यह मकान किराए से देना है ! / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 13 फरवरी 2014
प्यार का दिन वैलेंटाइन डे आर्थिक उदारवाद की कोख से जन्मा उत्सव है। बाजार में ग्रीटिंग कार्ड का व्यवसाय करने वालों की मदद से इतने कम समय में इसका इतना व्यापक प्रचार हुआ है कि यह अब अपने मूल महानगरीय स्वरूप को छोड़कर छोटे शहरों तक पहुंच गया है! भारत ऐसे भी हमेशा उत्सवप्रेमी देश रहा है और आज उसकी आबादी का सबसे बड़ा भाग युवा वर्ग का है तथा बाजार और विज्ञापन की ताकतों ने युवा वर्ग को अपनी समृद्धि के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण बना दिया है। इसी दिन हुल्लड़बाजी के व्यवसाय में लगे लोग इस पाश्चात्य उत्सव की आलोचना करते हैं जबकि पश्चिम में जन्मी टेक्नोलॉजी का भरपूर प्रयोग करते हैं गोया कि गुड़ खाकर गुलगुले से परहेज करने की तरह है यह दृष्टिकोण।
भेंट देने की रस्म से हमेशा बाजार को लाभ होता है। पहले मुंबई में फूल बेचने वाले देशी फूलों के बुके भेजते थे, अब धनाढ्य लोगों के अनुरोध पर जो स्वयं व्यापारी ने प्रचार करके रचा है, विदेश से फूल आयात किए जाते हैं। 400 रुपए के बुके के दिन लद गए, अब तो चार हजार से भी ऊपर में यह बुके बिकता है। इसकी कीमत 20 हजार रुपए तक जाती है। यह कुछ हद तक ऐसा ही है कि पहले प्रॉपर्टी टैक्स मात्र हजार या दो हजार रुपए होता था परंतु चौड़ी सड़कें इत्यादि बनाने के लिए टैक्स चौदह हजार कर दिया गया है। यह फूलों का आयात या चमकीली चौड़ी सड़कों के बनने से जुड़ा आयात किया विकास का मॉडल सभी कुछ अमीर और गरीब के बीच की खाई को और अधिक गहरा तथा भयावह बना रहा है।
प्रेम के लिए एक दिन को तय करना हमें जानवरों की ओर ले जा रहा है क्योंकि प्रकृति ने उनके लिए प्रेम के मौसम तय किए हैं। प्रकृति का यह नियम उनकी संख्या पर अंकुश रखने के लिए बना है परंतु मनुष्य पर इस तरह का कोई नियम नहीं है। दरअसल, प्रेम होने पर सारे मौसम आपके हो जाते हैं। सारी विपरीत परिस्थितियों से भी निपटा जा सकता है। जीवन में अनेक कारणों से संवेदना घटी है और संवेदना के अभाव के कारण ही प्रेम को भी फैशनेबल मान लिया गया है गोया कि आप प्रेम नहीं कर रहे हैं तो पिछड़ गए हैं। आज भावनाविहीनता को प्रेम के मुखौटे से छुपाया जा रहा है। युवा सारे दिन 'आई लव यू' कहते नहीं अघाते परंतु कन्या संकट में हो तो भाग खड़े होते हैं। दरअसल, प्रवृत्ति केवल आनंद प्राप्त करने की है और उससे जुड़े दायित्वों से बचना ही मूल ध्येय है। बात यहां तक सीमित नहीं है, उन्होंने आनंद प्राप्त करने की क्षमता खो दी है। सारांश यह है कि संवेदना के अभाव में सच्चे अर्थ में आप आनंद के भाव को ग्रहण कैसे कर सकते हैं। रेडियो और टेलीविजन पर हास्य के कार्यक्रम में पहले से रिकॉर्डेड तालियों का इस्तेमाल होता है अर्थात भाव भी प्रायोजित है। यहां बात शारीरिक आनंद की नहीं वरन् निर्मल आनंद की हो रही है। जीवन का यह मशीनीकरण, भावनाशून्यता एक गहन गंभीर मामला है। आपको हंसना चाहिए, इसलिए हंस रहे हैं, इस मौके पर अफसोस जताना है तो आप मशीनी भाव से दु:ख दिखा रहे हैं गोयाकि हम सब जी नहीं रहे हैं, मात्र जीने का अभिनय कर रहे हैं। संवेदना के क्षेत्र की यही बात विचार के क्षेत्र में रेजीमेंटेशन तक जाती है कि सभी उस तरह सोचें जैसे उन्हें सोचने का आदेश दिया जा रहा है। यह मामला मनुष्य के मनुष्य नहीं बने रहने का हो जाता है और रोबोकरण होने पर सब कुछ बदल जाएगा।
फिल्म जगत में कुछ युवा नायकों को लगता है कि उन्हें किसी से इश्क करना चाहिए तथा इसे प्रचारित भी करना चाहिए। इसलिए आजकल की प्रचारित फिल्म उद्योग की प्रेम कथाओं में कुछ दम नहीं है। एक विराट स्वांग का हिस्सा बन गए हैं लोग। पहले यह संकट केवल पश्चिम में था कि कुछ लोग पूरी तरह भावनाहीन हैं परन्तु अब भारत में भी अनेक युवा केवल अपनी महत्वाकांक्षा को महत्व देते हैं और वे अपने जीवन में भी एक बाहरी व्यक्ति की तरह रहते हैं गोया कि आपने अपने को खाली भवन या कंदरा बना दिया है जहां कोई और आकर रहता है।