यमुना / विष्णु प्रभाकर
भारत के उत्तर में हिमालय पर्वत है। इसकी एक चोटी का नाम बन्दरपुच्छ है। यह चोटी उत्तरप्रदेश के टिहरी-गढ़वाल जिले में है। बड़ी ऊंची है, २०, ७०० फुट। इसे सुमेरु भी कहते हैं। इसके एक भाग का नाम कलिंद है। यहीं से यमुना निकलती है। इसीसे यमुना का नाम कलिंदजा और कालिंदी भी है। दोनों का मतलब कलिंद की बेटी होता है। यह जगह बहुत सुन्दर है, पर यहां पहुंचना बहुत कठिन है। स्वामी रामतीर्थ वहां पहुंचे थे। बस बर्फ की पहाड़ी दीवार पर चढ़ना था, पैर फिसला और सीधे यमपुर। पर चढ़ ही गये। आगे खूब घना वन आया। अन्धेरा इतना कि पेड़ की डाल भी न सूझे। उसके बाद वे खुले मैदान में पहुंचे। वहां हवा में मीठी सुवास थी। जमीन फिसलनी, चारों ओर हरियाली की भरमार। मनोहर फूलों के छोटे-छोटे पौधे। सब थकान उतर गई। जैसे नया जीवन मिला।
फूलों के इसी प्रदेश के पास एक हिमानी से यमुना जन्म लेती है, फिर ८ कि.मी. नीचे उतरकर घाटी में आती है। इस घाटी का नाम 'जमनोत्री' की घाटी' है। इस घाटी में खड़े होकर देखो, दो पतली धाराएं पहाड़ से उतरती दिखाईदेती हैं, जैसे चांदी के झरने हों। नीचे दोनों मिल जाती हैं और यमुना कहलाती हैं। इस घाटी की ऊंचाई १०, ८०० फुट है। यहां यमुनाजी का एक छोटा सा मंदिर है। गरम पानी के कई सोते है। एक तो इतना गरम है कि उसमें आलू उबल जाते हैं। हर साल गर्मियों में हजारों यात्री यहां आते हैं, गरम कुंड में नहाते हैं और यमुना मैया की जन्मभूमि के दर्शन करते हैं।
यह घटी मनोरम नहीं है। दोपहर बाद कोहरा छा जाता है। ६ महीने बर्फ जमी रहती है। गरम कुंड में नहाते हैं और यमुना मैया की जन्मभूमि के दर्शन करते हैं। यह घटी मनोरम नहीं है। दोपहर बाद कोहरा छा जाता है। ६ महीने बर्फ जमी रहती है।
यमुना नदी का नाम वेदों में आता है, पुराणों में आता है। रामायण, महाभारत में भी आता है। कहते हैं, यमुनामैया सूरज की बेटी है।
इसके भाई यमराज हैं। इसलिए इनका एक नाम 'यमी' भी है। सूरज की बेटी होने के कारण 'सूर्य-तनया' कहलाती हैं। इसका पानी बहुत साफ पर कुछ नीला, कुछ सांवला है, इसलिए इन्हें 'काला गंगा' और 'असित' भी कहते हैं। असित एक ऋषि थे। सबसे पहले यमुनामैया की जन्मभूमि का पता इन्होंने ही लगाया था। शायद इसीलिए यमुना का एक नाम 'असित' पड़ गया है। अब बन्दरपुच्छ के नाम की कहानी सुनिये।
रामचन्द्रजी लंका को जीतकर अयोध्या लौट आये। राज करने लगे। हनुमानजी बहुत थक गये थे। थकान उतारने के लिए वह सुमेरु पर पहुंचे।
यहां से कोई ४० कि.मी. नीचे एक जगह है 'गंगानी'। यहां नीले रंगवाली यमुना ऐसी लगती हैं जैसे कोई पहाड़ी युवती हो। चेचल, पर बलवती। ऊंचे-नीचे मार्गो पर भागती जा रही हैं, किसी से मिलने। पर यमुना के देश में यह 'गंगानी' नाम कैसा? इसकी भी एक कहानी है। पुराने जमाने में यहां एक ऋषि रहते थे। गंगा यहां से कुल २५ कि.मी. दूर है। पर एक विकट पहाड़ पार करना होता है। वह ऋषि उस राढ़ी पर्वत को पार करके रोज गंगा नहाने जाते थे। एक दिन वह बूढ़े हुए। तब उनसे चला नहीं गया। उन्होंने 'गंगामैया' को पुकारा। मैया प्रसन्न हुई और यमुना के किनारे एक कुंड में आकर रहने लगीं। वह कुंड आज भी है। ऐसा लगता है किसी साहसी ने गंगा की एक धारा को इधर मोड़ दिया था। शायद उन ऋषि ने ही कोई जुगत की हो।
बहुत दूर तक यमुना इसी तरह उछलती-कूदती चलती है। छोटे-मोटे बहुत से झरने, बहुत सी नदियां इसमें मिलती हैं। इसी तरह सिरमौर की सीमा के पास देहरादून की घाटी में पहुंच जाती है। यहां कालसी-हरिपुर के पास इनकी बहन टौंस (तमसा) इससे मिलने आती है। यह संगम बड़ा पावन माना जाता है।'हयहय' क्षत्रिय पुराने जमाने में बड़े मशहूर हुए। कार्तवीर्यार्जुन जैसा वीर इसी जाति में हुआ था। इसी का नाम सहस्रार्जुन था, परशुराम ने इसी को मारा था। इस जाति का आदि-पुरुष 'हयहय' यहीं पैदा हुआ था। कुछ लोग मानते हैं कि चन्द्रवंश के राजा पुरुरवा की राजधानी यहीं कहीं थी। वह एक पहाड़ी नरेश था और यहीं उर्वशी उनसे मिली थी। उनके पोते ययाति ने नीचे उतरकर मैदान में अपना राज फैलाया। इन्हीं के कुल में आगे चलकर श्रीकृष्ण, कौरव और पाण्डव हुए और पहाड़ों में पहले किन्नर, सिद्ध, गन्धर्व आदि जातियां रहती थीं। ये लोग बहुत खूबसूरत और नाचने-गाने के शौकीन थे। उर्वशी इन्हीं में से किसी जाति की रही होगी।
कुछ दूर शिवालिक पहाड़ियों में घूम-घामकर यमुना नदी पहाड़ों से विदा लेती है। अपना पीहर छोड़ देती है और फैजाबाद (जिला सहारनपुर) के स्थान पर मैदानों में प्रवेश करती है। बस, यहीं से यह उपकार में लग जाती है। सिंचाई करने को लोग नदियों से नहर निकालते है। जिन नदियों से हमने पहले-पहल नहर निकाली, उनमें यमुना भी है। ६०० साल पहले दिल्ली में फिरोज तुगलक राज करता था। उसने फैजाबाद के पास से यमुना नदी से एक नहर निकाली थी। आज इस नहर का नाम 'पच्छिमी यमुना नहर' है। यह अम्बाला, हिसार और करनाल आदि जिलों को सीचाती है। लेकिन यह नहर शुरु से ही ऐसी नहीं थी। कुछ दिन बाद ही बुंद हो गई थी। २०० साल बाद अकबर ने इसे पुर ठीक करवाया। उसे हांसी-हिसार के शिकारगाहों के लिए पानी की जरुरत थी। शाहजहां उसकी एक शाखा दिल्ली तक ले गया। ५० साल बाद यह नहर फिर खराब हो गई। लार्ड हेस्टिंग्ज के समय में कप्तान व्लेन ने उसे फिर चालू किया। यह १८१८ ई० की बात है। तबसे इसे बहुत बार ठीक किया गया, क्योंकि यह दुधारु गाय है। आज जो इसका रुप है, उसके लिए बहुत पैसा खर्च हुआ। एक तरह से इसे नये सिरे से बनाया गया।
जहां से यह नहर निकली है, बाद में उसी के सामने बाएं किनारे से एक और नहर निकाली गई। कब निकाली गई, इसका ठीक पता नहीं। २०० साल तो हो ही गये होंगे। इसे दोआब नहर कहते थे। आज यह सहारनपुर, मुजफ्फरनगर और मेरठ के जिलों को सींचती है। वह दिल्ली के पास यमुना में मिल जाती है। यह भी कई बार खराब हुई कई बार बनी। आखिर ३ जनवरी, २८३० को यह काम पूरा हुआ। यह 'पूर्वी यमुना नहर' कहलाती है। पहले दोनों नहरें उत्तरप्रदेश सरकार के हाथ में थीं, अब 'पश्चिमी नहर' पंजाब सरकार के हाथ में है। २८७९ ई० में ताजेवाला में नया हेडवर्क्र्स बन गया। अब दोनों नहरों को यहीं से पानी दिया जाता है। इन नहरों के कारण पंजाब और उत्तर प्रदेश का बहुत सा इलाका खुशहाल हुआ है। जो देश खेती पर जीता है उस देश में नदियों की बड़ी कीमत होती है। यमुना ऐसी ही एक कीमती नदी है।
नहरों का दान करने के बाद यमुना बहुत धीरे-धीरे चलने लगती है। बहुत दूर तक वह पंजाब और उत्तरप्रदेश की सीमा बनी रहती है। एक ओर पानीपत, रोहतक के जिले हैं तो दूसरी ओर मुजफ्फरनगर और मेरठ के।
पानीपत में तीन-तीन बार भारत के भाग्य का फैसला हुआ। कुरुक्षेत्र में महाभारत का युद्ध लड़ा गया। ये दोनों यमुना से दूर नहीं हैं। वह वीरों का सिंहनाद सुनती है। गीता की वाणी भी सुनती है। मेरठ में १८५९ की आजादी की लड़ाई शुरु हुई थी, इसे भी वह अच्छी तरह जानती है।
यही सब जानती-बूझती वह भारत की राजधानी दिल्ली के पास आ पहुंचती है। कितनी बार यह राजधानी बनी, कितनी बार उजड़ी, कितने राज उठे, कितने राज मिटे, यमुना सबकुछ देखती रहीं।
१८५७ से लेकर १९४७ तक की आजाद की लड़ाई शानदार है १५ अगस्त, १९४७ के दिन लाल किले पर तिरंगे को देखकर यमुना की छाती फूल उठी थी। लेकिन उसके बाद उसने जो कुछ देखा, उसे देखना वज्र की छाती का ही काम था। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की हत्या इसी राजसी दिल्ली में हुई। राजघाट पर यमुना ने उस शान्तिदूत को अपने पास ही सुला रखा है। जबतक यमुना जीती है, वह भी जीता है।
दिल्ली में यमुना ने राजाओं को देखा, शूर-वीरों को देखा, साहित्य के दीवानों को भी देखा। व्यास यहां न जाने कितनी बार आये। चन्दबरदाई ने यहीं रासो की रचना की। फिर गालिब,
जौक, मीर, सौदा और मोमिन एक से एक बढ़कर शायर यहीं पर हुए। यहीं हिन्दी जन्मी और उर्दू परवान चढ़ी।
और दिल्ली की कला, यहां का लाल किला, यहां के भवन, यहां की मस्जिदें, मीनारें, मकबरे इस कहानी का कोई अंत नहीं।
दिल्ली से चलकर यमुना ओखला पहुंचती है। वैसे यह दिल्ली का ही भाग है। यमुना को फिर किसानों की याद आती है। ५ मार्च, १८७४ को यहां से एक नहर निकाली गई इसे 'आगरा नहर' कहते हैं। इसमें केवल यमुना का ही पानी नहीं है, हिंडन और बाद में गंगा की नहर से भी पानी लिया गया। इस तरह इस नहर में प्रयोग से बहुत पहले गंगा-यमुना का संगम हो जाता है। यह नहर ताज के बगीचों को सींचती है। आगरा नगर को पीने का पानी देती है। कई रेलवे स्टेशन भी इसी से पानी लेते है।
दिल्ली से चलकर यमुना दनकौर के स्थान पर हिंडन नदी को अपने साथ ले लेती है। एक बाद फिर पंजाब और उत्तरप्रदेश की सीमा बनती है। एक ओर गुड़गांव, दूसरी ओर बुलन्दशहर। उसके बाद मथुरा में प्रवेश करती है। मथुरा के साथ युगों का इतिहास जुड़ा हुआ है। इसके आसपास का प्रदेश शूरसेन जनपद कहलाता है। यहीं यदु के वंशवाले यादव बसे। यहीं शत्रुघ्न ने लवणासुर को मारकर राम-राज्य स्थापित किया। यहीं कृष्ण हुए, वही कृष्ण, जिन्होंने यादव-संघ की रक्षा की वही कृष्ण कन्हैया, जिसके चरित्र से ब्रजभूमि का चप्पा-चप्पा पावन हो चुका है। मथुरा वृन्दावन की तो शोभा ही निराली है। यमुना के कानों में मुरली की मधुर आवाज आज भी हिलोरें पैदा करती है।
यमुना का कन्हैया देखते-देखते ब्रज की सीमाओं को लांघकर सारे भारत में रम गया।
भगवन बन गया। उसके प्रेम में पागल होकर चैतन्य, सनातन और वल्लभ जैसे न जाने कितने दीवाने सन्त यमुना के तट पर आये। न जाने कितने कवियों ने उसके गुण गाकर कविता को पावन किया। वह देखो, हिन्दी कविता-गगन के सूर्य सूरदास, कण्ठ के जादूगर और संगीत के स्वामी हरिदास, मर्मी कवि नन्ददास और....कितने नाम गिनाये जायं। वेदों के पंडित स्वामी बिरजानन्द सरस्वती भी यहीं रहती थे। यहीं स्वामी दयानन्द से उन्होंने वचन लिया था, "वेदों का प्रचार करने के लिए प्राणों का मोह नहीं करुंगा।"
लेकिन दयानन्द ही क्यों, बुद्ध की मथुरा पर क्या कम कृपा रही है! अपनी शिक्षाओं का प्रचार करने के लिए अशोक भी यहां आये। यमुना के तट पर उन्होंने एक स्तूप स्थापित किया। कनिष्क युग की मूर्ति कला कितनी महान है। हुएनसांग आदि भारत में आनेवाले सभी यात्री मथुरा जरुर आये। सबने उसकी बहुत तारीफ की। कालिदास ने भी की।
अबतक यमुना अधिकतर दक्षिण की ओर चल रही थी। यहां से पूरब की ओर मुड़ जाती है। बहन गंगा से मिलना जो है। बस, इसी तरह पहुंच जाती है आगरा।
आगरा बहुत पुराना नगर है। राज्य की रक्षा और व्यापार, सभी तरह से इसका महत्व है। राजपूताना और मालवा दोनो से आनेवाले रास्ते यहीं यमुना पार करते हैं। सिकन्दर लोदी ने इस बात को समझा था। दक्षिण के बागियों पर अंकुश रखने के लिए इससे अच्छा स्थान और नहीं था। इसलिए १५०३ ईस्वी में उसने यहां राजधानी बनाई। उसका बसाया हुआ सिकन्दरा, आज के आगरा से केवल ८ कि.मी. दूर है। अकबर वहीं सोया हुआ है। आगरा के किले की नीवं लोधी ने रखी थी। अकबर ने उसे शुरु किया, शाहजां ने उसे पूरा किया। इसी किले में ग्वालियर के कछवाहा राजा ने हुमायूं को कोहेनूर दिया था। इसी किले के सामने, यमुना के किनारे, शाहजहां की आंख का आंसू ताल खड़ा है। ताज, जिसकी रुपरेखा शीराज-निवासी उस्ताद ईसा ने तैयार की, जिसका निर्माण भारत, बगदाद, बुखारा और समरकन्द के कारीगरों ने किया, जो प्यार की सबसे प्यारी यादगार हैं, जो सफेद संगमरमर में की गई विरह की सबसे पावन कविता है, जो काल के कपोल पर पड़ा एक आंसू है। एतमादुद्दौला का मकबरा, सिकन्दरा में अकबर का मकबरा, किले में मोती मस्जिद, ये सब कला के अजूबे हैं।
आगरा में शाहजहां ने प्यार को अमर किया, आगरा में औरंगजेब ने प्यार के कलेजे में खंजर भोंका।
यमुना अब फिर पूरब की ओर बढ़ जाती है। रास्ते में करवान और बेन गंगा दौड़ी हुई आती हैं और उसकी गोद में सो जाती हैं। इटावा के पास यमुना के कछार में चन्दावर का मैदान है। इस मैदान में बूढ़े जयचन्द ने शहाबुद्दीन गोरी के पठानों से गजब का लोहा लिया था। यमुना इस कहानी को जानती है। इसके बाद वह पहुंचती है कालपी। लेकिन उससे पहले उत्तर से आनेवाली सेंगेर से उसकी भेंट हो जाती हैं, पर दक्षिण से जो स्नेह लेकर चम्बल आती है, उसकी तो बात ही निराली है। चम्बल विन्ध्य पर्वत की बेटी है। साथ में अरावली का जल भी लाती है। यमुना में मिलकर वह उत्तर-दक्खिन का भेद मिटा देती है। चम्ब्ल का दूसरा नाम चर्मण्वती है। यह वैदिक काल की नदी है। प्रसिद्ध दानी राजा रन्तिदेव इसी के किनारे पर राज करते थे। महाभारत और पुराण उसके यश के गीतों से भरे पड़े हैं। उसने अनेक यज्ञ किये। उनमें अनगिनत पशु मारे जाते थे। उनके खून से चम्बल हमेशा लाल रहती थी। इन पशुओं के चमड़े सुखाने के लिए नदी के किनारे डाले जाते थे। कहते हैं, इसीलिए इसका नाम चर्मण्वती हुआ। कुछ दूर चलने पर मालवा से ही नन्हीं सी सिन्ध लपकी हुई आती है और यमुना की गोदी में छिप जाती है।
कालपी पुरानी नगरी है। मालवा और बुन्देलखंड से आनेवाले रास्ते यहीं यमुना पार करते हैं। इस कारण इसका बहुत महत्व रहा है। इसी से मुसलमान, मरहठे और अंग्रेज सभी ने बारी-बारी से इस पर अधिकार किया है। लेकिन कालपी के साथ एक और गौरव भरी कहानी जुड़ी हुई है। यहां से ९ कि.मी. दूर, गलौली में, १८५७ की आजादी की लड़ाई लड़ी गई थी। इस युद्ध में रानी लक्ष्मीबाई ने जो वीरता दिखाई थी, उससे सभी चकित रह गये थे।
यमुना आगे वेत्रवती (बेतवा) को अपने साथ ले लेती है। पर दक्किखन ने अभी अपना पूरा कर कहां चुकाया है? बांदा जिले में पहुंचने पर केन भी अपना जल यमुना को अर्पण करने आ पहुंची।
आगे आता है कोसम। आज यह गांव है, पर कभी इसी का नाम कौशाम्बी था। इसके साथ उदयन और वासवदत्ता की प्रेम-कहानी जुड़ी हुई है। राम और कृष्ण के बाद हमारे साहित्य में उदयन का ही नाम आता है। कालिदास ने 'मूघदूत' में इस प्रेम कहानी की चर्चा की है। इस नगर की खुदाई में बहुत सी पुरानी चीजें मिली हैं, जो पुराने भारत के बारे में बहुत जानकारी देती हैं। कहते हैं, गंगा हस्तिनापुर को बहा ले गई थी, तब कौरवों का राजघराना यहीं आ बसा था। इसी राजकुल में राजा उदयन हुआ। उसी के समय में गौतम बुद्ध यहां दो साल रहे। बोद्ध धर्म का यहां एक बहुत बड़ा विहार था। चन्दन की बनी तथागत की एक विशाल मूर्ति भी थी। इसे राजा उदयन ने बनवाया था। एक कुंए और स्नानघर का भी पता लगा है। तथागत वहां नहाया करते थे। वहां एक स्तूप भी था। इसमें तथागत के केश और नाखून रखे थे। राजा होने से पहले अशोक भी कौशाम्बी में रहता था। बाद में उसने यहां अपनी लाट खड़ी की। यह लाट अब इलाहाबाद के किले में है। यहीं पर समुद्रगुप्त ने एक साथ आर्यवर्त्त के राजाओं का मान मर्दन किया था। इसके बाद यमुना आगे बढ़ी और एकदम प्रयाग में बहन के गले से जा मिली।
हिमालय में बहुत पास-पास दोनों बहनों का घर है। पर यहां १०६५ कि.मी. चलकर कहीं यमुना गंगा से मिल पाती हैं।
यमुना ने गंगा को अपना जल ही नहीं दिया, जीवन भी दे दिया। तब से आजतक लाख-लाख नर-नारी इस अनोखे मिलन को देखने के लिए आते रहते हैं। इसे देखकर राम ने सीता से कहा था, "देखो, यमुना की सांवली लहरों से मिली हुई उजली लहरों वाली गंगाजी कैसी सुन्दर लग रही हैं। कहीं ऐसा लगता है कि मानो सफेद कमल के हार में नील कमल गूंथ दिये हों, कहीं छाया में विली चांदनी, धूप-छांव सी छिटकी हुई सी लगती हैं। कहीं जैसे शरद के आकाश में बादलों की रेखा के भीतर से नील गगन छलक पड़ता हो। जो गंगा-यमुना के संगम में नहाते हैं, वे ज्ञानी न भी हों, तो भी संसार से पार हो जाते है।"
यह भी कहा जाता है कि यहां पहले यमुना ही बहती थी, गंगा बाद में आई। गंगा के आने पर यमुना अर्ध्य लेकर आगे आई, लेकिन गंगा ने उसे स्वीकार नहीं किया। बोली, "तुम मुझसे बड़ी हो। मैं तुम्हारा अर्ध्य लूंगी तो आगे मेरा नाम ही मिट जायगा। मैं तुममें समा जाऊंगी।" यह सुनकर यमुना बोली, "बहन, तुम मेरे घर मेहमान बनकर आई हो। मैं ही तुममें लीन हो जाऊंगी। चार सौ कोस तक तुम्हारा ही नाम चलेगा, फिर मैं तुमसे अलग हो जाऊंगी।"
गंगा ने यह बात मान ली और इस तरह गंगा और यमुना एक-दूसरे के गले मिलीं। गंगा-यमुना के बारे में और भी कई कथाएं कही जाती हैं। गंगा का जल सफेद, यमुना का नीला। दोनों का रंग अलग-अलग दिखाई देता है। पर संगम से आगे गंगा का जल भी कुछ नीला हो जाता है। कहते हैं कि यहां से नाम गंगा का रह जाता है और रंग यमुना का। सूर्य की कन्या माने जाने के कारण जमुना का पानी कुछ गर्म है। साफ भी बहुत है। उसमें कीटाणु भी नहीं होते।
जहां यह संगम है, वह स्थान त्रिवेणी कहलाता है। कहते हैं, सरस्वती भी यहीं पर गंगा में मिलती है, लेकिन वह दिखाई नहीं देती। यह दिखाई नहीं देती। यह स्थान बड़ा पावन है। माघ के महीने में हर साल यहां मेला लगता है। बारहवें साल कुम्भ के अवसर पर लाखों नर-नारी यहां इकट्ठे होते हैं। छठे साल अर्द्धकुम्भी का मेला भी जोर-शोर से लगता है। देश के कोने-कोने से लाखों नर-नारी, साधु सन्त यहां आते हैं।
आज से साढ़े बारह सौ साल पहले हर्ष भारत का राजा था। वह हर पांचवे साल संगम पर एक सभा किया करता था। ऐसी ही सभा में हुएनसांग भी शामिल हुआ था। उसने लिखा, "इस सभा में भारत के अनेक राजा आये थे। महाराजा ने अपना सब धन पुजारियों, विधवाओं और दीन-दुखियों को दान कर दिया था। जब कुछ न बचा तो राजमुकुट दे दिया, मोतियों का हार भी दे दिया, यहां तक कि पहनने के कीमती कपड़े भी दे दिये। अपने पहनने के लिए एक वस्त्र अपनी बहन जयश्री से मांगा।"
प्रयाग को आज इलाहाबाद कहते हैं। अकबर ने इसका नाम अल्लाहाबाद रखा था। वही बिगड़कर इलाहाबाद हो गया। गंगा-यमुना के बीच की जगह उसे बड़ी पसन्द आई वहां उसने किला बनवाया। यह लाल पत्थर का बना हुआ है। इसकी एक दीवार यमुना के किनारे है, दूसरी गंगा के सामने। इस किले में अशोक की लाट है। इस किले में अक्षय वट है। हुएनसांग के वर्णन से जान पड़ता है कि तब यह वट मन्दिर के आंगन में खड़ा था। उसकी पत्तियां और शाखाएं दूर-दूर तक फैली हुई थीं। पर अब वहां पेड़ नहीं है। दीवार में एक बड़ा आला है। उसमें पुरानी लकड़ी का एक मोटा गोल टुकड़ा रखा है। उस पर कपड़ा लिपटा है। यही अक्षय वट बताया जाता है।
इस किले में कभी बहुत महल थे। कुएं, बावड़ी और नहरें भी थीं। यमुना की ओर जो महल थे, वही से अकबर गंगा-यमुना की शोभा देखा करता था।