यथार्थवादी जादू और सर्जनात्मक अराजकता (कुमार अंबुज) / नागार्जुन
एक उक्ति का सार है कि लेखकों को अपना घर ज्वालामुखियों के किनारे बनाना चाहिए। इसकी व्यंजना और ध्वनि मुक्तिबोध के कथन के इस आशय तक भी आती है कि सच्चे लेखकों को अभिव्यक्ति के ख़तरे उठाने ही होते हैं। बीसवीं सदी की समूची हिंदी कविता में नागार्जुन ही एक मात्रा कवि हैं जो इस तरह यायावरी करते हैं कि जहां जाते हैं वहां अपना घर और अपने ज्वालामुखी साथ लेकर चलते हैं और अभिव्यक्ति के समस्त संभव ख़तरों से तो गुज़रते ही हैं। इन ख़तरों को निराला, मुक्तिबोध जैसे कवि भी उठाते हैं। नागार्जुन के सामने भी अपने समय के सभी अंतर्विरोध, अमानुषिकता और सत्ता की शक्ति के भयावह रूप उपस्थित थे, साथ ही व्यक्तिगत जीवन की कठिनाइयां। इनके बीच कविकर्म करना, एक सर्जक की तरह सक्रिय रहना, लेखक के मन में अनेक तरह की निराशाएं, भय और आशंकाएं भर सकता है, लेकिन यह देखना आश्वस्त कर सकता है कि इनके बरअक्स नागार्जुन कभी भी, किसी भी स्थिति में ‘पैरानोइया’ के लक्षणों से ग्रस्त नहीं होते। किसी तरह के अवसाद या निराशा के कोटर में नहीं बैठते। अपवाद स्वरूप भी अपना आत्मविश्वास, प्रतिरोध, प्रतिबद्धता और आशावाद नहीं छोड़ते। इस धरातल पर वे निश्चय ही छह सौ साल पुराने कबीर के साथ तुलनीय हैं, जिनके सामने अनाचार, अत्याचार, अभाव और उत्पीड़न की स्पष्ट आशंकाएं थीं लेकिन वे सर्वाधिक निडर नागरिक की तरह, विराट कवि की तरह अडिग, विवेकशील और आस्थावान बने रहे। कबीर के पास उनके आराध्य राम का, एक तरह की आध्यात्मिकता का भी संबल था लेकिन नागार्जुन सिर्फ़ और सिर्फ़ आमजन, शोषित बहुजन के संबल के सहारे ही एक अराजक सर्जनात्मकता को मुमकिन करते हैं। नागार्जुन का अध्यात्म यही जनता थी। उनकी समूची कविता में सतत् एक ऐसी अराजकता विद्यमान है जो विशिष्ट और जनोन्मुखी सर्जनात्मकता का प्रादुर्भाव करती है। एक नयी दुनिया के लिए, समानता, स्वतंत्राता, लोकतांत्रिकता और बेहतर व्यवस्था की आकांक्षा से प्रसूत यह अराजकता जगह-जगह उनकी कविता में विन्यस्त है, वैचारिक स्तर पर एवं भाषा छंद और रूप के निर्माण और उल्लंघन में भी। सत्ता की अराजकता से निबटने के लिए वे अपनी रचनाओं में उस अराजकता की निर्मिति करते हैं जो एक प्रभावी और सर्जनात्मक औजार की तरह सामने आती है। इंदु जी और मंत्रा जैसी अनेक कविताओं में इसे कहीं अधिक ज़ाहिर तौर पर देखा जा सकता है। तमाम शक्तिपीठों के विरुद्ध उनकी कविता में इस अराजकता का गहरा रचनात्मक मूल्य है लेकिन वह अकविता की शब्दावली में या किसी शून्यवाद में या तेज़-तर्रार भाषा भर में गुम नहीं हो जाती। जिन वैचारिक विचलनों या विपथ होने की 284 / नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 बात नागार्जुन के बारे में कर दी जाती है, दरअसल वह इसी अराजक सर्जनात्मकता को सही, व्यापक परिप्रेक्ष्य में न देख पाने की बदौलत भी है। उनकी कविताएं और उनका जीवन बताता है कि वे लगातार ख़ुद को डि-क्लास करते हैं। अपना प्रतिरोध भी डि-क्लास होकर दर्ज करते हैं। उनकी कविता ‘एक्टिविस्ट’ है। सक्रिय, सचेतन और आबद्ध। वह विचार, नारा, उक्ति और जीवन को एकमएक कर देती है। वह ‘समकालीनता’ की प्रामाणिक अभिव्यक्ति है जो समकालीनता के बाड़े को, उसकी परिधि को लांघ जाती है। लेकिन वह अपने समकाल को दिनांकित करती जाती है। इसलिए उनकी कविता में अपने समय की राजनैतिक और सामाजिक घटनाओं को साक्ष्य की तरह और एक रचनाकार की व्याख्या की तरह भी देखा जा सकता है। बल्कि उसे एक क्रम में रख देने से उसका एक ऐसा सामाजिक-राजनैतिक इतिहास लेखन संभव है जो सत्ता संरचनाओं के नियमित प्रतिरोध से उत्पन्न है। वे कवि की ओर से लगातार एक ‘गजट’ प्रकाशित करते जाते हैं और समकालीनता को एक जवाबदेह शक्ति में, एक विराट गतिशील रूपक और टकरावट में बदल देते हैं। वे अलसाये, अघाते, निश्चेष्ट कलावादी और आत्मदया से लबरेज कवियों में लज्जा भर सकते हैं। बीसवीं सदी के जादुई यथार्थवाद के तमाम रचनात्मक तामझाम के बीच मुझे यह विचित्रा आकर्षण और चरज का विषय लगता रहा है कि नागार्जुन ने ऐसे सीधे, अक्षुण्ण और बींधते यथार्थ को सामने रखा जिसने हिंदी कविता में नयी तरह का जादू अपनी तरह से संभव किया। यह यथार्थवादी जादू है। यह प्रगतिवादी अ ैर जनवादी जादू है। यह जनपक्षधरता, जनप्रतिबद्धता और जनसमूह के बीच खड़े रहने का, उसमें विश्वास का ादू है। यह कला और कविता का जादू है। यह अनलंकृत होने का और अभिव्यक्ति के साहस का आ र दृष्टिसंपन्नता का जादू है। यह उस भाषा का जादू है जो जनता के कारखाने में बनती है, जो महज साहित्य से साहित्य में प्रकट नहीं ोती। यह स्वाध्याय, अध्यवसाय और बहुपठित होने का और जनसंघर्षों में संलग्नता का जादू है। विषयों की दृष्टि से देखें तो नागार्जुन की कविता सर्वाधिक अप्रत्याशित, प्रतिबंधित और अ ुपयुक्त समझे जानेवाले क्षेत्रों में चली जाती है। सुअर, भुटटे, चूड़ियां, बादल, इंदिरा गा धी, नक्सलवाद, हरिजन, अकाल, ओं, जूतियां, खेत, विप्लव, बंदूकμइन कुछ शब्दों के सहारे अनुमान लगाया जा सकता है कि उनकी कविता यात्रा किस हद तक बीहड़ जनोन्मुखी और अनुपमेय थी। जबकि काव्य विषय संबंधी ये शब्द उनकी काव्यधर्मिता का दशमलब एक प्रतिशत भी नहीं। भाषा की शक्ति के दो अन्य अवयव लक्षणा और व्यंजना के उदाहरण उनकी कविता में कम नहीं हैं लेकिन उन्होंने कविता में अभिधा की ताक़त को बार-बार रेखांकित किया, उसे महत्ता दी। इस तरह उन्होंने कविता में ‘टेक् ट’ को भी महत्वपूर्ण बनाया। तत्सम, तद्भव और देशज शब्दों के ंयोग और आवाजाही से उनकी कविता सर्वाधिक संपन्न भाषा की कविता है। उनकी कविता में संप्रेषणीयता का गुण भी इन्हीं माध्यमों के ज़रिये संभव हुआ और इन्हीं वजहों से उनकी कविता एक साथ भारतीयता, स्थानीयता और जनजीवन की पर्यायवाची बन सकी है। साहित्य-संस्कृति के क्षेत्रा में राहुल सांकृत्यायन के बाद संभवतः सबसे बड़े यायावर नागार्जुन ने देश में घूम-फिरकर, जनता के बीच जाकर, घर-घर, गांव-शहर की घुमक्कड़ी से जो कुछ प्राप्त किया, उसका एक बड़ा हिस्सा अपने साहित्य में जनपक्षीय सरोकारों के साथ साकार किया। यही कारण है कि उनकी रचनाओं में दलित चेतना, स्त्राी विमर्श, अन्याय, असमानता और अधिकार संपन्नता के प्रश्न भी प्रायः नया पथ जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 285 सबसे पहले और सहज ही उपस्थित हैं। वे जनता के प्रवक्ता हैं और इसलिए जनकवि हैं। और इसलिए ही वे एक संलग्न, नाटक से भरपूर और मंत्रामुग्ध कर देनेवाला काव्यपाठ भी कर सकते थे। नागार्जुन की कविता एक अनवरत एफआईआर और मुक़दमा दायर करते चले जाने की कार्रवाई भी है। यदि प्रतिपक्ष की बेंच कवि की स्थायी जगह है तो हम देख सकते हैं कि नागार्जुन इस बेंच पर हमेशा ही पाये गये हैं। इस मामले में वे ‘विशाल प्रगतिवादी साहित्यिक संयुक्त परिवार’ के मुखिया की तरह पेश आये हैं, जिन्होंने अपने महती, आंदोलनधर्मी दायित्व से कभी मुंह नहीं मोड़ा। उन्होंने अपने समय की राजनीतिक और सामाजिक विसंगतियों पर, अंतर्विरोधों पर सबसे पहले उंगली रखी है। कविता दर कविता में इसके साक्ष्य हैं। बच्चों के शिक्षण के क्षेत्रा में काम कर रही संस्था ‘एकलव्य’ के मित्रों से बात करते हुए यह दिलचस्प पक्ष सामने आया कि ‘अकाल और उसके बाद’ सहित नागार्जुन की अन्य कुछ कविताओं को औसतन कक्षा 5 और उससे बड़ी कक्षाओं में पढ़ने वाले बच्चे बहुत रुचि से पढ़ते हैं। बच्चों को इन कविताओं में न केवल लय और संगीत नज़र आता है बल्कि उसका एक अर्थ विशेष भी उन तक सहज संप्रेषित होता है। ज़ाहिर है कि नागार्जुन की कविता उस मिथ को तोड़ती है जो कहता है कि बच्चों के लिए कविता महज गेंद, सूरज, चांद, अकड़म-बकड़म, हाथी, चींटी, तारे या रसगुल्ला के माध्यम से ही अधिक प्रासंगिक और उपयोगी है। और इस तरह पुनर्विचार करने का अवसर भी उपलब्ध कराती है कि क्या श्रेष्ठ कविता बच्चों और वयस्कों के लिए एक साथ मूल्यवान हो सकती है। यहां इस प्रसंग का उल्लेख इसलिए भी कि नागार्जुन की कविताएं अपनी विषयवस्तु, निर्वाह, निरीक्षण और संप्रेषण में उस कसौटी का निर्माण करती हैं जो जनजीवन और जनरुचि की कविता को जांचने के काम आ सकती है। उसका एक पुल भी बनाती है। हिंदी में अच्छी प्रेम कविताओं का अभाव सा है। जो अत्यल्प बेहतर कविताएं हैं, उनमें नागार्जुन की कविता ‘वह तुम थीं’ अविस्मरणीय है। ‘कर गयी चाक, तिमिर का सीना, जोत की फांक, वह तुम थीं’, इन शब्दों में मितव्ययी होने का गुण है और शब्दों से कुछ अधिक कार्यभार संपन्न करा लेना भी अविस्मरणीय है। यह कविता तथा प्रकृति के उपादानों से लिखी अन्य अनेक कविताएं हमें नागार्जुन के उस उदात्त, प्रेमिल, मानवीय और भावुक रूप का भी पता दे सकती हैं, जिसे नागार्जुन के संदर्भ में प्रायः विस्मृत सा कर दिया जाता है। कविता के पाठक के रूप में जितना वैविध्य, उठापटक, तोड़फोड़ और सर्जनात्मकता मुझे नागार्जुन के यहां मिलती है, उतनी अन्य कवियों के यहां दुर्लभ है। भाषा, रूप और शैली को लेकर भी यह विविधता दृष्टव्य है। आज जबकि अधिकांश समकालीन कविता दृष्टिहीनता का शिकार हो रही है, तब नागार्जुन के क़रीब जाना अपने मोतियांबिद को दूर करने का एक उपाय हो सकता है। साथ ही, एक कवि के लिए आवश्यक विस्मय, चुनौती और प्रेरणा, तीनों नागार्जुन के पास जाने पर मिलेंगे ही, जो उन जैसे बड़े कवियों के पास जाकर ही मिलते हैं। नागार्जुन एक बड़ी परंपरा से जुड़े हैं और एक बड़ी परंपरा बनाते हैं। मो.: 09424474678