यज्ञार्थ कर्म / पहला: अन्तरंग भाग / सहजानन्द सरस्वती
वह मामूली यज्ञ से शुरू करके ही आगे बढ़ता है। यज्ञ में एक खूबी है कि इसके करने वाले को कुछ न कुछ घी, अन्न आदि का त्याग करना ही होता है। इसीलिए इसे सैक्रिफाइस (sacrifice) और कुर्बानी भी कहते हैं। इस प्रकार ऊपर उठने का काम इस त्यागबुद्धि से ही शुरू होता है और यह चीज आगे बढ़ती जाती है। गीता की यही तो खूबी है कि जो यज्ञ, कुर्बानी या सैक्रिफाइस सर्वजन प्रसिद्ध और सर्वप्रिय है और जिसमें आस्तिक-नास्तिक का भी कोई मतभेद नहीं - क्योंकि त्याग और कुर्बानी के कायल तो नास्तिक भी हैं - उसी से शुरू करके लोगों को आगे बढ़ाती है। फलत: इसमें दिक्कत नहीं होती। कर्म के गहन मार्ग को सरल बनाने का इससे सुंदर और बालबोध तरीका दूसरा हो ही नहीं सकता और जब एक बार उस चक्र में हमने पाँव दे दिया और उस लहर के भीतर पड़ गए तो फिर अंत तक, देर या अबेर से, पहुँचे बिना बीच में रुकना असंभव है। इसीलिए आमतौर से यज्ञार्थ कर्म करने की यह तीसरी सीढ़ी कर्म के सिलसिले में मानी जाती है और इसमें उस यज्ञ का कोई विश्लेषण या विवरण नहीं आता है।
लेकिन जब इस तीसरी सीढ़ी या दशा में भी कुछ प्रगति हो जाने पर खोद-विनोद शुरू हो जाती है और क्रमश: इस यज्ञ का असली महत्त्व लोगों को मालूम होने लगता है तो चसका लग जाता है, मजा आने लगता है। कुछ समय और गुजरने के बाद इनसान की समझ ऐसी होने लगती है कि वह जो कुछ करता-धरता है वह इस विराट एवं महाकाय संसार की स्थिति, वृद्धि तथा प्रगति के ही लिए हो रहा है। यहाँ तक कि वह अपने श्वास-प्रश्वास और पलक मारने तक को उसी प्रगति के लिए जरूरी एवं अनिवार्य क्रिया-कलाप का एक अंश देखता है। इस प्रकार उसका समस्त जीवन परोपकारमय बन जाता है। फिर भी यह सब कुछ होता है उस यज्ञ के ही रूप में। उसकी यह अविचल धारणा बराबर बनी रहती है कि जो महान यज्ञ संसार के कल्याण के लिए चालू है उसी की पूर्ति हमारे प्रत्येक कामों, प्रत्येक हलचलों तथा छोटी-बड़ी सभी क्रियाओं के द्वारा निरंतर हो रही है।