यह चादर मैली नहीं होगी! / देव प्रकाश चौधरी

Gadya Kosh से
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मैकबेथ का खूनी अंत, ब्रेख्त की राजनीति, सुरजीत पातर की कविताएँ और बच्चों की दर्जनों कहानियाँ इन दिनों पंजाब में गाँव की हवाओं में सांस ले रही हैं।

कटते गेहूँ और फिर धान के लिए तैयार होते खेतों के लिए किसानों और मजदूरों की आपसी बतकही के बीच लोगों को अचानक डफली की ताल के साथ ब्रेख्त के गीत सुनाई पड़ते हैं-"शार्क से तो मैं बच आया / शेरों को मैंने छकाया / मुझे जिन्होंने हड़प लिया / वे तो खटमल थे।"

तो क्या पंजाब के गाँव किसी क्रांति की तैयारी कर रहे हैं? जवाब देते हैं, मशहूर पंजाबी अभिनेता और रंगकर्मी सेम्युअल जॉन-" क्रांति तो बड़ा शब्द है। हम लोग उम्मीद पर टिके हैं। यह रंगमंच से ख़ुद को बदलने का एक ईमानदार प्रयास है। पहले खुद, फिर गाँव और समाज। उसके बाद राज्य और देश की बारी। इसके लिए रंगमंच को घर-घर जाना होगा या फिर लोगों को रंगमंच के पास आना होगा।

ये दंभ नहीं, साथ जुड़े उन लोगों का विश्वास है, जो समानता की चादर पर बैठना चाहते हैं। "

सेम्युअल जॉन की इस रंगयात्रा में चादर एक आसमान की तरह उनके साथ रही है। बिछ गई तो बैठने की जगह बन गई, तन गई तो मंच बन गई, फैल गई तो आने वाले कल के लिए उम्मीद बन गई। लेकिन पटियाला से रंगमंच में ग्रेजुएट जॉन के लिए जब मुंबई से बार-बार संदेशा आता हो...तो फिर वह संगरूर इलाके के ठेठ गांवों में क्या कर रहे हैं?

शायद पिछले 15 सालों में सेम्युअल ने कई बार ऐसे सवालों के जवाब दिए हैं। चेहरे पर एक मुस्कान तैरती है, "थियेटर की पढ़ाई के बाद मुंबई गया था। पहली फ़िल्म मिली 'ढूँढते रह जाओगे'। काम अच्छा किया था तो और भी ऑफर मिले। वहाँ मैं गोरेगांव ईस्ट में रहता था। सामने एक झोपड़पट्टी थी। मुझे लगा कि यहाँ रहने वाले बच्चों के साथ कुछ करना चाहिए। साधन नहीं के बराबर थे, फिर भी मैंने उन छोटे घरों के बच्चों को साथ लेकर थियेटर करना शुरू कर दिया। फिर गाँव की याद आई, वापस आ गया। अब यहाँ गांववालों के साथ रंगमंच को जोड़कर कुछ नया कर रहा हूँ।"

सेम्युअल मुंबई जाना नहीं चाहते तो मुंबई को ही यहाँ आना पड़ता है। पंजाबी फ़िल्मों को बार-बार जॉन की ज़रूरत पड़ती है।

कुछ दिन पहले ही आई उनकी फ़िल्म 'अनहे गोरे दा दान' ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर प्रशंसा बटोरी है और कई पुरस्कार जीते हैं। इसके पहले आई मिका की फ़िल्म 'माटी' और राजीव शर्मा की फ़िल्म 'आतुखोजी' और मनदीप की फ़िल्म 'साडा हक' के लिए भी जॉन को याद किया जाता है। लेकिन जॉन की यादों में तो अब सिर्फ़ लैहरागागा गाँव बसा हुआ है, जहाँ वह अपने रंगमंच 'पीपुल थियेटर' के साथ जीते हैं और जीना चाहते हैं।

संगरूर जिले के इस बेहद पिछड़े गाँव में जॉन ने एक ओपन थियेटर की भी स्थापना की है, जिसमें लगभग 400 लोग एक साथ बैठकर रंगमंच का आनंद लेते हैं। सेम्युअल कहते हैं " असली आनंद तो तब है, जब लोग जाति के भेदभाव से ऊपर उठकर जीएँ और लोगों को जीने दें। पहली बार जब मैंने समानता की बात की थी तो मेरे पास कुछ कॉमरेड आए थे और मुझे एक क़िस्म से लगभग दबाव

देते हुए समझाया था कि यह जाति-वाति का चक्कर छोड़ो और मुंबई जाकर कैरियर बनाओ। मैं उनके चक्कर में नहीं आया और मुझे संतोष है कि आज इलाके के छोटे किसान, गरीब और अनपढ़ लोग, छोटे स्कूलों के बच्चे और ईमानदारी से रोजी-रोटी कमा रहे सैकड़ों लोग मेरे साथ हैं और रंगमंच के जरिए समाज को बदलने का जो सपना देखा है, उसे सच करने में जुटे हैं। "

पंजाबी पोशाक में एक आम किसान की तरह नज़र आने वाले जॉन को देख-सुनकर यक़ीन करना मुश्किल है कि इस शख़्स को चाहने वाले दुनिया के कई मुल्कों में हैं। साझा चूल्हे की तरह साझा संस्कृति की बात करने वाले जॉन अक्सर सुबह स्कूलों के चक्कर लगाते हैं, दोपहर खेतों में बिताते हैं और शाम को मज़दूर बस्तियो में जाते हैं। मंच पर कोई ख़ास साज-सज्जा नहीं। पहले कोई गीत और फिर बुलंद आवाज़ के सहारे नाटक शुरू।

अभिनेता भी वे, जो थोड़ी देर पहले खेतों में कुदाल चला कर आए हैं, या फिर वह महिला, जो नाटक के तुरंत बाद गोबर के उपले इकट्ठा करने चल देगी। 15 मिनट में नाटक की तैयारी पूरी और फिर आधे घंटे तक पूरा वातावरण मंत्रमुग्ध होकर सुनता रहता है।

नाटक के बाद जॉन के दल के लोग चादर फैलाते हैं, लोग उम्मीदों की मुट्ठी से कहीं ज़्यादा अनाज उसमें डाल देते हैं। लोगों की यही उम्मीद समानता की इस चादर को मैली होने से बचाती रही है।