यह मस्तराम कौन है ? / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 06 मई 2014
फिल्म'मस्तराम' के प्रचार का केंद्रीय संदेश है कि अपने चाचा, ताऊ, मामा इत्यादि बुजुर्गों से 'मस्तराम' के बारे में पूछें और अपने नन्हों की आंख बचाकर फिल्म देखें। यह अत्यंत चतुराई से गढ़ा विज्ञापन है जिसमें संकेत है कि बुजुर्गों ने अपनी किशोर अवस्था में मस्तराम को पढ़ा है और यह वयस्क फिल्म है, अत: बच्चों को इससे दूर रखें। यह फिल्म का युवा वर्ग को निमंत्रण है। विगत सदी के चौथे, पांचवे दशक में मस्तराम की लिखी 'भांग की पकौड़ी' किशोर अवस्था के पाठकों की प्रिय पुस्तक थी और इसे वे उन बुजुर्गों से बचाकर पढ़ते थे जो अपनी किशोर अवस्था में मस्तराम की अन्य रचनाएं पढ़ चुके थे। मजे की बात यह है कि बुजुर्गों को मालूम था कि या छुपाया जा रहा है और एक यादों की चाश्नी में डूबी मुस्कुराहट से वे मौके की तलाश में रहते थे कि कब नजर बचाकर उस विवादास्पद कथा को फिर हथिया कर किशोर वय की जुगाली करें।
दुनिया की हर भाषा में किशोर वय में इस तरह की किताबें पढ़ी जाती रही हैं और इसी शाश्वत लुगदी साहित्य के वर्तमान स्वरूप 'फि?टी शेड्स ऑफ ग्रे' को सबसे अधिक बिकने वाली किताब बाजार की ताकतों ने बना दिया है और 'हैरी पॉटर' से अधिक इसकी प्रतियां बिकी हैं तथा संभवत: केवल 'बाइबिल' ही 'हैरी पॉटर' और 'ग्रे शेड्स' से अधिक बिकी है जबकि बाइबिल से जुड़ी एक उपकथा को साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत किया गया है इरविंग वैलेस की 'सेवन मिनिट्स' में जिसकी प्रेरणा लेखक को सत्य घटना से मिली थी जब 1933 में जज वूल्से की अदालत में तय होना था कि जे?स जॉयस की 'यूलिसिस' अश्लील है या नहीं। उस उपकथा में एक युवा विधवा अपने ठरकी ससुर के नैतिकता के उपदेशों से तंग आकर उस तवायफ के कोठे में जाकर बैठ जाती है जहां ससुर प्राय: शाम बिताने आते थे।
अपनी शराफत का मुखौटा उतरते ही उन्होंने खोखले भाषण देना बंद कर दिया। जहां एक ओर दुनिया भर के पौराणिक आ?यानों में प्रच्छन्न से?स की धारा सतत प्रवाहित रहती है, दूसरी ओर चर्च 'लिस्ट ऑफ बुस' का प्रकाशन समय-समय पर करता है कि फलां किताब नहीं पढ़ें। सच तो यह है यह 'लिस्ट' ही से युवा वर्ग पठनीय सामग्री का चयन करता है। कुछ व्यक्तिगत कमतरी से पीडि़त कुंठाग्रस्त लोग ही सेस विरोधी मुहिम के सरगना हो जाते हैं जैसा कि हम दीपा मेहता की 'फायर' और प्रकाश झा की 'मृत्युदंड' में देख चुके हैं। कुछ पुरातन स्थानों पर पत्थरों को काटकर कुछ कृतियां गढ़ी गई हैं जिनमें सैकड़ों वर्षों का परिश्रम और कलाकारों की पीढिय़ों का प्रयास है- वे छवियां ही मस्तराम नुमा लुगदी रचना की मूल स्त्रोत हैं। उन्हीं महान कृतियों को फूहड़ता के साथ श?दों द्वारा अभिव्यक्त किया गया है।
बहरहाल मस्तराम एक छद्मनाम है और यह किस व्यक्ति का है यह आज तक पता नहीं चला। साहित्य क्षेत्रों में अफवाह रही है कि हिंदी में नई कहानी मुहिम से जुड़े एक महान लेखक ने अपने संघर्ष के दिनों में भूख से जूझने के लिए इस तरह की किताबें लिखीं। इरविंग वैलेस की 'सेवन मिनिट्स' में अश्लीलता के मुकदमे में गुमनाम लेखक को अदालत में प्रस्तुत करना आवश्यक है योंकि जज वूल्से का स्पष्ट मत है कि किताब का समग्र प्रभाव, ना कि कुछ पृष्ठ और लेखक का मंतव्य जानना जरूरी है कि या उसने मात्र धन कमाने के लिए लिखा है या उसका मकसद कुछ और था।
उस सनसनीखेज मुकदमे में लेखक स्वयं को उजागर करता है और सरेआम स्वीकार करता है कि एक वेश्या ने उसे कमसिन उम्र में कमतरी के भ्रम से मुक्त कराया था। यह गवाही वह उस समय दे रहा है जब उसे सुप्रीम कोर्ट का जज नियुक्त किया जाना है।
बहरहाल सेस के वैज्ञानिक पक्ष को पाठ्यक्रम में शामिल नहीं करने के कारण मस्तराम नुमा जहलियत हमेशा खूब बिकती रही है। जब भी हम किशोर वय को सत्य से दूर ले जाते हैं, वह अंधी बंद गलियों में खो जाता है। स्वीडन में सबसे कम सेस अपराध होते है योंकि वहां कुछ भी प्रतिबंधित नहीं है और उन्होंने किस नजरिये से फिल्म गढ़ी है- यह मैं नहीं जानता परंतु 'भांग की पकौड़ी' पढ़ी है और वात्सायन की महान पुस्तक भी पढ़ी है। लगभग वात्सायन के ही काल खंड में चीन में इस विषय पर शोध हुआ है, वह किताब भी पढ़ी है। यह जरूर सराहनीय है कि मस्तराम पर किसी ने फिल्म रचने का विचार किया। किशोर वय और सेस पर सर्वश्रेष्ठ फिल्में हैं राजकपूर की मेरा नाम जोकर, 'समर ऑफ फोर्टी टू' और 'ग्रेजुएट' तथा अजय बहल की 'बी.ए.पास'।