यश चोपड़ा की मृत्यु और उनकी कार्य-संस्कृति / जयप्रकाश चौकसे

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यश चोपड़ा की मृत्यु और उनकी कार्य-संस्कृति
प्रकाशन तिथि : 26 अक्तूबर 2012


गुरुवार को मुंबई के विशाल यशराज स्टूडियो में यश चोपड़ा का 'चौथा' संपन्न हुआ। इस प्रार्थना के बाद मान लिया जाता है कि अधिकृत शोक का समय समाप्त हुआ और जीवन के कार्य पुन: बदस्तूर आरंभ किए जा सकते हैं, परंतु हर मृत्यु के साथ उनके प्रियजन के हृदय का एक हिस्सा सुन्न पड़ जाता है और दिवंगत की यादें जीवनपर्यंत आपके साथ चलती हैं। ठीक इसी तरह परिवार में एक शिशु के आगमन पर हृदय में नई ऊर्जा का जन्म होता है और मनुष्य हृदय की क्रीड़ा भूमि पर नित्य नई क्रियाएं सदैव चलती रहती हैं।

यशराज चोपड़ा ने अपनी फिल्म 'जब तक है जान' का एक अंश लद्दाख में शूट किया और उसी दरमियान उनके फेफड़ों में निमोनिया का रोग लग चुका था। अमिताभ बच्चन के जन्मदिन समारोह में वे डॉक्टर की सलाह के विपरीत जाकर शामिल हुए। जब उन्हें अस्पताल में दाखिल किया गया तो निमोनिया के उपचार की कोई भी दवा कारगर सिद्ध नहीं हो रही थी और एक-एक करके उनके सारे अंग जवाब देते रहे। यह उनकी जीवटता और दृढ़ संकल्प का परिणाम है कि वे उम्र के इस दौर में अपना काम यथावत करते रहे।

उनकी मृत्यु के बाद भी यशराज स्टूडियो में फिल्म का पोस्ट प्रोडक्शन सतत चलता रहा, क्योंकि विदेश प्रदर्शन के लिए एक सप्ताह पूर्व फिल्म के प्रिंट्स विभिन्न देशों में सेंसर के लिए भेजे जाते हैं। वे अपने पीछे ऐसी कार्य-संस्कृति छोड़ गए हैं कि कार्य सतत चलता रहे- 'द शो मस्ट गो ऑन'। मनोरंजन जगत की इसी अलिखित परंपरा के अनुरूप आज से हरियाणा में उनकी फिल्म 'औरंगजेब' की शूटिंग पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के अनुरूप जारी हो जाएगी। ज्ञातव्य है कि इस फिल्म का इतिहास के औरंगजेब से कोई संबंध नहीं है। यह तो छोटे शहरों में पसरते संगठित अपराध की कथा है, जिसके सरगना को उसकी क्रूरता के कारण लोग औरंगजेब के नाम से पुकारते हैं और यह पात्र ऋषि कपूर अभिनीत कर रहे हैं।

यश चोपड़ा की स्मृति में अनेक चैनलों ने दशहरे के दिन उनकी अनेक फिल्में प्रदर्शित कीं। मैंने उनकी प्रिय फिल्म 'लम्हे' का पुनरावलोकन किया। राजस्थान के सामंतवादी घरानों की पृष्ठभूमि से प्रारंभ यह प्रेमकथा लंदन होते हुए पुन: अपनी जन्मभूमि पर आती है। नायक अनिल कपूर एक धनाढ्य सामंतवादी घराने का आधुनिक व्यक्ति है और उसका प्रेम श्रीदेवी से हो जाता है, जो एक अनाथ वायुसेना के पायलट भारद्वाज को प्यार करती है। विवाह के कुछ समय बाद श्रीदेवी और उसका पति एक दुर्घटना में मर जाते हैं और उनकी नन्ही पुत्री को पालने की जवाबदारी अनिल कपूर अपनी दाय मां को सौंपता है। शिशु की शक्ल अपनी मां से मिलती है और अपनी दोहरी भूमिका में श्रीदेवी अपने-से उम्र में बड़े अनिल कपूर से प्रेम करती है, जो उसमें अपने पहले एकतरफा प्यार की झलक देखकर उससे दूर रहना चाहता है। श्रीदेवी बार-बार उसे समझाने का प्रयास करती है कि वह मात्र अपनी मां की परछाई नहीं और न ही उसकी पुत्रीवत है, वह एक स्वतंत्र व्यक्तित्व है और उससे प्रेम करती है। वह यह भी कहती है कि उसकी मां ने केवल अपने पति को प्यार किया था। वह अपने एकतरफा प्यार की स्मृति में अपने मन में जन्मे प्यार को नकारता हुआ अपने में सिमट रहा है। वह सत्य से दूर भाग रहा है। इस फिल्म में अनुपम खेर ने सशक्त भूमिका की थी, जो बार-बार अपने परम मित्र से यथार्थ को अपनाने को कहता है। विगत से चिपटे रहने से जीवन नहीं चलता। गुजरे हुए वक्त की जुगाली जीवन नहीं है। विगत को मनके के दानों की तरह हाथ में बार-बार फेरते हुए आप उनकी गिनती करते हैं, परंतु एक दाना है, जिसे आप फिराते हैं, परंतु गिनते नहीं। इस सूक्ष्म भाव को गालिब ने क्या खूब बयान किया है - 'हम ब आलम बरकिनार कुफनाद अम, चूं इमामे सबह बैरु अज शुमार उफनाद अम।'

ज्ञातव्य है कि ध्यान की इस माला का न गिना जाने वाला दाना मेरुमणि कहलाता है, जिसे हम प्रार्थना की गिनती में शुमार नहीं करते। हर व्यक्ति का जीवन सार्थक है और मृत्यु भी अर्थहीन नहीं। बहरहाल, यह गौरतलब है कि गुरुदत्त की प्रिय फिल्म 'कागज के फूल', राज कपूर की प्रिय फिल्म 'मेरा नाम जोकर' और यश चोपड़ा की प्रिय 'लम्हे' बॉक्स ऑफिस पर नहीं चलीं। यह क्यों हुआ, यह अलग लेख का विषय है। बहरहाल, यश चोपड़ा की याद भी मेरुमणि की तरह हम उंगलियों से फिराते रहेंगे और गिनती से परे वह दिल में अपनी जगह कायम रहेगी। मृत्यु कोई अंत नहीं है।