यह पुरस्कार किसे दिया जा रहा है? / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :02 मार्च 2016
मेहबूब खान की फिल्म 'मदर इंडिया' इस कदर भारतीय है कि आभास होता है, मानो मुंशी प्रेमचंद ने लिखी है और महात्मा गांधी ने निर्देशित की है। इसे मेहबूब खान ने 1939 में 'औरत' के नाम से और 1956 में 'मदर इंडिया' के नाम से बनाया। कुछ लोगों का कहना है कि 'अौरत' का नाम 'मदर इंडिया' रखने का सुझाव नरगिस का था। इस फिल्म को विदेशी भाषा की श्रेष्ठ फिल्म श्रेणी के लिए 'ऑस्कर' चयनकर्ताओं ने केवल इस आधार पर पुरस्कार से वंचित किया कि चयनकर्ताओं को यह बात बुरी लगी कि ब्याजखोर महाजन के द्वारा रखा शादी का प्रस्ताव स्वीकार करके सुविधापूर्ण जीवन जीने के बदले नायिका ने घोर परिश्रम करके कष्टभरे जीवन को अपनाया। उनके लिए यह भारतीय संस्कार समझना कठिन था कि नायिका का पति उसे छोड़कर गया है परंतु वह मरा नहीं है। अत: वह विधवा नहीं है और मांग का सिंदूर उसे दूसरे विवाह की आज्ञा नहीं देता। यह उसके आत्म-सम्मान के साथ ही उसकी अपने पति के प्रति निष्ठा का भी सवाल है और सुविधापूर्वक जीवन से कहीं अधिक मूल्य है, उसके लिए अपने मंगलसूत्र की रक्षा करना। यह घोर भारतीयता ऑस्कर चयनकर्ता समझ नहीं पाए।
दरअसल, ऑस्कर के लिए भी प्रचार करना पड़ता है और भारतीय सरकार और भारतीय फिल्म उद्योग को यह जानकारी ही नहीं है कि अन्य देश अपनी फिल्म की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को स्पष्ट करने के लिए कितना परिश्रम करते हैं और धन खर्च करते हैं। पश्चिम में भी प्रचार के मुर्गे के बांग दिए बिना सूर्य नहीं उगता। विगत कुछ वर्षों में अल्प बजट की मराठी भाषी फिल्में भी अपनी गुणवत्ता के कारण ऑस्कर प्रतिस्पर्द्धा में भेजी गईं और उनके निर्माण मूल्य से कई गुना अधिक धन प्रचार के लिए लगता है। इतना ही प्रचार नोबेल पुरस्कार के लिए भी करना पड़ता है और कृति की पार्श्वभूमि को प्रचारित करना पड़ता है।
मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, फणीश्वरनाथ रेणु और निराला जैसी विलक्षण प्रतिभाओं पर कभी नोबेल प्राइज कमेटी ने गौर ही नहीं किया और केवल कवि गुरु रवींद्रनाथ टैगोर के साथ न्याय हुआ, क्योंकि ऑडेन जैसे पश्चिमी कवियों ने उनकी कृति की गुणवत्ता को उजागर किया। नोबेल प्राइज चयन प्रक्रिया पर इरविंग वैलेस के उपन्यास 'प्राइज' को पढ़िए। सारे तामझाम किस तरह प्रायोजित है, यह जानकर इस तरह की झांकियों पर से विश्वास ही उठ जाता है। सरकारें कैसे चलती हैं यह रहस्य उजागर हो जाए तो कितने ही लोकप्रिय नेता अपना चेहरा भी नहीं दिखा पाएंगे। जब वित्तमंत्री बजट भाषण देते हैं तब ऊंघते हुए सांसदों के चेहरे कभी दिखाए नहीं जाते। आम आदमी को रोजी-रोटी की चिंता ही वक्त नहीं देती परंतु फिर भी उसे भरमाए रखने के लिए जाने कितनी नौटंकियां रची जाती हैं। हम कठपुतलियों का रोचक नृत्य देखते हैं परंतु उन उंगलियों को नहीं देख पाते, जो सारी कठपुतलियों को नचा रही हैं।
भारतीय चयन कमेटी ने शशि कपूर की जेनीफर केंडल कपूर अभिनीत और अपर्णा सेन द्वारा निर्देशित '36 चौरंगी लेन' को ऑस्कर के लिए भेजा था और सारे चयनकर्ता एकमत से उसे पुरस्कृत करना चाहते थे परंतु तकनीकी बाधा यह थी कि विदेशी भाषा की श्रेणी में भेजी गई यह महान फिल्म अंग्रेजी भाषा में बनी थी, इसलिए चयनकर्ता चाहकर भी इसे पुरस्कृत नहीं कर पाए। इस तरह भारत दो बार ऑस्कर से वंचित हुआ। 'मदर इंडिया' ग्रामीण भारत का महाकाव्य है तो '36 चौरंगी लेन' महानगर का सॉनेट था। सॉनेट सीमित पंक्तियों की रचना होती है।
अमेरिका में ऑस्कर के अतिरिक्त फिल्म की कोई प्रतिस्पर्द्धा नहीं होती परंतु भारत में अनेक फिल्म पुरस्कार समारोह होते हैं और इन सारे समरोहों की हकीकत यह है कि सितारों से सजी इस मनोहारी शाम को टेलीविजन पर दिखने के बहुत पैसे मिलते हैं और हर प्रायोजक समारोह पर खर्च से अधिक आय अर्जित करता है। कोई भी खेल पारदर्शी नहीं है। कई बार यह भ्रम भी होता है कि भारत के विशाल परदे पर जीवन नामक फिल्म चल रही है और दर्शक अपने ही कैरीकेचर को देखकर मंत्रमुग्ध है। धर्मवीर भारती की 'प्रमथ्यु गाथा' की पंक्तियां हैं, 'हम सबकी आत्मा में झूठ, हम सब सैनिक अपराजेय हमारे हाथों में टूटी तलवारों की मूठ।"