यहां ओशो को हुआ था मृत्युबोध / ओशो
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लेखक:कपिल साहू, गाड़रवारा
विश्वविख्यात दार्शनिक आचार्य रजनीश, जिन्हें पूरा संसार ओशो के नाम से जानता है। ओशो का जन्म कुचवाड़ा (रायसेन, मप्र) में हुआ, बचपन गाडरवारा में बीता और उच्च शिक्षा जबलपुर में हुई। ओशो के जीवन के कई अनछुए पहलू हैं, उन्होंने जीवन के रहस्यों को किशोरावस्था के दौरान गाडरवारा में ही जान लिया।
न हंसे और न रोए
परंपरा रही है कि पहला बच्चा नाना-नानी के घर पर होगा। ओशो का जन्म भी नाना के यहां कुचवाड़ा में हुआ। ओशो जब पैदा हुए तो तीन दिनों तक न तो रोए और न ही हंसे। ओशो के नाना-नानी इस बात को लेकर परेशान थे लेकिन तीन दिनों के बाद ओशो हंसे और रोए। नाना-नानी ने नवजात अवस्था में ही ओशो के चेहरे पर अद्भुत आभामण्डल देखा। अपनी किताब 'स्वर्णिम बचपन की यादें' में इस बात का उन्होंने जिक्र किया है।
बेहद शरारती और निर्भीक
ओशो के बालसखा स्वामी शुक्ला बताते हैं कि बचपन में ओशो न केवल बेहद शरारती थे, बल्कि निडर भी थे। वे 12-13 वर्ष की उम्र में रातभर श्मशानघाट पर यह पता लगाने के लिए जाते थे कि आदमी मरने के बाद कहां जाता है। एक बार उन्होंने जिद पकड़ ली कि स्कूल जाएंगे तो सिर्फ हाथी पर, उनके पिता ने हाथी बुलवाया और तब कहीं जाकर ओशो स्कूल गए। बचपन में नदी में नहाने के दौरान ओशो अपने साथियों को पानी में डुबा दिया करते थे और उन्हें कहते थे कि मैं यह देखना चाहता हूं कि मरना क्या होता है।
एक दिन में पढ़ते थे तीन पुस्तकें
प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के दौरान जब बच्चे और किशोर कहानियों और काल्पनिक दुनिया में डूबे रहते हैं तब ओशो ने न सिर्फ जीवन के रहस्यों को समझाने वाली, बल्कि पूरी दुनिया के लोगों और उनसे संबंधित किताबों का अध्ययन कर डाला। ओशो के पढ़ने की जिज्ञासा का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि गाडरवारा के बहुत पुराने श्री सार्वजनिक पुस्तकालय में वे एक दिन में तीन किताबें पढ़ा करते थे। अगले दिन फिर वे इन किताबों को जमा करके नयी किताबें ले जाया करते थे। आज भी ओशो के हस्ताक्षर की हुईं किताबों की धरोहर इस पुस्तकालय में सहेजकर रखी गई है। उस समय ओशो अपना नाम रजनीश चंद्रमोहन लिखा करते थे। इस समय ओशो ने जर्मनी के इतिहास, हिटलर, मार्क्स, भारतीय दर्शन आदि से संबंधित किताबों का अध्ययन कर डाला था।
कभी पुल से कूदकर, तो कभी कुएं में उतरकर नहाना
ओशो के बालसखा बताते हैं कि लोग रजनीश को अजीब कहा करते थे। जहां ओशो रहा करते थे वह स्थान आज प्रभु निवास के नाम से एक धर्मशाला के रूप में परिवर्तित हो चुका है। इसी में एक कमरे में ओशो रहा करते थे और इसी भवन में एक कुआं है जिसमें सीढ़ियां बनी हुई हैं। इस कुएं के अंदर उतरकर ओशो घंटों नहाया करते थे। इसी तरह गाडरवारा की शक्कर नदी पर बने रेलवे पुल से कूदकर भी उन्होंने जलक्रीड़ा की है। शक्कर नदी के रामघाट पर भी वे घंटों नदी में डूबे रहते थे।
ज्योतिषियों की भविष्यवाणी
ओशो के नाना ने बनारस के एक पंडित से उनकी कुण्डली बनवाई। पंडित द्वारा यह कहा गया कि जीवन के 21 वर्ष तक प्रत्येक सातवें वर्ष में इस बालक को मृत्यु का योग है। ओशो अपने नाना और नानी को सर्वाधिक चाहते थे और उन्हीं के पास अधिकांश समय रहा करते थे। उनके जीवन के सातवें वर्ष में ओशो के नाना बीमार हुए और बैलगाड़ी से इलाज के लिए ले जाते समय ओशो भी उनके साथ थे, तभी उनकी मृत्यु हो गई। ओशो ने इस समय मृत्यु को इतने करीब से देखा कि उन्हें स्वयं की मृत्यु जैसा महसूस हुआ। जब ओशो 14 वर्ष के हुए तो उन्हें मालूम था कि पंडित ने कुण्डली में मृत्यु का उल्लेख किया हुआ है। इसी को ध्यान में रखकर ओशो शक्कर नदी के पास स्थित एक पुराने शिव मंदिर में चले गए और सात दिनों तक वहां लेटकर मृत्यु का इंतजार करते रहे। सातवें दिन वहां एक सर्प आया, तो ओशो को लगा कि यही उनकी मृत्यु है लेकिन सर्प चला गया। इस घटना ने ओशो का मृत्यु से साक्षात्कार कराया और उन्हें मृत्युबोध हुआ।
बन गया ओशोलीला आश्रम
जहां ओशो ने अपने बाल्यकाल की क्रीड़ाएं खेलीं और जहां उन्हें मृत्युबोध हुआ था, उसी स्थान पर ओशो लीला आश्रम का निर्माण किया गया है, जहां हमेशा ध्यान शिविरों का संचालन किया जाता है। इसके संचालक स्वामी राजीव जैन बताते हैं कि हमारा प्रयास ओशो की धरोहरों और उनकी यादों को सहेजने का मात्र है जिससे आज उन्हें करीब से महसूस करने का मौका लोगों को मिल सके।
मृत्युबोध वाला प्राचीन मंदिर
संबोधि दिवस पर इसका जिक्र शायद सबसे महत्वपूर्ण है। गाडरवारा की शक्कर नदी के किनारे गर्राघाट पर एक पुराना मंदिर था। इसी के पास ओशो घंटों बैठकर ध्यान में डूबे रहते थे। यहीं पास में एक मग्गा बाबा रहा करते थे जिनसे ओशो को अत्यंत लगाव था। इन्हीं मग्गा बाबा का जिक्र ओशो ने अपनी किताबों में भी किया हुआ है। इसी मंदिर के पास उन्हें मृत्युबोध हुआ था और वे जीवन के रहस्यों को समझने लगे थे। यही वो क्षण था जब ओशो के जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ।
ओशो का जीवनवृत्त.
11 दिसंबर 1931 को ननिहाल कूचवाड़ा में जन्मे रजनीश चन्द्रमोहन जैन 1939 में अपने माता-पिता के पास गाडरवारा नरसिंहपुर में आकर रहने लगे। 1951 में उन्होंने स्कूल की शिक्षा पूरी की और दर्शनशास्त्र पढ़ने का निर्णय लिया। इस सिलसिले में 1957 तक जबलपुर प्रवास पर रहे। इसके बाद आचार्य रजनीश नाम के साथ 1970 तक शिक्षण और भ्रमण की दिशा में संलग्न हो गए। तदन्तर 1970 से 74 तक मुंबई में भगवान श्री रजनीश नाम से प्रवचन किए। उसके उपरांत 1981 तक पूना आश्रम में रहकर एक से बढ़कर एक प्रवचनों की बौछार कर दी। 1981 में पूना से अमेरिका गए और वहां 1985 तक रहकर पूरी दुनिया को अपनी क्रांतिकारी-देशना से हिलाकर रख दिया। 1985 में अमेरिका से निकलकर विश्व-भ्रमण पर चले गए। 1987 में दोबारा ओशो नाम के साथ पूना आगमन हुआ और 19 जनवरी 1990 को वे इन दुनिया से महाप्रयाण कर गए।
35 साल जमकर बोले..
ओशो ने अपने संपूर्ण जीवनकाल में 35 साल तक जमकर बोलने का कीर्तिमान बनाया। उनके प्रवचन 5 हजार घंटों की रिकॉर्डिंग व 650 से अधिक पुस्तकों की शक्ल में उपलब्ध हैं। युक्रांद, रजनीश टाइम्स, ओशो टाइम्स, ओशो वर्ल्ड, यैस ओशो जैसी पत्रिकाएं उनके विचारों की प्रचारक रही हैं। देश-विदेश में कई ओशो आश्रम संचालित हैं। उनका संदेश था कि जन्म और मृत्यु, जीवन के दो छोर नहीं हैं, जीवन में बहुत बार जन्म, बहुत बार मृत्यु घटती है। जीवन का अपना कोई प्रारंभ नहीं है, कोई अंत नहीं है, जीवन और शाश्वतता समान हैं। वे कहते हैं ध्यान है तो सब है ध्यान नहीं तो कुछ भी नहीं। उत्सव आमार जाति, उत्सव आमार गोत्र यह भी उनका महासंदेश था। वे पृथ्वी पर ऐसे मानव की कल्पना कर गए जो भौतिक और आध्यात्मिक दृष्टि से परिपूर्ण हो, इसे उन्होंने जोरबा दि बुद्धा नाम दिया। महासागर की पुकार ओशो का कहना था कि
ओठों से कहोगे, बात थोथी और झूठी हो जाएगी। प्राणों से कहनी होगी। और जहां आनंद है, वहां प्रेम है और जहां प्रेम है वहां परमात्मा है।