यथास्थितिवाद के विरुद्ध खड्गहस्त बतरस की कला / रवि रंजन
1.“The novel is the story of a degraded search, a search of authentic values in a world itself degraded, but an otherwise advanced level according to a different mode. ……. These values are specific to each novel and different from one novel to another.”
- Lucien Goldman : Towards a sociology of the novel, page.1-2.
2. “उपन्यास के पाठ में यह बात निहित होती है कि मनुष्य अकेला नहीं जीता है, उसका एक अतीत, एक वर्तमान और एक भविष्य होता है. उपन्यास यह भी सिद्ध करता है कि इतिहास के बिना कोई समाज नहीं होता और समाज के बिना इतिहास भी नहीं होता है. उपन्यास वह कला-रूप है जो ऐतिहासिक और सामाजिक रूप से परिभाषित मनुष्य की पुन:प्रस्तुति करता है.”
- मिशेल ज़ेराफा
3. “इसने (राग दरबारी ने) छह साल मुझे बीमारी की हालत में रखा. उन गंवार चरित्रों के साथ दिन-रात रहते हुए मेरी जबान खराब हो गयी.”
- श्रीलाल शुक्ल
कहा जाता है कि हर रचनाकार जिन्दगी-भर किसी एक ही कृति को रचता रहता है. उसकी आरंभिक रचनाएँ जहाँ उस कृति-विशेष की तैयारी में लिखी जाती हैं, वहीं बाद की रचनाएँ उसका विस्तार-मात्र होती हैं. यह बात ‘राग दरबारी’ के रचनाकार पर भी कमोबेश लागू होती है. ‘लेखनी के विलास’ के बजाए ‘लिखने की मजबूरी’ के तहत सतत रचनारत श्रीलाल शुक्ल का मानना रहा है कि उनकी ‘सूनी घाटी का सूरज’(1955) एवं ‘अज्ञातवास’(1955-56) जैसी कृतियों को ‘राग दरबारी’(1968) की रचनात्मक तैयारी के तौर पर देखा जाना चाहिए. एक जमाने में नेमीचन्द्र जैन और श्रीपत राय के द्वारा क्रमश: ‘असंतोष का खटराग’ तथा ‘महाऊब का उपन्यास’ के रूप में घोषित ‘राग दरबारी’ की हिन्दी पाठकों के बीच अपार लोकप्रियता की समाजशास्त्रीय वजह इसकी अंतर्वस्तु एवं रूप-विन्यास के बीच मौजूद वह सहज आवयविक सम्बन्ध है जो छठे दशक के भारतीय कस्बाई एवं ग्रामीण जन-जीवन से रू-ब-रू होने में पाठक की मदद करता है. इसका सबूत आलोच्य कृति में आदि से अंत तक मौजूद वह सहज-सरल और सम्प्रेष्य बखान और बतरस है जो भाषिक कलात्मकता के किसी भी विराट स्थापत्य पर भारी पड़ता है. इस कृति की कथा-योजना स्थितिमूलक है, लेकिन कथा-कथन चरितमूलक. इसके औपन्यासिक पाठ से गुजरते हुए बाह्यार्थ और अंतरार्थ की एकान्विति से उपजी क्लासकीयता का रचनात्मक अभिप्राय एवं प्रभाव पाठक को हतप्रभ कर देता है. विवेच्य कृति में किसी घोषित-अघोषित विचारधारा का कहीं कोई आरोपित विस्फोट नहीं सुनाई पड़ता. बावजूद इसके श्रीलाल शुक्ल की कथा-दृष्टि कतई मनोरंजनधर्मी नहीं कही जा सकती. शाश्वतता एवं शास्त्रीयता के बजाए सामयिक यथार्थ व भदेसपन का कलात्मक विन्यास इस उपन्यास की जान है जो इसको समाजशास्त्रीय प्रामाणिकता से लैस एक कलाकृति बनाता है.
स्वातंत्रोत्तर भारत की लड़खड़ाती समाजव्यवस्था एवं मूल्यविहीन शासन तंत्र बहुत हद तक लोभ-लाभ के व्याकरण से परिचालित होता रहा है. इसका गल्प रचने के दरमियान लेखक हमें हिन्दी-समाज द्वारा आधुनिकता के नाम पर लगभग भुलाए जा रहे ठेठ मुहावरों, लोकोक्तियों, लोक ज्ञान और मानव व्यवहार के अनेकानेक पहलुओं की याद दिलाता चलता है. इस दृष्टि से भी इक्कीसवीं सदी में ‘राग दरबारी’ के कथा-लोक में विचरण करना अनोखे अनुभवों से गुजरना है. समाजशास्त्रीय प्रामाणिकता को परिपुष्ट करने के लिए रचनात्मक ज़रूरत के तहत इसमें इस्तेमाल की गई लोकोक्तियों को लेकर अश्लीलता व भदेसपन के नाम पर नाक-भौं सिकोड़ने वाले तथाकथित सुरुचिसम्पन्न उत्तर-आधुनिक पाठकों को ‘आधा गाँव’ या ‘मुखड़ा क्या देखें’ जैसे कई महत्त्वपूर्ण उपन्यासों के साथ ही कवि शमशेर की एक काव्यपंक्ति की भी याद दिलाना शायद ज़रूरी हो :
जो नहीं है
जैसे कि सुरुचि
उसका गम क्या
वह नहीं है.
‘राग दरबारी’ में किस्सागोई की शैली अद् भुत है. इसमें आए विभिन्न प्रसंगों के आरम्भ या अंत में पाठक के साथ निरंतर संवाद कायम रखने हेतु रचनाकार परदे के पीछे से इस कदर नैरेटर की भूमिका निभाता है कि पढ़ते-पढ़ते सुस्त पड़ गए पाठक को यथास्थान झकझोर कर जगाना संभव हो सके. इसके लिए वह भारतीय सामाजिक जन-जीवन में व्याप्त विभिन्न रूढ़ियों, आडम्बरों, अंधविश्वासों, नेताओं-अधिकारियों-चापलूसों के अंतर्संबंधों और अंतर्विरोधों, सत्तालोलुपता, धन लिप्सा, यौन बुभुक्षा से सम्बंधित प्रसंगों का कथा-युक्ति के तौर पर इस तरह इस्तेमाल करता है कि इसमें बुद्धिजीवी ही नहीं, आम पाठक की भी दिलचस्पी जग जाती है. श्रीलाल शुक्ल की कथा-दृष्टि की यह एक असाधारण अर्हता कही जानी चाहिए, जो उन्हें विश्वसनीय और साथ ही पठनीय बनाती है.
कहना न होगा कि आज़ादी के बाद धीरे-धीरे तथाकथित लोकतंत्रात्मक शासन-तंत्र द्वारा लगभग अपदस्थ की जा चुकी जनतांत्रिक एवं विचारधारात्मक राजनीति के विघटन एवं पतन की इंतिहा के चलते आम आदमी के कठिन जीवन अनुभवों का बयान करने वाली यह औपन्यासिक कृति अपने रचनाकाल तक हिन्दी उपन्यास की परिपोषित, पुरस्कृत तथा परिपुष्ट परंपरा में एक विक्षेप या प्रस्थान की तरह स्वीकृत है. उस ओर प्रस्थान, जहाँ साहित्य अपने समय और सभ्यता के गहरे अंतर्विरोधों एवं संकटों में फँसे सबसे वंचित और सत्ताहीन मनुष्य की विडंबनाओं के लिए जवाबदेह ताकतों की कमजोर रग पर उँगली रखता है. गहरे अनुभवजन्य आलोचनात्मक विवेक से रचित आलोच्य उपन्यास स्वातंत्र्योत्तर भारतीय सामाजिक जीवन के विरोधाभासी एवं द्वंद्वात्मक प्रसंगों को सहजता के साथ एक ताजा, जीवंत, व्यवहृत, पात्रोचित और प्रासंगिक कथा-भाषा को अपने पाठ की संरचना में विन्यस्त करके अपने कथा-समय का एक प्रामाणिक संवेदनात्मक दस्तावेज़ बन पड़ा है.
रोलां बार्थ का कहना है कि ‘लेखन’ इतिहास-जनक एकात्मता की क्रिया है और ‘उपन्यास’ सामाजिकता का कृत्य (ए जेस्चर ऑफ सोशेबिलिटी). इस दृष्टि से ‘राग दरबारी’ अपने समय का एक सार्थक ‘कथा-प्रयोग’ भी सिद्ध होता है, जिसके लेखन की कई परतें हैं. दूसरे शब्दों में विभिन्न सूत्रों एवं स्रोतों के समिश्रण से रचित इसकी संरचना ‘कोलाज’ की तरह है;- एक ऐसी संरचना जिसमें समाज का मुकम्मल आईना दिखाने के लिए नानाविध क्षेत्रों (टुच्ची चुनावी राजनीति, गाँव-देहात का जीवन, जात-पांत, लम्पटता, नौकरशाही, लालफीताशाही, कुछ काव्यपंक्तियाँ, पूर्व-रचित उपन्यासों का जिक्र, कई लोकप्रिय फ़िल्मी गाने आदि ) की संयोजित सामग्री इस्तेमाल की गयी है. इसके चलते ‘राग दरबारी’ के औपन्यासिक पाठ में कई जगह एक विलक्षण अंतर्पाठीयता है.
नवें दशक से कृषि-क्षेत्र में धीरे-धीरे कॉर्पोरेट पूँजी और नई तकनीकी के आक्रामक साम्राज्य से लहूलुहान छोटे और मंझोले भारतीय किसानों की दुर्दशा और खास तौर से हाल के दशकों में किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या के मद्देनज़र कहा जा सकता है कि श्रीलाल शुक्ल ने हिन्दी पट्टी के गाँवों में जिन कुरूपताओं एवं विकृतियों की किशोरावस्था में शिनाख्त की थी, उनके ही विकसित रूप आज हमें प्रौढ़ावस्था में दिखाई दे रहे हैं. आलोच्य उपन्यास में व्यंग्य-विनोद की तह में छिपे मानवीय सारतत्त्व की व्यापकता एवं गहराई इसे सार्वकालिक महत्त्व वाली क्लासिकी कृतियों के समकक्ष खड़ा करती है. शुरू से अखीर तक व्यंग्य सम्मिश्रित इस रचना से गुजरते हुए याद आ सकते हैं बाल्जाक, जिन्होंने एक कारगर कथा-युक्ति के तौर पर व्यंग्य के इस्तेमाल की वकालत करते हुए लिखा है : “हमसे सुन्दर चित्रों की माँग की जाती है, किन्तु उनके नमूने इस समाज-व्यवस्था में हैं कहाँ ? आपके घिनौने वस्त्र, आपकी अपरिपक्व क्रांतियाँ, आपका बातूनी बुर्जुआ, आपका मृत धर्म, आपकी निकृष्ट शक्ति, बिना सिंहासन के आपके बादशाह, ये सब इतने काव्यात्मक हैं कि इनका चित्रण किया जाए ? हम अधिक से अधिक इनका मखौल उड़ा सकते हैं.”
‘राग दरबारी’ का लेखक भी उपनिवेशोत्तरकालीन अर्द्धशती के दौर में भारत के भौतिक-आत्मिक जीवन के रग-रेशे को बेधने वाली व्यव्स्थापोषक राजनीति पर व्यंग्य-वाणों की अंधाधुंध बौछार करता है. भारत में उच्च शिक्षा-व्यवस्था और खास तौर से ‘बुद्धिजीवी’ कहे जाने वाले प्राणियों से सम्बंधित उपन्यास में वर्णित एक प्रसंग द्रष्टव्य है जिसमें ‘वैद्यजी’ द्वरा संचालित एक महाविद्यालय के प्राचार्य द्वारा कहलवाया गया है :
“और सच पूछो तो मुझे युनिवर्सिटी में लैक्चरार न होने का कोई गम नहीं है. वहाँ तो और भी नरक है. पूरा कुम्भीपाक ! दिन-रात चापलूसी. कोई सरकारी बोर्ड दस रुपल्ली की ग्राण्ट देता है और फिर कान पकड़कर जैसी चाहे वैसी थीसिस लिखा लेता है. जिसे देखो, कोई-न-कोई रिसर्च-प्रोजेक्ट हथिआये है. कहते हैं रिसर्च कर रहे हैं; पर रिसर्च भी क्या, जिसका खाते हैं उसी का गाते हैं. और कहलाते क्या हैं. देखो, देखो, कौन-सा शब्द है – हाँ - हाँ, याद आया – बुद्धिजीवी. तो हालत यह है कि हैं तो बुद्धिजीवी, पर विलायत का एक चक्कर लगाने के लिए यह साबित करना पड़ जाए कि हम अपने बाप की औलाद नहीं हैं, तो साबित कर देंगे. चौराहे पर दस जूते मार लो, पर एक बार अमरीका भेज दो – ये हैं बुद्धिजीवी.”
(‘राग दरबारी’, राजकमल पेपरबैक्स संस्करण,पृ. 191)
उपर्युक्त सन्दर्भ से गुजरते हुए याद आते हैं प्रेमचंद, जिन्होंने अपने ज़माने के शिक्षित मध्यवर्ग के बारे में ‘पशु से मनुष्य’ कहानी में लिखा था : “इन महान पुरुषों में से प्रत्येक व्यक्ति सैकड़ों नहीं, हजारों-लाखों की जीविका हड़प जाते हैं और फिर भी उन्हें जाति के भक्त बनने का दवा है. पैदा दूसरें करें, पसीना दूसरे बहाएं – खाना और मूँछों पर ताव देना इनका काम है. मैं समस्त शिक्षित समुदाय को निकम्मा ही नहीं, अनर्थकारी भी समझता हूँ.”
गौरतलब है कि आलोच्य उपन्यास में व्यंग्य की धार एकस्तरीय नहीं है. कारण यह कि यहाँ प्रभुत्वशाली तबकों के साथ–साथ उस वर्ग की भी ज़रूरत पड़ने पर यथास्थान खबर ली गई है जो मोटे तौर पर भोलाभाला समझा जाता है :
“किसान को....ज़मीन ज्यादा प्यारी होती है. यही नहीं, उसे अपनी ज़मीन के मुकाबले दूसरे की ज़मीन बहुत प्यारी होती है और वह मौका मिलते ही अपने पड़ोसी के खेत के प्रति लालायित हो उठता है. निश्चय ही इसके पीछे साम्राज्यवादी विस्तार की नहीं, सहज प्रेम की भावना है जिसके सहारे वह बैठता अपने खेत की मेंड़ पर है, पर जानवर अपने पड़ोसी के खेत में चराता है. गन्ना चूसना हो तो अपने खेत को छोड़कर बगल के खेत से तोड़ता है और दूसरों से कहता है कि देखो, मेरे खेत में चोरी हो रही है. वह गलत नहीं कहता है क्योंकि जिस तरह उसके खेत की बगल में किसी दूसरे का खेत है उसी तरह और के खेत की बगल में उसका खेत है और दूसरे की संपत्ति के लिए सभी के मन में सहज प्रेम की भावना है.” (पृ.201)
साहित्य-सृजन के बारे में अपने नज़रिए का खुलासा करते हुए श्रीलाल शुक्ल कहते हैं कि “कथालेखन में मैं जीवन के मूलभूत नैतिक मूल्यों से प्रतिबद्ध होते हुए भी यथार्थ के प्रति बहुत आकृष्ट हूँ. पर यथार्थ की यह धारणा इकहरी नहीं, वह बहुस्तरीय है और उसके सभी स्तर – आध्यात्मिक, आभ्यंतरिक, भौतिक आदि जटिल रूप से अंतर्गुम्फित हैं. उनकी समग्र रूप में पहचान और अनुभूति कहीं-कहीं रचना को जटिल भले बनाये, पर उस समग्रता की पकड़ ही रचना को श्रेष्ठता देती है. जैसे मनुष्य एक साथ कई स्तरों पर जीता है, वैसे ही उस समग्रता की पहचान रचना को बहुस्तरीयता देती है.”
श्रीलाल शुक्ल की अंतर्भेदी दृष्टि अपने समय में पनप रही और आज बड़े पैमाने पर फल-फूल रही पतनशील राजनीतिक संस्कृति की प्रतीति को भेदकर सार (विकृति) को रेखांकित करती है. इस वजह से वे यथार्थवाद के आला उस्ताद ठहरते हैं. ‘राग दरबारी’ की कालजयी महत्ता की वजह लेखक के उस नज़रिए में निहित है जिसके तहत उसने आम आदमी को एक ऐसे सक्रिय प्राणी के रूप में चित्रित किया है जो तथाकथित नैतिक आग्रहों और आदर्शों के शेखी बघारने वालों की असलियत अच्छी तरह समझता है. चूँकि वह तत्काल कोई क्रांतिकारी क़दम उठाने की स्थिति में नहीं है, इसलिए उपन्यास में यदि अतिरिक्त क्रांतिकारिता का पैबंद लगाया गया होता तो वह स्वाभाविक के बजाए आरोपित ही प्रतीत होता. यह लगभग स्नानपात्र में बचे-खुचे जल के साथ-साथ बच्चे को भी फेंक देने वाली प्रवृति होती. बावजूद इसके लेखक को यथास्थिति कतई स्वीकार्य नहीं है. यथास्थितिवादी मानसिकता को वह प्रिंसिपल साहब के इस बयान द्वारा विखंडित करता है : : “ बाद में इस नतीजे पर पहुँचा कि सब ऐसे ही चलता है. चलने दो. सब चिड़ीमार हैं तो तुम्हीं साले तीसमारखाँ बनकर क्या उखाड़ लोगे ! ....... तुम कुछ कहो तो भैया, बहुत ठीक ! और वैद्यजी कुछ कहें तो हाँ महाराज, बहुत ठीक ! और रूप्पन बाबू कुछ कहें तो हाँ महाराज, बहुत ठीक ! पहलवान ! जो कहो, सब ठीक ही है.” (पृ.190)
शिवपालगंज की चौह्द्दी से लेकर वहाँ के हरेक तबके के निवासियों की मानसिकता एवं जीवनचर्या से लेकर अंतत: ‘मदारी के सामने बड़ी गंभीरता से मुँह फुलाकर बैठे हुए’ दोनों बंदरों के वर्णन तक कथाकार ने पुराने काव्य, पुराकथाओं, और लोक-साहित्य में मौजूद वर्णन करने की जो ठेठ भारतीय क्लासिकी परम्परा है, उसका जबरदस्त इस्तेमाल किया है. दूसरे शब्दों में श्रीलाल शुक्ल की सृजन-यात्रा में वर्णनात्मकता की शक्ति के चलते उनकी यह कृति पाठक के साथ सीधे-सीधे संवाद स्थापित करती है. कहना न होगा कि वर्णनात्मकता में एक प्रकार कि वस्तुनिष्ठता अनुस्यूत होती है और स्पष्ट ही साहित्य-सृजन में वस्तुनिष्ठता वर्णन करने वाले की वर्णित सन्दर्भों या स्थितियों से प्रगाढ़ परिचय की दरकार रखती है. याद आता है एक परिवर्तनकामी कथन कि “मैं अपनी परम्परा को अच्छी तरह जानना चाहता हूँ, ताकि उससे घृणा कर सकूँ.”
ऑडेन के शिष्य तथा जाने माने अँगरेजी कवि रॉय फुलर का मानना था कि सामाजिक धरातल पर सबसे अशक्त भूमि पर खड़े रचनाकार की कृति में ही यथार्थ के समन्वित समग्र दबावों को अभिव्यक्ति प्रदान करने की ताकत सबसे ज्यादा होती है. उल्लेखनीय है कि एक उच्चाधिकारी के रूप में जीवन यापन करने वाले श्रीलाल शुक्ल के भीतर अपने ही वर्ग-चरित्र को लेकर यदि आलोचनात्मक विवेक से उपजा निर्मम आत्मनिषेध पैदा नहीं हुआ होता, वे ‘राग दरबारी’ में आयी वर्णनात्मकता को कला के स्तर पर साध नहीं पाते. यह कला जब सध गई तो वर्णन उसके लिए केवल लेखन-शैली के बजाय लेखन-क्रम में अनेकानेक प्रसंगों को देखने-दिखाने का एक रचनात्मक हथियार बन गया. स्पष्ट ही उपन्यासकार ने इसका सार्थक इस्तेमाल करते हुए आलोच्य उपन्यास की कथा-भूमि के वर्णन की प्रक्रिया में वहाँ के जीवन-प्रसंग के लगभग तमाम पहलुओं को पाठक के सामने एक-एक कर परत-दर-परत खोल कर रख दिया है.
कई बार लगता है कि ‘राग दरबारी’ के रचनात्मक मिज़ाज की वजह से इसके लेखक की स्थिति एक हद तक रूसी भाषा के एक अत्यंत संवेदनशील कथाकार वासिलेई शुक्सिन की तरह थी, जिसे रूसी संभ्रांत वर्ग देहाती और देहात के लोग उसे शहरी मानते थे. जबकि शुक्सिन गाँव और नगर, दोनों से निर्वासित थे. कहने की ज़रूरत नहीं कि यह आत्म-निर्वासन कतई नहीं था. श्रीलाल शुक्ल को भी एक अरसे तक साहित्यिक बिरादरी में एक उच्चपदस्थ अधिकारी और आला अफसरों के बीच साहित्य का आदमी माना जाता था. यह बात हिन्दी के कुछ अन्य रचनाकारों पर भी कमोबेश लागू होती है.
‘उपन्यास’ के विधागत स्वभाव की व्याख्या करते हुए मिखाईल बाख्तिन ने लिखा है कि उसमें दृष्टियों एवं स्वरों की अनेकता होती है. उनका यह भी मानना है कि उपन्यास की औपन्यासिकता उसकी संवादधर्मिता में निहित होती है. ‘राग दरबारी’ के रचना-विधान में केवल रचनाकार की दृष्टि की ही निर्णायक भूमिका हो, ऐसा नहीं है. इसमें आये प्रत्येक पात्र की दृष्टि एवं स्वर की अपनी सत्ता है, उसका स्वतन्त्र अस्तित्व है. इसका सुफल यह हुआ है कि उपन्यास के सारे पात्र अपनी स्वाभाविकता के साथ ठीक उसी तरह परस्पर संवाद करते दीखते हैं जैसे किसी कस्बे या गाँव में लोग आपस में बतियाते हैं. नतीज़तन कोई भी संवाद यहाँ आरोपित प्रतीत नहीं होता. पात्रों की यह सहज संवादधर्मिता एवं बतरस की कला इस कृति के प्रति पाठक के भीतर एक खास लगाव व जुड़ाव पैदा करने में समर्थ हुई है, जो कि इसकी लोकप्रियता की एक बड़ी वजह है.
श्रीलाल शुक्ल अपने समय के ग्रामीण जीवन-जगत को शहरी मध्यवर्गीय रोमानी दूरबीन से किसी खूबसूरत लैंडस्केप की तरह देखने के बजाय उन्नीस सौ साठ के दशक में हिन्दी क्षेत्र के लगभग ठहरे हुए ग्रामीण परिवेश में व्याप्त कूपमंडूकता एवं परस्पर वैमनस्य का हास्य-व्यंग्य सम्मिश्रित बतरस की शैली में इस कदर वर्णन करते हैं कि पाठक के मन में वहाँ व्याप्त विद्रूपताओं के प्रति सहज ही वितृष्णा पैदा होती है. इस सन्दर्भ में लेखकीय वस्तुपरकता खास तौर से काबिलेगौर है जिसके तहत तत्कालीन गाँवों में जड़ जमाये पिछड़ेपन, अज्ञानता, सामंती अहंकार और पाखण्ड, अराजकता एवं अमानवीकरण की बखिया उधेड़ी गई है. कहना न होगा कि ये सब विकास की मुख्यधारा से कटे या अलग-थलग पड़े अर्द्धसामंती इलाके के स्वाभाविक लक्षण हैं.
ऐसे मंद-मंथर गति वाले इलाके में बड़ी पूँजी का प्रवेश से कैसे अपराध को जन्म देता है और लोगों को किस हद तक निर्मम-निरंकुश एवं मानवीय सारतत्त्व से रहित बनाता है, इसका गल्प कालांतर में ‘किस्सा लोकतंत्र’ एवं ‘तबादला’ सरीखे उपन्यासों में विभूतिनारायण राय तथा ‘रेहन पर रग्घू’ में काशीनाथ सिंह ने रचा है. वस्तुत: ‘राग दरबारी’ हिन्दी उपन्यास के इतिहास में ‘तात्कालिक’ तथ्यों के कलात्मक वर्णन से एक ऐसे ‘कालातीत’ सत्य व अर्थ का साक्षात्कार कराने वाली क्लासिकी कृति है जिसे रोलां बार्थ ने रचना का अवगुंठित अर्थ (‘obtuse meaning’) तथा भर्तृहरि ने ‘अंतर्ज्ञेयनय’ के रूप में अभिहित किया है. स्पष्ट ही रचना के बह्यार्थ एवं अंतरार्थ की विलक्षण एकान्विति को उदाहृत करने वाली इस कलाकृति की सृजन-परम्परा थोड़े-बहुत गुणभेद के साथ आज भी जीवित है.