यह कैसा सन्नाटा, कैसी खामोशी है? / जयप्रकाश चौकसे

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
यह कैसा सन्नाटा, कैसी खामोशी है?
प्रकाशन तिथि : 20 अगस्त 2013


कुछ समय पूर्व दिल्ली में हुई बर्बरता के खिलाफ पूरा देश उठ खड़ा हुआ था। उस त्रासदी पर पूर्णा जगन्नाथन के नाटक 'निर्भया' को लंदन में सराहा गया और पुरस्कृत भी किया गया। नमिता देवीदयाल को पूर्णा जगन्नाथन ने एक साक्षात्कार में बताया कि किस तरह उस घटना ने उन्हें दहला दिया था और सेवा में तैनात हवलदार की उदासीनता तथा तमाशबीन जनता की निष्क्रियता ने 'मासूम शिकार' को अस्पताल पहुंचाने में विलंब किया। इसी दृष्टिकोण ने उन्हें ज्यादा आहत किया। समाज की यह खामोशी उसे जुर्म में भागीदार बनाती है। संवेदना की मृत्यु निर्भया की त्रासदी से जुड़ी है और इसी की रंगमंच अभिव्यक्ति की तड़प ने इस नाटक को बनाया है।

यह कम आश्चर्य की बात नहीं है कि जब पूर्णा जगन्नाथन ने येल फार्बर से फोन पर बात की, तब वे मॉन्ट्रियल विश्वविद्यालय में रंगमंच के प्रोफेसर पद पर कार्यरत थीं और इस त्रासदी के बारे में जान चुकी थीं। उन्होंने अगले दिन ही अपनी अच्छी-खासी नौकरी से त्यागपत्र दिया तथा भारत आ गईं। इस घटना के सात वर्ष पूर्व जोहानिसबर्ग, दक्षिण अफ्रीका में जन्मीं फार्बर की प्रस्तुति 'अमाजुबा' पूर्णाजी न्यूयॉर्क में देखकर अभिभूत रह गई थीं और उनका अनुभव था कि वे रंगमंच पर अभिनीत नाटक नहीं देख रही थीं वरन एक सत्य घटना की चश्मदीद गवाह थीं। रंगमंच की प्रस्तुति में दर्शक के इस कदर लीन हो जाने के अनुभव को वे भूल नहीं पाई थीं।

गौरतलब है कि फार्बर न केवल रंगमंच के लिए समर्पित हैं वरन नारी के खिलाफ अन्याय उन्हें दहला देता है और उसका विरोध अपने माध्यम में करने के विचार का प्रवाह इतना प्रबल होता है कि व्यक्तिगत सुरक्षा, धन, पद इत्यादि का कोई मोह उन्हें रोक नहीं पाया और वे अपनी पांच वर्षीय पुत्री के साथ भारत आ गईं। सृजन की लहर किनारे की मर्यादा भी तोड़ देती है। इस नाटक से फार्बर को मॉन्ट्रियल विश्वविद्यालय से प्राप्त धन का दस प्रतिशत भी नहीं मिलेगा, परंतु उनके लिए अपनी आत्मा की आवाज पर सक्रिय होना आवश्यक है। क्या उन्होंने अपनी पांच वर्षीय कन्या के भविष्य के बारे में नहीं सोचा? उनका विचार स्पष्ट है, जब समाज में नारी के खिलाफ हिंसा नहीं रुकती, तब तक कोई भी सुरक्षित नहीं है। सुरक्षा का वृहत स्वरूप ही व्यक्तिगत सुरक्षा से अधिक महत्वपूर्ण है।

पूर्णा जगन्नाथन और फार्बर का विश्वास है कि ऐसी बर्बरता और अन्याय के खिलाफ आवाज नहीं उठाना उस जुर्म में हिस्सेदारी की तरह समझा जाना चाहिए। इस तरह के प्रकरण में खामोशी ही उस अप-संस्कृति को जन्म देती है, जिसमें सत्तासीन लोग उत्तरदायित्व का वहन नहीं करते। छोटी-सी और मासूम-सी खामोशी कितने बड़े भयावह षडयंत्र को बुन रही है, इसके प्रति उदासीन कैसे रहा जा सकता है। पूर्णाजी का विचार है कि यह खामोशी भी उतनी ही घातक है, जितनी हिंसा। उनका कहना है कि नाटक के मंचन के बाद दर्शक उन्हें अपनी आपबीती सुनाते हैं और यही उनके परिश्रम का असली पुरस्कार है। इस वर्ष दिसंबर में इस नाटक का मंचन भारत में किया जाएगा।

याद आता है कि पाकिस्तानी फिल्मकार शोएब मंसूर ने नारी के खिलाफ हो रहे अन्याय पर बनाई अपनी फिल्म का नाम 'बोल' रखा था, गोया कि वे भी इस तरह की खामोशी के खिलाफ हैं। दरअसल, मानवीय संवेदना किसी सरहद से नहीं रुकती।

हस्तिनापुर के दरबार में अनेक महारथियों के सामने द्रोपदी के बाल पकड़कर खींचा गया और चीर-हरण का प्रयास हुआ। उस समय भी खामोशी थी, परंतु दुर्योधन की बहन दुशाला और धृतराष्ट्र तथा गांधारी की दासी से जन्मे पुत्र युयुत्सू ने विरोध किया था। उसने तो कुरुक्षेत्र में भी पांडवों की ओर से युद्ध किया था। पितामह भीष्म ने सिंहासन के प्रति समर्पण की शपथ ली थी, अन्याय के विरोध की बात उसमें शामिल नहीं थी। आज तक सिंहासन के प्रति समर्पित लोग अन्याय के समय खामोश रहते हैं। भीष्म तो जानते थे कि स्वर्ग से नंदिनी गाय की चोरी का दंड भुगतने के लिए वे मनुष्य रूप में जन्मे थे। यह उनकी खामोशी का कारण था। आज धरती पर ही जाने किसने क्या चुराया है कि खामोश है।