यमदूत /अशोक शाह
विस्तृत घने वनों के बीच शहर से सैकड़ों कोस दूर समनापुर की बस्ती है। यहाँ सरई के वृक्षों का एकछत्र साम्राज्य है। जहाँ साल के वृक्ष उगते हैं वहाँ दूसरी प्रजाति के पेड़ों को पनाह नहीं मिलती। क्या मज़ाल की कोई अन्य पौधा उग आए। लेकिन इनके हमदम साजा एवं सलई के पेड़ भी छिट-पुट उग ही आते हैं। साजा आदिवासियों का पवित्र वृक्ष है जिसपर उनके सबसे बड़े देवता बड़ादेव का निवास माना जाता है। कहते हैं कि साजा के तने में शुद्ध जल भरा रहता है जिसका उपयोग अपरिहार्य परिस्थितियों में पीने के लिए भी किया जा सकता है। साल के अनछुए सान्निध्य में समनापुर जैसे अनेक गाँव विध्यांचल एवं सतपुड़ा की पहाड़ियों की वात्सल्यमयी गोद में बसे हुए हैं जहाँ दो दशक पहले तक चिर शान्ति का साम्राज्य था। शुद्ध जल, शुद्ध वायु एवं बिना किसी प्रदूषण की विशुद्ध मिट्टी अपनी प्राकृतिक अवस्था में थी। यहाँ जीवन स्पर्धाहीन था। जड़-चेतन सभी समस्याहीन, समरस, एवं भयमुक्त थे। प्रकृति का कण-कण देवता था। स्थानीय निवासी उनके उपासक थे। परस्पर आदर, सम्मान और श्रद्धा की भावना से ओत-प्रोत जीवन की अद्भूत मिसाल धरती पर मौजूद था।
लेकिन-
समनापुर जैसे गाँव पक्की काली सड़क से शहर से जुड़ते ही स्वार्थ की अर्थव्यवस्था के शिकार हो गए। सुकरू और लमिया के जीवन से सुख-चैन ही छीन गया। ऐसा प्रतीत होता मानो उन्हे सोते से उठाकर बिना किसी तैयारी के अनजान दिशा की ओर तीव्र रफ़्तार से जा रही गाड़ी में जबरन बैठा दिया गया हो और वे भौंचके रह गए हों।
सुकरू दारू पीकर लेटा था जंगल से लौटी लमिया को देखते ही चिल्ला उठा था, ' कहाँ रह गयी इतनी देर तक। हम समझे की तोरा के बघवा खा गया। "
लमिया वैसे ही परेशान होकर लौटी थी। बड़ी मुश्किल से एक बोझा सूखी लकड़ियाँ इकट्ठा कर पायी थी।
'बघवा मुझे क्या खायेगा। उसे तो शहर वाले ही खा गए। तू लेट-लेटे अपनी मजबूरी की भड़ास मुझ पर तो मत निकाल।'
आते ही काम में लग गयी। हाथ-पैर धोकर उसने बर्तन साफ़ किया और रात के खाने के इंतज़ाम में जुट गयी। अब यही उसकी दिनचर्या हो गयी थी। उसे याद भी नहीं कि वह साल के दूधिया फूलों की तरह कब मुस्करायी थी जिनकी चमक और सुगन्ध वन-प्रान्तर तक फैल जाती थी। पूरी हवा सुवासित होकर जैसे उसके घर के दरवाजे पर ही किंकर्तव्यविमूढ़ होकर ठिठक जाया करती थी और वह सुबह-सुबह गा उठती थी-
चिरैया बोलय राम
दिन उगे चार बजे
लावा तितूर नांगर फाँदे
घाघर लेबै पेज
बन के बंदर बैल चरावय
भालू फेकय कांद
चिरैया बोलय...
सूरज जैसे सबसे पहले उसके दरवाजे पर ही उगता हो और वह जल्दी-जल्दी मवेशियों को जंगल के लिए ढीलती, कोदो-कुटकी की दराई-कुटाई कर कंकड़-पत्थर बीनती और फिर पानी में परोरकर छान लेती। पेज बनाने के लिए चूल्हे पर तसले भर पानी में उबलने के लिए छोड़ देती। पेज के साथ कई प्रकार की भाजी बनाती। चिरौंटा, कुटनी, चेंच, पकड़ी, केवलार, खटटुआ, आमला, गेवो, करियार, कचनार, लमेट, राई, पीपर, पुटपुटी, बाँसकरील, तिखुर आदि मौसम के अनुसार जो भी मिल जाए। पूरा जंगल ही भरा-पड़ा था। हर भाजी का अपना अलग ही स्वाद। भाजी हर मौसम के हिसाब से रोग प्रतिरोधक क्षमता से भरपूर होती। कोई बीमारी ही नहीं होती। तब उनका जीवन मधुर संगीत, प्रणय और सहजता से भरा था। बात-बात में नाचते और गा उठते थे।
चार साल का उसका इकलौता बेटा बोखा हमेशा उसके साथ ही चिपका रहता। भाजी बनाते वक़्त दाई को गाते हुए सुनता तो खिलखिला उठता। बड़े ध्यान से वह दाई को चूल्हा फूँकते, आग जलाते, पेज बनाते देखता।
वह हमेशा कहती-
'तुम्हे ये सब करने नहीं दूँगी। तुम्हें ख़ूब पढ़ा लिखाकर बड़ा अफसर बनाऊँगी ताकि तुम मुझे बता सको कि अपने खेत और जंगल की ज़मीन में क्या अन्तर है। कोदो तो वहाँ भी उग सकता है। फिर हर साल सुपाही मेरी फ़सल उजाड़ क्यों देता है।'
'दाई मैं स्कूल नहीं जाऊँगा। तुम्हारे साथ पेज बनाना सिखूँगा। तुम्हे खिलाऊँगा?' , नाराज़ होकर वह कह उठता।
दाई उसकी बातों पर ध्यान न देकर गुनगुनाते हुए काम में लगी रहती।
भोर में सुकरू खेत पर निकलने से पहले रोज़ गाता था-
हाय गूँजे भौंरा रे
गूँजे भौंरा रे
कहाँ पाबो नाँधा-जोता, कहाँ रे पैंनारी रे
कहाँ पाबो पाँचे बइला
गूँजे भौंरा रे...
घरे पाबो ना नाँधा-जोता, परछी पैंनारी
खरिक डाँड़े पाँचे बइला
गूँजे भौंरा रे...
वह मुस्कुरा उठती। सुकरू के लिए उसका प्यार एकदम निश्छल था। वह बहती हुई स्वच्छ नदी की तरह थी जिसके स्पर्श से सुकरू सूरज की किरणों की तरह चमक उठता था।
सुबह पेज1 पीकर, भाजी खाकर पति-पत्नी दोनों खेत-जंगल निकल जाते। जंगल में वह लकड़ियाँ बीनती। बारिश और जाड़े के आठ महीनो के लिए सूखी लकड़ियाँ इकट्ठी करनी होती नहीं तो खाना कहाँ से पकता। सुकरू कुशल कृषक करता था। खेती के लिए बुवाई साल में एक ही बार बारिश आने पूर्व करता। बीस-बाईस एकड़ से अधिक ज़मीन थी पर सभी उबड़ खाबड़ कंकरीली और असिंचत जिनमें खरीफ़ के अलावा कुछ नहीं उपजता था। फिर भी सुकरू जानता था किस खेत में मक्का, किस खेत में धान और किस खेत में कोदो-कुटकी बोना होता। एक बार लकड़ी के हल से जोतने के बाद वह धान, मक्का के बीजो का छींटा लगा देता। कोदो-कुटकी के लिए तो वह गहरी जुताई भी नहीं करता। सुकरू बेवर खेती करता जिसके लिए वह हर औज़ार की पूजा भी करता। उसके लिए चैखट, नागर, बखर, चूल्हा, सूपा, कुल्हाड़ी आदि सभी देव थे। बड़ा देव एवं ठाकुर देव उनसे भी बड़े थे।
खेती से निपटने के बाद वह लमिया के साथ हो लेता और जंगल में औषधियों एवं कान्दा तलाशता रहता। लमिया और सहेलियाँ लकड़ी और भाजी चुनते हुए गाती रहतीं-
हरियारा डोंगर करिया पहार
भाजी टोरेला, भाजी टोरेला
भाजी टोरेला आयेन टोर बसाती
मया जोरेला रे दोस
सुकरू एक कुशल एवं निपुण वैद्य भी थ। जंगली जड़ी-बूटियों का सुकरू से बड़ा जानकार कोई नहीं था। केवकन्द (दर्द) , जंगली अदरक (खाँसी, दमा) , रक्त बिराड़ी (कफ, साँस फूलना आदि) , लक्ष्मण कन्द (बालतोड़, फोड़ा आदि) , बिथारी कन्द (वायु, गैस) , सफेद मूसली, काली मुसली, सतावर (शक्तिवर्द्धक) , भाँवर माल (दाँत दर्द) , बीजा लकड़ी (मधुमेह) ) वन सिंगाड़ा (दस्त) , भैसाताड़ (वीर्य वर्द्धक) , गुड़मार (मधुमेह) , अर्जुन छाल (रक्त चाप) , काहिरा (पीलिया) रामदाँतुन (धातुरोग) , दारू हल्दी (नेत्र रोग) , मूसल कंद (बावसिर) , शिलाजित (शक्तिवर्द्धक) , सुआरूक (साइटिका, वात) , संजीवनी बूटी (पथरी) , आदि वनस्पतियों की खासी पहचान थी उसकी। वह यह भी जानता था कि जंगल के किस इलाके में कब-कब ये मिलते थे और बीमारियों के इलाज़ के लिए किस मौसम और दिन के किस पहर में उनको जंगल से निकालना होता। इसके अलावा, शहद, हर्रा, बहेड़ा, आँवला, महुआ, तेन्दू आदि तो सबको पता होते और उनकी आजीविका में ज़रूरी हिस्सेदार थे।
गाँव में ज़रूरत की सभी चीजे हो जातीं। खाने-पीने से लेकर दवा-दारू तक। सुकरू पूरे गाँव की ओर से महीने में एक बार शहर जाता और सबके लिए एक ही ज़रूरी चीज़ खरीदकर वापस आता। वह था नमक। फिर तो हर सीजन, हर दिन उनका त्योंहार ही होता। जीवन गीत-संगीत, कथा-कहानी, गोदना-चित्रकारी से भरा होता। अवसर के अनुसार अलग गीत और अलग राग होते। जामुन का पेड़, काला पहाड़, साल के पत्ते-सब जानते थे कि कौन-सा गीत, कौन-सा राग किसके लिए गाया जाता था। हल में नधे बैल तो कभी-कभी पैर ही नहीं उठाते जब तक उनके पसन्दीदा गीत की ध्वनि उनके कानों में न पड़ जाती।
लेकिन अब सुकरू जंगल नहीं जाता।
जब पहली बार सड़क गाँव तक पहुँची थी तब तो पहले वह भी खुश हुआ था।
सरकारी सड़क देखके लामिया और सुकरू स्वतः गा उठे थे-
छानी ऊपर नाचथै गौरेया
भगया चाला कौन है
श्रोकया रे
सड़क-सड़कन खम्भ गड़े
खम्भ के उपार तार
तर-तार से बात करथै दिल्ली के सरकार
भागय चोला...
शीशे जैसी चिकनी सड़क। चप्पल-जूता पहनने की कोई ज़रूरत नहीं थीं। वैसे भी जंगल की सर्रियों से संवाद करते उनके पैर उनके काफ़ी अनुकूल थे। फिर भी एक नेता ने गाँव आकर उनके पैरो में अपने हाथों से चप्पलें पहना दी थी। तब वे एक बार फिर भौंचक्के रह गए थे। उनको समझ में नहीं आया कि उन्हें टोपी पहनाने की क्या आवश्यकता आन पड़ी थी। अब वह नयी चप्पल को हाथ में लिए घूमता है। न उसे फेंकता है और न पहनता ही है।
गाँवों में विकास की ऊपर से थोपी गयीं अनेक योजनाएँ सरकार ने चला दी है। पक्की सड़क और सरकारी सस्ती योजनाओं ने उसके जीवन को नष्ट कर डाला। एक रुपये किलो चावल ने तो उसकी मेहनत की आदत ख़त्म कर डाली और ख़ुद पर उसके भरोसे की कमर तोड़ दी। उसे स्वावलम्बी न बनाकर पूरी तरह से परावलम्बी बना दिया। । मेहनत ही तो उसके जीवन की पूँजी और परम्परा की विरासत थी। उसे छिन लिया गया। मेहनत करना, खुश रहना, उसकी संस्कृति थी। संस्कृति का नष्ट हो जाना आदमी का मर जाना होता है। पहले वह आनन्दित था। आज वह व्यथित है। सोसायटी से मिलने वाला फोसा चावल सिर्फ़ उसका पेट भर पाता है। न तो उससे माड़ निकलता है न ही खाने में कोई स्वाद है। उसमें कोई पौष्टिक तत्व भी ही नहीं। मनरेगा में अपादमस्तक व्याप्त भ्रष्टाचार ने उसे कहीं का नहीं छोड़ा। घर बैठे ही रोज़ के 50 रुपये मिल जाते हैं। काम करने की कोई ज़रूरत नहीं। उसके हाथों के हूनर सरकारी योजनाओं ने छिन लिया। मनरेगा उनके लिए मनोरोग बन गयी थी। समूचा आदिवासी ग्रामीण जीवन इसका शिकार हो गया था।
सुकरू जंगल से मिलने वाली जड़ी-बूटियों को भी भूलता जा रहा था। जब शहर ने उसे अविकसित बताया था तब वह पूरे इलाके का वैद्य था। लगभग हर बीमारी का इलाज़ कर लेता था। विकास के जाल में फँसकर वह पूरी तरह मानसिक और शारीरिक रूप से निकम्मा हो चुका। वैसे भी उसे चाहिए ही क्या था। उसका एक ही सपना था। 100 रुपये प्रतिदिन की कमाई जिसके लिए वह दिनभर हाड़तोड़ मेहनत करता। फल-फूल, पत्ते, बीज, छाल और लकड़ियाँ इकट्ठा करता। अब उनकी ज़रूरत ही नहीं रही। पूरी तरह से सरकार आश्रित है।
पत्नी की मृत्यु भी उसे कोई चुनौती नहीं पेश कर पायी। सरकार की ताज़ा स्कीम 'मदद योजना' से मृत्युभोज के लिए उसे 100 किलो चावल मुफ़्त मिल गया था।
लमिया निमोनिया से मरी। जंगल से मिलने वाले पोषण के अभाव में कई बीमारियों का शिकार हो गयी थी। सुकरू की जड़ी-बूटियाँ होतीं तो शायद वह बच जाती पर हास्पिटल की सरकारी दवाओं ने उसकी जीवन-लीला समाप्त कर दी। सुकरू स्वयं मानता था कि उसके गाँव में सारी बीमारियाँ हास्पिटल से पक्की सड़क से चलकर आती हैं और बदले में जंगल की सारी खूबसूरती एवं मूल्यवान चीजें अपने साथ ले जाती हैं।
पत्नी की असामयिक निधन पर वह अपनी परम्परा के अनुसार अपना घर नहीं बदल सका। जैसा कि उसके पूर्वज किया करते थे। उनका विश्वास था कि एक बार यमदूत घर देख लेते हैं तो वे बार-बार आना शुरू कर देते हैं। यमराज को उसके घर का पता मिल चुका था। लेकिन वह मजबूर था। पहले की भाँति हाथों से माड़ी गयी मिट्टी एवम जंगल के सागोन की लकड़ी से बने घर में वह नहीं रहता था। उसके पास प्रधान मंत्री आवास योजना में बना पक्का मकान था जिसपर बैंक का कुछ क़र्ज भी था। उसे छोड़ नहीं सकता था। दूसरा कारण यह भी था कि जंगल अब उसका नहीं रहा कि कहीं भी दूसरा नया घर बना लेता। वन विभाग ने हर ज़गह चैहदी तान दी थी। उसके मित्र साल और साजा सदमे में खड़े उसे दूर से ही देखते थे। वह उन्हें अब छू भी नहीं सकता और न ही गले लगा सकता था। अ-सरकारी देख-रेख में होने वाली वनों की अन्धाधून्ध कटाई से उसके जीवन काल में अनेक जड़ी-बूटियाँ विलुप्त हो चुकीं थीं जिन्हें मात्र वही जानता था।
अनियंत्रित स्वार्थ भरी विकास की रफ़्तार ने अपने पैरो पर खड़े होने का अवसर उसे नहीं दिया। ऐसे सदमे के लिए गाँव का कोई परिवार तैयार ही नहीं था। वह तो ख़ुद विकसित होना चाहता था पर उसे संरक्षित कर दिया। अपनी सरस, सौम्य एवं समृद्ध संस्कृति के नष्ट होते ही जैसे उसका सब कुछ लुट गया। उसे अहसास तक न हुआ कि वह चैतरफा कंगाल हो चुका था। अब उसे मधुमेह, चिरकालिक मलेरिया ने जकड़ लिया है। पूर्वजों के सिर के बाल मरते दम तक कभी सफे़द नहीं होते थे लेकिन उसके सारे बाल सफे़द हो चुके थे। वह जानता था कि गिनती के चन्द दिन ही शेष हैं। अपने बेटे बोखा को ख़बर करा दी। बोखा नज़दीक के ही सरकारी छात्रावास में रहता था। अभी-अभी उसने दसवीं बोर्ड की परीक्षा दी थी।
बोखा घर लौटा तो पाया कि उसके पिताजी जो कभी ख़ुद वैद्य थे अपनी आखिरी साँसें गिन रहे थे। मुहल्ले का झोला छाप बंगाली डाक्टर खाट पर बैठा पानी की बोतल चढ़ा रहा था। झोला समुज्ज्वला योजना के अंतर्गत मिले गैस सिलिन्डर पर रखा था।
झोले से फिर एन्टीबायटिक की गोली निकालते हुए उसने बोखा से कहा-
'मैं पूरी कोशिश कर रहा हूँ। बोतल भी लगा दिया है। पर बीमारी है कि समझ में ही नहीं आती।'
बोखा चुप हो गया था।
उसके बाबू को विकास की योजनाओ के पीछे का नेताओं का गणित तथा स्वयं उसे अपनी पढ़ाई का गणित बिल्कुल ही समझ में नहीं आया था। सरकारी स्कूल में पढ़ते हुए वह ऐसा कुछ भी नहीं सिख सका था कि जीने के लिए कोई रोजगार ढूढ़ँ सके। घर से दूर रहने के कारण अपनी पारम्परिक हुनर युक्त संस्कृति से भी वह मरहूम हो चुका था। न तो बेवर कर सकता था न ही उसे औषधियों का ज्ञान ही रहा। पेड़-पौधे की प्रजातियों से भी अनजान था। यहाँ तक कि अपनी परम्परागत बोली में भी ठीक से बात नहीं कर सकता था। हिन्दी भी इतनी नहीं सिख सका कि धड़ल्ले से बोल सके और अपनी भावनाओं और आवेशों को शब्दो के माध्यम से व्यक्त कर सके। होस्टल में रहने से खाने-पीने और कपड़े लत्ते की व्यवस्था भर हो गयी थी। लेकिन अब चुनौती यह थी कि गेहूँ, चावल के अलावा उसे खाने में दूसरा कुछ अच्छा नहीं लगता।
अपने बाबू की असामयिक मृत्यु के पश्चात वह एकदम असहाय था। अगले दिन साहूकार तगादा करते हुए घर धमका।
बोखा से कहा था, 'तुम्हारे पिताजी भले आदमी थे। मेरी बच्ची का ईलाज उन्होनें ही किया था। तब उसके बचने की कोई सम्भावना नहीं थी।'
'कैसे आना हुआ,' बोखा ने पूछ लिया। बोखा जानता था कि वह कोई सहानुभूति जताने तो नहीं आया था।
'क्या कहे बोखा, दुनियादारी तो निभानी पड़ती है। तुम्हारे पिताजी ने तुम्हारी माँ की बीमारी के लिए जो क़र्ज़ लिया था, वह सूद समेत कुल 54, 321 रुपये बनता हैं। अब यह तुम्हे ही चुकाना पड़ेगा।'
'मैं क्यों चुकाऊँ? मुझे तो मालूम भी नहीं।'
'देखो बेटा, दुनिया का यही दस्तूर है। बाप का क़र्ज़ बेटा ही चुकाता है।'
बोखा सोच में पड़ गया। क्या करे।
साहूकार ने फिर कहा, 'तुम्हारे पिता की 10 एकड़ वाली ज़मीन तो मैं ही बो रहा था। तुम्हारे बाबा के समय लिए हुए क़र्जे़ की रक़म सूद सहित अधिक होने के कारण मुझे वह ज़मीन एक आदिवासी को ही बेचनी पड़ी। कानूनन किसी गैर-आदिवासी को बेच नहीं सकता था। खैर, वह क़र्ज़ समझ लो, निपट गया। बाक़ी दस एकड़ वाली ज़मीन तुम रेहन रख दो। खेती तो तुम कर नहीं सकते। पढ़-लिख गए हो।'
'लेकिन मैं करूँगा क्या? कहाँ से हो पायेगा मेरा खाना-पीना।'
'उसकी क्या चिन्ता है। दो एकड़ ज़मीन अभी भी तुम्हारे पास है। चाहो तो मुझसे और क़र्ज़ ले लो फिलहाल के लिए। आख़िर आपसी सम्बंध कब काम आयेंगे।'
'लेकिन...'
'लेकिन-वेकिन छोड़ो। क़र्ज़ के पैसे से सोसायटी की दुकान से सस्ता चावल तो मिल ही जाएगा।'
'हव,' कहकर बोखा चुप हो गया।
जब क़र्ज़ से लिये पैसे ख़त्म हो गए तो वह ग्राम सचिव के पास काम की तलाश में गया। स्कूल में उसने मनरेगा का नाम सुन रखा था। लेकिन उसने यह कल्पना कभी नहीं की थी कि पढ़-लिखकर वह मनरेगा का मज़दूर बनेगा।
ग्राम सचिव ने उसको देखते ही कहा,
'काम चाहिए? नहीं मिलेगा। मनरेगा कार्ड में तुम्हारा नाम नहीं है। तुम्हारी उम्र सरकारी रिकार्ड में 18 साल से कम है।'
'तो'
'तो क्या। मैने उस दिन तुम्हारे बाप को बोला था। लेकिन वह तो तुम्हें पढ़ा़-लिखा कर बैरिस्टर बनाना चाहता था। नाम नहीं लिखाया।'
'तुम मेरा नाम लिख लो ना,' लगभग गिड़गिड़ाते हुए बोखा बोला।
' पांच हज़ार रुपये लगेंगे। है तेरे पास?
'नहीं'
'तो भाग जाओ यहाँ से।' सचिव ने डाँटकर कहा।
जीवित रहने के लिए बोखा के पास अब एक ही उम्मीद बची थी।
वह सोसायटी की दुकान पर गया।
'तुम्हारे पास राशन कार्ड है अंत्योदय वाला।' दुकानदार ने पूछा।
बोखा की आँखें में चमक उठीं।
'हाँ, है।'
'लेकिन इसमें तुम्हारा नाम नहीं है। सुकरू और लमिया तो मर चुके। यह कार्ड तुम्हारे किसी काम का नहीं।'
'भईया मेरा नाम जोड़ दो ना,' बोखा ने हाथ जोड़कर बिलखते हुए कहा।
'ऐसे नाम नहीं जुड़ता। ग्राम पंचायत में पास कराना होता है।'
'फिर?'
'तुम्हारे पास दो-तीन हज़ार रुपये हैं? हाँ, शर्त यह है कि आधा गल्ला महीने का मैं रख लूँगा।'
'मेरे पास एक पैसा भी नहीं है।'
'फिर जाओ यहाँ से। कुछ और करो। पर कार्ड यहीं छोड़ जाओ।'
'मेरे पास समुज्ज्वला का गैस सिलिंडर है। चाहो तुम रख लो और मेरा नाम राशन कार्ड में लिख दो।'
बोखा ने आखि़री प्रयास किया।
'मेरे पास ढेरो ऐसे सिलिंडर पड़े हैं। गैस भराने का 700 रुपया महीना तुम दोगे क्या?'
ज़िन्दगी से निरूतर बोखा घर वापस लौट गया।
घर के भीतर गहरा अँधेरा और सन्नाटा छाया हुआ था। बिजली बिल भुगतान नहीं करने के कारण एक बत्ती का कनेक्शन कट चुका था। उसके आने की आहट पा इकलौती बची मुर्गी कूँ-कूँ करती उड़ पड़ी। बोखा दो दिन से भूखा था। उस शाम आखिरकार अंतिम मुर्गी को पकाकर क्षुधा शान्त किया।
समनापुर की बसाहट सामान्य गाँवों की तुलना में लगभग सैकड़ों फीट नीचे पठार की घाटी में थी। खड़ी चट्टानों पर चढ़ना और उतरना पड़ता था। चढ़ना-उतरना मोहन की ज़िन्दगी का हिस्सा बन चुका था।
सड़क बन जाने के कारण एक दिन एक सरकारी अफ़सर भाी समनापुर पहुँचा। हमेशा की तरह शाम का गहरा सन्नाटा पसरा था। केवल झिन्गुरों की आवाजें सुनाई पड़ रही थीं। गाँव वालों के चेहरों पर कोई उल्लास नहीं था।
अफ़सर ने पूछा,
'इस गाँव में सबसे गरीब व्यक्ति कौन है?'
शब्द मानों आदिम सभ्यता की अतल गहराईयों में डूब गए। कुछ देर बाद खड़ी चट्टानों से एक प्रतिध्वनि-सी आई। जैसे कह रहीं हों, '
'प्रश्न यह पूछा जाना चाहिए था कि यहाँ धनी कौन है।'
कुछ देर बाद स्वतः ही गाँववालों ने बोखा को आगे कर दिया। सालों की फटी-चिटी पुरानी-धुरानी स्कूल ड्रेस में वह ठीक से खड़ा भी नहीं हो पा रहा था। आत्मविश्वास नहीं होने के कारण वह बार-बार अपना हाथ पाॅकेट में डाल-निकाल रहा था।
'इसमें क्या है,' अफसर ने पूछा।
'कुछ नहीं,' बोखा ने पाकेट उलटकर दिखा दिया।
'खाना क्या खाया?'
'आज कुछ नहीं, साहब।'
'इतनी देर से कुछ नहीं खाया?'
जवाब गाँववालों ने दिया-
'लकड़ी बेचकर अभी नीचे उतरा है। जो पैसा मिला उसका मक्के का आटा खरीदा है। तसले में पेज बनाने के लिये पानी गर्म कर रहा था कि आपने बुला लिया।'
'कल क्या खाएगा,' अफ़सर को उत्सुकता हुई।
इस बार भी जवाब गाँववालों ने ही दिया-
'कल फिर दिनभर लकड़ी बीनेगा और परसों ऊपर चट्टानों पर चढ़कर हाट बाज़ार में बेचने जाएगा और तभी कुछ बनाकर खा पायेगा।'
इस बार अफ़सर चुप था।
उसी रात अचानक उसके स्कूल का दोस्त उसके घर में आ धमका। हरी वर्दी में उसकी आँखें चमक रही थीं। स्कूल से बिछुड़ने के बरसों बाद आज पहली बार वह उससे मिल रहा था। मोहन की तुलना में वह खुश और स्वस्थ लग रहा था। बोखा लगभग डर ही गया था।
'तुम यह क्या कर रहे हो। बन्दूक क्यों उठा ली। यह तो अच्छी बात नहीं है।'
'तो क्या करता। खेती कर नहीं सकता था। खेत सब गिरवी रखे जा चुके हैं। पढ़ने-लिखने के बाद हुनर कोई बचा ही नहीं। पर तुम कौन-सा तीर मार रहे हो। ,' उसने कुछ व्यंग्यात्मक लहजे में कहा।
'फिर भी तुम्हारा काम तो गैरकानूनी है।'
'तो तुम्हारी तरह घूँट-घूँट कर मरना क़ाऩूनी है। तुमने तो बचपन में देखा ही था। इस हरे-भरे जंगल पर हमारे बाप-दादों का एकछत्र राज था। कितने खुश थे। जंगल भी कितना खुश था। नदी तब बहती थी और हवा चलती थी। साल के दूधिया फूलों की सुगन्ध से वातावरण गमगमाता था। बिना रसायनिक खाद वाली कोदो-कुटकी, मक्के और धान में कितनी ताक़त थी। अब कुछ बचा भी है क्या? बताओ कैसे जीये। हमारी रीति-रिवाजों के लुटने के पश्चात् हम धरती पर फालतू जीवों के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं। हम तो अब नाच-गा भी नहीं सकते ताकि गुज़ारा करने का कोई दूसरा रास्ता ही ढूँढ़ लेते। साहूकार और सरकार एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। दोनों ने मिलकर हमें लूटा। एक ने गला दबाकर और दूसरे ने मुफ़्त में खिलाकर। यदि उनका इरादा नेक होता तो हमसे पूछ सकते थे कि हम क्या चाहते हैं। हमारी भलाई किसमें है। लेकिन वे इतने बुद्धिमान और शातिर है कि अगली सुबह के नाम रात में ही रास्ते में नयी-नयी योजना लाकर नोंच-खसोट लेते हैं। तुम्हारा बाप एक अच्छा वैद्य बन सकता था। मेरे बाबू जैविक खेती करने वाले एक समृध्द कृषक बन सकते थे। हमारा ये महुआ, चार तो एक से बढ़कर एक अच्छे उत्पाद में तब्दिल हो सकते थे। लेकिन हमारा आगे बढ़ना किसी ने कब सोचा।'
'पर बन्दूक?'
'हाँ, यह बन्दूक ही अब विकास का प्रतीक है। जिनके हाथों में बन्दूकें हैं वे ही आज विकसित है। विकास की यही परिभाषा रह गयी है।'
बोखा को भौंचक्का छोड़ श्याम रात में ही जंगलों में गायब हो गया।
अगले दिन सुबह बोखा के घर के चारों ओर काफ़ी भीड़ थी। पुलिस और सरकारी गाड़ियों का ताँता लगा था। घर के भीतर खून से लथपथ नयी हरी वर्दी में लाश पड़ी थी। लेकिन वर्दी में गोली के छेद के निशान नहीं थे।
वायरलेस सेट पर दनादन संदेश चल रहा था। एक लाख का इनामी नक्सलाइट 'रमन्ना' पुलिस मुठभेड़ में मारा गया।
अपने बाप के मरने के बाद बोखा भी अपना मकान बदल नहीं बना सका था। यह तीसरी असामायिक मौत थी।
यमदूतों ने उसका घर देख लिया था।
परिकथा जून 2020 में प्रकाशित