यह नई कविता है / संसार चंद्र
नई कविता तो दूर, कविता की किसी भी वैराइटी से मेरा कोई सरोकार नहीं। वैसे जहाँ तक नवीनता का संबंध है, मुझे हर नई चीज पसंद है। बूट से लेकर सूट तक, करेंसी नोटों से लेकर नोटबुक तक, गर्जे कि मैं हर नई चीज का दिलदादा हूँ। मगर यह नुक्ता हल नहीं होता कि आखिर इस नई कविता के इश्क से ही क्यों महरूम रहा हूँ। यूँ तो मेरी माँ प्रायः बताया करती हैं कि बचपन में मुझे कविता का बेहद शौक था। मेरे पिताजी को मुझमें एक अच्छे-खासे शायर के आसार नजर आते थे। इस संभावना मात्र से ही उन्हें भारी राहत नसीब होती थी क्योंकि वे खुद भी दर्जा अव्वल के शायर थे, जिन्होंने बड़े-बड़े दंगल जीते थे, जमे हुए उस्तादों को चारों खाने चित्त किया था। बंदिश में उनका सानी ढूँढ़ना कठिन था। रदीफ और काफिया इस महारत से तराशते थे कि सुनने वाले दाँतों तले जबान या उँगली काट खाते थे। यह बात अलग थी कि लोग अपनी जबान या उँगली की सलामती चाहते हुए उनकी नज्में सुनने से प्रायः कतराया करते थे। खैर, किस्सा मुख्तसर यह है कि मैं एक ऐसे कविकुल का राजकुमार हूँ जो अपनी खानदानी रवायतों के शिवधनुष को कब का छिन्न-भिन्न कर चुका हूँ। अब तो उनकी स्मृतिमात्र ही अवशेष रह गई है।
अभी हाल ही की बात है, मैं बैठा स्थानीय दैनिक का संडे संस्करण उलट-पलट रहा था कि अपने छोटे बरखुरदार की एक सचित्र और सवक्तव्य कविता पर आँख गड़ी की गड़ी रह गई। मैंने अंदर आवाज लगाई कि 'सुनती हो' तो बरखुरदार की माँ की बजाय मेरी माँ पहुँच गई और माजरा सुनकर गद्गद हो कहने लगीं 'भगवान का लाख शुक्र है कि इस दैत्यवंश में एक प्रहलाद तो आया है। आज इसके दादा होते तो फूले न समाते।' मैंने कहा, 'अम्मा! वे होते तो इस ना-अहल की हड्डी-पसली एक कर देते।' इतने में हमारा फरजंद भी आ पहुँचा। उसके हाथ में वही संडे संस्करण था। मेरा रुख देखकर वह सहम गया। मैंने पूछा कि यह सब क्या है? बोला, 'डैडी यह नई कविता है।' मुझे जोर का ध्क्का लगा। काटो तो खून नहीं। कविता का न सिर न पैर, न तुक न ताल, न छंद न बंध, न लय, न स्वर, न यति न गति। मैंने फिर पूछा, 'बेटे! यह कैसी नई कविता है? वह बोला, डैडी! यह विद्रोह की कविता है, विद्रोह, सबसे विद्रोह, जो पुराना है, उससे विद्रोह, कविता के लिबास में उसकी पुरानी रूह से विद्रोह, उसके क्राफ्ट और टैकनीक से विद्रोह, उसकी फार्म और स्टाइल से विद्रोह।' मैंने टोका, कंबख्त, धीरे, बोल! कहीं पुलिस ने सुन लिया तो वामपंथियों के साथ धर लिए जाओगे! वह हँस कर बोला, डैडी! यह अनास्था का युग है, यानी कि टोटल डिसबिलीफ का, नान-फेथ का। अनास्था पास्ट से, फ्यूचर से, सिर्फ प्रैसेंट को, वर्तमान को जीना, उसके हर मिनट और लमहे को जीना।' मैंने खीज कर कहा, 'तो यहाँ क्यों वक्त बरबाद करता है? जा जी, आराम से जी और मुझे भी जीने दे। माँ बोली, फोटो तो सुंदर है लेकिन क्या लिखा है? इस पर अपने चंद-चिराग ने कुछ पंक्तियाँ पढ़ सुनाई। माँ की समझ तो दूर, मेरा भेजा भी कोई मतलब पकड़ न सका। कविता इस प्रकार थी -
मैं भुनी मूँगफली का छिलका
जो आज गिरा है इधर-उधर
बस में, ट्रामों में
सिनेमा में, प्लेटफार्म पर
खंड-खंड हो बिखरा है
वह कल को
पिसकर किसी मसाले में
फिर पेट तुम्हारा छेदेगा
इसलिए लाजिम है
ओ खाने वालो!
मुझको यूँ मत फेंको
मुझे भी निगल जाओ
मैंने निश्चय ही तुम्हारे पेट में जाना है
वही मेरा गंतव्य है
नियति है।
मैं अपने नगर की पब्लिक कॉलिज - प्रबंधक कमेटी का मेंबर हूँ। उस दिन इंटरव्यू कमेटी में मेरा जाना इसलिए भी जरूरी हो गया कि मुन्ने की माँ का भतीजा भी नौकरी का उम्मीदवार था। इंटरव्यू में उससे अनेक सवाल पूछे गए। अंत में मैं भी पूछ बैठा, तुम्हारी विशेष हॉबी क्या है? वह बोला, 'नई कविता।' एक मेंबर चौंक उठे। वे खुद भी शायर रह चुके थे बोले, 'नई कविता से तुम्हारी मुराद? जवाब मिला, 'आत्म-ईमानदारी का संकल्प।' एक मेंबर संकल्प का अर्थ तिलांजलि समझकर खीझ उठे कि 'ऐसे गैर-ईमानदार आदमी के लिए इस कालिज में कोई जगह नहीं।' कैंडीडेट ने बात समझाया कि, 'हमारा तो नारा ही ईमानदारी है, हमारी कविता भी ईमानदारी की है। यही इसकी मूल खासियत है।' इस पर मीटिंग में बैठे शायर मेंबर तिलमिला उठे, 'यानी कि पुरानी कविता बेईमानों की कविता है।' मैं बीवी का खयाल करता हुआ बीच-बचाव की गरज से बोल उठा, 'खैर कविता कोई भी हो, नई या पुरानी, कविता फिर भी कविता ही है। हाँ, इसकी कविता कैसी है, इसका नमूना जरूर देख लेना चाहिए। इस पर यह कविता पढ़कर सुनाई गई -
एटम बम की ठाह
ठाह ठाह ठह ठाह ठाह ठह ठाह
सबसे बड़ी विरही की आह।
उसकी इस रैपिड फायरिंग से हमारे कानों के राडार सैट तनतना उठे। मैं अपनी हिमाकत पर शर्मिंदा हो रहा था। वह अभी और सुनाने पर आमादा नजर आता था कि मुझे लाचार होकर कहना पड़ा, 'इस महाकाव्य को...' मेरी बात अभी बीच ही में थी कि वह बोल उठा, 'हम नये कवि महाकाव्य भी नहीं लिखते। उसमें हमारी आस्था नहीं। वह तो जीवन की अरथी है लाश ढोने का चौखटा है। न हम गीत लिखते हैं न महाकाव्य। हम लिखते हैं नई कविता जो इन सबसे आगे का कदम है...।' इसके आगे कि वह कुछ और बयान देता, उसे खोटे पैसे की तरह वापिस भेज दिया गया। मेरे घर पहुँचने से पहले ही वह वहाँ मौजूद था, बोला, 'अंकल, इंटरव्यू का कोई गम नहीं। हाँ, मेरा यह नया प्रकाशन भेंट रूप में रख लीजिए। एक प्रति मुन्ने के लिए भी है।' मुझे इस पर गुस्सा आ रहा था जो मेरे ही घर में जेहाद का प्रचार करने पर तुला था। मगर उसे क्या दोष देता! अपने अजीज की शोहरत नये कवि के रूप में काफी फैल चुकी थी। नई कविता की बहुत-सी पत्रिकाएँ इसे आती थीं, जिनमें उसकी कविताएँ अक्सर छपती थीं मगर पैसे देकर। एक बार मैंने जरा आपत्ति की तो वह बोला, 'यह सब हमारा सहकारी प्रयास है।' सहकारी खेती, सहकारी बिजनेस तो सुना था मगर यह नई सहकारिता मेरे लिए हैरानी का बायस बन रही थी।
पिछले दिनों एक कवि सम्मेलन में मुझे मजबूरन जाना पड़ा। एक तो हमारा बेटा उसमें हिस्सा ले रहा था, दूसरे उसकी माँ और दादी का भी इसरार था। उनका विचार था कि खुदा-खुदा करके अपने खानदान में कोई कवि पैदा तो हुआ, भले ही कैसा है, पुराना या नया। दादी को तो हमारे बरखुरदार ने इतना मुतासिर कर लिया था कि उसका अकीदा बन चुका था कि अगर आज उसके दादा जी जिंदा होते तो वे भी नई कविता ही लिखते। खैर, मैं सम्मेलन में गया जहाँ चंद छोकरे जमा थे, जो रत्नभूषण की परीक्षा में छंद के पेपर में कई बार फेल हो चुके थे। मुझे देखकर वे सम्मान के लिए नहीं उठे। उनके एक सरकर्दा मेंबर ने बताया कि उनके कवि सम्मेलन के दस्तूर के मुताबिक वहाँ से केवल श्रोता ही उठते हैं और वे स्वयं तो सम्मेलन के अंत पर ही उठते हैं। अतः बैठे-बैठे ही अभिवादन हुआ। दस-बीस लोग और भी आए और सम्मेलन प्रारंभ हुआ। सर्वप्रथम एक कवि मुखातिब हुए, 'हमें श्रोताओं की कम हाजिरी से मायूस नहीं होना चाहिए क्योंकि हमारी कविता कोमिटिड (प्रतिबद्ध) नहीं और हमारी कविता न ही अड्रैस्ड (संबोधित) है। इसलिए इस अल्प हाजिरी को श्रोता-संकट तसव्वुर न किया जाए। हमें श्रोताओं की दाद नहीं चाहिए। उनसे प्रार्थना है कि वे इस हरकत से बाज रहें। ऐसे नान-कोमिटिड, नान-अड्रैस्ड ओपनिंग की हम श्रोता ताब न ला सके और सभी को एक साथ वाक आउट करना पड़ा। अपनी इज्जत को महफूज करने के लिए यह माइल्ड प्रोटेस्ट लाजमी हो गया था।
हमारे पड़ोस में एक नये किरायेदार आए हैं। पति-पत्नी दोनों ही कविता का शौक रखते हैं। अपना लाड़ला उनसे काफी घुलमिल गया है और उनके यहाँ बड़ा ही होमली महसूस करता है। पिछले संडे इस कपल को उसने अपने यहाँ इनवाइट किया था। जलपान के बाद गोष्ठी का कार्यक्रम था। शिष्टतावश हमें सपरिवार उसमें भाग लेना पड़ा। गोष्ठी का श्रीगणेश मुन्ने की नई कविता से हुआ जिस पर वे मियाँ-बीवी सिर हिलाते रहे। कविता का असर मुन्ने की माँ और दादी पर भी खूब शिद्दत से हुआ। वह बोल रहा था -
रावण के दस सिरों पर लगे
गधे के सिर का
मैं कटा हुआ धड़ हूँ
ओ पुराण-लेखकों
बेईमानों
रावण तो शक्तिशाली था
उसने उँगली पर कैलाश उठाया था
मुझे जीवित ही
सारे के सारे सिंगल पीस को
उसके सर पर क्यों नहीं बिठा दिया
रावण को उससे कभी एतराज न होता
क्या मैं सारे का सारा
उसकी मूर्खता से भारी पड़ता?
आमंत्रित कपल हमारे मुन्ने के इतिहासबोध से दंग हो रहे थे। उसकी पौराणिक व्यंजनाएँ मार्काखेज थीं। अब कप्पल की बारी थी। पहले पति महोदय ने कविता पढ़ी -
मैं संततिनिरोध का नुस्खा हूँ भले ही आजमाओ या न आजमाओ जो होना है सो होगा होनी को किसने रोका है?
मैंने बीच में ही टोकने की गुस्ताखी की तो वे बोले, 'हमारी नई-नई शादी हुई है। मैंने अपने क्षण-विशेष की अनुभूति को ऐसे बिंबों में बाँधा है, ऐसे अप्रस्तुतों में प्रस्तुत किया है जो एकदम अछूते हैं, जिन्हें मैंने भोगा है और जिया है और यही आधुनिकता है, वर्तमान का स्थिति-बोध है।' मुन्ने ने कहरभरी नजरों से मेरी ओर देखा। मेरी नोंक-झोंक को वह अपने मेहमानों की इन्सल्ट समझ रहा था। लाचार मैं चुप हो गया। अब पत्नी की बारी थी, वे बोलीं, 'एक नया प्रयोग है।' हमारे कान खड़े हो गए। कविता कुछ ऐसी थी -
कई बार
निटिंग करते हुए मैंने सोचा
कि यह धागा
जिसे मैं उँगली पर लपेटती हूँ
क्या है
यह सलाई
जिससे बुनती हूँ
आखिर क्या है
स्थितियाँ दो हैं, सवाल दो हैं
उत्तर एक है
वह हैं मेरे 'पति'
जो मेरी उँगली पर नाचते हैं
जिन्हें सलाई की तरह मैंने सीधा कर रखा है।
यह सुनकर उनके सीधे-साधे पति जरा और सीधे होकर बैठ गए। कविता के बाद वे बोलीं, 'यह एक नया एक्सपैरिमेंट है जो चिरंतन और सनातन रहेगा क्योंकि प्रत्येक युग में पत्नी पति को उँगलियों पर नचाएगी और तकली की तरह सीधा भी करेगी।' मुन्ने की माँ पर इस व्याख्या का गहरा प्रभाव पड़ा। वह पूछ बैठीं, 'बहन, स्वैटर तो मैंने भी बहुत बुने हैं मगर ऐसा ज्ञान कभी नहीं सूझा।' वे बोलीं, 'कबीर को भी ज्ञान की बात खड्डी पर ही सूझी थी, मगर वह पुरानी कविता की बात थी। नई कविता का आत्मबोध निटिंग की सलाइयों पर ही संभव है।' मैं जल्दी में था, उठ आया। पता नहीं वह बैठक कब तक जमी रही।
आज सुबह ही एक हंगामा हो गया। मेरे एक मित्र मुन्ने से पूछ बैठे कि क्या करते हो आजकल? मेरे मुँह से निकल गया, 'नई कविता।' मेरे इस कमेंट पर उसकी पेशानी पर बल पड़ गए, बोला, 'डैडी, मैंने नई कविता कब की छोड़ दी है। वह पुराने युग की बात हो गई है।' मैंने सुख की साँस ली कि चलो पिंड छूटा, मगर साथ ही उसने मेरी नालेज में इजाफा करते हुए कहा, 'मैं अब अकविता करता हूँ।' मैं समझ न सका कि बेटा अब किस नए मर्ज में मुब्तिला हो गया है। उसने बताया कि अकविता नई कविता से आगे का चरण है, जिसमें संभावनाओं की नई जमीन को खोदा गया है। मैंने कहा, 'नामुराद! गनीमत है कि पहले वाली पहाड़ की खुदाई में कम-से-कम एक चुहिया तो निकल आई थी, मगर इस नई खुदाई में इसकी भी गुंजाइश नजर नहीं आती।'
मुन्ने की दादी खुश है कि वंश-परंपरा आगे बढ़ी है मगर कभी-कभी उदास भी हो जाती है कि मेरा नाम बीच में से गायब है। मैं पहले अपने को कविवंश में अकवि मानता था मगर जब से मुन्ने ने अपने को अकवि घोषित किया तो मैं सोचता हूँ कि मैं क्या हूँ? कवि था नहीं, अकवि हूँ नहीं। मैंने यह समस्या मुन्ने के आगे रखी है। वह इस नई स्थिति पर शीघ्र ही कोई प्रयोग करने वाला है।