यह भी तो खेल है / प्रभुदयाल श्रीवास्तव
कल रविवार था। जाहिर तौर पर अवकाश था और मैं संपूर्ण आराम के मूड में था कि खाना खाकर लंबी तानकर दो चार घंटे सोऊंगा। ताकि पिछले सप्ताह अनावश्यक भागदौड़ से हुई थकावट से कुछ निजात पा सकूं। खाने के बाद लेटा ही थाकि बाहर पोर्च में बड़ी जोर जोर से लड़ने और चीखने की आवाजें आने लगीं।
घबराकर मैं बाहर भागा कि ऐसा क्या हो गया कि बच्चे अचानक चीखने लगे।
पोर्च में मेरे तीन और मोहल्ले के कोई तीन चार बच्चे जोर जोर से चीख रहे थे, कुर्सियां लेकर एक दूसरे पर झपट रहे थे। कुछ बच्चे हाथों में ईंटों के टुकड़े और पत्थर लिये थे और एक दूसरे को भद्दे शब्दों से संबोधन कर रहे थे।। पोर्च के दूसरी तरफ भी मोहल्ले के सात आठ बच्चों का हुज़ूम था। छोटे छोटे प्लास्टिक के गैस चूल्हों पर अल्यूमीनियम के बर्तन रखे थे और इधर उधर छोटे छोटे थाली गिलास बिखरे पड़े थे। मैंने अपने बच्चों से पूछा
"क्या कर रहे हो तुम लोग ,क्यों इतना शोर मचा रहे हो? थोड़ा आराम भी नहीं करने देते, और हाथों में ये ईंटे पत्थर.........क्या है ये ?" और मैंने अपने बेटे पिंटू का कान पकड़कर पोर्च के दूसरी तरफ इशार कर चिल्लाते हुये कहा "उधर देखो वे भी तो तुम्हारी तरह बच्चे हैं,कितनी शांति से खेल रहे हैं।
"मगर पापा वे लोग तो घर घर खेल रहे हैं।"
"फिर तुम लोग क्या खेल रहे हो?"
"पापा हम लोग संसद संसद खेल रहे हैं न।"
-पिंटू ने भोलेपन से जबाब दिया और कान छुड़ाने का प्रयास करने लगा।
मेरा गुस्सा काफूर हो गया औ मुझे हंसी आ गई। उसके कान पर से कब हाथ छूट गया मुझे मालूम ही नहीं पड़ा।
"ठीक है खेलो बेटा" मैं इतना ही कह सका और भीतर आ गया।