यस सर / प्रेमपाल शर्मा
आखिरकार निर्णय हुआ कि मैं एक दिन पहले चला जाऊँ। बॉस अगले दिन पहुँचेंगे।
एक दिन पहले इसलिए कि मैं कलकता पहुँचकर रेलवे के लीगल सैल में संपर्क करूँ। वकील का पता करके उससे मिलूँ और आवश्यक कागजात तैयार करके रखूँ। बॉस अगले दिन आते ही हस्ताक्षर कर देंगे।
'ठीक है सर। नो प्रोबलम।' मैंने गंभीरता से आदेश को स्वीकार किया।
थोड़ी-सी राहत तो मैंने महसूस की ही कि चलो इसके साथ एक ही कंपार्टमेंट में साथ जाने की बला तो फिलहाल टली। पूरे 28 घंटे तो मैं अपनी मर्जी से काटूँगा। खुदा करे उसे अगले दिन रिजर्वेशन न मिले। फिर तो दो दिन मिल जाएँगे अपन को। पर ऐसा हो नहीं सकता कि उसे रिजर्वेशन न मिले। मेरे दिल से आवाज आई।
खैर 28 घंटे ही सही। यही क्या कम है। वरना जिस दिन से उसके बॉस ने कहा था कि अगली तारीख पर हम दोनों ही कलकत्ता चलेंगे तो उसके सारे सपने जैसे उसका नाम लेते ही हुगली में छलाँग लगा गए थे।
'हाँ सर जरूर चलिए। बड़ा इंपोर्टेंट केस है।'
'इसीलिए तो मैं सोच रहा हूँ कि मुझे भी जरूर चलना चाहिए इस बार।' बॉस ने कहते हुए अपनी लंबी ऊँची-नीची नाक पर दो-तीन बार उँगलियाँ फेरीं।
गलती दरअसल मुझसे ही हुई थी। मैंने स्वयं का जाना जरूरी सिद्ध करने के लिए सारे सिस्टम को कई बार गाली दी थी कि सर जब तक वहाँ जाकर वकील के सिर पर नहीं बैठो कोई काम ही आगे नहीं बढ़ता। कि हम यहाँ से इतनी जल्दी कार्रवाई करके भेजते हैं। भागदौड़ करके पुराना से पुराना रिकार्ड ढूँढ़ते हैं और पता चलता है कि वकील साहब कोर्ट में हाजि़र ही नहीं हुए। सर, जबलपुर वाले केस में तो वकील पिटीश्नर से खुल्लमखुल्ला मिला हुआ था। मैं उस दिन वहाँ उपस्थित नहीं होता तो जरूर मंत्रालय के विरुद्ध कोर्ट ने आदेश जारी कर दिए होते।
जबलपुर का उदाहरण मैंने इसलिए भी दिया था कि देखा मैं कितना तेज हूँ कोर्ट केस के किले फतह करने में और कि पहले भी मुझे ही भेजा जाता रहा है और यदि इस बार कलकत्ता नहीं गया तो कोई भी बिजली गिर सकती हैं।
ये बातें मैं पहले कई बार दोहरा चुका था पर जबसे उसने कहा कि 'इसलिए मैं भी साथ चलने की सोच रहा हूँ' तो उसे अहसास हुआ कि बेटा कुछ ज्यादा ही हो गया। घोड़े इतने नहीं दौड़ाने चाहिए थे कि लगाम ही छूटने लगे। बॉस ने साथ ही यह भी जोड़ दिया कि उसने कलकत्ता नहीं देखा। रिटायर होने से पहले देखें तो सोनागाछी है कहाँ।
'अच्छा सर आप भी नहीं गए अभी तक!' उसने विस्मय जताया।
'बहुत पहले गया था जब मिनिस्टर के स्टाफ में था स्टेट गैस्ट के रूप में। पर कुछ भी कहिए मंत्री जी के साथ घूमने-फिरने की आजादी थोड़े ही रहती है।'
उसके दाँत फिर बाहर निकल आए - ओह, तब तो आप वाकई महान हैं के अंदाज में।
मुझे लगा कि ऐसा न हो कि केवल बॉस जाए और उसे स्टेशन तक फाइलें पहुँचाकर ही वापस लौटना पड़े। उसे बचपन की याद आई। माँ हर पूर्णमासी को गंगा नहाने जाती थी। पहले तो वे मुझे भी साथ चलने के लिए बहलाती रहतीं पर ऐन वक्त पर बस आते ही वे स्वयं बैठकर चली जातीं और मैं चाचा की गोदी में टाँगें मार-मारकर रह जाता। कहीं कलकत्ता का प्रोग्राम भी ऐसा न हो?
यों वह कलकत्ता जाने की बहुत दिनों से सोच रहा था पर कभी छुट्टी नहीं, कभी दूसरे गोरखधंधे। रेलवे की नौकरी का और कोई फायदा हो न हो इतना तो है ही कि जाना फोकट में, रहना फोकट में और आना फोकट में। और भई खाना तो आप अपने घर भी खाते हैं। जो रेट दिल्ली में वही कलकत्ता में। पर सरकारी खाते में जाना हो जाए तो कहना की क्या। जेबखर्च के लिए टी.ए.डी.ए.
इसलिए जब बॉस के बॉस ने उसे विशेष रूप से बुलाकर कहा कि इस केस की पैरवी तुम स्वयं कलकत्ता जाकर करो तो उसे मानो मुराद मिल गई।
शाम को जब चित्रा को उसने बताया तो वह भी गदगद हो गई। अक्सर ऐसे किसी भी प्रस्ताव की निश्चिंतता भाँपकर वह आदतन पहले नखरे करती है कि 'कैसे निकल पाऊँगी। बिट्टू का स्कूल का काम पिछड़ जाएगा। बंटी भी पता नहीं कब चलना सीखेंगे। आपकी क्या है जिधर मुँह उठ गया उधर ही चल दिए। इतना भी नहीं देख सकते कि स्कूल का काम भी कभी पूरा करा लें। मुकुल को देखो और नकुल को देखो।' वह चुप दार्शनिकता ओढ़े सारे तीरों को निकल जाने देगा। यदि दो ही दिन पहले बंटी पलंग से गिरा हो तो साफ मना कर देगी, आवाज में दो-तीन गुस्से एक साथ घोलकर। 'मैं नहीं जाती कहीं जब तक मेरे बेटे बड़े न हो जाएँ - मेरा बेटा! मेरा लाल!'
पर कलकत्ते के प्रसंग ने उसे भी बिल्कुल रोमांचित कर दिया। 'ठीक है मेरी भी बड़ी इच्छा है कि कहीं बाहर चला जाए। इतने दिनों से कहीं गए ही नहीं हैं। घर... घर... घर। वहाँ से सिक्किम भी चले चलेंगे जी। वहाँ इंपोर्टेड साड़ियाँ मिलती हैं। कम से कम चार साड़ी लेनी हैं - दो सिल्क की, दो तंतुजा की। तंतुजा की साड़ियों का तो मेरा कब से मन है। एक मम्मी के लिए लूँगी।'
'इसीलिए तो कलकत्ता का प्रोग्राम बनाया है।' कहते हुए उसने उसे चूम लिया।
'देखो कैसे बनाते हैं, वह छुड़ाते हुए बोली। 'दफ्तर का काम न होता तो बड़े घुमाते। क्यों जी वहाँ से अंडमान कितना दूर है? वहाँ भी चल सकते हैं?'
'अंडमान चलो। एक तरफ से बाई एअर चलते हैं। लौट लेंगे मद्रास होकर स्टीमर से। और बोलो?'
बॉस को भी साले को अभी कलकत्ता देखना था। जब तीन साल से नहीं गया तो अभी क्या ताल आ गई उसे। पर नहीं। किसी न किसी प्रसंग को रोजाना छेड़ ही देगा। 'गुप्ता जी वो पेपर्स मिल गए?'
'कौन से सर?'
'वही जिनकी आप कह रहे थे न!' जानते हुए भी वह अनजान बनने की कोशिश करता है - 'यू.पी.एस.सी. वाले सर?'
'नहीं, वो नहीं, वो जिसमें रिट दाखिल करनी है।'
'वो तो सर कार्मिक मंत्रालय को दाखिल करनी है। हमें तो सिर्फ अपने मंत्रालय का जवाब भेजना था सो वह भेज दिया।'
'नहीं! वो कलकत्ते वाला, गुप्ता जी।'
'अच्छा! अच्छा हाँ सर, अभी तो नहीं हुआ। कुछ पेपर्स नहीं मिल रहे। अगले हफ्ते मैं खुद नेशनल आर्काइव्स जाऊँगा। खुद कहाँ, कहाँ मरो सर! इन लोगों पर तो इतना भी भरोसा नहीं कर सकते।'
'हाँ, वो तो है, पर तैयार तो होकर जाना ही पड़ेगा। उस दिन सेक्रेटरी साहब भी पूछ रहे थे।'
'अच्छा सर?' उसने किनारे से काँटा निकालना चाहा। 'सर सेक्रेटरी साहब को बता तो दिया है न हम दोनों जाएँगे, क्योंकि यहाँ भी तो कोई रहना चाहिए।' वह चाहता था कि अभी भी उससे पीछा छूट जाए।'
'हाँ कह तो दिया है पर शायद उन्होंने सुना नहीं। वे किसी दूसरे केस को डिस्कस कर रहे थे। खैर उनको तो बता देंगे।'
वह चाहता था कि साफ हो जाए कि वह अकेला जाएगा या उसके साथ बॉस भी जाएगा। अकेला जाएगा तो चित्रा साथ और प्रोग्राम ही दूसरा होगा।
'चित्रा! एक दिन नहीं हम दो दिन शांतिनिकेतन जरूर ठहरेंगे। वहीं रुकेंगे रात को। कोई कह रहा था कि शांतिनिकेतन का मजा लेना हो तो वहाँ कम से कम दो रात जरूर बिताएँ।'
'दो-एक क्यों, आप वहीं क्यों नहीं रह जाते। मैं आ जाऊँगी बच्चों के साथ वापस। आपकी दाढ़ी को देखकर आपको वे खुद ही वहीं रख लेंगे। ठीक है।' चित्रा की आँखें ऐसे मौके पर अप्रत्याशित चमक से भर उठती हैं।
'पर तुम्हारा क्या होगा डार्लिंग! ऐसे मौकों पर बंबइया फिल्मों के सलीम जावेद तुरंत उसकी मदद के लिए साथ हो लेते हैं।'
'मेरी तो तुम्हें बड़ी परवाह है। वहाँ एकांत में रहना दाढ़ी बढ़ाए अपने टैगोर की तरह। बंगाली लड़कियाँ भी आपको बहुत पसंद हैं न।'
'वो तो ठीक है, पर रवींद्र बिना मृणालिनी के थोड़े रहते थे।'
बॉस के साथ जाने की सोचते ही उसे अंदर से कै-सी होने लगती है।
न वह शांतिनिकेतन जा पाएगा। न रवींद्र रंगशाला, न कोई आर्ट गैलरी। लोग कहते हैं कि वहाँ ये न देखा तो क्या देखा। पर बॉस को जैसे ये सब बातें ही वाहियात लगती हैं। उस दिन अपने चैंबर में बैठा कह रहा था ये आर्टिस्ट-वार्टिस्ट बड़े मक्कार होते हैं। गुप्ता जी इनसे जरा सावधान रहा करो। जब तक इनको शराब और सबाव न मिले, इनकी नींद ही नहीं खुलती।
'खुलती नहीं, साहब आती नहीं।' बॉस के साथ बतिया रहे एक गंजू हिनहिनाए, 'कुछ भी कह लो।' कहकर वे दोनों ठठाकर हँसने लगे।
दाँतों से होंठ तो उसके भी सरक गए। टायलेट के बहाने वह उठ खड़ा हुआ। अंदर ही अंदर कुढ़ता हुआ। बड़ा आया सावधानी सिखाने वाला। मनोहर कहानियाँ, गर्म कहानियाँ व सभी तरह के फिल्मी कचरे में सैक्स ढूँढ़ने वाला, आर्टिस्टों में भी सैक्स नहीं ढूँढ़ेगा तो क्या ढूँढ़ेगा। किसी आर्टिस्ट के आईसोलेटेड सच को सभी के ऊपर थोड़े ही लागू किया जा सकता है। और वहाँ भी जितनी ईमानदारी से अपनी बात कलाकार कहता है ये चोर कह सकते हैं। जन्मजात कायर! खैर आर्टिस्टों की तो छोड़ो। तेरी और तेरी स्टेनो की सारे मंत्रालय में जो चर्चा होती है। तू तो आर्टिस्ट भी नहीं है।
चलो एक दिन बाद ही तो पहुँचेगा। मैं तब तक आनंद बाजार पत्रिका घूम आऊँगा। रामनारायण से भी मिल लूँगा। शांतिनिकेतन तो दूर पड़ता है और इस उदबिलाऊ के साथ तो जाने का सवाल ही नहीं उठता। इसे तो उसने आज तक संकेत नहीं दिया कि वह साहित्य वाहित्य में कोई रुचि भी रखता है। बॉस को यह पता चल जाए तो वह तो छुट्टी वाले दिन भी बुलवा ले। अभी तक तो वह यही कह देता है कि सर टाइम से घर पहुँचकर उसे पहले डेरी से दूध लाना होता है, फिर सब्जी। रविवार-शनिवार को राशन लाओ, बच्चे को पढ़ाओ। बाजार के हजार काम।
'फिर भी टाइम मिला तो आ जाना। मैं भी अपनी स्टेनो को कहे देता हूँ।'
उसका शरीर उबला आलू बन जाता है, ऐसी स्थितियों में। बिना कुछ कहे वह कमरे से बाहर आ जाता है। साले तू तो इसलिए आना चाहता है कि घर में रंगरेलियाँ थोड़े ही मना सकता है। मैं करूँगा काम और तू... वह अंदर ही अंदर बुदबुदाता है।
पूर्व निर्धारित प्रोग्राम के अनुसार अगले दिन बॉस को रिसीव करने पहुँचना था हावड़ा स्टेशन पर। बार-बार वह अब भी यह दुआ मनाता रहा कि बॉस नहीं ही आए। आखिर उसके आने का कोई तो प्रयोजन हो। बॉस का साथ छुड़ाने के लिए आखिर में उसने यहाँ तक कह दिया था कि सर मैं आपको सब कुछ समझा देता हूँ आपको कोई दिक्कत नहीं होगी। मैं यहाँ का काम सँभाल लूँगा। पर बॉस कहाँ मानने वाला था। 'नहीं दोनों ही चलेंगे' कहकर उसने सारे तर्क एक तरफ सरका दिए। जाएगा तो मेरे साथ ही। कोई टट्टू भी तो चाहिए, सवारी करने के लिए।
वह आज जल्दी-जल्दी एडवोकेट के साथ काम समाप्त करके रामनारायण से मिलने गया भी तो मिला ही नहीं। अगले दिन आने के लिए पर्ची छोड़ आया। कल नारायण आएगा भी तो इसके सामने कोई बात नहीं हो पाएगी। मिलने का सारा मजा किरकिरा हो जाएगा।
और सचमुच वैसा ही हुआ। मैं और बॉस जूते पहनकर जैसे ही चलने को तैयार हुए, रामनारायण सामने खड़ा था। बेतरतीब बढ़ी हुई दाढ़ी के बीच आँखों से चश्मा उठाकर देखता हुआ।
मैं रामनारायण को देखकर मुस्कराया, पर औपचारिकता के साँचे में ही।
'लगता है कहीं निकल रहे हो' रामनारायण ने छूटते ही ताड़ लिया।
'हाँ', उसने बॉस की ओर देखते हुए कहा। मन तो हुआ कि बॉस से कह दे कि आप चलिए मैं अभी पहुँचता हूँ थोड़ी देर में।
'कहाँ जा रहे हो', उसके पूछने से लग रहा था कि वह साथ चल सकता है, जहाँ भी चलो।
'कहीं नहीं... बस यहीं। साहब को कुछ शापिंग-वापिंग करनी है।'
साहब जो अब तक सिक्योरिटी गार्ड की तरह टकटकी लगाए खड़ा था, पास आ गया। 'आप तो यहीं के रहने वाले हैं न। कलकत्ते की क्या चीज ले जाने लायक है?' बास ने बिना परिचय का इंतजार किये व्यापारी-सा सवाल उछाल दिया।
'हाँ नारायण। क्या ले जाने लायक है?' मैंने दोहराया।
रामनारायण हतप्रभ-सा खड़ा था क्या बताए - बंगाली रसोगोल्ला, तंतुज की साड़ियाँ, रवींद्र की पेंटिंग्स या काली की मूर्ति या 300 साल पूरे कर रहे कलकत्ता की पूरी की पूरी संस्कृति। उसने धीमे-धीमे सोचते हुए ये सब नाम गिना दिए।
बॉस चुप खड़ा रहा। संभवतः उसे ये चीजें सुनने में भी अच्छी नहीं लग रही थीं।
'यहाँ स्टील के बर्तन बहुत सस्ते मिलते हैं। टाटा के चम्मच, चमचे, कटोरे...' बॉस ने प्रति प्रश्न किया।
'यस सर। बहुत अच्छे होते हैं। थालियाँ भी सस्ती और टिकाऊ - दोनों। जमशेदपुर पास है न।' मैंने देखा नारायण मेरी सूरत देखे जा रहा था।
'चलें गुप्ता जी देर हो रही है? फिर धूप हो जाएगी।' बॉस ने कह ही डाला। उसे मानो बीच से चीरा जा रहा था। जिस मित्र से मिलने की वह तीन साल से सोच रहा था, वह तीन मिनट में ही...
'सर एक मिनट' कहकर मैं रामनारायण को एक तरफ ले गया। 'यार क्या बताऊँ मैं कल तुमसे मिलने इसीलिए गया था कि तसल्ली से बात हो जाएगी। अब तो बड़ा जरूरी काम है और यार सच तो यह भी है कि मैं इस उदबिलाव के सामने साहित्य-वाहित्य की बातें करने से बचता भी हूँ।' बताते-बताते मेरे चेहरे पर कुछ रहस्य सा फैल गया था।
'क्यों?' यह शब्द भी रामनारायण के मुँह से बड़ी मुश्किल से निकला, मानो सोच रहा हो कि क्या पहेलियाँ बुझा रहा है।
'बताऊँगा, कल मुलाकात होगी तो बताऊँगा।' मैंने आँख मारते हुए कहा। 'अच्छा, कल सुबह आना नौ बजे से पहले। सॉरी, तुम मेरी मजबूरी समझ रहे होगे?'
'कौन था, गुप्ता जी ये?' रिक्शे में बैठते ही बॉस ने पूछा।
'अरे साब, मैं आपका परिचय ही कराना भूल गया। एक हमारे दोस्त हैं दिल्ली में उनके दोस्त हैं ये। पत्रकार हैं। कुछ कहानियाँ-वहानियाँ भी लिखते हैं।' मैंने टटोलते हुए कहा।
'वो तो इनकी शक्ल से ही लग रहा था। आपको बदबू नहीं आ रही थी उससे। भला आदमी जैसे नहाया ही नहीं हो महीने भर से।'
'हाँ...ह...ह... बीमार था। कह रहा था, मलेरिया से उठा है, अभी।'
'उठा तो खैर वह अब भी नहीं लगता, पर दाढ़ी बाल कटाने को तो डॉक्टर ने मना नहीं किया था... सुबह-सुबह देर करा दी।'
'अब सर कोई आ जाए तो...' इसीलिए मैं बड़ी मुश्किल से प्रतिकार कर पाया। मैं मैसेज छोड़कर आया था कि कल 9 बजे से पहले ही आना।
'कल फिर आएगा?' बॉस रिक्शे पर करवट बदलने लगा।
'नहीं सर आज के लिए ही। 9 बजे से पहले का कह कर आया था। शायद कल भी आए कुछ मैसेज भेजना है दिल्ली उसे।'
'एक मेरे भी जानने वाले हैं यहाँ। वे मिल जाते तो गाड़ी मिल जाती। उनके पास दो-तीन गाड़ियाँ हैं। एक-दो बार तो वे कलकत्ता से दिल्ली अपनी कार ही से गए हैं।'
'अच्छा सर! इतनी दूर!'
'बड़ा पैसा कमाया है। हम पाकिस्तान से साथ चले थे। हम कहाँ हैं और वे कहाँ हैं।'
'सर पैसा तो बिजनैस में ही है।'
'अगर वे मिल जाते तो कार से चलते। यहाँ काली का मंदिर है। मैं वहाँ जरूर जाना चाहता हूँ। कल सुबह आठ बजे चल पड़ेंगे।' बॉस बोला।
'पर सर कल तो एडवोकेट ने बुलाया है।'
'उसे फोन पर मना कर देंगे। मुझे किसी ने बताया था कि यहाँ की माँगी मनौती कभी खाली नहीं जाती। हमारे ऑफिस में ये जो मुखर्जी है ये तो उसका बहुत बड़ा भगत है। आपने देखा होगा कि हर साल अक्तूबर में चाहे कुछ हो जाए वो छुट्टी लेकर कलकत्ता जरूर आएगा।'
'मुखर्जी साहब! ज्वाइंट सेक्रेटरी...' मैंने पूछा
'हाँ, लोग तो कहते हैं कि उसे काली की सिद्धि है। वरना दो-तीन मंत्री आकर चले गए। उसे कोई वहाँ से हटा नहीं पाया। कुछ तो है ही काली का चमत्कार।'
वह सिर्फ विस्मय से उसके मुँह की तरफ देखता रहा।
'एक ये और एक अजमेर के हनुमान जी - उनका भी आशीर्वाद कभी खाली नहीं जाता।'
'अजमेर में भी हैं सर हनुमान जी! वहाँ तो चिस्ती की दरगाह है शायद।'
'वह मुस्कराया। यही तो बहुत से लोगों को पता नहीं है। सिर्फ दो फीट के हैं वे। एक कुएँ में रहते हैं, सूखे कुएँ में। उसमें पानी कभी-कभी ही आता है। पर कहते हैं कि हनुमान जी कभी नहीं डूबते। जिसको दर्शन हो जाएँ, समझो उसे सिद्धि हो गई। एक बार मैं भी गया था।'
पर बॉस ने यह नहीं बताया कि दर्शन हुए या नहीं। मैंने उसकी ओर देखते हुए गरदन हिलाई। सोचा, अच्छा मौका है ये कल उधर चला जाए तो मैं रामनारायण और एक दो मित्रों से और मिल लूँ। 'ऐसा करते हैं सर! कल बेफिक्र होकर आप 'काली मंदिर' जाइए। मैं एडवोकेट के साथ एफीडेविट तैयार करा लेता हूँ, क्योंकि एडवोकेट नया है, उसके साथ भी जरूर रहना चाहिए।'
'नहीं गुप्ता जी चलेंगे, तो साथ ही चलेंगे। यहाँ के लोग बहुत मानते हैं काली को। ऐसा मौका बार-बार नहीं मिलता।' बॉस ने लालच दिखाया।
'ठीक है सर, नो प्रोबलम। सही कह रहे हैं आप। इन जगहों पर कौन बार-बार आता है।'
रिक्शे वाले ने चौराहे पर एक कोने की तरफ रिक्शा रोक लिया। 'साब सामने यह चौरंगी लेन है।' रिक्शे वाले ने उँगली के इशारे से बताया।
'कितने पैसे हो गए।' बॉस रिक्शे पर बैठे-बैठे ही बोला।
'नहीं सर, खुले हैं मेरे पास।'
'अरे गुप्ता जी तब से आप ही खर्च किए जा रहे हो। अच्छा लिखते जाना सब हिसाब।'
'कोई बात नहीं सर!'
बात करते-करते हम पास के ही एक रेस्तराँ में बैठ गए। 'सर यहाँ से एक-दो डिब्बे जरूर ले चलेंगे, रसगुल्लों के। बहुत मशहूर हैं।'
'कोई खास नहीं लगे मुझे तो। कल खाए तो थे।' बॉस ने मुँह बनाते हुए कहा।
'नहीं सर... ठीक... ठीक।' मैं बात पूरी नहीं कर पाया।
'नहीं वो बात नहीं है जो दिल्ली की लाहौरियाँ-दी-हट्टी की है। मुँह में रखते ही रसगुल्ला घुल जाता है।'
'पर सर रसगुल्ला की खासियत तो... स्पंजी होना है...'
बॉस ने मेरी बात को अनसुना करते हुए बैरे को आवाज दी, 'यहाँ पतीसा भी मिलता है न। पतीसा लेकर चलेंगे। खराब भी नहीं होता।'
'पतीसा!' जैसे उसके मुँह में कंकड़ आ गया हो। ठीक है सर हाँ... लेकिन... सर मैं एक डिब्बा तो ले ही जाऊँगा, रसगुल्ले का। किसी ने मँगाया है।'
'छोड़ो, गुप्ता जी हम किसी की बेगार करने नहीं आए। रास्ते में छूट गया तो और मुश्किल। जब मैं मिनिस्टर के साथ था, मुझसे किसी ने आम मँगवाए थे, एक-दो खराब निकल आए तो पैसे भी नहीं दिए, गाली दी सो अलग। पतीसा ले चलो मैं भी ले चलता हूँ।'
'यस सर, पतीसा मेरी पत्नी को भी बहुत अच्छा लगता है।'
'गुप्ता जी रिक्शा ले लेते हैं' वह खड़ा हो गया।
'नहीं सर, सामने ही तो है चौरंगी दो मिनट का रास्ता है।'
'नहीं, अच्छा नहीं लगता हाथ में ऐसे डिब्बा लेकर चलना, कोई मिल जाए तो...'
रिक्शे में बैठकर वह बताने लगा, 'मुझे घूमना, चलना, टहलना बहुत पसंद है। पता है मैं सुबह 4 बजे उठ जाता हूँ और 7 कि.मी. पैदल चलता हूँ।'
'अच्छा सर! सुबह घूमना तो बहुत अच्छी बात है।'
'इसीलिए मेरा एक भी बाल सफेद नहीं हुआ, अभी तक।'
'और मेरे आधे सिर से गायब हो गए, आपसे आधी उम्र के बावजूद। आपकी उम्र तो इतनी लगती ही नहीं।'
मैंने देखा उसके चेहरे पर गर्व उभर आया था।
अगला सारा दिन 'काली मंदिर' के प्रकाश में ही कटा। रामनारायण यदि आया भी होगा तो बेचारा वापस गया होगा।
'आपका दोस्त नहीं आया न फिर - गुप्ता जी आप कह रहे थे न कि वह आएगा', लौटते वक्त उसने ट्रेन में पूछा।
'हाँ सर, पता नहीं क्या बात हुई... क्या पता आया भी हो, हम जिस दिन काली मंदिर गए थे उस दिन आना था।'
'नहीं! आया नहीं होगा। कुछ लोग बड़े गैर-जिम्मेदार होते हैं विशेषकर ये लेखक, पत्रकार लोग। कहीं दारू पीकर पड़ा होगा। उसके चेहरे से ही लगता था।' बॉस नाक हिलाते हुए बोला। 'कहते हैं आपके रवींद्रनाथ भी 'अंग्रेजी' पीते थे।'
'पता नहीं सर... हो सकता है, पीते भी हों... यस सर। आप ठीक कहते हैं कोई और भी कह रहा था।'
मैंने दो-तीन बार उसे आश्वस्त करने वाली गरदन हिलाई और टायलेट के बहाने उठ खड़ा हुआ।
सरपट दौड़ती ट्रेन के दरवाजे पर ठंडी हवा इतनी अच्छी लग रही थी कि लौट के अपनी सीट पर ही न जाऊँ।