। ब्राह्मण ग्रंथों में भी बार-बार यही कहा गया है। इससे यह बात तो निर्विवाद है कि अविनाशी या अक्षरब्रह्म से वेद पैदा हुए। या यों कहिए कि उसने ही वेद बनाए। और जब ऐसा नहीं कह के कि परमात्मा ने कर्म बनाए, यह कहा है कि उसने वेद बनाए, तो स्पष्ट है कि हम वेदों को पढ़ के जानकारी हासिल करें और कर्मों को समझ-बूझ के करें। अगर यह कह दिया होता कि परमात्मा ने कर्म ही बनाए, तो यही खयाल होता है कि कर्म करने की उसकी आज्ञा या मर्जी है। उसमें सोचने-विचारने का प्रश्न है नहीं।
तब सवाल यह होता है कि चक्र कैसे बनेगा? भूतों का अक्षर ब्रह्म से कौन-सा संबंध है? जब तक या तो भूतों से अक्षरब्रह्म की उत्पत्ति न मानी जाए, या दोनों की एकता स्वीकार न की जाए तब तक शृंखला के दोनों छोर पृथक-पृथक रहेंगे। वे मिलेंगे हर्गिज नहीं। मगर इन दोनों में एक भी संभव नहीं। भूतों में तो सभी पदार्थ आ जाते हैं, चाहे जड़ हों या चेतन। फिर सबकी एकता ब्रह्म के साथ होगी कैसे? उनमें ब्रह्म की उत्पत्ति तो कोई भी नहीं मानता। तब यह गुत्थी सुलझे कैसे? यहाँ हमें फिर उपनिषदों की ओर देखना पड़ता है। तभी यह गाँठ सुलझेगी। गीता तो उपनिषद् हई। सभी अध्यायों के अंत में ऐसा ही कहा गया भी है।
बृहदारण्यक उपनिषद् के चतुर्थ अध्याय के पाँचवें ब्राह्मण के 11वें मंत्र में याज्ञवल्क्य एवं मैत्रेयी के संवाद के सिलसिले में याज्ञवल्क्य ने मैत्रेयी से कहा है कि 'यथाद्रैधाग्नेरभ्याहितस्य पृथग्धूमा विनिश्चिरन्त्येवं वा अरेऽस्य महतो भूतस्य नि:श्वसितमेतदृग्वेदो यजुर्वेद: सामवेदोऽथर्वांगिरस इतिहास: पुराणं विद्या उपनिषद: श्लोका: सूत्राण्यनुव्याख्यानिव्याख्यानीष्टं हुतमाशितं पायितमयं च लोक: परश्च लोक: सर्वाणि च भूतान्स्यैवैतानि सर्वाणि नि:श्वसितानि।' इसका आशय यह है कि 'जिस तरह गीले ईंधन से अग्नि का संबंध होने पर उससे चारों ओर धुआँ फैलता है, ठीक उसी तरह इस महान भूत की साँस के रूप में ही ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद, अथर्ववेद, इतिहास, पुराण, कला, उपनिषद, श्लोक, सूत्र, व्याख्यान, व्याख्यानों के व्याख्यान, हवन के पदार्थ, यज्ञ के भोज्य तथा पेय पदार्थ, यह लोक-परलोक, सभी भूत चारों ओर फैले हैं।'
यहाँ कई बातें हैं। एक तो वेदादि जितनी ज्ञान की राशियाँ हैं उनका केंद्र परमात्मा ही माना गया है। दूसरे सृष्टि के सभी पदार्थों का पसारा उसी से बताया गया है। तीसरे भूतों को भी उसी की साँस की तरह कहा गया है। यानी भूत उससे जुदा नहीं है। चौथी बात यह है और यही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण है कि उस परमात्मा को महाभूत कहा गया है। आगे के 14-15 मंत्रों में उसी को अविनाशी आत्मा कहा है, जिसका नाश कभी नहीं होता, जो पकड़ा जा सकता नहीं, जो गलता-पचता नहीं, जो सटता नहीं, जिसे व्यथा नहीं होती और जो घटता नहीं तथा सभी को जानता है - 'अविनाशी वा अरेऽयमात्माऽनुच्छित्तिधर्मा। अगृह्यो नहि गृह्यतेऽशीर्यो नहि शीर्यतेऽसंगो नहि सज्जतेऽसितो न व्यथते न रिष्यते विज्ञातारमरेकेन विजानीयात्।'
भूतों का महाभूत के साथ संबंध तो बताई दिया है कि भूत उसी महाभूत के रूप हैं। सिर्फ व्यष्टि और समष्टि का विभेद है। मगर है वह सबों की आत्मा ही। समष्टि होने के कारण ही उसे महाभूत कह दिया है। वह ज्ञान का आगार है। इसीलिए तो सबों की समझ का प्रश्न हल हो जाता है। जबर्दस्ती कोई कुछ नहीं करता। जबर्दस्ती या प्रेरणा का सवाल यहाँ हई नहीं। सभी विवेक से काम लेकर जिसे उचित समझें उसे करने को स्वतंत्र हैं। व्यष्टि और समष्टि का ताल्लुक होने से अक्षर का भूतों के साथ लगाव भी होई गया। दोनों तो एक ही ठहरे। इस प्रकार चक्र पूरा हो गया। इसी यज्ञचक्र के जारी रखने पर जोर दिया गया है।
इसमें कर्म न कह के यज्ञ कहने या इसे यज्ञचक्र बताने में खूबी यही है कि लोग यज्ञ की ओर आसानी से आकृष्ट हो जाते हैं। लोगों के दिल-दिमाग में उसका महत्त्व भरा पड़ा जो है। यह बात कर्म के संबंध में नहीं है, हालाँकि कर्मों को यज्ञ से अलग नहीं कर सकते। कर्मों से ही यज्ञ संपन्न होता है। फिर भी उसे ऊँचा स्थान मिला है। यह बात भी है कि यज्ञ के भीतर आत्मा, ईश्वर और ज्ञान भी आ जाते हैं। मगर कर्म कहने से इनका ग्रहण हो नहीं सकता है। यज्ञ को इतना व्यापक बना दिया है कि उसके भीतर सभी चीजें आ जाती हैं। समाज की वृद्धि, रक्षा और प्रगति के लिए जो कुछ भी किया जाए वह यज्ञ के भीतर आ जाता है। आत्मा को नीचे गिरने से रोकना यह बहुत बड़ा यज्ञ है। पतन से उसे बचाना आवश्यक है। सत्रहवें अध्याय के छठे श्लोक में जो आत्मा-परमात्मा के कृश करने की बात कही गई है या घसीटने की - खींचने की - उसका भी मतलब नीचे गिराने-गिरने या पतन से ही है। यह बात आसुरी कामों से होती है। इसीलिए उनकी निंदा और यज्ञ की प्रशंसा की गई है। देखिए न, दुनियावी बातों में ऐसे लोग अपनी एवं ईश्वर की कितनी झूठी कसमें खाते हैं और इस प्रकार अपने आपको तथा ईश्वर को भी कितना नीचे घसीट लाते हैं!
जैसे भूत का अर्थ है सत्ताधारी, ठीक उसी प्रकार अन्न का अर्थ है जिसे खाया-पिया जाए या जो औरों को खा-पी जाए - 'अद्यतेऽत्ति वा भूतानीत्यन्नम्।' वृष्टि या पानी की सहायता से जो भी चीजें तैयार हों या शुद्ध हों सभी अन्न के भीतर आ जाती हैं। वैदिक यज्ञादि से या वैज्ञानिक रीति से जो वृष्टि कराई जाए, नहर आदि के जरिए या कुएँ से पानी वहाँ पहुँचाया जाए जहाँ जरूरत हो, वृक्षादि की वृद्धि के जरिए वृष्टि को उत्तेजना दी जाए - क्योंकि यह मानी हुई बात है कि जंगलों की वृद्धि से पानी ज्यादा बरसता है और काट देने पर कम - या दूसरा भी जो तरीका अख्तियार किया जाए और जितनी भी वैज्ञानिक प्रक्रियाएँ सिखाई-पढ़ाई जाएँ सभी यज्ञ के भीतर आ जाती हैं। औषधियों के जरिए, स्वच्छता का खूब प्रसार करके या जैसे हो जल की शुद्धि के सभी उपाय यज्ञ ही हैं। फिर आगे जो कुछ भी जल के प्रभाव से हमारे काम के लिए - समाज के लाभ के लिए - किया जाए, बनाया जाए, - फिर चाहे वह शुद्ध हवा हो, खाद्य पदार्थ हों, जमीन हो, घर हों या दूसरी ही चीजें - सभी अन्न के भीतर आ जाती हैं। ज्ञान, ध्यान, समाधि के जरिए जो शक्ति पैदा होती है उससे क्या नहीं होता। योगसिद्धियों का पूरा वर्णन योगसूत्रों में है। इसलिए यह सब कुछ यज्ञ ही है। जो भी काम आत्मा, समाज तथा पदार्थों की सर्वांगीण उन्नति के लिए जरूरी हो उससे चूकना पाप है। यही गीता का उपदेश है, यही यज्ञचक्र का रहस्य है।