यहाँ कुछ लोग थे / राजेन्द्र लहरिया

Gadya Kosh से
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देखिए साहब ये...लेकिन इससे पहले मैं आपको यह बताना ज़रूरी समझता हूँ कि इस जगह का एक लंबा किस्सा है....जी हाँ साहब, इन मूर्तियों-मंदिरो को यदि आप अलग-अलग करके देखेंगे, तो ये आपके लिए सिर्फ बेजान पत्थर ही साबित होंगे, किंतु आप यदि इनके साथ जुड़ी कहानी से रू-ब-रू हो लेंगे तो....वैसे मैं सोचता हूँ-यदि आप निकले ही हैं तो वह सब आपको जानना ही चाहिए! खैर, यह तो रही मेरी बात। पर यह तो आपको ही तय करना है कि यह सब आपको देखना-भर है या सारा-कुछ जानना भी....ऐं? पूरा किस्सा जानना चाहेंगे? ..... बहुत अच्छा साहब, यह जानकर मुझे बहुत खुशी हुई है साहब, कि आप इस विषय में इतनी रूचि रखते हैं। मैं आपसे वादा करता हूँ कि आपको बोरियत नहीं होने पाएगी। आपको यह मालूम नहीं है साहब, कि जिस दिन पहली बार मैंने इस जगह की कहानी सुनी थी उस दिन मेरे शरीर में कई बार रोमांच हो उठा था। अब तो मैं खुद गाइड हूँ-लोगों को कई बार सुना चुका हूँ।....खैर, आप मेरे पीछे-पीछे आइए। आपको सब कुछ बताऊँगा मैं। फिर भी कहीं कोई शंका या जिज्ञासा हो तो तुरंत मुझसे पूछ लीजिएगा...

सबसे पहले इसे देखिए साहब, यह मूर्ति! (छड़ी से एक मूर्ति की तरफ इंगित करके) ...दूर से और मोटी नज़र से देखने पर आप इसे नहीं समझ सकेंगे, इसलिए जरा गौर से देखिए!...यों देखने पर यह आकृति किसी ऋषि मुनि या संत-महात्मका की लगती है।..शरीर पर वह अली! गोमुखी के भीतर माला फेरता हाथ! लंबे केश! दाढ़ी! ...किंतु चेहरा? चेहरे को गौर से देखिए साहब.....(छड़ी से मूर्ति के चेहरे पर टकोरते हुए) ... देखिए ये ऑंखें! क्या लगता है इन्हें देखकर आपको? खौफ़ पैदा करती हैं ना ये खूँखार ऑंखें? .... और चेहरे के यह खाल? .... पेड़ की छाल की तरह रूखी और खुरदुरी! ...यह मुँह देख रहे हैं आप? जानते हैं क्या है इसके भतीर?....नर-मांस!...और यह होंठों के दोनों किनारों से क्या बह रहा है-देख रहे हैं? ....रक्त! ...मानव-रक्त! जी हाँ साहब, आदमी का खून!...हैरत में न पड़िए आप!

जी?......जी नहीं, यह मैं भी नहीं जानता कि कौन हैं ये और नाम क्या है इनका।...जो कुछ मैं जानता हूँ इनके बारे में, वह यह है कि अभी यहाँ एक गाँव था और उसमें कुछ भोले भाले लोग रहते थे। एक दिन गाँव में ये न जाने कैसे प्रकट हुए कि इन्हें देखकर लोग चमत्कृत हो उठे। इनके तेज के सामने किसी की निगाह न ठहरती थी, सो सब लोग इनके चरणों में गिर पड़े और बोले, बाबा! हम पै किरपा कीजिए बाबा! “बस, उस दिन से ये गाँव में जम गए और धीरे-धीरे दुनिया जहान में “बाबा” नाम से ही सिध्द और प्रसिध्द हो गए। इसलिए अभी मैं भी इन्हें बाबा ही कहूँ।

...बाबा ने गाँववालों के भीतर जड़े जमा ली थीं। ..एक दिन उन्होंने लोगों से कहा कि यहाँ एक मन्दिर होना चाहिए। बाबा के मुँह से यह सुनना था साहब, कि लोग जी-जान से जुट गए मंदिर उठाने में। (एक तरफ को छड़ी से इशारा करते हुए) देखिए....यह सामने जो मंदिर है, वही है! इसमें आपके देखने के लिए कोई खास चीज नहीं है। लेकिन साहब, यही वह मंदिर है, जिसके कारण बाबा की ख्याति पंछी दूर-दूर तक उड़ने लगे थे और दूर-दूराज के लोगों की आवाजाही रहने लगी थी यहाँ। लोगों को अज़ब सुकून मिलता था यहाँ आकर। वे यहाँ घंटों बैठते-उठते और लौटते वक्त बाबाा के चरण छूकर, उनका वरदहस्त देखकर खुशी से भरे-भरे घर जाते।

...एक दिन बाबा ने मंदिर के निकट एक कुइया (छोटा कुऑं) की जरूरत लोगों को बताई। पानी नदी से लाना पड़ता था उन्हें। नदी आज भी बहती है पीछे....(छड़ी से इशारा करके)...उस तरफ! .... और साहब, लोगों ने कुइया खोदनी शुरू की तो तब ही दम लिया, जब तली में पानी के पतले-पतले सोते फूट निकले। कुछ ही दिनों में कुइया पक्की बन गई। उसे बनाने वाले वे ही लोग थे जिन्होंने मंदिर बनाया था- वे ही कारीगर, वे ही मजूद-बेलदार्!.. वह रही कुइया! (छड़ी ने काई-खाई जगत वाली कुइया की तरफ इशारा किया।)

....और यह बाग देंख रहे हैं आप? यह बाबा का ही रोपा हुआ है ! न जाने कहाँ-कहाँ से आम, अमरूद, नींबू, केला, अनार और शहतूत के गाछ और तरह-तरह के फूल-पौधे लाए थे बाबा। अरे साहब, बाग देखकर लोगों का मन रम जाता था यहाँ!....अब वे फूल-पौधे नहीं रहे। ठूँठ और रूखे पेड़ खड़े रह गए हैं, जिन्हें आप देख रहे ंहैं! ....

....और साहब, बाबा के सिर और दाढ़ी के काले केशों में समय ने धीरे-धीरे सफेद लकीरों से अपेन हस्ताक्षर कर दिए। अब तक बाबा केक शिष्यों का संसार दसों दिशाओं में फैल चुका था। साधु-गृहस्थ, गरीब-अमीर, दु:खी-सुखी, सुपढ़-कुपढ़, रोगी-नीरोगी, दाता-भिखारी- न जाने कितनी तरह के लोग बाबा के चरणों में आते और अपने दैहिक, दैविक, भौतिक तापों से मुक्त इच्छा पूर्ण हुए लौट जाते। सुनते हैं बाबा “सिध्द” हो गए थे और मनुष्य की हर तरह की समस्याओं का समाधान उनके पास था। लोगों का भी उन पर दृढ़ विश्वास।...ऐसे ही लोगों में से एक थे गाँव के रामदीन पंडित, जिनके ऊपर दैव-दंड गिरा था। हाँ साहब, उसे दैव का दंड ही कहना पडेग़ा।...हुआ यह कि उनका जवान बेटा ब्याह कर बहू के साथ घर आया। आते ही ऐसा बीमार हुआ कि घंटे-दो घंटे में ही चल बसा और घर को खुशियों की जगह कोहराम से भर गया। ...पढ़ी-लिखी बहू तो हक्की-बक्की रह गई। उसकी ऑंख से न ऑंसू निकला, न जबान से बोल। उसके जी पर क्या गुज़री होगी साहब, यह तो र्को क्या जाने।....और बात यहीं तक रहती तो भी खैरियत थी, पर जहाँ सिर मुँड़ाते ओले पड़े, वहाँ खैरियत कहाँ।

गाँव में ही एक थे मास्टर सुभाषचन्द्र, जैसे ऍंधेरे दालान में जलता एक दीया ! जैसे कोलाहल के बीच एक सार्थक शब्द ! वे एक दिन रामदीन पंडित के घर गए और उन्हें समझाने लगे, 'पंडितजी, रामेसुर तो चला ही गया, जो होना था सो हुआ। पर अब बिसेसुर तो है। बहू और बिसेसुर की उमर में फरक भी ज्यादा न होगा। चाहो तो बहू को बिसेसुर के संग जोड़ बिठा दो ! ... रामेसुर के संग सात फेरे ही तो पड़े हैं ! और तो कुछ भी नहीं हुआ ! ... आप खुद ही सोचें कि पहाड़-सी जिन्दगी कैसे काटेगी यह बेचारी !”

पंडित जी के जेहन में भर गई सुभाषचन्द्र की बात, किंतु उन्होंने जबाब में कुछ नहीं कहा उक्त वक्त ! बाद में बात चलाई घर में। कानाफूसी हुई। बहू के मन की ली गई। बहू चुप रही। औरतों ने समझ लिया और कह दिया, “बहू राज़ी है'

सुनकर प्रसन्नताा के मारे रामदीन का क्षण्-भर को रोम-रोम पुलक उठा, जैसे दूसरी देह धरकर रामेसुर दूल्हा बनकर उनके सामने आ खड़ा हुआ हो ! किंतु अगले ही क्षण वे सोच में डूब गए-बहू राज़ी है, सो तो ठीक है, पर यह कोई साधारण बात नहीं है! ब्याह संस्कार शोधने-विचारने के बाद होते हैं! और फिर हम कोई चमरा-कुरिया तो हैं नहीं! ...बाबा से पूछकर करेंगे जो कुछ करना है ! .....

और वह पहुँचे थे बाबा के पास !

बाबा की त्यौरी चढ़ गई थी यह सुनकर, “कैसी बात करते हो रामदीन? अनर्थ हो जाएगा। जिसके संग सात फेरे पड़ने पर तुम्हारा पहला बेटा मर गया, उसके संग दूसरा भी न बचेगा।'

सुनकर काँप गए रामदीन-भीतर तक।

“वह तो अभागिन हैं रामदीन ! ....पापिन ! “बाबा ने आगे कहा था, “पूरव-जनम में कोई गहन पाप किया है उसने ....जिसकी ऑंखों के सामने पति मर गया, वह पापिन नहीं तो क्या है? .....पाप-शांति के लिए उसे तो पति के संग ही देह-त्याग करना चाहिए था! ...नहीं तो अब उसे भगवान का भजन करना चाहिए ! ....और कोई उपाय नहीं है।

रामदीन लौटकर घर आए और उन्होंने साफ कह दिया था, “बहू का छोटे के संग सम्बन्ध कभी न होगा! ....बहू को तो अब भगवान का भजन करना चाहिए-यही एक उपाय है।”

सुनकर बहू ज़ार-ज़ार रोई थी और जब तक वहाँ रही थी साहब, उसकी ऑंख से ऑंसू न रूका था।

पंडितजी को बहू अब असगुन-सी लगती थी...और एक दिन पंडिताइन ने बहू के पास जाकर कहा था, “बहू चलो बाबा के दरसन कर आएँ।”

बेमन के बावजूद बहू ने सास का कहा टालना उचित न समझा। और साहब, जब उसने बाबा को देखा तो उनके चरणों में ऐसे बिसूर-बिसूरकर रोई, जैसे कोई मासूम बेटी बाप को अपनी व्यथा सुना रही हो-हिलकियाँ ले-लेकर !

बाबा ने उससे कहा था, “तेरे भागय में यही था। कोई क्या कर सकता है। ...क्या नाम है तेरा बेटी?

ऑंसू-डूबी ऑंखे पूंछती बहू ने धीरे से कहा था, “मीना-..मीनाक्षी।”

बाबा ने तत्काल कहा था, “मीना नहीं ........मीरा....मीरा दासी ! ...आज तेरा दूसरा जनम हो गया बेटी! आज से तू मीरा दासी है...यहाँ भगवत की सेवा कर! अबअ वही तेरा पति है! जगत्पति !”

मीनाक्षी कुछ न समझी। भगवान उसका पति कैसे हो सकता है? ...पर साहब, यही होना था ! पंडिताइन पहले ही जा चुकी थीं बहू को वहाँ छोड़कर ! और मीनाक्षी भगवान की होकरर रह गई। दुल्हन से साधुन ! मीनाक्षी से मीरा दासी !

आइए मेरे पीछे...देखिए, यह है मीनाक्षी ! मीरा दासी ! (मूर्ति की तरफ छड़ी सीधी करके) इस मूर्ति को गौर से देखिए आप। सब-कुछ कहानी कहती है मीरा दासी की यह मूर्ति-अपने आप। बस, सुनने को कान चाहिए। देखने को ऑंखें चाहिए। ...ध्यान से देखें आप- जैसे अंग-अंग पीड़ा की कहानी कह रहा है- दुबला शरीर...बिखरे केश....श्वेत वस्त्र...निराभरण कंठ.....अधोमुख छातियाँ...हाथों की मुद्रा में हक्काबक्कापन!...और चेहरे पर गौर करें...(छड़ी की नोंक क्रमश: छुआते हुए) सुना मस्तक-आप्लावित ऑंखे...नाक पर यह सिकुड़न...ये टेड़े अधरोष्ठ...और गालों पर ठहरे ये ऑंसू! ....

...जी? है ! वह पीछे की तरफ .....(छड़ी से इशारा करके) ...वह खंडित मूर्ति पंडित रामदीन की ही है।

...क्यों नहीं? अरे साहब, मास्टर सुभाषचन्द्र की मूर्ति यहाँ न हो- यह कैसे हो सकता है! ...वह है सामने ! (छड़ी उठती है)...इस लाइन की मूर्तियों में आखिरी! ....उस तक अभी पहुँचते हैं, तब ठीक से देखियेगा ....पहले इन्हें देख लीजिए....(छड़ी क्रमश: उठती जाती है- मूर्तियों की तरफ)...यह कंचनलाला मुखिया हैं...यह हरिहर शास्त्री हैं...यह रामेश्वरलाल हैं...यह सोबरनसिंह हैं....यह संतोषीलाल हैं...यह ग्याराम ठाकुर हैं .....और ये ऐ ही पत्थर पर दो मूर्तियाँ गनेसी और नूरा की हैं....और यह निहालिया चमार है.....यह परमानन्द शर्मा हैं...ये एक ही पत्थर पर गोकलिया और रमजिया हैं....इनके पीछे बड़े वाले पत्थर पर जो छोटी-छोटी मूर्तियाँ उत्कीर्ण हैं-वे सब गाँव वाले हैं।

...और ये हैं मास्टर सुभाषचन्द्र ! इस मूर्ति को ध्यान से देखेंगे तो आप खुद जान जान जाएँगे कि क्या थे मास्टर सुभाचन्द्र! साहब, अपनी तरह के एक अजीब आदमी थे ये सुभाषचन्द्र। अड़तीस की ही उमर में चेहरे पर बुजुर्गियत आ बैठी थी-झुर्रियों के बीच। निगाह पैनी, खोजी और पारखी थी। ...अद्भुत चुप्पे आदमी थे। बहुत ही कम बोलते थे। गाँव में कोई छोटी बड़ी घटनाएँ हो जातीं, पर चुप रहते! लेकिन जब जरूरी समझते तब बोलते, और ऐसी बात बोलते कि उसे नकारना किसी के लिए असंभव होता। चेहरा देखिए आप-ऐसा लगता है जैसे किसी सोच में डूबे हुए है। और भीतर लावा खौल रहा है! ...गाँव के ही बाशिंदा थे और स्कूल में मास्टरी करते थे। दो लड़कों और एक लड़की के बाप तथा एक पत्नी के पति थे वे, किंतु उनकी चिंता से हमेशा मुक्त रहें। ध्यान से देखिए आप मास्टर सुभाषचन्द्र को! आपने गौर किया है साहब, इस मूर्ति के गले में सूखी-मुरझाई फूलमाला है? ....

...बहुत जरूरी बात पूछी है आपने ....साहब बड़ा अजीबोगरीब वाकया है इसका...हाँ-हाँ, क्यों नहीं ...उसे जरूर सुनाऊँगा....

..हुआ यह क एक बार आषाढ़, सावन और भादों-पूरे तीन महीने गुजर गए और इस गाँव की धरती पर आसमान से एक बूँद न गिरी। इससे गाँव के कुओं का पानी धरती में बिला गया। नदी सूख-सूखकर दुबली और गँदली हो गई। पानी न रहा तो लोग नदी के उसी गँदली पानी को निथार-निथारकर पीने पर मज़बूर हो गए।

...अब क्वार आ गया था और सब लोग चिंता में डूब उठे कि अब भी पानी न बरसा तो कुछ दिनों में नदी सूख जाएगी, और उकठी पड़ी जमीन से अन्न का दाना न पैदा होगा, और अन्न-पानी के बिना मानुस और ढोर किसी के भी प्राण न बचेंगे !....

और साहब, एक दिन सबेरे-सबेरे मास्टर सुभाषचन्द्र सहित सभी गाँववालों के कानों में किसी की टेर आ टकराई थी, “आज दस बजे पूरे गाँव का मंदिर पर बुलौवा है ऽऽऽ! ...यह बैजा नाऊ था, जो गाँववालों को सूचना देता हुआ गली में आगे बढ़ा जा रहा था।

और साहब, लोग जमा हुए थे- मंदिर पर- बाबा के बैठने के पाट के सामने। हरिहर शास्त्री, कंचनलाल मुखिया, रामेश्वरलाल, सोबरनसिंह, संतोषीलाल आदि सबसे आगे बैठे थे। चमार, काछी, लुहार, धोबी, धानुक, धींवर, कोरी, कुम्हार, भाट, नाऊ, मिर्धा, गड़रिया आदि रैयत उनके पीछे। सबसे पीछे और दूर छोटा मेहतर बैठा था-अपने-आपमें सिमटा-सिकुड़ा-सा, चुपचाप। उसी की बाजू से रहमान भड़भूजा, मंगलशाह बैंडमास्टर, शौकतअली, नन्हें खाँ, चुन्ने खाँ, अहमद शाह और नूरा आदि बैठे थें। यानी यह कि मास्टर सुभाषचन्द्र के अलावा पूरा गाँव मौजूद था-सातों जात, अमीर-तालेवर, गरीब-गुरबा, समर्थ-असमर्थ ! और सभी बाबा के पाट पर आने का इंतजार कर रहे थे और सोच रहे थे कि देखें बाबा क्या उपाय बताते हैं पानी बरसने का।

कंचनलाल मुखिया ने सरसरी निगाह फेरी बैठे हुए लोगों पर और पास बैठे हरिहर शास्त्री की तरफ मुखातिब हुए, “अब तो सब आ गए।'

“तो अब ले आएँ बाबा को? हरिहर बोले ।

कंचनलाल ने हामी में सिर हिलाया। हरिहर शास्त्री खड़े हो गए। पीछे ही कंचनलाल भी।

थोड़ी देर में दोनों बाबा को लेकर आए-बाहों से सहारा दिए। बाबा बीमार दीखते थे। सबने देखा और श्रध्दा से सिर झुका दिए-प्रणाम के लिए।

बाबा पाट पर बैठ गए। शांत गोमुखी में हाथ दिए। ऑंखें मूंँदे। माला फेर रहे थे वे इस वक्त। लोग बैठे थे और बाबा की तरफ एकटक देखे जा रहे थे, गोया अभी कुछ ही क्षणमें उनके सामने कोई जादू होने वाला हो और देखते देखते आसमान से पानी की धारें छूटने लगेंगी, शीतल जल की फुहारें धरती के साथ-साथ उनके कलेजों की गर्मी को भी शांत कर देंगी। सबके भीतर उत्सुकता थी, जिज्ञासा थाी।

यकायक बाबा ने ऑंखें खोंली और अपने सामने बैठे लोगों पर मरी-सी निगाह डाली। सफेद भौहों और बरौनियों के बीच से झाँकती ऑंखें ! सामने बैठे सभी लोगों ने एक बार फिर हाथ जोड़ दिए-श्रध्दावनत होकर। बाबा देख रहे थे सबको। गोया भीतर ही भीतर तौल रहे हों लोगों को। ...गोमुखी के भीतर माला पर उँगलियाँ निर्विध्न चल रही थीं।..सहसा बाबा की धुँधली ऑंखें सतेज हो उठीं, बूढ़े झुर्रीदार चेहरे का रंग बदल गया। वे अब गिध्द दृष्टि से रामेश्वरलाल चौधरी के पीछे बैठे आदमी को घूर रहे थे-गनेसी को ! और साहब, बाबा का हाथ एक झटके के साथ गोमुखी से बाहर निकल आया और उसकी तर्जनी सीधी होकर गनेसी की तरफ उठ गई, तू कैसे आया यहाँ? बाबा की घूरती निगाहें अब भी गनेसी पर टिकी थीं।

बाबा की दृष्टि अपनी तरफ देखकर भी गनेसी की समझ में न आया कि यह उसी सेस पूछा गया है। बाबा को शायद भ्रम हो गया है, उसने सोचा। वह खड़ा सा हो गया और बोला, “महाराज, मैं...मैं गनेसी हूँ।'

हाँ, मुझे दिख रहा है कि गनेसी ही है...मैं सबको जानता हूँ और मुझे सब पता है कि गाँव में कौन क्या कर रहा है। ...तू क्यों आया यहाँ? बाबा ने चीखकर कहा।

“महाराज, मो से कोई गलती हुई है, सो ...? गनेसी ने बाबा की ऑंखों को देखा, तो उसकी जुबान न उठी आगे।

बाबा की ऑंखें जल उठी थीं, दुष्ट ! बू ब्राह्मण नहीं, चांडाल है ! ....तूने और तेरे परिवार ने नूरा के यहाँ खाया है !...धर्म-भ्रष्ट हुआ है तू ! ..फिर भी पूछता है कि ...' बाबा के चेहरे की खाल हल्की-हल्की काँप रही थी।

सुनकर सब-कुछ स्पष्ट हो गया गनेसी के सामने। ...तो यह बात है ! ....वह गिड़गिड़ाया, “महाराज नूरा....”।

बीच में ही चीख उठे बाबा, नीच, तुरंत चला जा यहाँ से! फिर कभी यहाँ मत आना चांडाल।'

गनेसी क्षणांश को काँप गया भीतर-ही-भीतर और वहाँ से गाँव की तरफ चल दिया चुपचाप।

वह सोचताा जाता था साहब, कि नूरा के यहाँ खाना खाने से वह एकदम ब्राह्माण से चांडाल कैसे हो गया? नूरा के खाने में ऐसा क्या था कि....

नूरा ! उसका पड़ौसी नूरा ! ....पहले औरों की तरह ही नूरा का घर भी तकिया पर ही था। ...कहते हैं एक समय देश-भर में हिंदू मुसलमान, और मुसलमान हिंदू का दुश्मन हो गया था। चारों तरफ मार-काट मची थी। ऐसे वक्त में तकिया पर रहने वाले पाँच-छ: मुसलमान-परिवार, हजारों-हज़ार हिन्दुओं के बीच अपने को असुरिक्षत महसूस करने लगे थे। गाँव के मुअज्ज़िजों के पास पनाह माँगने आए थे। ...उस (गनेसी) के पिता और नूरा के बाप सूखाशाह का मिठबोले या याराना था। एक दिन सूखा ने उनके पास आकर कहा था, “साधू भैया, इतने दिन तुम्हारे साथ रहे, अब प्राण बचेंगे तो फिर भी रहेंगे ...सुनते हैं चारों तरफ मार-काट मची है।...वहाँ तकिया पै तो सारी रात जागते जाती है...दहशत लगी रहती है-बीवी है, इकलौता बेटा है। ....भैया, अब तुम्हीं बताओ हम क्या करें?

इतना सुनते ही उसके पिता ने कहा था, अरे सूखा, तू भी कैसा मूरख है। ...तकिया से सामान उठाकर आ जा बगल की मड़ैया में-बीवी-बच्चे को लेकर! खाली पड़ी है। बना रहना उसमें। यहाँ कोई बाल भी बाँका न कर पाएगा तेरा !'

और साहब, सूखाशाह ने मड़ैया में डेरा डाल दिया था। इसी तरह दूसरों ने दूसरों के यहाँ जगह पाई और सुरक्षित रहे थे। बाद में शांति पड़ने की खबरे आई थीं। तब और सब तो लौटकर तकिया पर पहुँच गए थे, पर सूखा ने गनेसी के बाप से कहा था, “साधू भैया, तुम कह दो तो मैं तो यहीं बना रहूँ। कहीं भी सर छुपाना है। यहाँ तुम्हारा सहारा भी बना रहेगा।'

गनेसी के बाप को तो इस पर भी ऐतराज न था और तभी से सूखाशाह उसी मड़ैया में रहता आया। उसी में नूरा बड़ा हुआ, उसका निकाह होकर बहू आई। बाल-बच्चे हुए।

हम उम्र नूरा और गनेसी एक-दूसरे के काम-दंद में, गमी-खुशी में, त्योहार-बारात में और ऊँच-नीच में संग रहे।

पिछले बैसाख में नूरा की लड़की रहमानी का निकाह था। टीका के रोज़ भोज था। नूरा ने कहा था, गनेसी भैया, आज यहीं खाना खाएँ सब !

और गनेसी ने सपरिवार खाना खाया था नूरा के यहाँ दिन।

बाबा की बात सुनकर व गनेसी के चले जाने पर पीछे बैठे नूरा का चेहरा फक् हो गया था साहब, उसने कनखी से शौकत अली, नन्हें खाँ और अहमदशाह आदि की तरफ देखा और चुपके से उठ लिया था वहाँ से। थोड़ी देर में नन्हें खाँ, चुन्ने खाँ, मंगलशाह, रहमान खाँ, शौकत अली और अहमद भी अपराधी की तरह सिमटे-सिकुड़े से चुपचाप उठकर चल दिए थे।

उन्हें जाते देखकर बाबा ने हिकारत-भरी आवाज में पूंछा था, इन्हें यहाँ आने को किसने कहा था?

सामने बैठे लोगों में कुछ देर सन्नाटा छाया रहा। हिम्मत बटोरकर कंचनलाल मुखिया ने कहा, पूरे गाँ का बुलौवा दिया था महाराज, इसीलिए आ गए थे।'

कंचनलाल के जबाब सेस बाबा कुछ ठंडे पड़े। फुसफुसाहट भरे स्वर में बोले, पूरे गाँव का बुलौवा था सो तो ठीक है, पर इन्हें आने के लिए किसने कहा था?

एकबारगी फिर सन्नाटा तारी हो गया था सबके ऊपर। एक नुकीला और अदृश्य आतंक। बाबा क्षुब्ध लग रहे थे सबको।

हरिहर शास्त्री ने लोगों को देखा, उनके भय को भाँपा और बाबा से कहा, “महाराज गलती क्षमा हो....अब आप जो भी कहेंगे हम सब वही करने के लिए तैयार हैं।

बाबा का हाथ धीरे से फिर गोमुखी के भीतर पहुँच गया और उन्होंने ऑंखें मूँद लीं। सामने बैठे लोग उनके मुँह की तरफ देखने लगे थे। देखें, अब क्या कहते हैं ! क्या उपाय बताते हैं।

बाबा ने ऑंखें मूँदे हुए ही कहा, पानी के लिए धरम-पुण्यय करना पड़ेगा।

यह सुनकर क्षीण सी प्रसन्नता सबके चेहरों पर झलक उठी सहसा। धरम-पुन्न ! धरम-पुन्न ....पर कैसा धरम पुन्न करना पड़ेगा? ...बाबा ही बताएँगे ! ....

बाबा की मुद्रा शांत थी। गोमुखी के भीतर हाथ की हलचल दिख रही थी सबको। लोग जानते हैं बाबा को। खूब जानते हैं। अब तक न जाने कितना भजन कर चुके हैं। न जाने कितना तप कर चुके हैं। यह तप का ही तो परताप है कि कई बार पकी फसल पर गड़गड़ाते ओले बरका दिए हैं उन्होंने। कई बार टीड़ी-दल निकाल दिया है-फसल केक ऊपर से बिना कोई नुकसान पहुँचाए। ...लोगों की आधि-व्याधि तो वे आए दिन ठीक करते ही रहते हैं! ...सब भजन का परताप है ! ...बाबा कह रहे हैं तो जरूर बरसेगा पानी....पर क्या धरम-पुन्न करना पड़ेगा? ...........

बाबा बोले, धरम-पुण्य से संसार में क्या नहीं हो सकता ! ..सब-कुछ हो सकता है। ... शब्द हौले-हौले फिसलते हुए बाबा के मुँह से बाहर आ रहे थे, सबसे पहले श्रीमद्भागवत बँचेगा यहाँ-सात दिन, जिसे सुनकर मनुष्य के पाप क्षीण होते हैं! पाप बढन्े पर ही ताो अकाल पड़ता है। ...उसके बाद मेघों के लाने के लिए हवन होगा, मेघ-यज्ञ।”

बाबा की बात सुनकर लोगों के भीतर मिश्री सी घुल गई। यह तो आम के आम गुठलियों के दाम हैं। अब पानी तो बरसेगा ही, इस बहाने भगवान का कीर्तन भी सुनने को मिल जाएगा। भागवत की कथा। भागवत की कथा में तो आनंद ही आनंद है। शास्त्री जी की कथा सुने भी कई दिन हो गए। और भागवत बँचेगा, तो भंडारा ही होगा ही-देशी घी का। डालडा को ताो छूते भी नहीं हैं बाबा। जानवरों की चर्बी मिली रहती है डालडा में-वे कहते हैं। ...अब तो आनंद हैं। सात दिनों तक भगवान का लीला-गान और एक दिन परसादी। ...

और साहब, बाबा के निर्देशानुसार कार्य शुरू हो गया। लोगों ने गाँव में चंदा इक्ट्ठा करना शुरू कर दिया। सातों जात ने खुशी-खुशी दिया चंदा। जिनकी गाँठ खाली थी, उन्होंने इधर उधर से लाकर लिदए। जो अभी प्रबंध न कर पाए थे, वे भी एक दो दिन में कहीं न कहीं से इंतजाम कर देने को तत्पर थे। धरम-पुन्न की बात है। और फिर सब अपने ही लिए तो हो रहा है। ...भगवान प्रसन्न होंगे, तभी तो बरसेगा पानी। ...

किसी तरह का अवरोध न आया था अब तक के किसी काम में, पर अब बात यहाँ आकर अटक गई साहब, कि भागवत का परीक्षित कौन बनेगा? भले ही पूरे गाँव के नाम पर होगा भागवत-पाठ, लेकिन परीक्षित की गद्दी पर तो कोई एक ही बैठेगा और वही सातों दिन नियम-संयमपूर्वक रहकर कथा सुनेगा। यों तो पूरा गाँव ही सुनेगा कथा, लेकिन सबमें और परीक्षित में फर्क होता है। सच पूछो तो असली पुन्न तो परीक्षित का ही होता है। कहते हैं शुकदेव जी महाराज के मुख से सात दिन भागवत की कथा सुनने के बाद राजा पारीक्षित की साँप के काटने पर भी मुक्ति ही हुई थी। सो किसी तरह भी यह निश्चय नहीं हो पा रहा था कि परीक्षित कौन बने। मुँह खोलकर कोई न कहता था, पर सभी बड़भैये परीक्षित बनने को लालायित दीखते थे। पानी बरसने की बात तो पीछे छूट गई। प्रथम तो उनमें से कोई भी इस पुन्न कमाने के अवसर को न खोना चाहता था। ...अब किससे ना किया जाए किससे हाँ। एक अनार सौ बीमार ! ...अंतत: यह निश्चत हुआ कि बाबा जिसे बनाएँगे, वही बनेगा परीक्षित। बाबा के कहे पर किसी के मैल न होगा ! वे जिसे योग्य समझेंगे उसे ही बनाएँगे।

और साहब, सब इक्ट्ठे होकर पहुँचे बाबा के पास। हरिहर शास्त्री और कंचनलाल ने बाबा को सारी बातें बताई और कहा, महाराज, अब आप जिसे कहेंगे, वही बनेगा परीक्षित।

सुनकर बाबा की ऑंखे झिलमिला उठीं यकायक, बोले, यों ही नहीं बन जाता कोई परीक्षित।'

“तो महाराज....? कंचनलाल बाबा का मुँह देखने लगे।

'पूरे गाँव का काम है....मैं क्या कहूँ? बाबा ने रंग बदला ।

'पर महाराज, फैसला तो आपको ही करना पड़ेगा। हम सब इसीलिए यहाँ आए हैं। कंचनलाल ने प्रार्थना की।

देखों, साफ बात है-जो जितना देगा, उसका उतना पुण्य होगा। पर जो सबसे अधिक देगा, परीक्षित तो वही बनेगा। बाबा ने दो टूक कहा। गोमुखी के भीतर माला निरन्तर चल रही थी।

कंचनलाल की समझ में कुछ न बैठा। उन्होंने पूंछा, सबसे अधिक महाराज, कम-ज्यादा का तो सवाल ही नहीं है....चंदा तो सबने हिसाब से दिया है।

बाबा ने फिर ऑंखें मूँद लीं। वे बराबर माला फेरे जा रहे थे। उसी हाल में बोले, चंदा से कोई मतलब नहीं परीक्षित के लिए।

“हाँऽऽ !' हरिहर शास्त्री यकायक उछल पड़े प्रसन्नता के मारे, मतलब साफ है कि जो परीक्षित बनने के लिए सबसे अधिक रूपये देगा, वही बनेगा परीक्षित। उन्होंने बाबा की तरफ देखा। बाबा निर्विकार भाव सेस भजन में लगे थे।

हरिहर शास्त्री और कंचनलाल ने एक दूसरे की तरफ देखा।

आ गया समझ में महाराज.....कंचनलाल ने बाबा के मुँह की ओर देखकर कहा, ऐसा ही करेंगे।

बाबा अब माला-मग्न थे। यह देखकर कंचनलाल और हरिहर शास्त्री उठ खड़े हुए। चलते वक्त दोनों ने सिर नवाकर बाबा को प्रणाम किया और लौटकर लोगों के पास आ गए। उत्सुक बैठे लोगों को उन्होंने बाबा का फैसला कह सुनाया।

सुनकर ज्यादातर लोगों के भीतर प्रसन्नता फैल गई, न्याय की बात कही है बाबा ने।

'सही बात है, परीक्षित बनने के लिए ज्यादा तो देना ही पड़ेगा। सुर में सुर मिले।

'अपनीद अपनी श्रध्दा की बात है। अनेक बोल फूटे।

....तो भैया, शुभ काम में देर क्यों । हरिहर शास्त्री ने कहा, जो कोई परीक्षत बनना चाहता है-लगाए बोलीं। ...बोली जिसके पास टूटेगी, वही रहेगा परीक्षित।

और साहब, एकबारगी लोगों में सनसनी फैल गई।

कुछों के भीतर बैठी परीक्षित बनने की लालसा एक झटके के साथ उठ खड़ी हुई।

कुछ बगलें झाँकने लगे।

कुछों के भीतर उठा-बोली? ...अब गेहूँ-चना की तरह बोली लगेगी परीक्षित की गद्दी की? धरम-पुन्न की बोली?

सब अपनी-अपनी जगह पर जमें बैठे थे।

यकायक सोबरनसिंह खडे हो गए। सबकी तरफ देखकर मुध्दिम स्वर में बोले, एक हजार। ...मेरे एक हजार रहे।-

लोगों की निगाहें सोबरनसिंह पर जा टँगी।

तभी ग्याराम ठाकुर ने खड़े होकर कहा, ग्यारा सौ...मेरे ग्यारा सौ रहे।

'मेरे बारा सौ सौ। सोबरनसिंह ने ऊँचे स्वर में कहा।

ग्याराम ठाकुर बोले, पंद्रा सौ।

'दो हजार । सोबरनसिंह ने तैश में कहा।

'ढाई हजार! ग्याराम ठाकुर की आवाज ऊँची हो गई।

लोग साँस साधे देख रहे थे

यकायक रामेश्वरलाल ने खड़े होकर कहा, मेरे तीन हजार।

सोबरनसिंह ने कहा मेरे चार हजार ।

रामेश्वर लाल ने छलाँग लगाई, पाँच हजार ।

लोग सन्नाटे में आ गए थे और साँस साधे देख रहे थे कि हजारो में बढती बोली देखें

कहाँ जाकर रूकती है। ...कितने हजार पर?

ग्याराम ठाकुर अब चुप थे। पाँच हजार से सआगे उनकी हिम्मत नहीं पड़ रही थी।

सोबरनसिंह खड़े-खड़े अपने ऍंगोछे को बार-बार दाएँ से बाएँ, बाएँ से दाएँ कंधे पर बदल रहे थे। सोचा-विचारी के बाद उन्होंने एक और फेंक लगाई, साढ़े पाँच हजार !

अब रामेश्वरलाल को भी सोचना पड़ा । साढ़े पाँच हजार रूपैया । ...सोच-विचारक े बाद उन्होंने कहा, छै हजार !

लोगबाग सोचने लगे थे कि बोली टूटने को है अब । छ: हजार से आगे सोबरनसिंह कभी न जाएँगें।

उसी वक्त मजमें के पिछाड़ी हिस्से में बैठे चमारों के बीच तिहाली मेंबर के भीतर सुगबुगाहट उनके चेहरे पर दिखाई दे रही थी। यकायक उन्होंने अपने आसपास बैठे भाई- बंधों की तरफ निगाह डाली और खड़े हो गए। ऊँची आवाज में बोले, मेरे सात हजार रूपैया।

और साहब, लोगों के कान खड़े हाो गए यह सनुकर, और उनकी ऑंखे निहाली के चेहरे पर टँग गई। निहालिया चमार बोली लगा रहा है-परीक्षित के लिए। चारों ओर फुसफुसाहटें फैल गई-

-सोच समझ के ही बोली लगाई होगी उसने ! .....

-सब पैसे की बाते हैं ! ......

-भैया, जब बोली ही लग रही है, तो सभी को हक है ! ....

-अरे भैया, जब धरम-पुन्न के काम में बोली लगने लगी, तो किसी को क्या दोष है? ...जिसके पास पैसा होगा वह तो लगाएगा । उसमें चमरा उमरा क्या !...खेल में लालाजी काहे के ! ....

निहाली को बोली लगाते देखकर सोबरनसिंह की ऑंखें लट्टू की तरह जल उठीं । वे बेकाबू होकर चीख उठे, मेरे आठ हजार रूपैया ।

सुनकर लोगों की धड़कने तेज हो उठी-तनातनी में कहीं बात न बढ़ जाए । वे कभी सोबरनसिंह की ओर देखते, कभी निहाली की ओर।

रामेश्वर ने बोली बढ़ाई, मेरे साढे आठ हजार रूपैया।

निहाली ने तत्काल कहा, नौ हजार ।

और साहब, क्षणांश में लोग सोच गए कि अब निहालिया किसी भी कीमत पर पीछे न हटेगा। पैसे की तो कोई कमी नहीं है उसपै। सभी जानते थे कि निहाली का बड़ा लड़का रामनिहोर आजकल थानेदार है। ...आज से बीस-पच्चीस साल पहले निहाली का नाम-निहाई था...लेकिन अब गाँव के बड़े बूढ़े भले ही उसे कभी 'निहाई' या निहालिया' कह देते हों, पर सरपंच, पटेल और मेंबर तक निहालीराम ही कहते हैं । पिछले चुनाव में तो निहाली को चमारों के वार्ड का मेंबर भी चुना गया था। तब से “निहाली मेंबर' ही ज्यादा प्रचलन में आ गया है। ...जब से लड़का थानेदार बना है तब से निहाली का कच्चा घर सबके देखते-देखते किस तरह धीरे-धीरे पक्के दुमंजिले में तब्दील होता गया है, जिसके ऊपर अब कलई से पुता अटा कोस भर दूर से ही चमकता है।.... अब निहाली मेंबर पिचहत्तार बीघा का जमींदार है। ...और जब बोली ही लग रही है तो वह पीछे क्यों हटेगा? ...पलांश को अधिकांश लोगों के भीतर गड़गड़ाते बादलों के बीच बिजली की तरह यह बात भी कौंध गई कि व्यास गद्दी के सामने परीक्षित की गद्दी पर जब निहालिया चमार बैठेगा, तो क्या होगा? ....

उसी समय हरिहर शास्त्री वहाँ से उठकर चले गए और कुछ ही पलों में लौटकर फिर यथास्थान आ बैठे।

निहाली की बोली सुनकर रामेश्वरलाल को लगा कि जैसे उन्हें जीते-जी जमीन में गाड़ दिया गया है। वे आग बबूला होकर बोले, मेरे दस हजार रूपैया।

इसके आगे निहाली का मुँह खुलने को ही था कि उसने और सभी ने बाबा को अपनी तरफ आते देखा-बीमार और जर्जर शरीर ढोते, धीरे-धीरे चलते बाबा । लोगों की निगाहें थिर हो गई बाबा पर। क्यों आ रहे बाबा? इस तरह बेवक्त तो कभी न निकलते थे मंदिर से। हठात् प्रणाम के लिए सिर झुक गए, हाथ जुड़ गए लोगों के बाबा की तरफ्। बाबा निकट आ गए तो लोगों को पहली बार बाबा की बूढ़ी ऑंखों में लपलपाता सा कुछ दिखा। और लोग काँप गए भीतर-ही भीतर। एक अबूझ सा भय और सन्नाटा तारी हो गया अचानक सबसे ऊपर। सकपकाए-से देखते रहे बाबा की तरफ। देर से शहतूत के पेड़ पर पिपियाता पपैया एकदम चुप लगा गया।

और साहब, बमुश्किल शरीर को साधते और सबकी तरफ देखते बाबा ने कहा, धरम के काम में स्त्री और शूद्र को कोई अधिकार नहीं है।

'क्यो महाराज? क्यों नहीं है अधिकार? निहाली ने तपाक से प्रश्न किया ।

'धरम-शास्त्रों में ऐसा लिखा है- इसलिए....'

बाबा की बात पूरी होते-न-होते निहाली ने पूछा, तो धरमशास्त्रों में यह लिखा है कि....'

निहाली की बात अभी पूरी न हुई थी कि उनके आसपास बैठे बिरादर भाईयों ने खड़े होकर उन्हें समझाया कि बाबा के मुँह लगना टीक नहीं है, तो निहाली मेंबरर चुप हो गए।

बाबा ने कह दिया, शूद्रों का धरम अन्य वर्णो की सेवा करना है ......अन्य कामों का उनके लिए निषेध है।'

निहाली ने बैठे हुए ही धीमी और रूखी आवाज में कहा, 'हम लोग आदमी थोड़े ही हैं सो हमें और कोई अधिकार होगा....हम तो जानवर है ....। और उठकर वहाँ से चल दिए। उनके जाते ही वहाँ बैठे अनेक लोग उठकर चले गए।

और साहब, बाकी रहे लोगों का तनाव उनके चेहरों से ऐसे उड़ गया जैसे ठंडी हवा लगने से पसीना उड़ जाता है। उन्होंने चैन की साँस ली। बाबा न आते तो चमरूआ बढ़ता ही जाता। धरम की रक्षा कर ली बाबा ने आकर ! ...सबकी ही रक्षा करते हैं बाबा। सबकी रक्षा के खातिर जतन कर रहे हैं बाबा । पानी किसी एक के लिए थोड़े ही बरसेगा-सभी के लिए बरसेगा। पर चमरूओं को तो परीक्षित बनने की पड़ी थी।

अब मीन-मेख की जरूरत न रही थी । दस हजार की बोली रामेश्वरलाल की थी। परीशित की गद्दी उनके हाथ रही। बाबा का मत मिल गया उन्हें।

बाबा के परम प्रिय शिष्यों में से एक थे-रामेश्वरलाल। हर साल गुरू पूर्णिमा को पाँच सौ एक रूपये चढ़ाते थे वे बाबा के श्रीचरणों में। बाबा का दिया हुआ तुलसी का गुरिया हमेशा उनकी गर्दन में रहता था और मंत्र जुबान पर। रोजाना पूजा करने का नियम बना हुआ था। माथे, छाती, नाभि और बाहों के साथ-साथ गुरिया पर तिलक लगाते थे-पूजा के वक्त। शुरूय से ही उनका हृदय भगवान के प्रति भक्ति-भाव से भरा रहा था। रोजाना रामायण बाँचने और गीता पाठ का नियम बनाए हुए थे। एक सौ आठ मनियाँ की माला फेरते थे। ...उस समय तो उनके भेजें में फितूर घुस बैठा था, सो उन्होंने अपने सगे छोटे भाई की गर्दन पर सोते में फरसा चला दिया था। आधी जायदाद का हकदार था वह, और जायदाद का लोभ-मोह सभी को होता है। ... कत्ल किया था, सो सज़ा भी हुई थी रामेश्वरलाल को। पर साहब, दो ही साल में बरी होकर आ गए थे। ...जिस दिन बरी होकर आए थे, उस दिन सीधे बाबा के पास पहुँचे थे- ऑंखें ऑंसुओं से भरी थीं। बाबा ने समझाया था, तुम दु:खी क्यों होतें हो रामेश्वरलाल? ........जो कुछ होता है रामजी की मर्जी से होता है। पत्ताा भी उनकी मर्जी के खिलाफ नहीं हिल सकता।...अब तुम ऐसा करो-यहाँ मंदिर बनवाकर 'शिव पंचायत' पधरवा दो, और गंगा स्नान करके गंगा-जल लाकर शिवजी पर चढ़ा दो-तुम्हारे सब पापों का नाश हो जाएगा। चिंता त्याग दो।

और सहाब, रामेश्वरलाल वही सब करके, जो बाबा ने कहा था, निष्पाप हो गए थे।...वह रहा रामेश्वरलाल का मंदिर । (छड़ी से इशारा करके)..... आइए...पास से देखिए...यह शिला लगी है उनके नाम की- 'इस मंदिर का निर्माण और मूर्ति स्थापना श्री रामेश्वरलाल आत्मज श्री परमेश्वरलाल ने करवाया...सन्...संवत्...।

ऐसे थे साहब, रामेश्वरलाल, जिन्होंने परीक्षित बनने के लिए दस हजार रूपए लाकर बाबा के चरणों में डाल दिए थे।

और साइत के मुताबिक भागवत शुरू हुआ था। रामेश्वरलाल परीक्षित के आसन पर बैठे थे। हरिहर शास्त्री व्यास-गद्दी पर। श्रध्दालु श्रोता सुनने लगे थे।

चौमासे-भर के सूखे से धरती का चेहरा काठ-कठोर हो गया था। खेत मेड़ एक हो गए थे-बंजर और तृणहीन। ...आसमान बीहड़ और भयावना लगता था। धरती और आसमान के बीच साँय-साँयय कर चलती हवा में झुंड-के-झुंड गिध्द और चीलें मँडराते थे, जो भूख-प्यास से मर गए किसी गरीब-गुरबे के ढोर पर आ झिमटते थे और उसे निबटाकर फिर आसमान में उड़ने लगते थे।

और साहब, नौ बजते ही भागवत का लाउडस्पीकर लोगों के सिर चढ़कर बोलने लगता था...तब तक लोग बैल-चौपायों का पानी और रूखा-सूखा चारा दे, नहा-धो, खा-पीकर निवत्त हो चुके होते ओर भागवत सुनने चल देते थे।

उस वक्त साहब, स्कूल में मास्टर सुभाषचन्द्र की जान को साँसत होती थी। उन्हें लगता रहता था कि िउनका भरा-पूराा वर्तमान उनसे छिटककर दूर चला गया है और उनका भविष्य भी उनके हाथ से निकल जाना चाहता है। ...उन्होंने कितनी बार कहा था लोगों से कि पानी प्रकृति के संतुलन से बरसता है और असंतुलन से पड़ता है अकाल-इसके लिए बाबा क्या कर सकते हैं ! ...पर किसी ने भी कान न दिया इस बात पर ! ...उसके बाद जो-जो घटनाएँ हुई, उन्हें भूल नहीं पाते थे मास्टर सुभाषचन्द्र । एक-'एक दृश्य, एक-एक चेहरा उभरता चला जाता उनकी ऑंखों के सामने .....

........और लाउड स्पीकर की आवाज़ सुन-सुनकर स्कूल के बच्चे बार-बार उनके पास आकर चिरौरी करते थे, 'गुरूजी, अब तो छुट्टी कर दो ! देखो, कब का बँच रहा है भागवत, गुरूजी ! लेकिन सुभाषचन्द्र छुट््टी न करते थे। वे देर तक कुछ बुदबुदाते रहते थे। उनका चेहरा लाल हो जाता था आग के गोले की तरह! ...वे बच्चों पर उस माहोल का साया तक न पड़ने देना चाहते थे जिसमें गाँववाले चोटी तक डूब चुके थे ! पर बच्चे थे कि रोज़ के नियमानुसार 'हे प्रभो आनंददाताा ज्ञान हमको दीजिए, शीघ्र सारे दुर्गुणों को दूर हमसे कीजिए...' प्रार्थना के पश्चात् कुछ देर परमानन्द शर्मा की धर्म और सदाचार-शिक्षा पाने के बाद, सुभाषचन्द्र को दम न लेने देते थे। शर्मा जी की तरफ से तो उन्हें पूरी छूट होती थी। शर्मा जी खुद धर्म-प्राण व्यक्ति थे और बाबा के दीक्षित शिष्य भी। सो खुद भी भागवत सुनने जाने के लिए तत्पर रहते थे। पर बच्चों की छुट्टी का अधिकार न पाते थे वे-खुद के भीतर। सो उन्हें सुभाषचन्द्र के पास भेजते थे। सुभाषचन्द्र लड़ रहे थे-एक लड़ाई-अपेन भीतर भी, बाहर भी।

और साहब, उसी वक्त चमारों, कोरियो, बराहरों, धोबियो, मेहतरो...यानि बाबा के अनुसार शूद्रों के भीतर काँटा सा कसकता था- लाउडस्पीकर सुन-सुनकर ! ...शूद्रों को धरम के काम का अधिकार नहीं है। वाह रे वाह ! .... इसीलिए तो उनके पुरखों के पसीने से बने मंदिर में वे घुस भी नहीं सकते। इसीलिए तो अपने बाप-दादों की खोदी कुइया का पानी वे ही नहीं ले सकते। उन्हें तो सिर्फ सेवा करने का अधिकार है, और कोई अधिकार नहीं।

और साहब, एक दिन निहाली मेंबर ने सबको इक्ट्ठा कर ऐलान कर दिया, भाइयो ! धरम-पुन्न पर किसी का कंटरौल नहीं हो सकता ! ....बाबा कहते हैं कि हमें धरम-पुन्न का अधिकार नहीं है .....उन्होंने हमारा चंदा लौटाा दिया है ....ठीक है, अब हम अलग से धरम-पुन्न करेंगे....कहीं से पंडित बुलाकर हम भी भागवत बँचाएँगे । ....जग्गि करेंगे।

सबने निहाली की बात का समर्थन किया था।

और जिस दिन बाबा के भागवत का आखिरी दिन था, उस दिन गाँव की दूसरी ओर बाबा से उपेक्षित लोगों का भागवत शुरू होने जा रहा था। निहाली मेंबर ग्यारह हजार रूपए देकर निर्विरोध परीक्षित बने थे। पाँच हजार रूपए पर अनुबंधित होकर आए पंडितजी-कथावाचक। और तमाम चमार, कोरी, धोबी, बराहर, मेहतर आदि श्रोता ! .....

और जब यह खबर बाबा तक पहुँची, तो क्रोध से काँप उठे वे। ऑंखों में आग की भट्ठी जल उठी, क्या हो रहा है यह? वे चीखे, 'अनर्थ हो जाएगा !......जानते हो, शंबूक की तपस्या से ब्राह्मण का पुत्र मर गया था !

लोग टकटकी लगाए बाबा के क्रोधाविष्ट बूढ़े चेहरे को देख रहे थे। उनके कानों में बार-बार प्रतिगुंजित हो रहा था-जानते हो शंबूक की तपस्या से ब्राह्मण का पुत्र मर गया था!...जानते हो...

और साहब, स्कूल के बच्चों की अभी छुट्टी हुई थी, और उनके पीछे ही परमानन्द शर्मा भागवत सुनने गए थे कि सुभाषचन्द्र ने गाँव के लोगों काो इधर-उधर भागते देखा। पर इस ओर उन्होंने कोई खास ध्यान न दिया। तभी परमानन्द शर्मा लौटकर आ गए-बदहवास और हाँफते हुए। वे सुभाषचन्द्र की ओर मुखातिब हुए, “भैया गजब हो गया !'

'क्या हुआ? सुभाषचन्द्र ने परमानन्द की ओर देखा ।

'चमारों के भागवत में ....पमरानंद हकलाने और हाँफने के सिवा कुछ न कह पा रहे थे।

'चमारों के भागवत में? ..............क्या हुआ शर्मा जी, बताओ तो क्या हुआ? सुभाषचन्द्र व्यग्र हो उठे थे ।

'चमारों के भागवत में....' परमानन्द हकला रहे थे।

अब सुभाषचन्द्र ने गौर किया, लोग दौड़े जा रहे हैं-चमारों के भागवत स्थल की ओर! वे भी लोगों के पीछे दौड़ लिये- देखें तो, बात क्या है ! .....

और साहब, भागवत-स्थल पर पहुँचकर सुभाषचन्द्र ने देखा, कुछ लोग इधर-उधर बिखरे खुसर-पुसर कर रहे हैं। एक तरफ खड़े कंचनलाल और निहाली मेंबर आपस में बतिया रहे हैं- उनके चेहरों पर शिकन तक नहीं है ! ....तंबू तना है...व्यास-गद्दी बनी है, लेकिन वहाँ न भागवत है न उसकी कथा, न पंडित है न कोई श्रोता।

सुभाषचन्द्र की कुछ भी समझ में न आया। उन्होंने देखा- लोग वहाँ दौड़ते चले आते हैं और बिना कुछ बोले-बतियाए कुछ देखते रहते हैं-भयभीत-से और फिर लौट पड़ते हैं- दौड़ते हुए ही-मंदिर वाले भागवत की तरफ ! ............आखिर हुआ क्या है? सोच में डूबे सुभाषचन्द्र उसी तरह दौड़े मंदिर वाले भागवत की तरफ-जिस पर और लोग दौड़ते गए थे ! ....और पहुंचकर उन्होंने देखा कि वहाँ भी न भागवत बँच रहा है, न उसके श्रोता हैं ! हाँ हरिहर शास्त्री निरापद भाव से गद्दी पर बैठे थाली में भरे रूपए-पैसे गिनने में लगे हैं......और लोगों की भीड़ पाट पर बैठे-ऑंखे मूँदें, माला फेरते-बाबा के सामने जमा है-शरणागतों की तरह-हाथ जोड़े !

सुभाषचंद्र भीड़ के पीछे जा खड़े हुए और जानने को उत्सुक थे कि आखिर बात क्या है ! ... उसी वक्त भीड़ में से कोई फुसफुसाया था, 'पाँच जने तो अजा हो गए।'

'क्या ! हठात् सुभाषचंद्र के मुँह से निकला, कौन ....?

'गोकलिया, शिबुआ, रमजिया उधर और दो जने इधर के.....' जबाब मिला, 'गरीब न किसी की तीन में थे न पाँच में- वे ही मारे गए बेचारे ! .....लाठियाँ ठीक कपार में बैठ गई थीं उनके ।'

अब ज्यादा रार बढ़ गई। लोगों में खुसुर-पुसुर फैल गई। वे बाबा की तरफ ताक रहे थे- याचना सी करती निरीह ऑंखों से।

और साहब, सहसा सुभाषचंद्र की त्योदी फटी रह गई। उन्होंने देखा-बाबा का शरीर और चेहरा बदला हुआ है। उनकी खाल पके फोड़े की तरह पिलपिली तथा बैल के सींग की तरह रूखी और छिलकेदार है। वे जुगाली सी करते हुए मुँह चला रहे हैं और उनके होठों के छोरों से लाल-लाल खून की फसूकर सहित लकीरें बह रही हैं ! .....मास्टर सुभाषचंद्र दहशत से हिल उठे उस क्षण। और लोग थे कि हाथ जोड़े खड़े थे। और यह देखकर बाबा के होंठ मुस्कान उगल रहे थे-एक आदमखोर मुस्कान !

और साहब, अगले ही क्षण लोगों ने देखा-मास्टर सुभाषचंद्र बाबा की गर्दन टीपे हुए हैं, और बाबा की रक्त-रंजित जीभ बाहर लटक आइ्र है।

यह देखकर लोग बौखला उठे और मास्टर सुभाषचंद्र पर दुश्मनों की तरह टूट पड़े थे। और साहब, आपके यह जानकर पता नहीं कैसा लगेगा कि उन्होंने सुभाषचंद्र की जान ले ली थी पीट-पीठकर-उसी जगह।

और साहब, मास्टर सुभाषचंद्र की मौत होने के बाद अंचभे की बात यह हुई कि बाबा फिर जीवित हो गए थे।

फिर?

फिर क्या साहब, वे तो आज तक ंजिंदा हैं।

हाँ साहब, आज तक !

कहाँ हैं? .

अरे साहब, अजीब बात पूछी है आपने ! ....आपमें से बहुतों ने तो उन्हें देखा भी होगा ! अब वे किसी एक जगह नहीं ठहरते....देश...भर में विचरणा करते हैं।

खैर ....अब आप किधर चलना चाहेंगे?