यथार्थ का अनुभव और अनुभव का यथार्थ: पक्ष-प्रतिपक्ष / कृष्ण किशोर
इन्सान जो भी बाहर शारीरिक रूप से जीता है, वह तो Iceberg (समुद्र में तैरता बर्फ का पहाड़) का सिर्फ़ शीर्ष भाग है। सारा पहाड़ यानी यथार्थ समुद्र के नीचे होता है। एक समुचित यथार्थ को पकड़ने के लिए एक परिस्थिति या समय काफ़ी नहीं। यथार्थ की वृतात्मकता का रूप जाने किन किन समयों, प्रदेशों, मान्यताओं, परम्पराओं से होता हुआ हमारी जातीय क्षमताओं को आंकता हुआ हमारे भविष्य और संभावनाओं तक पहुंचता है। यही साहित्यिक यथार्थ का स्वरूप है। हमारे मनीषी साहित्यकारों ने स्मृति, इतिहास, स्थिति-परिस्थिति, अनुभव, ज्ञान, कल्पना और दर्शन का सहारा लिया है इसी समुचित यथार्थ को पकड़ने के लिए।
हमारी स्मृतियां हमें याद दिलाती हैं कि क्या खो गया है जिस की वजह से हमें अपना आज का यथार्थ खंडित लगता है। हमारी संवेदनाएं लगातार उस चुभन को जीवित रखती हैं। हमारी कल्पनाओं के आधार में केवल हमारे अनुभव ही नहीं, हमारी पूरी परम्पराओं और दर्शनों का विचित्र आभास छलकता रहता है। ऐसी ही कल्पनाओं से हम त्रिकाल को बान्धते हैं और एक मायावी यथार्थ को अपने केवल स्थितिजन्य खंडित यथार्थ से अलग कर के देखने की मानसिकता प्राप्त करते हैं। पूरी अनुभव परिधि का चक्र हमें यथार्थ के मूल तक पहुंचाता है।
हम यहां कहानी के इतिहास और विकास में न जाते हुए कुछ अलग अलग अनुभवों और यथार्थों की कहानियों को देखने का प्रयास करेंगे। अपने युग यथार्थ पर ज़ोर देने की प्रथा रही है। लेकिन फिर भी सभी समयों में अन्तर्युगीन कहानियों की रचना हुई है। उन का अनुभव और यथार्थ समकालीन ही बना रहता है। लेकिन अधिक रचनाएं अपने समयसत्य को ही बान्धने में अपनी शक्ति रखती हैं। दोनों तरह की रचनाएं ही अनुभव और यथार्थ के अनेकों रूपों में घटित होती हैं। ऐसी ही कुछ कहानियों के माध्यम से यथार्थ और अनुभव की धूप छांव में कुछ कदम चलेंगे।
स्मृति एक ऐसा अनुभव है जो अपने समय के यथार्थ को हमारा आज का यथार्थ बनाती है। आज के मूल्यों से टकरा कर एक मोहभंग का अनुभव रचती है। हिन्दी कहानी की वयस्क हो गई यात्रा में कितने ही पड़ाव हैं जिनकी स्मृति हमें आज की भागमभाग से निकल कर कुछ सुस्ता लेने का मोह जगाती है। लेकिन रेणु की स्मृति आज के लगभग हर यथार्थ को अपदस्थ करती हुई निस्संकोच एक मोहभंग की मनस्थिति निर्मित करती है।
इन्सान के अतीत को उस के भविष्य से अलग करके देखने की कला अभी आविष्कृत नहीं हुई है। 'रेणु' के गांव, उन के मृदंगिया और हीरामन हमारे लिए एक स्मृति मात्र नहीं हैं। आज की भागमभाग, चीज़ों की दौड़ और हर चीज़ की वासना यानी जो कुछ भी जितना ज़्यादा है, उस चीज़ की उतनी ही वासना और अधिक मन दुखाती है, जब हीरामन और मृदंगिया सरीखे सामने आते हैं।
यही स्मृति हमारे आज के यथार्थ को अतिरिक्त क्रूरता भी देती है और एक आभास रचती है अपूर्णता का। उन की स्मृति से आज के बाज़ार की व्यर्थता और क्रूर हो उठती है। मोहना को रसप्रिया सिखाने के लिए घण्टों पेड़ के नीचे बैठकर उसकी प्रतीक्षा करना अधिक सार्थक हो उठता है। रमपतिया का प्यार अपने तिरस्कार में भी पूर्णता पाता है, अपने बेटे को रसप्रिया का शुद्ध रूप सिखा कर। आज की अतृप्तियां और चुहल वासनाएं इस एक स्मृति के बराबर रख कर देखने से एक नया यथार्थ रचती हैं। और फिर शिल्प मृदंगिया को एक पल के लिए भी खारिज नहीं होने देता। प्रतीक्षा करते हुए या मोहना से बात करते हुए सारा समय, परिवेश, पूरा वातावरण और मृदंगिया का पूरा जीवन उस की स्मृति के माध्यम से हमारे सामने आता है। रमपतिया आखिरी क्षण सामने आती है तो लगता है जैसे सूरज पर से बादल हट गए। मोहना अपनी मां के विचित्र व्यवहार को देखकर चुप खड़ा रह जाता है। मुंह से गाली और आंख से आंसू निकलने का रहस्य वह बालमन नहीं समझ पाया। लेकिन अशक्त मृदंगिया ने अपने बचे खुचे दिनों की सार्थकता के आभास से भरकर मृदंग को अपने सीने से चिपका लिया होगा जैसे रमपतिया ने मृदंगिया की उंगली टेढ़ी होने पर कई दिन तक मृदंग को छाती से लगाए रखा था।
यह हमारी स्मृति में स्मृति की कहानी है। जिस भी क्रम में मृदंगिया अपनी बीती हुई ज़िन्दगी याद करता है, वह क्रम अनोखी सूत्रधारता लिए हुए है। ठीक जो जब सामने आना चाहिए, वही सामने आता है। मोहना जब भी सामने से हटता है, कितना कुछ महत्वपूर्ण उजागर होता है। मोहना जैसे मृदंगिया की कला की पूर्णता और प्रेम की अपूर्णता, दोनों का प्रतीक है। पूरे परिवेश और वातावरण में कथ्य रहता है। यह कथामुक्तता अपने आप में विरल है।
अनुभव की अनुपस्थिति का आतंक और यथार्थ का छल केवल एक दुविधा को ही जन्म नहीं देता, वह पूरे परिवेश को ही पाठक की मनस्थिति से खारिज कर देता है। कई तरह से दोनों स्थितियां बहुत दूर तक साथ चलती हैं। कभी कभी यात्रा के किसी पड़ाव पर वह दुर्घटना घटती है जहां पाठक सभी कुछ को बरख़ास्त करता हुआ अपना रास्ता लेता है और वहां से बच निकलने की संतुष्टि लेकर पीछे न देखता हुआ आगे बढ़ जाता है। रचनाएं अपना आतंक फैलाती हैं आसपास घटने वाली स्थितियों को मुखौटे पहना कर, साधारण अनुभव को साधारण न रहने देकर। हर यथार्थ में अतिरिक्त कुछ जोड़ कर, अपनी असम्बद्ध अनावश्यकताओं से। असाधारण सभी को आतंकित करता है। और जब साधारण को भी असाधारण बनाने की कोशिश की जाए तो आतंक और कुरूप हो उठता है। वास्तव में आज तक का जो भी शक्तिशाली साहित्य रहा है, उस का प्रयास असाधारण को विश्वसनीय और साधारण बना कर प्रस्तुत करने में रहा है। किसी भी लेखक की क्षमता का अन्दाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह अपनी चमत्कारिकता को समाप्त करने में सफ़ल हुआ या नहीं।
अनुभव हस्तान्तरण की प्रक्रिया में लेखक अपनी संवेदन ऊर्जा से परिचालित होता है। यह केवल अनुभव का हस्तान्तरण नहीं होता, एक पूरी जीवन दृष्टि का हस्तान्तरण होता है। एक पूरी सोच अनुभव सिक्त हो कर, तरह-तरह के भूमिगत प्रदेशों से प्रवाहित हो कर, एक मानसिकता का ठोस स्वरूप ग्रहण करती है। अपने संवाहन के साधनों को निरखती परखती है ताकि पाठक तक पहुंचने की यात्रा में कुछ दरक न जाए, कुछ पीछे न छूट जाए या फिर जो है वही न लग कर कुछ और ही लगने लगे। संवेदना और दृष्टि दो तरफ़ा आवाजाही है। दोनों एक दूसरे की जनक भी हैं और निर्देशक भी। हमारी संवेदनाएं और दृष्टि यथार्थ के स्वरूप को ठीक वैसा ही नहीं रहने देतीं। प्रतिक्रियाएं भी इसलिए भिन्न होती हैं। लेकिन स्थूल रूप में स्वीकृत बृहत सामाजिक यथार्थ का स्वरूप, जो एक समयांश की रचना है उसे पूरी तरह अस्वीकृत करने के लिए एक विशेष परिस्थिति की आवश्यकता होती है। उस विशेष परिस्थिति में एक दार्शनिक यथार्थ की रचना होती है, ऐसे दार्शनिक यथार्थ की जो अपनी अमूर्तता में ही सक्रिय होता है। एक सशक्त कलाकार के हाथों व्यक्त होकर वह एक विश्वसनीयता भी प्राप्त करता है। ऐसा ही दार्शनिक यथार्थ हमारे अपूर्व कलाकार चेख़व की कहानी 'शर्त' (The Bet) में व्यक्त हुआ है। एक मामूली सी सांसारिक परिस्थिति एकदम अस्वाभाविक बन उठती है। वास्तविकताएं फ़ैंटेसी का रूप धारण करती हैं और फ़ैंटेसी एक ऐसा मायावी यथार्थ रचती है जो हमारे आसपास के आभास को पूरी तरह निलम्बित करके एक दार्शनिक यथार्थ की रचना करती है। चेख़व की सशक्त कहानियां अनपढ़ी तो कम ही होंगी, लेकिन इस कहानी को एक बार से ज़्यादा पढ़ना ही अधिक स्वाभाविक है। इसकी कठिनाई की वजह से बिल्कुल नहीं, बल्कि इस के विपरीत आसानी से अपने अंधेरों में झांकने का अवसर देती हुई यह कहानी हर बार बहुत कुछ प्रकाशित कर जाती है। इन अन्धेरों को भी हम प्यार कर उठते हैं और उसके बाद होने वाले प्रकाश को भी अपनी बन्द आंखों पर महसूस होने देते हैं।
एक पतझड़ की अंधेरी रात में एक बैंकर व्यापारी अपने अध्ययन कक्ष में बेचैनी से घूमता हुआ 15 वर्ष पहले का दिन याद करता है। उस के घर एक पार्टी थी। जिस में ऐसे ही एक बहस छिड़ गई कि सज़ाए मौत बेहतर है या उम्र कैद। बैंकर (व्यापारी) मौत की सज़ा को बेहतर मानता है। रोज़-रोज़ मरने से एक दिन मरना बेहतर। एक युवा वकील जैसे कैसे भी ज़िन्दा रहते चले जाने को ही बेहतर मानता है। दो मिलियन (बीस लाख) की शर्त जोश में आकर व्यापारी लगा बैठा। युवा वकील ने कहा बीस लाख के लिए मैं पांच नहीं, पन्द्रह साल कैद में रहूंगा। शर्तें लिख ली गईं। युवा वकील एक अन्धेरी कोठरी में रहेगा। सिर्फ़ एक खिड़की से उसे खाना, किताबें, शराब, संगीत का सामान या जो भी वह चाहे, दिया जायेगा। व्यापारी सोच रहा था कि कल सुबह पन्द्रह वर्ष पूरे हो जाएंगे। वह अब अमीर नहीं रहा था। कर्ज़ में डूबा हुआ था। उसे याद आने लगा किस तरह वकील ने जेल में 15 वर्ष बिताए। पहला साल युवा कैदी ने भयानक अकेलेपन और डिप्रेशन में गुज़ारा। दिन रात उस की कोठरी से पियानो की आवाज़ आती थी। शराब और तम्बाकू वह नहीं लेता था। शराब पीकर किसी से न मिलना बड़ा कष्टदायक है। दूसरे साल वह सिर्फ़ क्लासिक्स पढ़ता रहा। चार साल तक। पांचवें साल फिर संगीत सुनाई दिया। और उसने शराब भी मांगनी शुरू की। जो लोग छोटी खिड़की से उसे देखते, उन्होंने बताया वह सारा दिन शराब पीता, बिस्तर पर पड़ा रहता, अपने आप से गुस्से में बतियाता, पढ़ता नहीं, रात भर कुछ लिखता रहता और सुबह उसे फाड़ देता। बहुत बार उसके रोने की आवाज़ भी सुनाई देती। छठे साल बाद उस ने भाषाएं पढ़नी शुरू की। चार वर्ष बाद व्यापारी को छः भाषाओं में लिखा हुआ ख़त मिला। दसवें वर्ष के बाद उसने धर्म की, इतिहास की, और अन्य किताबें पढ़ीं। आखिरी दो सालों में गणित, विज्ञान के इलावा बहुत से विषयों पर बहुत सी किताबें पढ़ीं। लेकिन कल सुबह पन्द्रह वर्ष पूरे हो जाएंगे। व्यापारी बरबाद हो जाएगा। उसने सोचा उस की कोठरी में जाकर उसे समाप्त कर दिया जाये। किसी को कानों कान ख़बर भी नहीं होगी। कोठरी में वह चुपचाप घुसा। उसने देखी एक कृशकाय मानव आकृति, जिसे पहचाना भी नहीं जा सकता। वह मेज़ पर सिर रखे सो रहा था। एक लिखा हुआ कागज़ मेज़ पर खुला पड़ा था। व्यापारी ने वह कागज़ उठाया, लिखा था 'कल 12 बजे मैं आज़ाद हो जाऊंगा। लेकिन अब मुझे आज़ादी नहीं चाहिए, ज़िन्दगी नहीं चाहिए, वह सब कुछ जिन्हें तुम अच्छी चीज़ें कहते हो, मुझे नहीं चाहिए। पन्द्रह साल तक मैंने इस धरती की ज़िन्दगी को देखा परखा है। किताबों में मैंने मदिरा पी, गीत गाये, जंगलों में घूमा, शिकार किये, सुन्दर औरतों से प्यार किया। पहाड़ों की ऊंचाई छुई। आंधी तूफ़ान देखे, शहर, दरिया, झीलें और समुद्र देखे। चरवाहों का मधुर संगीत सुना। शैतान और भगवान से बातें की। मैं अन्तहीन अंधेरे गड्ढों में गया, चमत्कार किये, हत्याएं कीं, शहर जलाए, नये धर्मों का प्रचार किया, प्रदेश जीते और राज्य स्थापित किये। सारे युगों का विचार तत्व मेरे मस्तिष्क में समाहित है। मैं तुम सबसे अधिक जानता हूं। तुम सब कल नहीं रहोगे। रहने लायक, पाने लायक कुछ है ही नहीं। कल समय से पहले ही मैं यहां से निकल जाऊंगा। मैं तुम्हें शर्त से आज़ाद करता हूं। ' व्यापारी ने उस कागज़ को चुपचाप मेज़ पर रख दिया और बाहर चला आया। और सुबह नौकर दौड़ता हुआ आया। कैदी गायब था। छोटी सी सुराख़नुमा खिड़की से वह बाहर फांद गया था। व्यापारी कोठरी में गया। वही लिखा हुआ कागज़ मेज़ पर पड़ा था। उसने उठा कर उसे अपनी तिजोरी में बन्द कर दिया।
यह दार्शनिक यथार्थ इस कहानी में अपनी असामान्यता को एक विस्तृत स्तर पर स्थापित करता है। आज के बाज़ारवादी यथार्थ के बराबर इसे रख कर देखना ज़रूरी हो गया लगता है। आज के यथार्थ को बदलने के लिए नहीं, सिर्फ़ उसे आईना दिखाने के लिए।
इस तरह के मानसिक यथार्थ अपनी मूर्तता और अमूर्तता में एक बाहरी और सिंहासनासीन यथार्थ के प्रतिपक्ष के रूप में सक्रिय रहते हैं। हमारी स्मृतियां, हमारा अतीत और सबसे बढ़ कर हमारा मृत्युबोध हमारे इस मानसिक प्रतिपक्ष को ज़िन्दा रखता है। हमारे लेखन में, कलाओं, दर्शनों में यह प्रतिपक्ष हमेशा जीवित रहता है। उन तमाम आकांक्षाओं, बाज़ारी वासनाओं, आपाधापियों, प्रतिद्वंद्विताओं और चकाचौंध प्राप्तियों के नीचे मोहभंग की हल्की सी रेखा खींच देता है। इसी रेखा को और गहरा करने का काम हमारा लेखन, दर्शन और लोक कलाएं अपनीअपनी तरह से करती हैं। इसीलिए सिर्फ़ बाहरी, ऊपरी यथार्थ जिसे वास्तविक यथार्थ भी कह सकते हैं - का चित्रण मात्र काफ़ी नहीं होता। उसके भीतर ही कहीं हमारी अन्तिमता का स्पर्श भी रचना में मौजूद रहना स्वाभाविक है। हर रचना एक ऐसे ही मोहभंग को जन्म देती है। कभी-कभी एक विरोध भी रचती है। जो यथार्थ के अलग अलग रूपों की समानान्तरता को तोड़ता हुआ विस्फोटक अस्वीकृतियों को जन्म देता है और अलग ही तरह की विस्मृति रचता है।
ऐसे ही प्रतिपक्ष को रचने वाले एक विस्तृत लोकमानस के चित्रकार विजयदान देथा हैं। जिन्होंने यथार्थ के कितने रूपों, कुरूपों को अपनी रचनाओं में इस तरह उतारा है कि वितृष्णाएं, मोहभंग, विरोध, अस्वीकृतियां पूरी निरंकुशता के साथ हमारा मानस उथल पुथल देती है। ऐसी सरल भाषा और दृष्टि की स्वजातीय क्रांतिकारिता आज के लेखन में विरल है।
'अनेकों हिटलर' विजयदान देथा की सहज सरल सात पृष्ठों की कहानी है। इस कहानी में हमारे बाज़ार की क्रूरता छाती पर सवार हो जाती है। तरह-तरह के छोटे बड़े शक्ति प्रतीक जो पहले विजेताओं की हिंसात्मक आकांक्षाओं में उभरते थे, आज बाज़ार में उतर आए हैं। आज यही शक्ति प्रतीक तरह-तरह से हमें मरने मारने के लिए उत्तेजित करते हैं। इस कहानी में ट्रैक्टर वह प्रतीक है जो किसान के सिर चढ़ बैठा है। ट्रैक्टर लेने के पहले वे पांचों किसान ऐसे लगते थे 'जैसे उन्होंने किसी औरत की कोख से जन्म न लेकर, धरती की कोख से जन्म लिया हो। कठील, आक, खेजड़ी और बबूल की तरह धीरे-धीरे बढ़े और फले हों। जैसे कुदरत की वन पाती ही उनकी बिरादरी हो...।' ऐसे थे ये पांचों किसान। आज़ादी के बाद खेती में खूब पैसे आने लगे थे। जेबों में नोट भर कर शहर गए थे पांचों ट्रैक्टर खरीदने। ट्रैक्टरों की एजेन्सी के मालिक ओमी जी के दफ्तर का वातावरण एक और प्रतीक है उस शक्ति का। दरवाजा उघाड़ते ही ठण्डी हवा का झोंका आया। एक बोला- 'स्वर्ग का मज़ा तो आप ले रहे हैं। हम तो जानवरों की ज़िन्दगी गुजारते हैं।'
अपनी शक्ति से संतुष्टि नहीं मिलती। दूसरे की शक्ति से तुलना करके जो दुराशा मिलती है, वही हिंसा का कारण बनती है। और बाज़ार तुलनाओं का सबसे बड़ा माध्यम। तुलाओं और तुलनाओं का निरन्तर विस्तार - हमारा बाज़ार। एक दूसरे को एक दूसरे के सामने छोटा बड़ा करता. काटता छांटता बाज़ार। सब की नज़रों में, सबके सामने हमें उठाता गिराता बाज़ार।
पांचों किसान ट्रैक्टर खरीद कर सड़क पर निकलते हैं। सब कुछ कितना अच्छा लगता है उन्हें हवा, पेड़, पंछी। सड़क, इन्सान, ट्रैक्टर। सब कुछ सुंदर। लेकिन एक बाज़ झपटा और एक खरगोश को उठा ले गया। तभी सड़क पर कुछ आगे एक साईकल सवार दिखा। साईकल सवार ने पीछे मुड़ कर देखा। पैडल और तेज़ मारने शुरू कर दिए। किसान उसकी क्षुद्रता पर हंसे। ट्रैक्टर का मुकाबला करता है मूर्ख। साईकल सवार को कुछ दिनों बाद एक मुकाबले में भाग लेना था, वह अपनी शक्ति आजमा लेना चाहता था। शुरू हो गई मुकाबले की लड़ाई। ट्रैक्टर और साईकल के इलावा अब उन्हें किसी चीज़ का ख्याल नहीं था। 'साठ हजार का ट्रैक्टर, यह दो कौड़ी का चरखा।' इस चरखे के पीछे उस की प्रियतमा का चेहरा भी था, उसकी ताकत बना हुआ। किसानों के क्रोध का ठिकाना नहीं। 'इस नंगे सिर वाले दोगले ने तो आज अपनी पगड़ियों को धूल चटा दी।' छोटे ने जुगत सुझाई 'पास आते ही ट्रैक्टर उसकी ओर घुमा देना।' और पास आते ही ट्रैक्टर उसकी ओर घूम गया। टायर ने नंगे सिर वाले का कचूमर निकाल दिया। 'मां का खसम, ट्रैक्टर से आगे निकलने की जुर्रत कर रहा था।' ट्रैक्टर रुका, एक भाई ने रम की बोतल लड़के के मुंह में डाल कर बोतल तोड़ कर पास ही फेंक दी और ट्रैक्टर आगे बढ़ गया। आगे बढ़ना ही मूल मन्त्र है। आज के यथार्थ का मूल मन्त्र। धरती की कोख से जन्मे ये किसान ट्रैक्टर पर आगे बढ़ गए। इस साधारण सी परिस्थिति से इतनी बड़ी दुर्घटना का होना एक स्तब्धता पैदा करता है। हम जहां हैं, वहीं रुक जाने की मांग करता है।
'संक्षिप्त' और 'सघन' बेमानी शब्द नहीं हैं। यहां 'संक्षिप्त' से मतलब आकार में छोटा होना नहीं है। एक निरर्थक फैलाव में शक्ति, सरलता और सहजता व्यतीत हो जाती है। कहानी की केन्द्रमुखता कहानी के यथार्थ को एक परिधि देती है जिस पर घटनाएं एक सन्तुलन बनाए रखती हैं, छिटक कर इधर उधर नहीं बिखरतीं। कहानी के नियम बदले नहीं हैं। यह कहना कि आज कहानी वैसी नहीं रही जैसी पहले थी और आज सघनता कहानी का मूल्य नहीं रहा और प्रभाव की एकाग्रता अब कहानी में नहीं ढूंढी जानी चाहिए इत्यादि, कहीं भी कहानी के बारे में विश्व में स्वीकृत मूल्य नहीं हैं। आज भी अच्छी कहानियां उसी तरह और उन्हीं वजहों से अच्छी हैं जिन वजहों से हमेशा अच्छी थीं। कथासूत्रता और दृष्टि सम्पन्नता बड़ी कहानियों का हमेशा आधार रहे हैं। दृष्टि ही समय यथार्थ से जूझती है, कथा तत्वों तथा कल्पना के सृजनात्मक सम्मिश्रण से पाठक की सहभागिता अर्जित करती है, यथार्थ के सही स्वरूप को समझने की बेचैनी पैदा करती है, ऐसी बेचैनी जिस के बाद यथार्थ के बीजसत्य तक पहुंचने की यात्रा पाठक स्वयं तय करता है। उदयप्रकाश की कहानी 'दद्दू तिवारी' ऐसी ही दृष्टि उर्जा और कथा सूत्रों के तार्किक सामांजस्य की मिसाल के तौर पर प्रस्तुत की जा सकती है। उस कहानी की विस्तार से चर्चा करने का स्थान यह नहीं है। पाठकीय विस्तार उसे पहले ही मिल चुका है। लेकिन कथा यात्रा में ऐसे पड़ावों पर थोड़ी देर रुक कर उन्हें फिर से देखना, उनका ज़िक्र करना ज़रूरी हो जाता है।
स्मृति में स्थान पाने लायक वे कहानियां कभी नहीं बनेंगी जो सहज, सरल और केन्द्रमुखी नहीं हैं, जिन का प्रभाव एकाग्रित नहीं है। स्मृति की संक्षिप्तता इतनी क्रूर भी हो सकती है कि आंखों से ओझल होते ही लगे कि उन्हें देखा ही नहीं था।
नरेन की एक छोटी सी कहानी हैं 'ब्रैंडेड शर्ट'। जिस तिस को शर्मिदंगी दिलाने के लिए काफ़ी बड़ी है यह कहानी। मदन बाबू मामूली से कर्मचारी थे, बिहार सरकार के मत्स्य विभाग में किरानी। एक सपना था उनका मुद्दत से। ऐरो ब्राँड की शर्ट खरीदने का। आखिर ब्रैंडेड शर्ट की इच्छा दुर्गा पूजा से पहले उनके मुंह से निकल ही गई जब विभाग से उन्हें बोनस मिला। पत्नी ने साहस बंधाया, बच्चों ने भी साथ दिया। सबके बढ़ावे पर मदन बाबू शर्ट खरीदने निकल ही पड़े। दो हज़ार की शर्ट। पैसे दिए, शर्ट ली और सपना पूरा। दुर्गा पूजा से पहले कई दिन वही शर्ट पहन कर घूमते रहे। उन्हें लगता, सभी उनकी शर्ट देख रहे हैं, कभी लगता, कोई नहीं देख रहा। आखिर शर्ट पहन कर मदन बाबू दफ्तर गए। सभी ने कहा, कितनी शानदार है। मदन बाबू सकुचाए, फिर इतराए। उन्होंने चाय के साथ समोसे सब के लिए मंगवाए। जब पैसे देने वे कैन्टीन के कांऊटर पर गए तो पीठ पीछे शर्मा जी को कहते सुना - 'छोटा जातिया, तेली। साला कंजड़ कहीं का। चला है अगड़ों की चाल चलने। ऐरो की शर्ट खरीदी है। पटना जंक्शन पर हनुमान मंदिर के फुटपाथ पर पैंतीस पैंतीस रुपए में ऐसी कमीज़ें थोक के भाव बिकती हैं... अमरीका, इंग्लैण्ड वाले अपनी उतरन दान में देते रहते हैं।' मदन बाबू को लगा, वे गिर पड़ेंगे। घर जाकर ऐरो की शर्ट खूंटी पर टांग दी। इस के बाद ब्रैंडेड शर्ट कभी पहनने की हिम्मत नहीं जुटा पाए।
दिखना-दिखाना तो शुरू से चलता आया है। आज शर्मिन्दगियां उन्हीं की हैं जो बाज़ार का चलन नहीं समझते। आज का यथार्थ यह भी है कि पैंतीस रुपए वाली ऐरो की शर्ट पहन कर एक गरीब आदमी दो हज़ार की ऐरो शर्ट वाले को शर्मिन्दा कर सकता है। धीरे-धीरे लोगों को बाज़ार का इस्तेमाल करना आ रहा है। और कुछ वक्त बाद स्थिति ऐसी भी आएगी कि बाज़ार नंगे हो कर मुंह बाए सड़क के दोनों ओर खड़े रहेंगे और साधारण व्यक्ति उन का तमाशा भी देखेगा और उन्हें इस्तेमाल भी करेगा। कुछ ही समय बाद बाज़ार हमारी अशक्तता का शोषण नहीं कर पाएगा। लेकिन आज की स्थिति मदन बाबू वाली है। नरेन एक सशक्त कहानीकार हैं। उनकी दूसरी बड़ी कहानियां तरह तरह के अनुभवों का यथार्थ रचती हैं। उन पर अलग से विस्तृत चर्चा की आवश्यकता है।
साम्राज्यवादी देश पूर्व उपनिवेशित देशों की गुलाम प्रवृत्तियों को ज़िन्दा रखने में ही अपनी मरी हुई विरासत और खोई हुई शक्ति को ज़िन्दा रखे हुए हैं। बाज़ारवाद भी उसी की देन है। जो साम्राज्यवादी शक्तियां हैं, उनके अपने समाजों में बाज़ार का आतंक उतना नहीं है। सिर्फ़ अपनी ज़रूरतें पूरी करने से अधिक बाज़ार वहां कुछ नहीं हैं। इस तरह की आपाधापी नहीं है। वहां एक गरीब या मध्यवर्गी परिवार यह नहीं देखता कि किस ब्रैंड का कपड़ा है या कार है। कोई भी आदमी कैसी भी कमीज़ पहन सकता है। कैसी भी कार रख सकता है। यह साम्राज्यवाद हमेशा भीतरी ज़्यादा होता है, बाहरी कम।
हमारे साधारण बाज़ारों से अलग एक वैश्विक मंडी है जो साधारण जन के जीवन का हिस्सा नहीं बनती। और इसीलिए हमारी बेख़बरियां हमें उन के प्रति एक ठण्डा रुख अपनाए रखने का माहौल ही बनाए रखती हैं। दूर दराज़ के इलाकों में, बन प्रदेशों या अन्य बीहड़ इलाकों में तरह-तरह के शोषण हमारे लिए छोटी छोटी खबरें भी नहीं बनते। आबादियों, शहरों से दूर होने के कारण उन की गोपनीयता बनी रहती है। केवल शोषक और शोषित, बस दो ही इकाईयां आमने सामने होती हैं। अपनी संपूर्ण उच्छ़ंखलताओं या विवशताओं के साथ। वहां की आर्थिक मजबूरियों और शारीरिक स्वतन्त्रता के खिलंदड़ेपन को शहरी संस्कृति सिर्फ़ एक ही तरह देखने की आदी है। शहरी जुगुप्साएं उस स्वछन्दता को एक कामुक स्वीकृति के रूप में ही देखती हैं। विरोध की स्थिति में हिंसा और शक्ति का प्रयोग शहरी संस्कृति जायज़ मानती है। उन के शोषण को कला में तरह तरह के नाम दिए जाते हैं।
पंकज मित्र ने अपनी कहानी 'चमनी गंझू की मुस्की' (अन्यथा 13) में जिस गोपनीयता और रहस्यात्मकता का वातावरण रचा है, उस में उस शोषण की चालाकियां तो उजागर होती ही हैं, साथ ही वैश्विक मण्डी का एक आकर्षक रूप भी सामने आता है। कला के अन्तर्राष्ट्रीय व्यापारी दूरदराज़, अलग थलग पड़े हुए इलाकों में ढकी छिपी, अभी तक अनखोजी सम्पदाओं को आकर्षक नामों के तहत प्रदर्शित करने, खरीदने-बेचने में इतने मस्त हैं कि उस के पीछे सत्य क्या है, सांस्कृतिक और कलात्मक सत्य क्या है, इस का कोई तथ्यात्मक प्रमाण ढूंढ ने के चक्कर में नहीं पड़ते। जहां खरीदने वालों की मण्डी है, उन्हें अपने साधारण से अलग, दूरदराज का कुछ चाहिए। सभ्य और सुसंस्कृत लोगों को कला के नाम पर कुछ चाहिए जिसे प्राचीन संस्कृति कहना उनके लिए ज़्यादा सभ्य तरीका है। तृप्तियां आखिर वर्जनाओं की अभिव्यक्ति में ही मिलती हैं। अलग नैन नक्श, अलग गठन, आवरण या अनावरण कला की जान हैं। पंकज मित्र अपनी कहानी में इसी मण्डी का यह स्वरूप उजागर करते हैं। एक नया माहौल रचने के लिए नहीं, उन भीतरी और बाहर प्रदेशों में कला का बाज़ारीकरण शक्तिसम्पन्न लोगों के लिए कितना आसान और सहज है, यह दिखाने के लिए। चमनी ऐसा चरित्र है जो अपनी स्वछन्द उत्सुकता में सब कुछ करती है, छिपे हुए कला के खजाने दिखाती है, स्वछन्दता और अपनी आर्थिक विवशता में अपना शरीर भी देती है। वैश्विक बाजार का बाहरी प्रदेशों में आकर्षण भी बनती है। और उद्देश्य पूरा हो जाने पर तिरस्कृत भी होती है। पूरी आदिवासी संस्कृति, कलाओं, शरीरों का उपयोग और तिरस्कार एक त्रासदी है जिस का चित्रण पंकज की कहानी बेजोड़ सार्थकता के साथ करती है। कहानी में दुस्साहस न शिल्प का है न भाषा का। साहस है केवल सहजता और स्पष्ट दृष्टि का। कथ्य के उपयुक्त परिवेश और वातावरण इस रचना की उपलब्धि हैं। कहानी में जंगल के भीतर इमाम हाऊस एक प्रेत प्रतीक है इस रहस्यात्मकता का और शक्ति का। पिता शिकारी और बेटा एक हताश चित्रकार। चमनी की आवाजाही दोनों के बीच बराबर। आखिर चमनी माध्यम बनी चित्रकार को पहाड़ी लोककला से परिचित कराने का। फिर क्या था। शक्ति के गर्भ में जितनी चालाकियां छिपी होती हैं, एक एक कर बाहर आईं। कला की वैश्विक मण्डी और चमनी। बेटू इमाम दोनों का दोहन करते हैं। कोहबर आर्ट, सोहराय आर्ट और कई तरह के ट्राईबल आर्ट। लोक जीवन आखिर पूरी की पूरी लोक कला है। हर छोटा मोटा तीज त्योहार, हंसना गाना, कूटना पीसना, बोना काटना सभी कुछ तो ढल जाता है लोक कलाओं में, और फिर साथ में वे सब शरीर और उन की अनुकृतियां। सभी कुछ के लिए वैश्विक संस्कृति और कला की मण्डी है। बेटू इमाम की जानकारी विस्तृत है। तीन पात्र और तीन दुनियाएं अलग अलग। एक अलग अनुभव की कहानी है - 'चमनी गंझू की मुस्की'। कहानी का नाम भी एक अनुभव है। पंकज की कहानियां पढ़ते समय ही आश्वस्त नहीं करती, यह आश्वस्ति बड़ी देर तक बनी रहती है। 'इस की ज़रूरत नहीं थी' कहकर इनकी कहानियों से कुछ भी निकालना मुश्किल होता है।
पिछले कुछ दशक संचार क्रांति के रहे हैं। औद्योगिक क्रांति के बाद जैसी आपाधापी मची थी, गांव उजड़े, शहर बनने शुरू हुए थे और बड़े पैमाने पर उथल पुथल हुई थी, उस से अलग तरह की उथल पुथल संचार क्रांति से पैदा हुई है। ज़िन्दगी में हर समय एक दबाव सा बना रहता है। नौकरी की अपेक्षाएं, एक ख़ास तरह के प्रशिक्षण की होड़, हर वक्त असमंजस की स्थिति पैदा करता है। स्थिरता और जड़ता में कोई अन्तर ही नहीं रहा। लाख, डेढ़ लाख महीना कमाने वाले युवक युवतियां प्रेत ज़िन्दगियां जीते हैं। सुबह कब जाते हैं, रात कब आते हैं, पता नहीं। छोटे शहरों और कस्बों की दुनिया भी है जहां चार पाँच हज़ार रुपये में एक बी.काम या इससे भी अधिक शिक्षित युवक-युवती काम करने वाले मिल जाएंगे। छोटे बड़े उद्योग धन्धे, बिजनेस कम्पनियां ऐसे ही युवाओं के सिर पर टिकी हुई हैं। अगर एक ख़ास तरह की शिक्षा नहीं है तो इन्हीं छोटी मोटी नौकरियों में जमे रहो, एक कम्पनी से दूसरी कम्पनी में। स्थिरता कहीं भी नहीं। घर से बसों, गाड़ियों में काम पर पहुँचो। रात घर लौटो और छोटी सी पगार पर जितने दिन हैं, बने रहो, अगले मौके की तलाश में हर वक्त बने रहो। कम्पनी वाले भी हर वक्त नए कर्मचारी की तलाश में। काम और आदमी की अदला बदली आम बात है। इस अस्थिरता का दबाव है, लेकिन आतंक इतना नहीं। हंसना बोलना, प्यार करना, शादी ब्याह, सब कुछ चलता है। जरा सी फुर्सत मिले तो उदासियां और निराशाएं मन को दबोच लेती हैं। एक निहत्थापन है जो असुरक्षा का घेरा टूटने नहीं देता। फिर भी इन युवक युवतियों के जीवन में वैसी कुंठाएं, वर्जनाएं और जुगुप्साएं नहीं हैं जो एक संकुचित समाज में होती हैं। ये अपनी अस्थिरता में भी एक मुक्तता, संतुलन और तटस्थता बनाए रखते हैं। निराशाजनक बात यह है कि चारों तरफ़ गन्दी राजनीति की तरफ़ इन युवक युवतियों का कोई ख़ास ध्यान नहीं जाता। जो हो रहा है, उसे आराम से होने देते हैं। राजनीति वालों को इन का कोई डर नहीं है। उन्हें यह आश्वस्ति है कि ये लोग विरोध का झन्डा नहीं उठाएंगे। चारों तरफ़ होते हुए अन्यायों, अत्याचारों के खिलाफ इनमें आक्रोश नहीं जागेगा। इनकी अस्थिरता, पाँच हज़ार के बाद सात हज़ार की नौकरी पाने की तलाश में ही इन्हें बांधे रखती है। आक्रोश और विरोध का स्वर वहीं है जहाँ ये चार पांच हज़ार भी नहीं हैं।
हीरो आज समाज में वैसे भी कोई नहीं। सिर्फ़ ग्लैसमर हीरो है, चाहे वो खेलों में हो, फिल्मों में हो, राजनीति में हो या बिजनेस में। और यह ग्लै मर आम आदमी की पहुँच से परे है इसलिए व्यक्ति का हीरो कोई नहीं। हमारे आस पास समाज में कोई हीरो नहीं, घर परिवार में कोई हीरो नहीं, काम की जगह कोई हीरो नहीं। सम्बन्धों में कोई हीरो नहीं। देखने के लिए आसपास सभी कुछ अपने जैसा ही साधारण सा है। अच्छा भी, बुरा भी। सुख दुःख भी, आस निरास भी, हंसी खुशी भी। असाधारण कुछ नहीं। ज़िन्दगी की क्रूर स्थितियों में भी असाधारण देखने की मनस्थिति गायब हो गई है। आँखें जैसे एक ही आकार में खुलती बन्द होती हैं। फैलती, सिकुड़ती नहीं। माथे सपाट और समतल रहते हैं। धारियां नहीं पड़ती। यह एक रूप है ज़िन्दगी का।
इन्हीं चार पाँच हज़ार कमाते, पढ़े लिखे युवक, युवतियों की कहानी है कैलाश बनवासी की 'रोज़ का एक दिन'। यह नितांत आज की कहानी है। कुछ युवक युवतियां एक साथ एक गाड़ी में रोज़ अपने घर जाते हैं। उन्हीं की एक अन्तरंग आत्मीयता की झलक की यह कहानी है। आज की इस पीढ़ी से गहरी आत्मीयता की कहानी। इनके प्रति विश्वास से भरी हुई और इन की उदासियों में शामिल। आज के पल को पकड़ती हुई। आने वाले कल के संघर्ष, अनिश्चितता और मामूली भविष्य के प्रति संवेदना की कहानी।
मनीष एक छोटी सी कम्पनी में एकाऊंट्स का काम करता है, चार हज़ार पाता है। पक्का कुछ नहीं। रोज़गाड़ी से घर जाता है। उसके साथ ही अलग-अलग जगह काम करने वाले गौतम, इकबाल, अविनाश, आदेश, वर्षा, संध्या और श्रेया भी हैं, रोज के सफर के साथी और कालेज के कुछ उच्छृंखल युवक भी। श्रेया और मनीष, अन्तरंग दोस्त या प्रेमी। मनीष का बॉस है बड़ा काईयां। रोज देर करा देता है। मनीष रोज साईकिल लेकर अन्धा-धुन्ध स्टेशन की तरफ़ भागता है। ट्रैफ़िक भी रुकावट और सुन्दर चेहरों वाले बिलबोर्डज़ भी रुकावट। इतने आकर्षक चेहरे क्या सचमुच इसी देश के हैं? डिब्बे में सब खुलते हैं अपनी-अपनी ज़िन्दगियों की छोटी मोटी झलक प्रस्तुत करने। एक दूसरे को काम भी कह सकते हैं बेझिझक होकर। आपस में विश्वास भी है। इन सबमें अच्छी सैन्स ऑफ ह्यूमर है। अविनाश की एक क्लाएन्ट से बातचीत एक बढ़िया सेल्ज़ मैनशिप का नमूना है। श्रेया और मनीष की दोस्ती बहुत मनमोहक है। अपनी अपनी स्थितियों से निपटते हुए, अपनी चिन्ताएं लेकर जब ये सब गाड़ी में बैठते हैं तो एक हंसी खुशी भरा समय गुजारते हैं। ईर्ष्या, वैमनस्य, कुटिलता कुछ नहीं। संध्या बैग से बिस्कुट निकालकर सब को देती है। मनीष सोचता है लड़कियों की इस आदत को ले कर... 'ये लड़कियों का अपना ख़ास निजी गुण है, 'लड़कीपना', जिसे ये हमेशा संभाल कर रखती हैं और जिसे ये खोना नहीं चाहतीं।' लेकिन कहानी का अन्तिम बोध वही है। वास्तविकताओं के बोध से पैदा होने वाली उदासी कहानी को भिगो जाती है। मनीष सोचता है... 'जाने क्यों लगता है कभी भी ये दृश्य बदल जायेंगे। बदले हुए दृश्य में हम ऐसे होंगे जो एक दूसरे को पहचानते तक नहीं और अजनबियों की तरह देख रहे हैं एक दूसरे को, बहुत सूखी तटस्थता से...'
और सोचता है... 'जो दिखता है, वह स्याह है, हम ऐसे ही किसी छोटी मोटी अस्थाई नौकरी में लगे होंगे...। हमारी आत्मा में एक पथरीला वीरानापन घर कर चुका होगा। और देह पर जगह-जगह उदासी के जाले दिख रहे होंगे... कि हम बूढ़े हो चुके होंगे...।'
कैलाश ने बड़े अलग-अलग अनुभवों की कहानियां रची हैं। 'बाज़ार में रामधन' मेले ठेले, बैल हाट, खेतीबाड़ी, बदलता जमाना, भाई की हठ और बैल और किसानों की भीतरी कहन सुनन की कहानी है जो सब अनहोनियों की आशंका का संकेत देती है और एक दर्द भी पैदा करती है। इस कहानी की चर्चा भी खूब हुई। 'लोहा और आग' में बंजारों की एक जलबुझ झलक का अनुभव एक पुरानी स्मृति को उकेरता है, जो उपयोगी-अनुपयोगी के अन्तर को अभी नहीं जानती। इसी तरह 'एक गाँव फुलझर' में एक और अलग अनुभव है और थोड़ा आगे का समय जब गाँवों की ज़मीनें खूब उपयोगी होने लगी कल कारखानों के लिए। 'फूलों की सुगन्ध घर्र-घर्र मशीनें उड़ा ले गईं।' इन्सान एक इतना कच्चा खिलौना कि चाहे जो तोड़ दे। लालच में हर समय टूटने को तैयार। व्यापारी धन की महिमा के चर्मोत्कर्ष के कुछ पहले का समय। अलग अलग प्रसंगों की सहज अन्तर्गामिता उनकी कहानियों में अनुभव की धार को अवरुद्ध नहीं करती। विविध अनुभवों और यथार्थ का विश्वसनीय लोक मानस कैलाश बनवासी की कहानियों में सहज उदय होता है। लोक जीवन की आस निरास और निरंतरता के सशक्त चितेरे हैं कैलाश।
इस निम्न मध्यवर्ग के नीचे भी एक स्तर है जीवन का, दरासल काफ़ी नीचे। जहाँ उदासियों का ऐश्वर्य भी नहीं है। सोचने को, महसूस करने को जितना ढोर डंगर के पास है, बस उतना ही। और हमारे देश में इन की संख्या सब से ज़्यादा है। हमारे बोझा ढोने वाले, रेढ़ी रिक्शा खींचने वाले। रोड़ी कूटने वाले, टोकरी उठाने वाले, खेत खलिहान में मजूरी करने वाले, कचरा बीनने वाले। भाग-भाग कर हुक्म बजाने वाले, होटलों-ढाबों में बर्तन मांजने वाले, मंडियों में झरिया लगाने वाले। आदमी भी, औरतें भी और बच्चे भी।
इन सब कामों में उम्र, शहर, कस्बा, गाँव किसी का दखल नहीं। प्रान्त, प्रदेश का अन्तर नहीं। कहीं कम कहीं ज़्यादा। ये सब आश्वस्त हैं कि इससे ज़्यादा उन्हें कुछ मिलेगा नहीं। कुचक्र इतना सबल है कि इन्हें आक्रोश की स्थिति में भी नहीं आने देता। कोई भी अवसर जिन की बातें सरकारें करती हैं, संस्थाएं करती हैं, इन के लिए सुनी सुनाई बातों की तरह भी नहीं। कहीं काम बदलेंगे तो पहले जैसा दूसरा भी होगा। इसलिए संतुष्ट। इनके प्रति एक विस्तृत संवेदन-हीनता हमारे समाज में है। अगर ये न हों तो किस का जीना दूभर नहीं होगा। इन का होना और अपनी जगह बने रहना हमारे समाज के लिए बहुत ज़रूरी है। किसी की ज़्यादा दुर्दशा देखो तो दो शब्द हमदर्दी उडे़ल दो, बस और क्या। संख्या में बहुत कम लोग इतनी ज़्यादा संख्या वालों को कैसे दबाए रखते हैं, ये एक भीषण अजूबा है। कुदरत का चमत्कार है, सितारों की गर्दिश है, कर्मों का फल है, ईश्वर का न्याय है, ललाट की रेखा है। और हमारी संवेदनाएं अपने सगे भाई-बन्धुओं, बाल-बच्चों, पत्नियों-प्रेमिकाओं से आगे बढ़ने में अशक्त हैं। आज़ादी इस इमारत को रंग बिरंगे पेंट से और चमकीला बना रही है।
इसी दशादिशा की कहानी है, अरविन्द अडिगा की, जिन्होंने इस वर्ष का बुकर भी जीता है। 'दि एलीफेंट' कहानी में एक कार्ट पुलर की दो रोज़ की ज़िन्दगी को हमारे सामने अरविन्द रखते हैं। चेनैय्या को एक फर्नीचर की बड़ी दुकान के आगे अपना रिक्शा गाड़ी लेकर खड़े रहना है। दुकान से एक मलयाली छोकरा निकलता है और चेनैय्या को चौंकाता है 'तुम्हारा नम्बर लग गया'। एक भारी मेज़ लादकर शहर के दूसरे कोने में एक अमीर आदमी के बंगले पर छोड़ना है। ऊंची नीची ढलान पर उचक-उचक कर पैडल मारता चेनैय्या वहां पहुँचता है। मिसेज़ इंजीनियर चार रुपए टिप देती है, एक और मांगने पर गाली। कारखाने में मज़दूरी का वायदा पाकर भी दरबान धकिया देता है, भीतर नहीं जाने देता। राजनीतिक पार्टी के कई दिन पोस्टर लगा लगा कर भी नेता से मिलने जाने पर ठंडे फर्श पर घण्टों बैठ कर बाहर निकाल दिया जाता है। आक्रोश भी मन में आता है। एक अमीर औरत के गाली देने पर उसे अपनी आरी से काट देने को आरी उठाता है। लेकिन सड़े हुए केले का छिलका उसके घर के दरवाजे़ पर लटका कर अपना आक्रोश शांत कर लेता है। सड़क किनारे सोने वाले मज़दूरों की लाईनों में हर रात एक मोटी वेश्या आती है, पैसे ज़्यादा मांगती है। एक रात किसी के साथ सोई हुई के मुंह में गाय का गोबर ठूंस देता है। वेश्या उसका हाथ काट खाती है, लेकिन वह खूब खुश होता है। एक हाथी की झुकी हुई गीली आंखें देख कर वह भाईचारा महसूस करता है। हाथी भी बोझा ढोने वाला था और वह भी। जब हाथी का भाग्य यह है तो उस की क्या किस्मत। छोटे-छोटे धारदार वर्णनों से कहानी आरी जैसी हो गई है। दाँत हैं कहानी में, काटती है ये कहानी। अपनी स्थिति को सारे संघर्ष के बाद स्वीकार करता चेनैय्या अपनी रिक्शा से पीठ लगा कर बीड़ी सुलगा कर चुप बैठ जाता है। आगे कुछ नहीं सोचता।
ऐसे ही यथार्थों का अन्तरीकरण सामान्य जीवन के प्रति जो अन्तर्दृष्टि देता है वह अकसर किसी समय और प्रदेश तक सीमित नहीं होती। लेकिन एक सीमित समय या समाज के यथार्थ का सामान्यीकरण भी उसी अन्तर्दृष्टि तक ले जाता है जो सभी मानवीय सरोकारों का स्रोत बनती है। ऐसी ही यथार्थ दृष्टि समाजवादी दर्शन का स्रोत भी बनी थी जो मानवीय पक्षधरता का सबसे स्पष्ट और मौलिक चिन्तन बना, और आज भी है।
आर्थिक, सामाजिक स्थितियां लोकतन्त्र और विज्ञान के विकास की देन अधिक है। जहाँ भी लोकतन्त्र और विज्ञान की पकड़ कमजोर है, वहाँ आज भी धर्म क्रूर और हिंसात्मक है। (चाहे वे भारत में हो या बाहर।) पहाड़ों में ऐसे प्रदेश बहुत हैं, आदिवासी क्षेत्रों में भी बहुत हैं। एक सन्तोषजनक बात है कि लोकतान्त्रिक विचार की शक्ति से कभी कभी आज उन पिछड़े हुए प्रदेशों में भी मुट्ठी भर लोग सदियों की स्थापना को चुनौती दे सकते हैं। स्थितियां बदल सकते हैं। राजनीतिक शक्तियां सबसे अधिक अवसरवादी होने के कारण एकदम करवट बदलती हैं। इसी लोकमानस और दर्पण की कहानियां, दूर दराज के इलाकों की अस्मिता और पहचान की कहानियां एस.आर हरनोट एक मुद्दत से लिख रहे हैं।
'आस्थाओं के भूत' ऐसी ही कहानी है। वही पहाड़, दूर दराज़ पहाड़ी गाँवों का इलाका। देवी के मन्दिर, पुजारी, गूर, पंच और ब्राह्मण बिरादरी एक तरफ़ और देवी के बजंतरि और दूसरे दर्जें के गूर - दूसरी तरफ़। देवी की कृपा इन दूसरे दर्जें वालों पर कभी नहीं हुई। न पक्के मकान, न स्कूल, न बिजली पानी। उन्हें वही बनना है जो उनके बाप दादा थे - 'ढोलिया, शहनाईया, नगाड़ची, करनालची।' दूसरे दर्जें की इस बजंतरिया बिरादरी में अपने स्थान की स्वीकृति पहाड़ों जैसी अटल थी। इस गाँव में भादूराम नगाड़ची और उसका पोता चुन्नी भी थे।
चुन्नी गाँव से दूर दलितों के स्कूल में पढ़ता था। उस बच्चे ने पढ़ा कि उन की देवी तो उन्हीं की जाति की दलित महिला थी जिसकी स्थापना देवी के रूप में वहां के राजा ने की थी। चुन्नी ने उस पर आधारित एक कथा भी लिख डाली जो पुरस्कृत भी हुई। देवी के रथ को छू जाने के अपराध में देवी पंचायत ने भादू को गांव से निकलने की सजा सुनाई तो बालक चुन्नी का वही साहस जाग उठा जो जनतांत्रिक विचार से पैदा होता है। चुन्नी थाने में शिकायत करता है। थाना कचहरी सब देवी का था ही। लेकिन इस बार चुनाव निकट होने की वजह से चुन्नी और उसके मास्टर वेदराम की योजना रंग लाई, पासा पलट गया। दलित महिलाएं झाडू़ लेकर मंदिर ठीक उसी समय पहुँच गई जब मंत्री जी ने पधारना था। देवी पर प्रसाद की बजाय झाड़ू चढ़ाए गए। ऐसा लगा 'जैसे राजा महाराजा की तरह संजोई हुई शक्तियां झाड़ूओं के तिनकों में जातिदंश की मार से क्षीण होती जा रही हैं।' मंदिरों, प्रथाओं, गूरों, पुजारियों, विश्वासों और उन से जुड़ी अशक्तताओं का वर्णन आसान नहीं। बिरादरी की शक्ति मंदिर के प्रांगण से अपनी देवी सत्ता किस तरह हासिल करती है और एक पूरा वर्ग निरस्त्र और अपने ही विश्वास के हाथों कितना निहत्था है, इन सब बातों की विश्वसनीयता स्थापित करना आज के माहौल में सरल नहीं।
विश्वसनीयता स्थापित करना सिर्फ़ कला का जोखिम नहीं है। अपनी संवेदना की सघनता और दृष्टि की उद्देश्यपूर्ण स्पष्टता ऐसी दूरगामी स्वीकृति पैदा करती है, पाठकों को तादातम्य की स्थिति में ले आती है। कहानी में दृश्यों और स्थितियों की अर्थवत्ता एक ऐसा धरातल निर्मित करती है जहां शहरी कस्बाई, गंवई, पहाड़ी, मैदानी सभी वातावरणों में रहने वाले पाठक एक विश्वस्त मनस्थिति में आ सकते हैं। हरनोट की कहानियों की यही शक्ति रही है। इसी कारण उनके पाठकों का क्षेत्र भी विस्तृत है। 'नदी गायब है' एक और कहानी है हरनोट की जो दूसरी ही नियति की कहानी है। यह लोकतन्त्र में अनहोनियों की गाथा है। विकास के नाम पर कुछ भी हो सकता है। रातों रात नदियां गायब हो सकती हैं। लोग बेरोजगार हो सकते हैं। और सुनवाई की जगह लाठियां और गोलियां भी लोकतंत्र की निरंकुशता का दूसरा स्वरूप है। एक कठिन स्थिति के सहज निर्वाह की और बिना किसी वैचारिक समझौते के - एक निश्चित परिणिति की कहानी है यह। हरनोट की कहानियों में लोक मानस परिस्थिति का केवल दर्पण मात्र ही नहीं रहता वह परिस्थितियों को दर्पण दिखाने वाली शक्ति भी बनता है। अलग-अलग अनुभवों का विस्तार हैं उनकी कहानियां। 'जीनकाठी और अन्य कहानियां' उनका नया संग्रह है जिसकी प्रशंसा हाल ही में जगह जगह हुई। इस संग्रह की कहानियों पर चर्चा फिर कभी।
एक आम आदमी की ज़िन्दगी का दिन-रात का संघर्ष बाज़ारवाद का संघर्ष नहीं है। भौगोलीकरण से आयातित हताशाएं भी नहीं हैं। साम्राज्यवादी शक्तियों का चुपचाप कहीं और से आया हुआ अभिशाप भी उतना नहीं हैं। हमारे अपने देश की सारी पद्धतियां अभी तक साम्राज्यवादी हैं। लोकतांत्रिक नहीं हैं। लोगों की शक्ति कहीं नहीं है। हर इन्सान एक कमज़ोर और डरा हुआ इन्सान है। आत्मविश्वास की और आत्मसम्मान की कमी में सिर झुकाए हुए उसे यह भी समझ नहीं है कि वह अभी भी एक गुलाम मानसिकता वाले देश का वासी है। लोकतंत्र क्या होता है, वहां एक साधारण जन की कितनी शक्ति होती है, इस यथार्थ को हम पकड़ नहीं पा रहे हैं।
हमारे गांव अन्यायों से सहमे हुए हैं। गरीबी तो हमेशा से थी, बल्कि अब कम हुई है। बड़ी जात वालों का अत्याचार भी कम हुआ है। लेकिन इतना आतंक, इतना दबाव, इतना खतरा कब था? कैसा तन्त्र है जिसने हमें असुरक्षित बना दिया है? पिछले दस-पन्द्रह सालों की कहानी यह नहीं है। यह जुल्म कम्प्यूटर, टी.वी. और बाज़ार का नहीं है।
जो देश पहले उपनिवेश थे, वे अभी भी अपने आज़ाद मूल्य स्थापित नहीं कर पाये हैं। वे बाहरी ग्लैमर के शिकार भी अपनी गुलाम मानसिकता के कारण जल्दी होते हैं। लोकतांत्रिक सिद्धान्तों का कार्यकारी रूप भी जनसाधारण तक नही पहुँच पाया है। यह गुलामी का मॉडल है। यह हमारा अपना ही साम्राज्यवादी स्वरूप है जिसमें ज़मींदार के कहने पर गुमाश्ते किसानों की पिटाई किया करते थे। इस अनुभव को, अपने राजनीतिक गुलामी के अनुभव को, तरह तरह से सामने लाने की ज़रूरत है। आज जो मूल्य हमारे समाज के हीरो हैं, जो छद्म हमारा यथार्थ बन कर स्थापित हो रहा है, उसकी जड़ में हमारी मूल उपनिवेशक प्रवृत्तियां हैं। वही अपनी भोगी हुई गुलामी का प्रेत है जिसे हम मरने नहीं दे रहे हैं। सारा एशिया और अफ्रीका इस का शिकार है। लैटिन अमेरिका इस प्रेत से लगभग मुक्त हो चुका है। वहां का साहित्य ज़्यादा राजनीतिक साहित्य रहा है। उपनिवेशी मानसिकता और शक्तिसूत्रों से लड़ने का बड़ा माध्यम वहां का साहित्य रहा है। व्यापक जनप्रयास और परिवर्तन की कहानियां एक बड़ा फ़लक भी देती हैं और पाठक को दृष्टि-प्रशिक्षित करने में मदद भी करती हैं। केवल भोक्तादर्शक की स्थिति से उठाकर निर्णायक की मनस्थिति में ला खड़ा करती हैं। लैटिन अमरीकी साहित्य इस तरह की रचनाओं का साहित्य रहा है।
उदाहरण के लिए एक सटीक प्रसंग प्रसिद्ध उपन्यास से भी लिया जा सकता है। गैब्रियल गर्सिया मार्केस का उपन्यास Hundred Years of Solitude एक लम्बी कथा कहता है। कई पीढ़ियों का समय एक साथ कथा में मौजूद है। सांसारिक अर्थों में यहां बहुत कुछ वास्तविक नहीं है। वास्तविक और यथार्थ उन के अतीत, परिणाम और निरन्तरता में फैला हुआ है। उसे ही अपने जादू से मार्केस त्रौकालिक बनाते हैं। मौत भी यहां इतनी दुर्दान्त नहीं जिसे हंसते खेलते बताया न जा सके। जीने की गम्भीरता हास्यास्पद हो उठती है जब उसे समय के कोष्ठों में सीमित कर दिया जाए।
उपन्यास में मैकान्दो कस्बे में औद्योगिक प्रगति का एक प्रसंग। अमरीकी कम्पनी ने उपयोगी वातावरण देखकर वहां केलों की खेती और व्यापार बड़े पैमाने पर शुरू किया था। लेकिन मज़दूरों की हालत ऐसी थी कि उन्हें शौचालय और पानी तक की सुविधाएं नहीं थीं। मज़दूरों के संगठन ने अपनी शक्ति प्रदर्शन का निश्चय किया। अपनी मांगों की लिस्ट तैयार की। लेकिन कम्पनी का प्रशासक मिस्टर ब्राउन वहां से भाग निकला। अर्जी दें किसे? आखिर मिस्टर ब्राऊन को एक वेश्याग्रह में वस्त्रहीन स्थिति में मज़दूरों के नेता घेराव करके अपनी विज्ञप्ति थमा देते हैं। कम्पनी यह सिद्ध करने के लिए कि मि. ब्राऊन तो कंपनी में कुछ है ही नहीं, उसे धोखा-धड़ी के इल्जाम में जेल भिजवा देती है। इसी मसख़रे अन्दाज़ में मार्केस इतनी गंभीर कथा कहते चलते हैं। मज़दूरों ने हड़ताल कर दी। कम्पनी ने कोर्ट में कहा, वहां कम्पनी के मज़दूर तो हैं ही नहीं, कभी कभी उन्हें दिहाड़ी पर बुलाया जाता है। पक्के मज़दूर नाम की कोई चीज़ कंपनी में नहीं है। लगभग तीन हज़ार मज़दूर प्रदर्शन के लिए रेलवे स्टेशन के पास इक्ट्ठे होते हैं। चारों तरफ़ मशीनगनें तैनात थीं। पांच मिनट का समय उन्हें बिखरने के लिए दिया जाता है। उस के बाद चौदह मशीनगनों से लगभग सब को भून दिया जाता है। अगले दिन कम्पनी की तरफ़ से अख़बारों में बयान आता है कि शांतिपूर्वक प्रदर्शन के बाद मज़दूर अपने घर लौट गए। सेना, मशीनगनों का नाम ही नहीं। ऐसा व्यापक प्रचार किया गया कि सभी कहने लगे कि कुछ हुआ ही नहीं। कोई मरा ही नहीं। रातों रात लाशों को समुद्र में फेंक दिया गया। शांतिपूर्वक हुए फैसले की दो शर्तें कम्पनी ने दिखा दीं। लेकिन इस सामूहिक संहार के बाद घनघोर बारिश शुरू हो गई। यह पूछने पर कि इन मांगों पर अमल कब होगा, कम्पनी के प्रशासक ने गंभीरता से कहा 'बारिश रुक जाने के बाद' और चार साल ग्यारह महीने, दो दिन तक बारिश होती रही।
यह वास्तविक घटना जो Banana Massacre के नाम से जानी जाती है, 1928 में वहां घटी थी। जनता को यही बताया गया था कि कुछ नहीं हुआ, कोई नहीं मरा। मार्केस अपने ख़ास साहसिक अंदाज में इस सच को इतने समय बाद सामने लाते हैं। समय को असमय करते, घटनाओं को वायविक बनाते हुए मार्केस ऐसा परिवेश रचते हैं जहां सब कुछ होकर भी न हुआ सा लगता है। लेकिन प्रभाव की तीव्रता बढ़ती है। अपने खंडित अर्थों में नहीं, अपने पूर्णार्थ में।
एक और ही अन्दाज़ में दो महादुर्घटनाओं के बाद की व्यथा कथा, सशक्त युवा कथाकार, तरुण भटनागर अपनी दो कहानियों में कहते हैं। 'मंगोलाईट' और 'हेलियोफोबिक'। मंगोलाईट तरुण की नई कहानी है (अन्यथा-13)। तिब्बत नाम का आज़ाद देश आज धरती के नक्शे पर चीन का एक छोटा सा हिस्सा है। दलाई लामा का संघर्ष तिब्बत के नाम को ज़िन्दा रखे हुए है वरना कौन परवाह करता है। लेकिन हर एक तिब्बती चाहे वह जहां भी हो, हज़ारों मील दूर रह कर भी अभी भी उन्हीं हवाओं में सांस लेता है तिब्बती हवाओं में। अन्तस में वही बर्फ से ढकी पहाड़ियां रोज सुबह उदय होती हैं। आंखों में वही रंगीन कपड़ों के तिकोने टुकड़े, गोम्पा के चारों तरफ़ लहराते नज़र आते हैं। नुनेरी और चाम्गझू के मंदिरों की छवि स्मृति में कौंधती है। मैनपाट गांव में बसे हुए तिब्बतियों की कथा कहते हुए तरुण इन सब का ज़िक्र करते हैं। छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिले का पहाड़ी गांव है मैनपाट जहां छब्बीस साल पहले ये मंगोलाईट तिब्बती आ कर बस गए थे। सुलू उन में सब से बूढ़ा है। दिन रात तिब्बत वापिस जाने की बात बड़बड़ाता है। तिब्बत में उस के बीवी बच्चे हैं, उन्हें ढूंढना है, इसी धुन में जीता है। तिब्बत वापिस जाने के विचार उसे पगलाए हुए हैं। मैनपाट गांव से कुछ नीचे एक गांव के स्कूल मास्टर की उससे दोस्ती है। गांव के कुछ लोगों की तिब्बत दर्शन जाने की बात उठती है। उस समय मास्टर को ज़िम्मेवारी निभानी पड़ती है सुलू को यह बताने की कि अब तिब्बत में उस का कोई नहीं। दस साल पहले यह सूचना एक लिस्ट में आई थी। बूढ़ा सुलू घुटनों पर गिरकर इतनी जोर से रोता है कि गांव भर के बच्चे वहां इक्ट्ठे हो जाते हैं।
ऐसी कथाएं इसलिए महत्वपूर्ण बनती हैं कि वे हमारी कहीं भी, कभी भी घट सकने वाली त्रासदियों के पीछे की राजनीतिक और साम्राज्यवादी कुटिलताओं को केवल प्रकाशित ही नहीं करती, उन्हें हमारी स्मृति में दर्ज करती हैं। और स्मृतियां विस्फोटक भी बनती हैं, दृष्टि भी देती हैं, सहज आक्रोश की मनस्थिति बनाए रखती हैं। तरुण की इससे पहले की कहानी हेलियोफ़ोबिक की चर्चा काफ़ी हुई है। वहां भी अफ़गानिस्तान के महाविनाश की झलक है। एक शरणार्थी कैंप के अत्यन्त वास्तविक चित्रणों द्वारा कही गई त्रासद गाथा। अनुभव की सहज सृजनात्मकता, तत्पर संवेदना ने इन दोनों कहानियों को यादगार कहानियां बनाया है।
अफ़गानिस्तान और तिब्बत तो रूस और चीन की साम्राज्यवादी प्रवृत्ति के शिकार हुए। लेकिन आधी से अधिक दुनिया यूरोप की साम्राज्यवादी स्थापनाओं का खामियाज़ा अभी तक भुगत रही है। सारा अफ्रीका और एशिया का अधिकांश आज भी योरोपियनों की कुटिल राजनीति के परिणामों से त्रस्त है। अफ्रीकी गृहयुद्धों में पिछले दस वर्ष में लगभग दस लाख लोग मारे गए और बीस लाख बेघर हुए। अफ्रीका का देश रवाण्डा पहले बेल्जियम का उपनिवेश था। तूत्सी और हुतू नाम की दो प्रजातियों में बंटा हुआ। तूत्सी अल्पसंख्यक थे। लेकिन बेल्जियम ने उन्हें प्रमुखता देकर हुतुओं को दबाए रखा, उन्हें बांटे रखा। रवाण्डा से जाते समय वे हुतुओं को भड़का गए कि उन्हें बहुसंख्यक होने की वजह से देश में अपनी सत्ता स्थापित करनी चाहिए। वैसे भी जनता को बांट कर रखने की नीति का यही परिणाम स्वाभाविक था। तब से अब तक लगभग दो दशकों से जो गृहयुद्ध वहां चल रहे हैं, वे दूसरे विश्वयुद्ध से भी अधिक भीषण हैं, मृतकों की संख्या और लोगों की बेघरी को देखते हुए। इनमें यूरोप और अमेरिका की शक्तियां प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भाग लेती रही हैं। कांगो और रवाण्डा तो लगभग हर समय ज्वालामुखी के कगार पर हैं। 2003 में संधि के बाद कुछ शांति है। लेकिन स्थिति हर समय विस्फोटक तो बनी ही रहती है। रवाण्डा की एक कहानी है - 2006 में लिखी हुई, उवेम अकपान की 'My Parent's Bedroom।' शिल्प की सघनता और कथ्य की एकनिष्ठता की मिसाल है यह कहानी। यह प्रतिष्ठित पत्रिका 'न्यूयार्कर' के जून, 2006 अंक में प्रकाशित हुई थी। (यह सूचना केवल इसलिए कि जो पाठक पढ़ना चाहें, उसे नेट पर पढ़ सकते हैं) शब्दों में कही जाने लायक न होने पर भी इस भयावहता को अकपान ने ऐसे व्यक्त किया है जैसे इस कथा को कह जाने में ही मुक्ति हो, एक प्रेत से मुक्ति। ऐसी घटना को व्यक्त करने के लिए जिस स्तब्धता की आवश्यकता है, वही उवेम अकपान पैदा करते हैं, अपने शब्दों से। तीन दृश्य, एक प्रसंग, एक चार सदस्यीय परिवार, पगलाई भीड़ और छतों में छिपे हुए ज़ख्मी लोगों के शरीर से रिसती रक्त की लकीरें दीवारों पर। हुतू और तूत्सी लोग एक दूसरे को ख़त्म करने पर उतारू। समाज ऐसा कि जिसमें हुतू पति है तो पत्नी तूत्सी या पति तूत्सी तो पत्नी हुतू। लेकिन हुतू लोगों का कबीलाई प्रण कि देश में एक भी तूत्सी नहीं बचेगा। भीड़ का सांझा उन्माद। हुतू संख्या में बहुत ज़्यादा हैं, इसलिए कर सकते हैं ऐसा। एक भी तूत्सी इस शहर में नहीं बचेगा। दस साल की बच्ची मोनीक और उस का ढाई तीन वर्ष का भाई जीन। बत्तियां मत जलाना और भाई का ख्याल रखना - कह कर मां खूब अच्छे कपड़े पहन कर घर से रात को निकल जाती है - कह जाती है कि लोग आएं तो कहना कि तुम उन्हीं में से एक हो। मां तूत्सी है, बाप हुतू। मोनीक के चाचा की पत्नी भी तूत्सी थी। आठ महीने का गर्भ था उसे। पिछली रात चाचा ने सब की उपस्थिति में कुल्हाड़ी से अपनी पत्नी को काट गिराया था, तूत्सी पत्नी को। मोनीक के पिता को भी आज रात यही करना था, अपनी पत्नी के साथ। रात भीड़ आई घर में, चाचा के साथ। घर में दो बच्चे थे सिर्फ़, भीड़ क्रोधित। एक मोटे आदमी ने मोनीक पर चढ़ कर उस का अंडरवियर और मन चिथड़े कर दिया। इस से ज़्यादा वह कुछ नहीं कर पाया। 'भाग गए कायर, कहते हुए भीड़ वापिस चली गई। मोनीक का पिता पत्नी को बहुत प्यार करता है। लेकिन भीड़ के लिए उसे काट फेंकना है। रात गए दोनों घर आए। पत्नी को प्रतीक्षा है कि कब चाचा लोगों को ले कर आएगा। सारे माहौल और बच्चों को अनदेखा करती हुई मां, इन्तज़ार में है। पिता पत्थर भी है और भीतर उफनता हुआ लावा भी। 'तुम घर क्यों वापिस आईं? कल रात जहां छिपी थी, वहीं रहती'। पत्नी सिर्फ़ इतना कह पाई कि 'वे लोग बच्चों को काट फेंकते।'
अपनी मृत्यु की निश्चिता में उस क्षण की प्रतीक्षा, अपने पति-प्रेमी के हाथों, अपने बच्चों के सामने, भीड़ के सामने। ऐसी स्थिति को आंकना, कहना किसी भावुकता की मांग नहीं करता। कला की मांग करता है जो ऐसी स्थिति को चुपचाप आकर गुज़र जाने दे और उस के बाद की रिक्तता को भी बना रहने दे, जो ऐसी घटनाओं के बाद बनी रहती है। भीड़ आती है। पति के हाथ में कुल्हाड़ी थमा देती है। घटना के बाद विक्षिप्त होकर मोनीक बाहर भाग जाती है। सुबह के रक्तिम प्रकाश में ढाई तीन साल का जीन गाढ़े रक्त से सने घास में खेल रहा है। पिता और बहन का, मां का उसे कुछ पता नहीं।
पूरे देश और समाज की निराशा, हताशा, आक्रोश कभी कभी एक ही व्यक्ति की चेतना में पुंजीभूत हो जाता है। एक ही व्यक्ति का अन्तस मानचित्र बन जाता है सारी घटनाओं, दुर्घटनाओं का और त्रासदियों का भी। यह सब कुछ अचानक नहीं होता। बचपन, किशोरावस्था और यौवन के सारे सपने, प्रभाव-कुप्रभाव, घर का वातावरण, मां बाप, दादा परदादा, एक मानसिकि रचते हैं और व्यक्ति अपनी अन्तरिमताओं में जीने लगता है। कभी सन्तुलित व्यावहारिक चेतना में तो कभी ऐसी विक्षिप्तावस्था में जहां दुराशाएं और मोहभंग चलचित्रों की तरह सामने आते हैं। वह कोई सत्य जैसा सत्य, वास्तविकता जैसी वास्तविकता नहीं होती। उस में बाहरी संसार का कोई दखल नहीं होता। उस व्यक्ति का अवचेतन अपना संसार रचता है, जिस में बाहर भी उसे अपना ही भीतरी संसार नज़र आने लगता है। वही वास्तविक हो उठता है। यह दो स्थितियों में संभव है। एक असाधारण मानसिक दबाव की स्थिति में, दूसरा हैल्यूसिनेशन्स वाले मानसिक रोग की स्थिति में। एक अत्यांतिक स्वप्नशीलता ठोस भौतिक व्यवहारों में बदल कर बिल्कुल स्वाभाविक आचरण जैसी लगती है, लेकिन वास्तव में उस से ज़्यादा अस्वाभाविक कुछ नहीं होता। वह मात्र स्थितियां होती हैं। उस इन्सान की भीतरी दुनिया उन स्थितियों में उजागर होती रहती है।
रवि बुले की लम्बी कहानी 'यूं न होता, तो क्या होता' का मुख्य मात्र शिवमंगल पांडे ऐसा ही चरित्र है। अपने दादा की पहलवानी, पिता की देशसेवा, गांधी संजोग, देश की स्थितियां, एमरजैंसी, नसबन्दी, पाकिस्तान से युद्ध, आज के नेताओं के भ्रष्टाचार, देश के आदर्श महान नेता नेहरू, गांधी, सुभाष, अम्बेडकर और न जाने कौन कौन, सच्ची देशभक्ति की तीव्र भावना, ब्रह्मचर्य का व्रत इत्यादि पांडे जी की चेतना में हर समय सांय सांय करती हवा की तरह का वातावरण बनाए रखते हैं। उन की मिलिटरी में जाकर देश भक्ति दिखाने की उत्कट इच्छा पूरी नहीं होती, पहलवानी में एक तर्जनी टेढ़ी होने के कारण। वे टैस्ट में 'डिसमिस' हो जाते हैं। यह 'डिसमिस पांडे' उन के भीतर कहीं चिपक गया। मां की मृत्यु के बाद पांडे जी अपने पिता की तलाश में भटकते हैं जो गांधी जी के मरने के बाद गायब होकर साधु बन गये थे। ऐसी अफवाह थी। पांडे जी ने कभी पिता को देखा नहीं था। देहरादून में एक साधु मिलता है। उन्हें लगता है यही मेरे पिता हैं। लेकिन वे साधुवेष में सुभाष बोस निकले। उन की भी मृत्यु हो जाती है। वे पांडे जी को एक जयहिन्द वाला बिल्ला जाते हुए दे जाते हैं। यह बिल्ला अन्त तक पांडे जी के पास रहा। आखिर वे भटकते हुए मुम्बई पहुंच गये। वहां एक बिल्डिंग में सिक्योरटी गार्ड की नौकरी कर ली। कैन्टीन में खाना बनाने वाली सखू ने उन का ब्रह्मचर्य व्रत खंडित किया। उन्हें मुम्बई में फिल्मों का शौक पड़ गया था। मंगल पांडे देखने के बाद वे स्वयं शिव मंगल पांडे से सीधे मंगल पांडे हो गये थे। कायाकल्प हो गई थी। देशभक्ति उन के सिर पर हमेशा सवार रही। उसी से ओत प्रोत होकर वे तरह तरह के हैल्यूसिनेशनस की अवस्था में पहुंच जाते थे। उन्हें, जलूस दिखाई देते थे, युद्धों के मैदान, गोलियां चलती हुई, लोग नारे लगाते हुए तथा ऐसे ही बहुत से दृश्य अकसर वे देखते थे। भ्रष्टाचारी नेताओं को गालियां देते थे। खुद को हीरो बना हुआ देखते थे।
सपनों में हंसते रोते थे। गांधी बाबा दिखते थे। अपने पिता दिखते थे। एक शाम सोमनाथ चटर्जी के बयान पर पांडे बहुत ताव में थे। सब सालों नेताओं को चटर्जी बाबू ने सीधा कर दिया। खूब जोश में थे पांडे जी। शराब भी खूब पी ली थी। उसी रात बिलंड़िग की छत पर चढ़ कर गोलियां चलाने लगे, बड बड़ाने लगे। पुलिस आई, पांडे जी को पांच गोलियां लगीं और उन के स्वप्न, दिवास्वप्न, देशभक्ति, हताशा, सब समाप्त।
ऐसी कथा कहने के लिए भाषा की एक ख़ास मानसिकि चाहिए। किसी भी रचना में भाषा का साक्ष्य बहुत महत्वपूर्ण होता है। भाषा घटनाओं की साक्षी बन रचना में आती है, घटनाओं को प्रमाणित करती हुई सी लगती है। विश्वसनीयता का बड़ा आधार बनती है। कथ्य और उस में समाहित जिज्ञासाओं को एक तरलता और स्पष्टता से आगे बढ़ाती है, उसे अवरुद्ध होने से रोकती है। पाठक को अनुकूल मनस्थिति में लाती हुई, उसकी संवेदनाओं को तत्परता प्रदान करती है। स्थितियों और विचारों को एक दृश्यता देती है। अच्छी रचनाओं में भाषा का यही जादू बोलता है। रवि बुले भी अपनी भाषा में उसी दक्षता का परिचय देते हैं। कहीं कहीं खूब मसखरी भी करते हैं। खूब प्रिय मसखरी। रवि बुले की कहानियों में भाषा का तर्क और तारतम्य बना रहता है।
लम्बी कहानियां अकसर प्रसंगों की आंख मिचौनी का शिकार हो जाती हैं। कभी कभी एक प्रसंग पूरा ओझल हो जाता है। दूसरा ही प्रसंग शुरू हो जाता है। कट कट की आवाज़ आने लगती है। प्रसंग एक से अधिक तो होंगे ही लम्बी कहानियों में, लेकिन ओझल होने पर भी अच्छी कहानी में सब प्रसंग हमारी स्मृति में दुबक कर बैठ कर जाते हैं लेकिन उन की अनुगूंज बनी रहती है। इन परोक्ष अनुगूंजों के बिना दूसरे प्रसंग और ही किसी कहानी का आभास देने लगते हैं। सुशिल्पित कहानियों में सभी प्रसंग एक परस्परात्मक निरीक्षण की स्थिति में रहते हैं, हमेशा एक दूसरे की तरफ़ देखते हुए। इसी परस्परात्मकता में रचना की दृष्टि भी धरातल के एकदम नीचे प्रवाहित होती रहती है। रवि की इस कहानी में प्रसंगों की समय में आवाजाही बोधगम्य है और दृष्टि स्पष्ट। लेखक कहानी में लिपिक की हैसियत से आता है, रचना में प्रवेश करता है। सिलसिला दो एक बार टूटता सा लगता है लेकिन ध्यान देने पर लगता है कि पाण्डे जैसे चरित्र की मनस्थिति के अंकन में एक निश्चित सिलसिला अस्वाभाविक ही होता। पांडे आसानी से भूलने वाला चरित्र नहीं है। कहानी में राजनीतिक माहौल और इतिहास के दंश को पाठक देर तक महसूस करता है।
जब भी कोई पाठक पढ़ने के लिए कुछ उठाता है, उसकी अपेक्षा क्या होती है, किस आशा से वह लिखित माध्यम में प्रवेश करता है, इसका उत्तर आज इतना आसान नहीं रह गया। कुछ ही समय पहले तक माध्यम सीमित थे और उस से भी पहले, उत्तर स्पष्ट थे। लिखित माध्यम अपने अधिक दूरगामी उद्देश्यों के साथ हमेशा ही दूसरे माध्यमों के लिए चुनौती रहा है। आज भी वही चुनौती मौजूद है हालांकि लगता ऐसा है कि दूसरे माध्यमों ने लिखित माध्यम को पीछे धकेल दिया है। कुछ ख़ास उद्देश्यों और तत्कालिक परिणामों को देख कर ऐसा लगता है। लेकिन प्रभाव की स्थिरता, गंभीरता, दूरगामिता, चिन्तन ऊर्जा और दृष्टि स्पष्टता की विशिष्टता आज भी लिखित शब्द की परम्परा का हिस्सा है और लेखकीय उत्तरदायित्व का साहसिक सांस्कृतिक रूप भी। जाने-अजाने पाठक एक ऐसी दुनिया में प्रवेश करता है जहां वह आरम्भ में स्वयं को मौजूद पाने की बजाये किसी दूसरे के अनुभव संसार में प्रवेश करने की सोच रहा होता है। लेकिन जल्दी ही, सारी रचना पर वह स्वयं ही छाने लगता है। और लेखक को अपनी चालक स्थिति से बरखास्त कर देता है। देखते-देखते वह रचना का नियन्ता बन बैठता है। रचना का प्रभाव उस की मानसिक पद्धति के अनुसार स्वीकार या अस्वीकार होता चला जाता है। कांट छांट कर रचना पाठकीय अनुभव को विस्तार देती हुई उसी के विस्तार का हिस्सा बन जाती है। समय, स्थान, स्थितियां, परिचय, अपरिचय, सब कुछ स्थगित या स्थानांतरित होता चला जाता है।
आज का पाठक किसी बनी बनाई मूल्य सत्ता, किसी जातिगत अनुभव, किसी धार्मिक लोक नीति से आतंकित नहीं है, न ही अपना विलय वह इसमें देखता है। चारों तरफ़ नायक ही नायक उसे बौना नहीं बनाते। इतिहास भी अमर नहीं है आज। वह भी पाठक के समानान्तर समय और मूल्यांकन में ही अपना अस्तित्व ग्रहण करता है। उसी रूप में आज पाठक हर लेखन को देखता है। अपने ही अनुभव और विचार जगत की परिधि से निकलते हुए आज पाठक अपनी सत्ता पहचानता है। नितान्त निजी अनुभव या विचार या इतिहास कह कर आज कुछ भी देखने सुनने को उसे मजबूर नहीं किया जा सकता। केवल रचना की शक्ति ही एक ऐसा संवर्धित वातावरण पैदा कर सकती है जिससे एक पाठकीय दृष्टि जन्म लेती है। इस तरह हर रचना अपना समीक्षक भी तैयार करती है।
(मई 2009)