यथार्थ / खलील जिब्रान / सुकेश साहनी
(अनुवाद :सुकेश साहनी)
मेज पर रखे शराब-भरे प्याले के चारों ओर चार कवि बैठे थे।
पहले कवि ने कहा, "अपनी तीसरी आँख से देखते हुए मुझे लगता है-इस शराब की खुशबू पूरे आकाश पर उसी तरह मंडरा रही है जैसे पक्षियों का बादल मंत्र-मुग्ध जंगल पर।"
दूसरे कवि ने सिर उठाकर कहा, "अपने भीतरी कान से मैं उन पक्षियों के गीत सुन सकता हूँ। उनका मधुर संगीत मेरे दिल को उसी तरह बांध लेता है जैसे सफेद गुलाब मधुमक्खी को अपनी पंखुड़ियों में कैद कर लेता है।"
तीसरे कवि ने अपनी आँखें बंद कर लीं और ऊपर की ओर हाथ फैलाते हुए कहा, "मैं उन्हें हाथ से छू सकता हूँ, उनके पंख-अंगुलियों पर ऐसे महसूस होते हैं जैसे किसी सोती हुई अप्सरा की साँसें।"
तभी चैथे कवि ने आगे बढ़कर प्याला उठा लिया और बोला, "बस करो-मित्रो! मैं इन बातों से ऊब गया हूँ। मुझे शराब की सुगन्ध दिखाई नहीं देती, न ही इसका संगीत सुनाई देता है और न ही इसके पंखों की थिरकन महसूस होती है। मुझे तो सिर्फ़ शराब दिखाई दे रही है। अतः मुझे इसे पी लेना चाहिए ताकि मेरी इंद्रियाँ भी पैनी हो जाएँ और मैं भी आप लोगों जितनी आनन्दमयी ऊँचाइयों तक उठ सकूँ।"
उसने प्याला होठों से लगाया और शराब की आखिरी बूँद तक पी गया।
दोनों कवि भौंचक्के हो उसे देखे जा रहे थे। उनकी आँखों में उसकी सोच को लेकर गहरी शत्रुता वाले भाव थे।