यहीं तक / राजी सेठ / पृष्ठ 1

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यहीं तक
राजी सेठ

जिस तेज़ी से वह थाली को धकियाकर उठा था, साफ था कि उस घटना से मेरे और पत्नी के बीच संवाद का पुल आने वाले कई दिनों तक टूटा रहेगा। गांठ कहीं पड़ती है, कसाव कहीं महसूस होता है। ख़ास उसी के लिए ज्यादा टमाटर डालकर बनाई सब्ज़ी का शोरबा थाली से टकराकर चटाई पर एक चिकना पीला धब्बा छोड़ गया था और पास रखे गिलास को लुढ़का गया था। आज कितने...कितने ही दिन बाद वह मेरे साथ खाने बैठा था। नहीं तो ज्यादातर वह बरांडे में पड़ी काठ की मेज के आगे पीढ़ी जमाकर खाने बैठता है। अकेला। अपने भाई-बहनों के संग-साहचर्य से अछूता। उन सबको अपनी-अपनी उम्र की सड़कों पर खेलता-कूदता छोड़कर पता नहीं वह किस तरह इतनी जल्दी आगे चल निकला है! किसने थमा दिए हैं उसके हाथ में इस तरह के प्रश्नों के चाकू! इस भीड़-भरी गिरस्ती में जब मैंने उसकी उठान पर ध्यान दिया तो उसे उसी तरह बेचैन ही पाया। पल-पल कोंचता। प्रश्न पूछता...घर में कब-कब, क्यों और कैसे होता है? हमारी हैसियत के भीतर क्या है, बाहर क्या? क्यों आज शन्नो की गोलक तोड़ी जाती है और कल शाम को बादाम की ठंडाई पिसने लगती है? क्यों आज चप्पल खरीदने से इनकार होता है और कल जूता खरीदने की रजामंदी रुख में दिखाई देने लगती है? क्या कारण है कि दौड़ती हुई योजनाएं ठिठक जाती हैं और ठिठके हुए इरादों को एकाएक पंख लग जाते हैं? किसलिए इतना लचीला है सब कुछ आस-पास...अनुमान और नियंत्राण से परे...? उसकी आंखों में जिज्ञासाओं का एक हजूम और उसकी मन:स्थिति अंडे के भीतर के द्रव की तरह अस्थिर...जिसे स्थिर करने का जिम्मा नीचे तपते ताप का होता है। इस ताप के स्वभाव को स्थिर न कर पाने के कारण वह उलझता है। ...बात-बात पर डांवाडोल...हर मुद्दे को अपने हाथ में ले लेने को आतुर...अपनी वयस्कता पर ज़रूरत से ज्यादा आत्ममुग्ध। उसे लगता है कि वह अब वयस्क हो गया है, बल्कि वयस्क से भी थोड़ा अधिक। भाई-बहनों से अधिक पिता के खेमे में। पिता के प्रति आदर को आहत किए बिना घर के केंद्र में आ जाने का एकमेव अधिकारी। वह नहीं जानता, घर के केंद्र में होना क्या होता है। अपने पर खिंचे एक चतुर्दिक को सहना होता है। हाथ ही हाथ होते हैं चारों तरफयाचक। कोंचते हुए। आंखें-ही-आंखें भर्त्सना करती हुई, प्रश्न पूछती हुईक्यों उनके पास वह सब नहीं है जो दूसरों के पास है? क्यों रूखी रोटी है, रोटी पर पिघलते मक्खन की तरावट नहीं? क्यों कमरे हैं, ड्राइंगरूम, बेडरूम नहीं? खरखरी खाटें हैं, पलंग और सोफे नहीं? यह सब मात्रा उससे पूछा जाता है जो केंद्र में होता हैघर का अकेला आक्रांत मुखिया। वह कैसे जानेगा केंद्र में कर्म अपना होता है, फल दूसरों के लिए? हार अपनी, पुरुषार्थ दूसरों के निमित्ता...

अभी तो वह बी.ए. के अंतिम वर्ष में ही है। गत वर्ष ड्रॉप न कर दिया होता तो डिग्री मिल चुकी होती। ड्रॉप करने की बात भी मुझे तो ऐन परीक्षा के समय पता लग पाई थी। मैं नहीं जानता था कि वह पूरा साल पढ़ाई के साथ-साथ दो-तीन टयूशन और किसी प्राइवेट कंपनी के बिलिंग सेक्शन में पंचिंग का काम भी करता रहा था, इसीलिए परीक्षा की पूरी तैयारी नहीं कर पाया था। स्पष्ट था, उसने इस जानकारी से मुझे अलग रखा था। जान-बूझकर। दंड-सा देते हुए। जताते हुए कि यदि मैं अपने चारों ओर घेरे खींच सकता हूं तो वह भी उस घेराबंदी के उतना ही समर्थ है। उसके और मेरे बीच यह गंध? होड़ और हिंसा? ...नहीं। मुझे यह सब अच्छा नहीं लगा था। मेरी ओर से घेराबंदी अगर थी तो उसमें उसके लिए दंड नहीं था, सावधानी थी। उसे अपने से ही बचा सकने की सावधानी... इतना ही था जो मैं उसके लिए कर सकता था। करना चाहता था। वही मुझे दरकार था। ...उसकी उठान को मैं दरगुज़र कर देना चाहता था। उससे मिले दिलासों के प्रलोभक सेंक के बावजूद। ड्रॉप किया...चाकरी करते रहे और मुझे बताया तक नहीं, मैंने उससे पूछा था, ...मर गया था मैं? ...अपाहिज हो गया था? इसका उत्तार उसने नहीं, उसकी मां ने दिया था, यह आड़ तो तुम्हीं ने रखी है, तुम उसका भरोसा नहीं करते तो वह भी... वह वहीं, उसी कमरे में चुप खड़ा था, चौखट से लगा। जैसे बरसते पानी के नीचे काठ का कोई टुकड़ा पड़ा भीगता हो। उसकी यह बेलाग-सी लगती मुद्रा मुझे छील गई। मुझे लगा था यह सब कुछ सायास है। मुझे मेरी ही छड़ी से सिखाने की कोशिश...कुछ भी हो, मैं पिता था...कर्ता...घर का मुखिया और वह? ...उसका आचरण? कहां तो घर के केंद्र में आ जाने की ऐसी बेहिसाब व्यग्रता, कहां इतने पर्दों के पीछे काम करने की ऐसी मनमानी, ऐसी खुद्दारी। इस एहसास ने मुझे चिढ़ाया था, अपने भीतर लौटाया नहीं। मैं क्या पूछ रहा हूं? मैंने जान-बूझकर उसकी ओर उन्मुख होकर कहा था, मुझे कहने-सुनने की कोई जिम्मेदारी नहीं थी तुम्हारी? ...इतनी बड़ी बात हो जाए और मुझे पता तक न लगे। कहने-सुनने का सिस्टम इस घर में है कहां। सबके अपने-अपने गढ़ हैं, उसने बेहद दबी जबान से उत्तार दिया था। और इस सबके अगुआ तुम हो, यह उसकी मां थी। वही सबसे अधिक क्षुब्ध रहा करती थी, दबे उत्तााप को उगलने को सतत तैयार। तभी वह मुझे कमरे से बाहर चल पड़ने को तत्पर-सा दिखा था। मैं तप गया था। उसी के कारण यह झड़प और उसी की ऐसी अडोल अलिप्तता। बैठो, मैंने उसके आगे बढ़ते पैरों को उसकी आस्तीन खींचकर रोक लिया था। अप्रस्तुत होने के कारण पहले वह लड़खड़ाया, फिर पास रखे स्टूल पर बैठ गया धम्म से। साफष् था कि मेरे इस तरह रोक लेने की खिसियाहट उस तक हिंसा की नकाब लगाकर पहुंची थी। उसकी मां तो बिलकुल बिलबिला गई थी। क्रोध में थरथराती हुई। बेटे की पूरी तरह पक्षधर। बाप का जूता बेटे के पैर में अंटने लगता है तो बेटा दोस्त कहलाता है और तुम...तुम? ...तुम्हारा तो विवेक मर गया है। उसकी मां का इस तरह का कुछ भी कह देना मुझे सदा शमित ही करता है, बेबस। मैं दौड़ता हुआ लौट आता हूं। विवाद का सिरा मैंने खुद ही नीचे धर दिया था। मुझे यही सुविधाजनक लगा था। मैं उन्हें भी नहीं समझा सकता था कि पानी जब बहने लगता है तो अपने नीचे की ज़मीन के रंग का ज्यादा आभास देने लगता है, अपने उद्गम की निर्मलता का नहीं। कैसे कहता, उद्गम कहां है इन सब बातों का...मेरे दिलो- दिमाग़ के किस हिस्से में! मैं खुद ही उठ गया था। बाहर जाते ही मैंने पत्नी को पुकारा था, कम-से-कम तुम तो उसे आवारा होने से रोक सकती थीं। वह आहत हुई सो तो हुई, उसकी त्यौरी मैंने चढ़ती देखी तो आगे टहल आया। जानता था, मेरी भभकी खाली भभकी है, पानीदार दूध पर आई झिल्ली की तरह बेईमान। भीतर कहीं जानता था, यह ड्रॉप करना आवारगी के कारण नहीं, प्रथम श्रेणी को बनाए रखने के हकष् में हुआ होगा। इस मामले में वह मुझसे ज्यादा समझदार थाशुध्द वास्तविकतावादी। अपनी क्षमता को अपने परीक्षाफल की श्रेष्ठता में से ही अर्जित करना चाहता था। जानता था कि उसके पिता की हैसियत की जेब में सोने के से संबंधों वाले सिक्के नहीं हैं, जिसे वह बेटे की उन्नति के हकष् में कभी भी भुना सके। झाड़-फानूस के बिना की नंग-धड़ंग हेडक्लर्की थी जो और कुछ करे या न करे, अपने अनुभव और निपुणता की आड़ में सामने वाले की ढांप-ढूंप को उघाड़ पाने का भय अवश्य पैदा कर लेती थी। उसके बाद कई दिन तक चुप्पी रही थी। एक आंख बचाता हुआ-सा पारस्परिक भाव। मुझे इस छोटी-सी झड़प ने अधिक उखाड़ा था, अधिक बेचैन किया। वे दोनों तो जहां के तहां थे। उसी अछूते तरीके से एक-दूसरे के साथ-साथ। समझ गया था, मेरी मंशा ही मात्रा उलटी होकर नहीं पड़ती, मेरी नियति में उन दोनों का दिया तिरस्कार भी दर्ज हो जाता है। ...चाहे मूक, चाहे मुखर। इतना साफष् दिख जाने पर भी इस स्थिति ने मुझे डोलाया नहीं था। उनका साझीदार बनकर इस तिरस्कार से बच निकलने की कोई इच्छा मेरे भीतर जागी न थी। कुछ भी हो हर हाल मैं उसकी पहुंच से परे रहने को था, चाहे अपने क्षोभ और क्रोध के चरम पर खड़ा वह मेरे विरुध्द अपने हथियारों को कितना भी पैना करता दीखे। कुछ नहीं था मेरे पास बांटने को...जेठे राम का अभिषेक करके दशरथ की भूमिका में अपने को रख लेने को। अगला भाग >>