यह कहानी नहीं है / पंकज सुबीर

Gadya Kosh से
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वैसे तो इस कहानी ... क्षमा करें मैं तो पूर्व में ही लिख चुका हूँ कि ये कहानी नहीं है, तो फिर इसे कहा क्या जाए ...? चलिये, इसे एक घटना कह लेते हैं। हाँ तो इस घटना का केन्द्रीय पात्र मैं ही हूँ्? और कोई हो भी कैसे सकता है? अपने आपको केन्द्रीय पात्र रखने में जो आनंद है वह किसी दूसरे को नायक बना देने में कहाँ है। हम सब इसी भ्रमजाल में तो जी रहे हैं कि हम ही नायक हैं। ख़ैर तो फ़िलहाल तो यह तय हुआ कि घटना का केन्द्रीय पात्र मैं ही हूँ। मेरे समेत इस पूरी घटना में केवल चार ही पात्र हैं, ये आपकी सुविधा के लिए है, आपकी ...? मतलब आप पढ़ने वालों की सुविधा के लिए। आपके पास आजकल समय ही कहाँ है पढ़ने-वढ़ने का। बड़ी मुश्किल से तो आपने थोड़ा-सा समय निकाला है। उस थोड़े से समय में भी मैं आपको उलझा डालूं तो आगे से आप वह थोड़ा-सा समय निकालना भी बंद कर देंगे।

घटना के मेरे अलावा जो बाक़ी के तीन पात्र हैं, उनमें से दो पुरुष हैं और एक स्त्री है। हम चारों एक ही बिरादरी में अलग-अलग ऊँचाइयों पर विराजमान लोग हैं। शुरूआत करते हैं मुझसे। मैं क़ाग़ज़ पर अक्षरों से कुछ पहेलियाँ रचता हूँ और प्रयासरत हूँ कि मुझे भी लेखक मान लिया जाए। हालंकि मैं पूर्व में लिख चुका हूँ कि मैं भी उसी बिरादरी का हूँ लेकिन ये मेरा व्यक्तिगत विचार है, अभी बिरादरी का विचार तय होना बाक़ी है। मेरे अलावा जो बाक़ी के तीन हैं उनमें से एक स्त्री और एक पुरुष को पति-पत्नी जैसा ही कुछ कहा जा सकता है। सामाजिक मान्यताओं और पंरपराओं को मद्देनज़र रखा जाए तो इन दोनों में जो पत्नी नाम का पात्र है उस पात्र के गले में बाक़ायदा एक मंगलसूत्र है जो पति नाम के पात्र ने काफ़ी सारे साक्षियों के सामने ना जाने क्या सोच कर पहना दिया था। पत्नी नाम के पात्र ने अभी तक उसे पहन रखा है इसलिए कह सकते हैं कि वह पत्नी है।

अब इन दोनेां पात्रों को नाम क्या दिया जाए? ठहरिये-ठहरिये ... नाम देने के पहले मैं बता दूंँ कि ये दोनों बाक़ायदा लेखक हैं। कई सारी साहित्यिक गोष्ठियों में दोनों मंच पर पास-पास की कुर्सियों पर बैठते हैं और माना जाता है कि दोनों की सफलता में एक दूसरे का बड़ा योगदान है। ये 'माना जाता है' वाक्य किसके संदर्भ में लिखा जा रहा है वह कुछ स्पष्ट नहीं है। क्योंकि काफ़ी लोगों का ऐसा मानना है कि दोनों में से लिखता कोई एक ही है, दोनों नहीं लिखते। कुछ लोगों का ऐसा भी मानना है कि दोनों ही नहीं लिखते। ख़ैर फिर भी इस 'माना जाता है' को ही माना जाए। हाँ तो दोनों को नाम क्या दिया जाए। चलिए महिला और पुरुष से काम चलाते हैं। परेशान मत होइये, आप ये ही सोच रहे हैं ना कि पुरुष तो घटना मैं तीन हैं, फिर ये कैसे पता चलेगा कि किस पुरुष की बात हो रही है? चिंता ना करें दूसरा वाला जो पुरुष पात्र है वह पुरूष है ही नहीं, फिर ...? दरअसल वह तो महापुरुष है। अब बाक़ी बचा मैं, तो मैं ही कौन-सा पुरुष हूँ, मैं तो मैं हूँ, ना स्त्री ना पुरूष केवल मैं। तो तय हुआ कि घटना में जो लगभग पति-पत्नी हैं उनके नाम महिला और पुरुष है। मेरा नाम 'मैं' है।

अब चलें अपने चौथे पात्र की तरफ़ कहानी का चौथा पात्र दरअसल में बिरादरी का मोटा वाला खंभा है, इसलिए मैंने कहा था कि वह पुरुष नहीं है, वह तो महापुरुष है। इस महापुरुष की एक सुदृष्टि किसी को भी बिरादरी में ले आती है, कुदृष्टि क्या कर सकती है यह बताने की आवश्यकता नहीं है। ख़ुद कुछ नहीं लिखते हैं, मगर चूंकि दूसरों के लिखे हुए की आलोचना, समालोचना समीक्षा करते हैं, इसलिए महापुरुष हैं। इनकी क़लम, देश-काल और परिस्थिति के अनुसार ही स्याही उगलती है। उगलना भी चाहिए, आख़िर को वह कोई छोटी मोटी क़लम थोड़े ही है, वह तो महान बनाने वाली क़लम है।

ख़ैर अब घटना शुरू करने से पहले बस एक बात और हम चारों का थोड़ा-सा वर्णन। मैं स्वयं तो वैसे अशरीरी पात्र हूँ फिर भी बता देता हूँ कि मैं तीस वर्ष के लगभग का युवक हूँ। आंखों में मध्यवर्गीय लालच है इसलिए अवसर पाते ही महापुरुषों के चरणों को चाट-चाट कर अपनी वफ़ादारी बताने का प्रयास करता रहता हूँ। पुरुष गंजा, तोंदियल और अनाकर्षक है, इसके विपरीत महिला वैसी ही है, जैसी उसे होना चाहिए या इस घटना कि महिला पात्र को जैसा होना चाहिए। हमारे महापुरुष भी पूर्ण महापुरुष हैं, सुता हुआ इकहरा शरीर, झक सफेद धोती कुर्ता पहनते हैं, कभी-कभी प्याज़ी या मूंगिया कलर का कुर्ता भी पहनते हैं। थोड़ी मोटी फ़्रेम का चश्मा लगाते हैं, मतलब कुल मिलाकर वैसे ही हैं जैसे कि महापुरुष होते हैं।

चलिए अब घटना को शुरू करते हैं। मैं जब उस शहर में उतरा तो यह तय था कि मुझे रात भी यहाँ रुकना है। महिला और पुरुष से मेरा रिश्ता ऐसा है कि मैं वहाँ रुक सकता हूँ और इस रुकने के पीछे मेरा वास्तविक मक़सद है महिला और पुरुष के घर से दो घर छोड़कर रहने वाले महापुरुष के चरणों को चाट कर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाना। क्योंकि ऐसा करे हुए मुझे काफ़ी समय हो गया है। वैसे तो महापुरुष मुझे अच्छी तरह से जानते हैं किंतु महापुरुषों की याददाश्त ज़रा कमज़ोर होती है, अगर बहुत दिनों तक कोई तलवे चाट के नहीं जाए तो ये उसको भूल भी जाते हैं।

दिन भर अपना काम निबटा कर जब मैं महिला के घर पहुँचा तो वह अकेली थी। मुझे देखते ही बोली 'अरे ...! आज कैसे रास्ता भूल गए भई ...?'

'बस यहाँ कुछ काम से आया था, काम पूरा हुआ तो सीधा यहाँ आ गया कि आज रात यहाँ ही रुका जाए' मैंने मुस्कुराते हुए कहा। 'क्यों नहीं, क्यों नहीं ...? जाओे जाकर मुंह हाथ धोकर फ्रेश हो जाओ, मैं कुछ हल्का फुल्का खाने की व्यवस्था करती हूँ' महिला ने कहा।

मैं उस कमरे की ओर बढ़ गया जिसमें मैं अक्सर ठहरता रहता हूँ। चाय की चुस्कियों के बीच हमारे मध्य साहित्य, लेखन को लेकर चर्चाओं का लम्बा दौर चला। महिला का मानना था कि उसकी प्रतिभा का पूर्ण दोहन नहीं हो पा रहा है। मैं ग़ौर से उसकी ओर देखता रहा। थोड़ी बुढ़ा ज़रूर गई है लेकिन अभी भी बहुत कुछ बाक़ी है। पुरुष नहीं आये हैं। महिला ने बताया कि वह अक्सर देर रात तक आते हैं, काफ़ी व्यस्त रहते हैं। शाम गहरा गई या यूं कहिए कि रात ही हो गई। मुझे लगा कि अब मुझे अपना वास्तविक कार्य भी पूरा कर लेना चाहिए। मैंने कहा कि मैं ज़रा महापुरुष के घर तक होकर आता हॅूँ। 'ठीक है हो आओ, तब तक ये भी आ जाऐंगे, फिर साथ ही खाना खाएगें' महिला ने उत्तर दिया।

मैं टहलता हुआ महापुरुष के घर पहुँचा। आप भले ही इसे ना मानें लेकिन सच यही है कि महापुरुष अकेले ही बैठे थे, होता है ऐसा, महापुरुष हमेशा ही भीड़ से घिरा रहे ऐसा कोई ज़रूरी तो नहीं। जाते ही मैंने साष्टांग से थोड़ा कम वाला प्रणाम किया। महापुरुष ने गद्गद् होते हुए कहा 'अरे बस-बस ... कब आए?' मैंने कहा 'बस चला ही आ रहा हूँ, सोचा सबसे पहले आपके दर्शन कर लूं काफ़ी समय हो गया था।'

'और कैसा चल रहा है लेखन?' महापुरुष का गद्गद्पन अभी भी बाक़ी है। मेरी चादुकारिता, लिजलिजापन इसे और बढ़ा रहा है।

'कहाँ का लेखन? बस यूं ही कुछ प्रयास कर लेता हूँ, वह भी जितना आपका मार्गदर्शन मिल जाए बस उतना ही।' मैंने अपने लिजलिजेपन को और बढ़ाते हुए कहा।

'अरे हाँ तुम्हारी एक कविता पढ़ी थी कहीं, क्या तो भी शीर्षक था। ठीक थी कविता, मगर तुमसे मैं इससे भी कहीं ज़्यादा कि उम्मीद रखता हूँ' ये उनकी आदत है, जैसे-जैसे सामने वाले का लिजलिजापन बढ़ता है वे खुलना शुरू हो जाते हैं।

'आपने पढ़ी थी...?' मेरे स्वर में इस तरह के भाव आ गए मानो उनका पढ़ लेना कोई अद्भुत घटना है। 'आप पहले भी कह चुके हैं कि और ज़्यादा कुछ आप चाहते हैं, लेकिन क्या करूँ बहुत प्रयास करने के बाद भी यहँा नहीं आ पाता। अब आपकी छाया नहीं मिलेगी तो भटकाव तो आएगा ही।' मैंने अपनी पूरी शक्ति अपने व्यक्तित्व को मालिक के पैरों में लोट रहे पालतू कुत्ते की तरह बनाने में लगा डाली।

'अरे नहीं । तुम में ऊर्जा है, तुम कर सकते हो। इसीलिए तो तुमसे कहता हूँ और किसी से नहीं कहता।' महापुरुष के चेहरे पर एक सौम्य-सी मुस्कुराहट भी आ गई, ठीक वैसी ही जैसी टीवी धारावहिक के रामायण के राम के चेहरे पर बिना वज़ह नज़र आती थी। मैंने अपने चेहरे पर उपकृत हो जाने वाले पूर्ण भाव लाए। साथ ही अपनी देहयष्टि में भी उपकार के बोझ से दब जाने की क्रिया की।

'और ...? कहाँ ठहरे हो?' महापुरुष ने हाथ की पुस्तक को सामने रखी टेबल पर रखते हुए कहा।

'बस यहीं पास में पुरुष के घर ठहरा हूँ' मैंने जानबूझ कर नहीं कहा कि महिला के घर ठहरा हूँ। हालांकि घर तो महिला पुरुष दोनों का ही है, मगर महिला कह देने से शायद महापुरुष बुरा मान सकते थे।

'अच्छा-अच्छा ... वहाँ ठहरे हो, पुरूष थे क्या घर पर?' महापुरुष ने पूछा।

'नहीं वे तो अभी आए नहीं थे, महिला ही थीं। कह रहीं थीं पुरुष तो देर रात तक आते हैं' मैने स्वर में अदब का समावेश करते हुए उत्तर दिया।

'हाँ भई ... अब तो बड़े लेखक हो गए हैं देर से नहीं आएँगे तो क्या करेंगे?' महापुरुष के स्वर में कुछ था जिसे मैं समझ नहीं पाया।

'खाना तो यहीं खाओगे ना?' महापुरुष ने कुछ अधिकार वाले स्वर में मुझसे पूछा। मुझे कुछ आश्चर्य हुआ। लगता है आज देवता कुछ अधिक ही प्रसन्न है।

'जी सोच कर तो यही आया हूँ कि आज आपके साथ ही भोजन करूंगा' मैंने कुछ अटपटा-सा उत्तर दिया।

'कितनी रोटी खाओगे?' महापुरुष ने सीधा प्नश्न किया। इस तरह के प्रश्न को यदि किसी से सीधे पूछ लिया जाए तो मेरा दावा है कि कोई भी इसका तुरंत उत्तर नहीं दे सकता।

'जी बस चार या पांच' मैंने भी संक्षिप्त मगर उलझा-सा उत्तर दे दिया।

'ठीक है, अंदर जाकर खाना बनाने वाले लड़के से कह दो कि चार या पांच रोटी ज़्यादा बना लेगा और हाँ उससे कह देना कि कुछ दे जाएगा' महापुरुष ने आदेशात्मक स्वर में कहा। 'कुछ' क्या है मेरी समझ में आ गया। ख़ैर मैंने अंदर जाकर उन्होंने जैसा कहा था वैसा ही कह आया। थोड़ी ही देर में महापुरुष के सामने वाली टेबल पर एक दो प्लेटों में आकर 'कुछ' रखा गया। रोस्टेड चने, मूंगफली के दाने और उन पर पतला कतरा हुआ प्याज़, धनिया सजाकर छिड़का गया था। ज़ाहिर-सी बात है, रात हो गई है।

'क्या लोगे?' महापुरुष ने पूछा।

'जी बस जो आप लेंगे थोड़ी-सी मैं भी ले लूंगा' मैंने स्वर में उनके प्रति सम्मान का पुट डालते हुए उत्तर दिया।

'ठीक है, वहाँ से वह ट्रे उठा लाओ' उन्होंने सामने की तरफ़ इशारा करते हुए कहा।

दीवार में अलमारी बनी हुई थी जिसमें भांति-भांति की बोतलें सजी थीं। सामने टेबल पर रखी हुयी एक ट्रे में शाम की तैयारी की हुई रखी थी, मैंने उस ट्रे को लाकर उनके सामने की टेबल पर रख दिया।

लगभग एक घंटे बाद महापुरुष सचमुच के महापुरुष हो गए। अब महापुरुष तो वही होता है ना जो सच बोलता है। तो हमारे महापुरुष ने भी सच बोलना शुरू कर दिया। ना जाने किस किसके बारे में क्या-क्या बोलते रहे, शायद इसी को निर्वाण की स्थिति कहते हैं, जब पूर्ण सत्य का ज्ञान हो जाता है। हालांकि यह नहीं कहा जा सकता कि निर्वाण की स्थिति में था कौन? महापुरुष या मैं।

'हमारे यहाँ एक साहित्यिक आयोजन प्रतिवर्ष होता है। इस बार हम लोगों की इच्छा है कि आपका सम्मान उसमें किया जाए।' मैंने उपकार को उतारने का प्रयास करते हुए कहा।

'ये अच्छा तरीक़ा है किसी बड़े साहित्यकार को फोकट में बुलाने का? डेढ़ सौ रुपट्टी का शाल और पांच रूपये का श्रीफल देकर सम्मान कर दो' महापुरुष ने व्यंग्य के स्वर में कहा। मैं सिटपिटा कर रह गया।

'पता है, हमारे देश में शाल केवल दो ही को उढ़ाई जाती है, या तो शव को, या साहित्यकार को। दोनों ही मामलों में हम एक शाल फैंककर दोनों के प्रति अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेते हैं।' एक घूंट पीकर गिलास नीचे रखते हुए महापुरुष ने कहा।

'सम्मान-वम्मान की तो अब मेरी कोई इच्छा रही नहीं। करना चाहो तो कर लेना, नहीं भी करोगे तो चल जाएगा। करोगे तो भी शाल तो मैं वहीं छोड़ दूंगा, दूकान वाले को वापस कर देना। तुम तो ये बताओ पत्रम् पुष्पम् का क्या हो सकता है।' महापुरूष ने मोटे लेंस के पीछे से झांकते हुए मुझसे कहा।

'जी जैसा आप आदेश करेंगे हो जाएगा' मैंने उत्तर दिया। हालांकि उत्तर देते समय ज्ञात था कि अब ये व्यवस्था भी मुझे अपनी जेब से ही करनी है।

'ठीक है, पर हाँ ये ख़र्चा तुम्हारे ऊपर तो नहीं आएगा ना। समिति वगैरह तो ठीक ठाक है ना?' महापुरुष ने फिर प्रश्न किया।

'नहीं-नहीं सब व्यवस्था समिति को ही करना है' मैंने निर्वाण वाली अवस्था में भी झूठ बोलते हुए कहा।

आधे घंटे का समय और बीता। मैं नहीं जानता कि पूर्ण सत्य के ऊपर भी क्या कुछ होता है, मगर वह निर्वाण से ऊपर वाली कुछ स्थिति तो आ ही चुकी थी।

'चलो अब खाना खाया जाए' महापुरुष ने अंतिम घूंट लेकर ग्लास को नीचे रखते हुए कहा।

'महिला तुम्हारा इंतज़ार तो नहीं कर रहीं होंगी' महापुरुष ने प्रश्न किया।

'जी कर तो रहीं होंगी' मैंने उत्तर दिया।

'जब तक खाना लगता है, तब तक बोल आओ कि तुम खाना यहाँ खा रहे हो' यह आदेश था।

'जी' मैंने कहा और उठ गया।

'सुनो' पीछे से महापुरुष का स्वर सुनकर मैं ठिठका 'उनसे कह देना मैं बुला रहा हूँ।'

'जी ठीक है' कह कर मैं बढ़ गया।

महिला अभी भी अकेली थी। मुझे देखा तो बोली 'कितनी देर कर दी, तुम्हारा इंतज़ार करते-करते मैंने अभी खाना खाया है'।

'जी मैं तो खाना वहीं खा रहा हूँ, महापुरुष नहीं माने। उन्होंने आपको बुलाया है।' मैंने झिझकते हुए कहा।

'अरे अब मैं क्या करूंगी आकर? रात भी काफ़ी हो गई है।' महिला ने कुछ नाक-भौंह सिकोड़ते हुए कहा।

'जी ठीक है' कह कर मैं पलटा, अचानक महिला का स्वर सुनाई दिया 'अच्छा ठीक है कहना मैं आ रही हूँ' मैं उत्तर सुनकर बढ़ गया।

खाना लग चुका था महापुरुष मेरी ही प्रतीक्षा कर रहे थे। 'आओ' महापुरुष ने मुझे देखते हुए कहा। महिला के बारे में कुछ नहीं पूछा। शायद उन्हें पता है कि यदि उन्होंने बुलाया है तो महिला को आना ही है। खाने के दौरान ही महिला भी आ गई। 'आईये' महापुरुष ने स्वागत करते हुए कहा। 'खाना लेंगी आप?'

'नहीं नहीं, खाना तो मैं खा चुकी हूँ' महिला ने बैठते हुए उत्तर दिया।

'चलो ये पापड़ ले लो' महापुरुष ने पापड़ की प्लेट को बढ़ाते हुए कहा। महिला ने एक पापड़ उठा कर उसे कु तरना शुरू कर दिया।

'और कुछ लोगी?' महापुरुष ने कुछ देर पहले उपयोग की जा रही ट्रे की ओर इशारा करते हुए कहा।

'नहीं, बताया ना मैं खाना खा चुकी हूँ' महिला ने उत्तर दिया।

'उससे क्या होता है? थोड़ी बहुत ...?' महापुरुष ने प्रश्न अधूरा छोड़ दिया, महिला ने कोई उत्तर नहीं दिया। महापुरुष ने मेरी तरफ़ देखकर ट्रे की ओर इशारा किया। मैंने ट्रे में से एक साफ़ ग्लास उठाया और एक छोटा-सा 'कुछ' बनाकर महिला कि ओर बढ़ा दिया। महिला उस 'कुछ' को सुड़कने लगी। सामने प्लेट में कु ल नौ चपातियाँ आ गईं थी। मैंने अपने लिए पांच चपातियाँ बोलीं थी अतः ज़ाहिर है महापुरुष चार खाते हैं। हमने अपने-अपने हिस्से की चार और पांच को निबटाया तब तक महिला भी ना-ना करते हुए चार 'कुछ' सुड़क चुकी थी।

'और सुनाओ क्या चल रहा है?' खाने से फ़ारिग होकर एक साफ़ तौलिए से हाथ पौंछते हुए महिला कि ओर देखकर महापुरुष ने पूछा।

'बस कुछ ख़ास नहीं, एक प्लॉट पर कुछ काम कर रही थी, मगर कुछ ठीक ठाक जम नहीं रहा है।' महिला ने उत्तर दिया।

'क्या सब्जैक्ट है।' महापुरुष ने आंखें मूंद कर कुर्सी से सर टिकाते हुए पूछा।

'आपको बताया तो था, विवाहोत्तर सम्बंधों पर एक लंबी कहानी लिख रही हूँ।' महिला ने उत्तर दिया।

'हूँ' आंखें बंद किये हुए ही महापुरुष ने कहा। 'सब्जैक्ट कुछ घिसा पिटा हो चुका है। हर तीसरी कहानी में यही हो रहा है। उसमें नया क्या करने की गुंजाइश तुमने ढूँढी है।' महापुरुष ने उसी प्रकार आंखे बंद किये हुए पूछा।

'वही तो समझ नहीं पा रही हूँ कि क्या नया ट्रीटमेंट दिया जाए। पिछली बार आपको जो बताया था। अभी काम वहीं पर रुका हुआ है।' महिला ने उलझन भरे स्वर में कहा।

'कहानी का शीर्षक क्या है' महापुरूष ने पूछा।

'अपूर्णा' महिला ने उत्तर दिया।

'अच्छा है, बहुत अच्छा है, पूरी कहानी को व्यक्त कर रहा है। कहानी कितनी हो चुकी है?' महापुरुष की आंखें अभी भी बंद ही हैं।

'आधी हो चुकी है, मगर अब काफ़ी सारी उलझनें सामने आ रही हैं।' महिला ने कहा।

'वो तो आऐंगी ही, आधी होना मतलब अंत होना शुरू हो रहा है और अंत में तो उलझनें आती ही हैं। दो ही तो बातें होती हैं शुरूआत और अंत और बीच में होता है ये आधा, ना शुरूआत और न अंत। जहाँ शुरूआत आकर समाप्त होती है और जहाँ से अंत प्रारंभ होता है।' महापुरुष का स्वर मानो किसी कुंए में से आ रहा था।

'कभी कभी जब हम आधे तक पहुचते हैं तो वहाँ पहुँच कर अंत के प्रारंभ होने की थोड़ी प्रतिक्षा करनी पड़ती है। बहुत पीड़ा दायी होती है ये प्रतीक्षा।' महापुरुष के कहने के बाद कमरे में सन्नाटा फैल गया। 'तुम्हारी कहानी के साथ भी यही हो रहा है' कहते हुए महापुरुष ने आँखें खोलकर महिला कि तरफ़ देखा।

'हाँ । शायद ।' महिला ने उलझन भरे स्वर में कहा।

'शायद नहीं ऐसा ही है' महापुरुष ने कहा। 'तुमको नींद आ रही होगी शायद?' फिर महापुरुष ने मेरी तरफ़ देखकर पूछा।

'हाँ बहुत थका हुआ हूँ' मुझे प्रश्न के तरीके से ही ज्ञात हो चुका था कि मुझे यही उत्तर देना है।

'ठीक है बाहर दीवान डला है, तुम जाकर सो जाओ। तुम्हारे कार्यक्रम के बारे में हम सुबह तफ़सील से बात करेंगे।' महापुरुष ने निर्णय सुनाते हुए कहा।

मैं उठकर बाहर जाने लगा, पीछे से महापुरुष का स्वर आया 'दरवाज़ा बाहर से उढ़का देना'। मैंने कमरे से बाहर आकर दरवाज़े को उढ़काया और दीवान पर आकर लेट गया। दिन भर की दौड़ धूप, यात्रा कि थकान और उस पर रात्रि के बारह बज जाना, इन सबका सम्मिलित परिणाम ये हुआ कि आंखें बंद करते ही नींद लग गई। हालांकि यहाँ पर आपको आपत्ती हो सकती है कि ऐसी स्थिति मैं किसी को भी नींद कैसे आ सकती है मानव मन का उत्सुक स्वभाव उसे सोने कैसे दे सकता है। मगर चूंकि घटना मेरी है इसलिए मेरे पात्र मेरी मर्ज़ी से सोएंगे और जागेंगे। हक़ीक़त भी यही है कि मुझे लेटते ही नींद आ गई।

जब नींद खुली तो सूर्य निकलने के लगभग एक घंटा पूर्व वाली स्थिति थी, हल्का-सा प्रकाश चारों ओर फैला हुआ था। जहाँ मैं सो रहा था वह जगह न कमरा थी, ना खुला हुआ था, उसे एक जालीदार बरामदा कह सकते हैं। प्यास काफ़ी ज़ोर से लग रही थी। कुछ देर तक तो सहन करके लेटा रहा मगर जब सहन नहीं हुई तो उठ गया। दरवाज़े को धीरे से धकेला, वह रात को मैंने जिस तरह उढ़काया था उसी अवस्था में था। झिझकते हुए मैंने अंदर प्रवेश किया, कमरे में रखे हुए दीवान पर महापुरुष और महिला दोनों ही शांतिपूर्वक सो रहे थे, यहाँ पर शायद आप उम्मीद कर रहे होंगे कि मैं कुछ तफ़सील से वर्णन करूंगा, मगर मैं ऐसा कुछ भी नहीं करूंगा। मैं केवल यही कहूंगा कि उस ओर देखे बिना ही मैं रसोई घर की ओर बढ़ गया। रसोईघर में जाकर मैंने दो तीन ग्लास पानी पिया, तीसरा ग्लास पी ही रहा था कि महापुरुष का स्वर सुनायी दिया 'एक ग्लास पानी भरकर यहाँ भी रख जाना'। ध्यान दें कि वाक्य में 'रख जाना' का प्रयोग हुआ है 'दे जाना' का नहीं। मैं एक ग्लास पानी भरकर कमरे में आया। कमरा पूर्ववत ही था मानो यहाँ से पानी मांगने वाली आवाज़ आई ही नहीं हो। महापुरुष और महिला उसी प्रकार शांतिपूर्वक सो रहे थे। मैंने ग्लास को टेबल पर रखा और बाहर की ओर बढ़ा। 'सुबह घूमने की आदत हो तो घूम आओ, बाहर से दरवाज़ा लगा जाना' पीछे से फिर आवाज़ आई।

बाहर आकर मैंने दरवाज़ा लगा दिया, घूमने की वैसे तो आदत नहीं है पर यह तो तय था कि अब नींद नहीं आएगी इसलिए बाहर निकल पड़ा।

चारों तरफ़ सुबह होने की तैयारी चल रही थी। वैसे इस घटना को यहीं ख़त्म किया जा सकता था क्योंकि लग यही रहा है कि घटना और महिला कि अधूरी कहानी अपूर्णा, दोनों ही समाप्त हो चुके हैं, मगर नहीं, अभी हमारा एक पात्र तो घटना में आया ही नहीं है। ज़िक़्र से क्या होता है पात्र को तो सशरीर उपस्थित होना पड़ता है।

कुछ देर तक में फ़िज़ूल में ही इधर उधर टहलता रहा कि अचानक मुझे पुरुष का ख़याल आया, उसके बारे में सोचता हुआ मैं उनके घर की ओर बढ़ा। पुरुष बाहर बरामदे में ही मिल गए केवल लुंगी और बनियान पहने बैठे थे। चाय पीते हुए अख़बार पढ़ रहे थे। मुझे देखते ही बोले 'अरे ...! सुबह-सुबह कहाँ से चले आ रहे हो भई?'

'सुबह सुबह नहीं कल का आया हूँ, रात को उधर कुछ साहित्यिक चर्चा चल रही थी इसलिए वहीं रुक गया था' मैंने उत्तर दिया।

'अच्छा। हाँं उधर की गोष्ठियाँ तो रात भर ही चलती हैं' पुरुष ने कुछ विचित्र स्वर में कहा।

'चाय पिओगे?' पुरुष ने पूछा।

'नहीं पीने का सवाल ही नहीं है' मैने भी बेतकल्लुफ़ी से उत्तर दिया।

'तुम बैठो मैं बना कर लाता हूँ' कहते हुए पुरुष उठे और अंदर की ओर बढ़ गए। एक ग्लास पानी पीने की इच्छा में मैं भी पीछे-पीछे चल दिया। रास्ते में मैंने देखा कि पुरुष के बेडरूम का दरवाज़ा आधा खुला हुआ है और अंदर पलंग पर चादर से ढंका हुआ एक मानव शरीर सो रहा है। चादर पूरी तरह ढकी थी इसलिए समझना मुश्किल था कि सोने वाला पुरुष है या स्त्री। चादर उठाकर देखा नहीं जा सकता था। हालांकि मैं उठाकर देख भी लेता पर पूर्व में कह चुका हूँ कि कहानी में केवल चार पात्र हैं, इसलिए अब नहीं उठा सकता। ख़ैर यह आपक ो समझना है कि सोने वाला कौन है। वहीं खड़े-खड़े मैंने रसोई की ओर देखा जहाँ पुरुष चाय बना रहे थे, मुझे लगा पुरुष की लुंगी सफेद झक धोती में बदल गई है। उनकी बनियान, मोटी खादी वाले प्याज़ी कुरते में बदल गई, आंखों पर मोटी फ्रेम का चश्मा आ गया है। मैं धीरे से बुदबुदाया 'एक और महापुरुष' सुबह के सन्नाटे में मेरा बुदबुदाना पुरुष तक पहुँच गया, हालांकि अस्पष्ट पहुँचा इसलिए बोले 'कुछ चाहिए क्या?' मैंने कहा 'हाँ पानी चाहिए, मैं ले लेता हूँ' कह कर अंदर से पानी का ग्लास भरकर मैं बाहर आकर बैठ गया। मेरे हिसाब से घटना समाप्त हो चुकी है आपका क्या मानना है?