यथावत / से.रा. यात्री

Gadya Kosh से
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उसे देखकर यह विश्‍वास करना कठिन था कि वह किसी दफ्तर में बाबू हो सकता है। देह इतनी दुर्बल थी गोया उसे वर्षों से भरपेट भोजन न मिला हो। हाथ पैर दरख्‍त की पतली टहनियों के मानिंद थे। दाढ़ी कभी दस-बारह दिन से पहले नहीं कट पाती थी। सिर पर यों तो घले बाल थे पर उनमें तीन-चौ‍थाई से भी ज्यादा सफेद थे और कंघी फेरने की तो जैसे कभी नौबत ही नहीं आ पाती थी। कभी-कभी उसे शौक चर्राता था तो उन्‍हें मेहंदी से रंग जरूर लेता था पर उससे भी उसकी उम्र घट नहीं पाती थी। यह कहना ज्‍यादा सही होगा कि उसकी वास्‍तविक उम्र का कोई अंदाज नहीं हो पाता था।

जाड़े, गर्मी, बरसात सभी मौसमों में टखनों तक चढ़ी खाकी पतलून और चिथड़ा सरीखी शर्ट उसका स्‍थाई लिबास था। पांवों में सस्‍ती चप्‍पलें घसीटते हुए वह दांत निपोरते सामने आता था तो मन में अजीब-सी वितृष्‍णा भर उठती थी।

आजादी ने हमें और कुछ दिया हो या न दिया हो पर यह छूट अवश्‍य दे दी है कि हम फटीचर से फटीचर हालत में दफ्तर की कुर्सी पर जाकर पसर जावें। विभागीय सहयोगी अथवा बॉस जरा भी टोके तो हम उसकी बखिया उधेड़ने के लिए पूर्ण स्‍वतंत्र हैं। यह तो मैंने कई को कहते सुना है कि अच्‍छे कपड़े-लत्ते पहन लेने से कौन हमारी पदोन्‍नति होने जा रही है।

साफ और पारदर्शी आंखों में कितना आकर्षण होता है यह बात उस यानी भटनागर की पीली-पीली कीचड़-भरी आंखों को सरसरी तौर पर देखने से ही समझ में आ जाती थी। उसके ऊपरले जबड़े के बिल्‍कुल बीच वाले चार दांत भी किसी हादसे की भेंट चढ़ चुके थे। हमारे बीच में यह एक ऐसी अजीबो-गरीब हस्‍ती थी जो चलते हुए हांफती थी और ठहर कर सांसें लेते हुए आहें भरती थी।

उसकी रंगीन मिजाजी को लेकर बहुत-सी किंवदंतियां सुनी जाती थीं जिनमें सर्वाधिक चमत्‍कार पूर्ण यह थी कि उस छछूंदर किस्‍म के किरानी की दो पत्नियां थीं और उन दोनों से बेपनाह बच्‍चे थे। हम लोग कल्‍पना करते डरते थे कि वह कहां और किस दड़बे में यतीमों की तरह गुजर बसर करता होगा।

एक-दो बार मैंने यह भी देखा कि वह विद्यालय के प्‍लेग्राउण्‍ड में सबसे नजरें चुराता अलग-थलग बैठा है और उसकी बगल में एक सूखी-सड़ी चीमड़ औरत कोई पोटली-सी खोले बैठी है।

होते-होते नौबत यहां तक आ पहुंची कि उसकी दयनीयता सबकी नजरों में बेचैनी पैदा करने लगी। बहुत-से लोगों की आत्‍मा में कुछ न कुछ किए जाने की पुकार भी जोर मारने लगी। सोचा गया कि वह गरीब सिर-फोड़ महंगाई के जमाने में करे भी तो क्‍या करे। कुल साढ़े पांच सौ रुपये माहवार कट-कटाकर पगार के नाम पर उसे मिलते थे। जो हर तरह से अपर्याप्‍त ही अपर्याप्‍त थे पर शिक्षा विभाग तो हमारे अनुरोध पर उसकी तनखा बढ़ाने वाला नहीं था।

शायद अध्‍यापक बिरादरी आत्‍मा की पुकार को अनसुना कर ही जाती पर जब वह एक-एक करके सभी अध्‍यापकों के द्वार खटखटाने लगा और हर सुबह, सामने खड़ी सुरसामुखी विपत्तियों का करूण कातर विवरण पेश करने लगा तो एक अजब मुश्किल पैदा हो गई। ठीक है, अध्‍यापकों को क्‍लर्कों से कुछ ज्‍यादा पगार मिलती है, पर इतनी ज्‍यादा भी नहीं कि हर सुबह किसी मजलूम के‍ लिए दानखाता खोल दिया जाए।

भटनागर के गिरते-पड़ते हालात से हम लोगों के बीच अनाम ढंग से एक जागृति की लहर दौड़ गई। हमने अपना कर्त्तव्‍य समझने की चेष्‍टा की। हमने सहानुभूतिपूर्वक सोचा कि वह हमारी प्रतिष्ठित शिक्षा संस्‍था का एक कर्मचारी है और इस नाते हमारा सहयोगी है। सहयोगी के लिए कुछ-न-कुछ किया ही जाना चाहिए।

'कुछ करने' और 'कुछ होने' की ऊहा-पोह में कई महीने खिसक गए और शीतकाल का अगला सत्र शुरू होने की नौबत आ गई।

हड़कंप पैदा करने वाली ठंड में उसे फटे कुर्ते और पैबंद लगी पतलून में विद्यालय आते देखकर कुछ सहयोगियों को दिल संभालना मुश्किल पड़ गया। शहर में मकान न मिलने की वजह से भटनागर तीन मील दूर देहात से बहुत तड़के चलकर दस बजे तक विद्यालय पहुंच पाता था।

उसकी दीन दशा पर विचार करने के लिए एक दोपहर गुनगुनी धूप मे कुर्सियां डालकर बैठक शुरू हुई। समस्‍या पर विचार प्रारंभ हुआ कि भटनागर लिपिक की दिनों-दिन गिरती हालत में कैसे सुधार हो।

सारी दुनिया जानती है कि उच्‍च शिक्षित जन के बीच कोई भी समस्‍या चाहे वह 'अत्‍यावश्‍यक' हो अथवा 'संकट-कालीन' उसका हल जल्‍दी नहीं निकल पाता और बहस मुबाहिसे में असली मुद्दा बहुत पीछे छूट जाता है। भटनागर की समस्‍या को लेकर भी यही कुछ हुआ। अध्‍यापकों ने पहले वर्तमान स्थितियों को चिंता का विषय बनाया और कार्य के अनुकूल पारिश्रमिक न मिलने को अमानवीय और घृणास्‍पद ठहराया। अनेक महापुरूषों और अर्थशास्त्रियों के सिद्धांतों के उद्धरण प्रस्‍तुत किए। समान कर्म के लिए पूरे देश में समान वेतन लागू किए जाने का आंदोलन चलाने की इच्‍छा व्‍यक्‍त की।

पुराने और सयाने अध्‍यापकों को मत था कि असमानता सृष्टि के आरंभ से ही चली आ रही है। यह एक ऐसा सनातन सत्‍य है जिसमें आने वाले वक्‍तों में भी कोई उल्‍लेखनीय परिवर्तन नहीं होगा। यह मनुष्‍य का भग्‍य निश्चित करता है कि उसे क्‍या मिलेगा। प्रस्‍ताव पास करने से कुदरत के नियमों को नहीं बदला जा सकता। सैकड़ों संविधान और संहितायें आये दिन बनती रहती हैं पर उनसे संसार की गति में कोई फर्क नहीं पड़ता।

सारे वाद-विवाद के बावजूद इस मानवीय प्रसंग पर सब एकमत थे कि भटनागर के लिए कुछ अवश्‍य किया जाना चाहिए।

उत्‍साही अध्‍यापकों का मत था कि भटनागर के लिए कम-से-कम एक गर्म सूट की व्‍यवस्‍था अवश्‍य होनी चाहिए। यह तो स्पष्‍ट ही था कि एक पूरी जिंदगी में भटनागर एक अच्‍छा सूट बनवाने में असमर्थ था। हम सब लोग एक दिन की तनख्‍वाह उत्‍सर्ग कर सकते तो यह कार्य हो सकता था पर युद्ध स्‍तर जैसा तो यह कोई मुद्दा था नहीं। इसलिए बहुत सोच-विचार के बाद यह तय हुआ कि उसके कपड़े गुमनाम ढंग अथवा गुप्‍त सहायता द्वारा बनवाए जाने चाहिएं। उसे पता ही नहीं चलना चाहिए कि उसे किस अध्‍यापक ने क्‍या सहायता दी है। एक-दो जोड़ी गर्म न सही ठंडे कपड़े ही बनवा दिए जाएं। बहरहाल कुछ तो होना ही चाहिए।

घंटों की बहस के बाद भी कोई ऐसा सर्वमान्‍य स्‍वरूप सामने नहीं आ पाया कि वह क्‍या गुमनाम तरीका हो सकता है जिससे भटनागर को यह अहसास न हो कि उस पर तरस खाया जा रहा है। किसी में कमतरी का भाव जगाना घोर अमानवीय खयाल किया गया।

पर बात जब अडियल टट्टू की तरह एक जगह अटककर रह गई तो कई लोग उबासियां लेने लगे। कुछ ने माथों पर उंगलियों से ठकठकाना शुरू कर दिया जैसे उनके मस्‍तक बेपनाह दर्द से फटे जा रहे हों। आखिर यही ठीक समझा गया कि भटनागर की दीन दशा पर विचार जारी रखने के लिए गर्म चाय का एक-एक प्‍याला, और हो सके तो एक-एक समोसा नास लिया जाए। इस प्रस्‍ताव पर लगभग सभी उत्‍साहित और एक मत नजर आए क्‍योंकि इससे आगे सोचने की स्‍फूर्ति एवं दिशा मिलने की पूरी-पूरी संभावना थी।

चपरासी को तलब करके चाय चाय समोसों का टीचर्स क्‍लब की ओर से आर्डर दे दिया गया। अब खाद्य व्‍यंजनों की प्रतीक्षा में बात भटनागर की दुर्दशा से हटकर ग्रेड्स, महंगाई और दिनों-दिन बढ़ती अनुशासनहीनता की ओर मुड़ गई। अब ये तो ऐसे विषय हैं कि आप चाहें तो हरिनाम संकीर्तन की तर्ज पर इन्‍हें ताजिंदगी गाते रह सकते हैं।

महंगाई और अनुशासनहीनता को लेकर प्रायः सभी उपस्थित जन एक साथ कुछ-न-कुछ बोलने लगे। थोड़ी देर में वहां की स्थिति अजब हंगामाखेज लगने लगी। कक्षाएं तो सभी छूट चुकी थीं। हां एक सज्‍जन ट्यूटोरियल ग्रुप ले रहे थे। वह अपने कक्ष से बाहर आकर देखने लगे कि अनुशासन कायम करने के दर्द को लेकर छोटे-बड़े सभी शिक्षक अनुशासनहीनता के चरम पर पहुंच गए हैं।

चाय समोसे आ पहुंचने से चखचख थोड़ी मंद हो गई और हम सबने गर्म चाय का प्‍याला हाथ में लेकर गहरी राहत महसूस की।

ताजगी का अनुभव करने के बाद बात फिर भटनागर की तरफ लौटी। एक सुझाव यह भी आया कि 'टीचर्स क्‍लब' के अध्‍यक्ष अथवा मंत्री कालेज में व्‍यवस्‍थापकों से बातें करके भटनागर के लिए एक ड्रेस की व्‍यवस्‍था करवायें।

नए और नई रोशनी के अध्‍यापकों ने इस प्रस्‍ताव का विरोध करते हुए कहा कि यह तो कोई बात ही नहीं हुई। क्‍या हम सब लोग मिलकर एक क्‍लर्क के कपड़ों का इंतजाम नहीं कर सकते जो मैनेजिंग कमेटी के सामने जाकर गिड़गिड़ाएं। नये अध्‍यापकों की 'शेम-शेम' से प्रभावित होकर फिर यही तय हुआ कि गुप्‍त मतदान की तर्ज पर सब लोग 'सहायता निधि कोष' तैयार करें और जो पैसा इकट्ठा हो उससे भटनागर के गर्म कपड़े बनवाये जाएं।

बहस काफी देर तक‍ खिंची और अंत में मुझे यह काम सौंपा गया कि अध्‍यापकों द्वारा मिली गुप्‍त धनराशि से मैं भटनागर के लिए कपड़े सिलवाकर उसे ससम्‍मान भेंट करूं।

यह गुप्‍त सहयोग राशि अगले महीने की प‍हली तारीख तक के‍ लिए स्‍थगित हो गई और अध्‍यापक स्‍वस्ति अनुभव करते हुए अपने-अपने घरों को चले गए।

अगले महीने यानी जनवरी में भटनागर को लेकर फिर चर्चा गर्म हो उठी और मुझे प्रत्‍येक अध्‍यापक को टोकना पड़ा। जिस तरह आजकल शादी के मौके पर लोग बंद लिफाफे में पैसा-रुपया देते हैं उसी तर्ज पर मुझे हर अध्‍यापक ने एक-एक लिफाफा दिया।

मैंने सारे लिफाफे खोलकर जो रुपये पाए उनकी गिनती डेढ़ सौ तक भी नहीं पहुंची। बहुत सोचने पर भी मैं यह तय नहीं कर पाया कि ज्‍यादा लिफाफों और कम रुपयों का मैं क्‍या करूं? उतने रुपयों में गर्म कपड़े तो क्‍या बनते - गर्म कपड़ों की तो सिलाई भी संभव नहीं थी।

अंत में यही ठीक लगा कि लालकिले से सामने फुटपाथों पर जो गर्म कपड़े फैले रहते हैं उनसे भटनागर के लिए एक गर्म कोट और पतलून खरीद ली जाए और उसे भेंट कर दी जाए। पर साथ ही मुझे यह भी सोचना पड़ा कि यह काम मैं अकेले जाकर नहीं कर सकता। भटनागर को अपने साथ ले जाना जरूरी है क्‍योंकि उसके नाप के कपड़े तो वही चुन सकता था।

एक इतवार की सुबह भटनागर को साथ लेकर मैं जामा मस्जिद के आस-पास के इलाके में काफी देर तक भटकता रहा पर कोई भी कोट-पतलून उसके नाप की नहीं मिल पाई। बहुत सिर-मारी के बाद एक गर्म कोट-पतलून उन चिथड़ों में से छांटी गईं और मैंने भटनागर से कहा, 'भई अब इन्‍हीं पर सब्र करो। सत्तर रुपये में इन्‍हें आप अपने नाप की बनवा लेना।'

कोट-पतलून की कीमत कबाड़ी को चुकाने के बाद मैंने बाकी बचे सत्तर रुपये भटनागर के हाथ में थमा दिए और दिल्‍ली से लौट आया। मुझे यह काम करके काफी संतोष हुआ कि चलो मैंने एक बड़े परमार्थ का काम इसी जीवन में कर डाला।

अगले दिन मैंने अपनी कारगुजारी की सूचना अपने सहयोगी अध्‍यापकों को दे दी। मेरी इस सूचना से प्रत्‍येक चेहरे पर दानशीलता का अदभुत संतोष दिखलाई पड़ा और प्रायः सभी ने अपने शब्‍दों से अपनी ही प्रशंसा की। यही नहीं, भटनागर को तलब करके हरेक ने यह देखना चाहा कि उनकी सहयोग राशि से उसे कितना सुंदर लिबास उपलब्‍ध हुआ है। लेकिन पता चला कि आज भटनागर कालेज आया ही नहीं है।

वास्‍तव में यह एक निराशाजनक स्थिति थी कि जिस आदमी की प्रत्‍येक अध्‍यापक ने गुप्‍त सहायता की थी और उसको सलीके में लाने की पूरी चेष्‍टा की थी वह आज उन्‍हें मौखिक धन्‍यवाद देने तक के लिए भी उपस्थित नहीं हुआ था।

उसी दिन क्‍या बाद के कई दिनों तक भी भटनागर की सूरत दिखाई नहीं पड़ी। हर आदमी को लगा कि भटनागर ने उसे ठग लिया है। उसे चुस्‍त-दुरुस्त देखने की उत्‍कंठा अंत में खीझ मिश्रित उपेक्षा में बदल गई। किसी की सहायता करके उसका वांछित परिणाम निकलते देखकर आदमी को जो गौरवपूर्ण प्रसन्‍नता मिलती है वह भटनागर से किसी को मयस्‍सर नहीं हुई।

लगभग एक सप्‍ताह बाद, जब भटनागर की मौत तक में भी किसी अध्‍यापक की दिलचस्‍पी नहीं रही तो भटनागर अपने घिसे-पिटे पुराने लिबास में ही प्रकट हुआ। हरे रंग का सूती और तार-तार कुरता और खाकी जीन की पैबंद लगी पतलून मे मलबूस वह दफ्तर की सीढ़ियां चढ़ता नजर आया। उसके एक कंधे पर एक गठरी-सी भी लदी नजर आ रही थी।

हम लोगों ने फुर्ती से चपरासी भेजकर भटनागर को बुला लाने के लिए कहा। वह फटी मैली-कुचैली गठरी लेकर आया तो हम सबने उसे अजूबे की तरह घेर लिया। उसने अपनी गठरी फर्श पर रख दी और अपनी उल्‍लू सरीखी आंखें पटपटाकर ह‍में देखने लगा।

उसे कुछ न बोलते देखकर इतिहास के अध्‍यापक वर्मा जी ने क्षुब्‍ध होकर कहा, 'भई भटनागर, ये गठरी-मुठरी लादे कहां से चले आ रहे हो?' फिर कुछ पल ठहर कर पूछ बैठे, 'इतने दिनों से कहां थे?'

'क्‍या बताऊं वर्मा साब कि कहां था। मकान मालिक ने हमें घर से बा‍हर निकाल दिया और सामान बाहर गली में फेंक दिया।'

'अंय। मकान मालिक? अरे भई तुम तो देहात में रहते हो।'

भटनागर बोला, 'उससे क्‍या हुआ। गांव में क्‍या मकानों का किराया नहीं लिया जाता? शहरों के नजदीक बसे गांवों के पास खेती बाड़ी की तो जमीन बाकी ही नहीं बचती सो गांव के बाशिन्‍दे अपने कोठरी-कोठड़ों में किरायेदार रखकर अपनी आमदनी करते हैं।'

'अच्‍छा?' सिंह ने आश्‍चर्य व्‍यक्‍त किया। फिर वह एक क्षण ठहरकर बोला, 'पर पहले गांवों में ऐसा बुरा रिवाज नहीं था।'

भटनागर लापरवाही से बोला, 'होता होगा जी। यहां के देहातों में तो लोग बकायदा किरायेदार रखते हैं और हर महीने किराया वसूल करते हैं। मैं तीन महीने का किराया नहीं चुका पाया सो उसने निकाल बाहर किया।' फिर वह हम सब पर आंखें घुमाते हुए बोला, 'इसमें उसका कोई दोष भी नहीं है।'

संस्‍कृत के अध्‍यापक लीलाधर जी ने पूछा, 'पर भटनागर बाबू, आपको विद्यालय से तनखा तो हर महीने मिलती है।'

अंग्रेजी के मलिक साहब ने लीलाधर पर व्‍यंग्‍य कसा, 'हर महीने, नहीं शास्‍त्री जी 'प्रतिमास' कहिए।'

'अरे शब्‍दों में क्‍यों सींग अड़ाते हो?' बुजुर्ग अध्‍यापक राय साहब ने मलिक की ओर मुंह घुमाकर कहा और फिर भटनागर से कहने लगे, 'लीलाधर जी ने भी क्‍या बात पूछी है। भला रैगुलरली तनखा मिलने से मकान के‍ किराये का क्‍या मतलब? लोग हजारों रुपये तनखा पाकर भी महीनों तक मकान का किराया नहीं देते।'

मतलब की खास बात अंत में क्‍लब के मंत्री साईंदास ने पूछी, 'हां भई, वो सहगल जी के साथ दिल्‍ली जाकर जो ड्रेस खरीद कर लाये थे वह कहां गई, उसे पहनकर क्‍यों नहीं आये?'

भटनागर सिर झुकाकर कुछ देर सोचता रहा और फिर बहुत मायूसी से बोला, 'उसकी क्‍या बात बताऊं साब-वो कपड़े तो मकान मालिक ने किराये की एवजी में ले लिए।'

अपनी बात कहकर भटनागर अपराधी भाव से सिर झुकाकर बैठ गया। अध्‍यापक माथुर ने पूछा, 'मकान से तो तुम्‍हें बाह‍र कर दिया गया, अब आगे से कहां रहोगे?'

साईंदास ने व्‍यंग्‍यात्‍मक लहजे में कहा, 'रहेंगे कहां, यहीं कालेज के मेहतरों की किसी कोठड़ी में आ पड़ेंगे।'

जिस भटनागर के मुंह से मैंने दीन वाणी के अतिरिक्‍त कभी कुछ सुना ही नहीं था उसकी तल्‍ख बात सुनकर मैं सहसा सन्‍नाटे में आ गया। वह साईंदास की ओर मुंह करके बोला, 'प्रोफेसर साहब, जितनी हमें तनखा मिलती है उतने रुपयों मे तो आपके बच्‍चों के दूध का भी गुजारा नहीं होता। आप लोगों की सौ-सवा-सौ रुपल्ली की खैरात पाकर मैं कोई शहर कोतवाल नहीं बन गया हूं। मुझे बाले मेहतर की कोठरी में आ पड़ने पर कोई फांसी नहीं लगा देगा। मुझे क्‍या फर्क पड़ता है कि आप मुझे बाबू कहते हैं या चौकीदार-मेहतर?'

परोपकार का बदला इस रूप में किसी को अपेक्षित नहीं था। सभी अध्‍यापकों ने एक-दूसरे का चेहरा अर्थ-गर्भित निगाहों से देखा गोया वह संकेत में एक-दूसरे से पूछ रहे हों कि उनकी गुप्‍त सहायता कितनी अर्थहीन बनकर रह गई है।

भटनागर ने सबकी तरफ से आंखें हटाकर अपनी जेब से बीड़ी का बंडल और माचिस निकाली तथा एक बीड़ी जला ली। अंग्रेजी के बूढ़े प्रोफेसर आह-सी भरते हुए बोले, 'भटनागर पेड अस बेरी नाइसली (भटनागर ने क्‍या खूब बदला चुकाया)।'

पर भटनागर ने उस पर भी कोई ध्‍यान नहीं दिया। उसने बीड़ी का एक लंबा कश खींचा और अपनी पोटली उठाकर चल दिया।