यह लड़ाई है दिए और तूफ़ान की / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 04 फरवरी 2013
कमल हासन की 'विश्वरूपम' को हम विवादों और फिल्मकार के राजनीतिक उसूलों के परे जाकर महज एक फिल्म के रूप में देखें तो कहना होगा कि यह एक रोचक थ्रिलर है और प्रस्तुतीकरण मनोरंजक भी है तथा तकनीकी गुणवत्ता के मामले में यह हमारी उत्तम फिल्मों में एक है। कथा एक सुपरस्टार को विभिन्न रूपों में प्रस्तुत करने के लिए चतुराई से गढ़ी गई है और निष्णात कलाकार कमल हासन एक जनाने से नृत्य शिक्षक के रूप में इतने विश्वसनीय हैं कि पटकथा की इस कमी को भी पूरा कर देते हैं कि इस तरह के जनाना हाव-भाव वाले व्यक्ति से नायिका ने शादी क्यों की और साथ ही नायिका का अन्य पुरुष की ओर आकर्षित होना भी न्यायसंगत हो जाता है। एक अच्छा कलाकार पटकथा के छेद को भी इस तरह ताकत में बदल देता है। कत्थक की मुद्राओं को वे राधा के रूप में बड़े मनमोहक ढंग से प्रस्तुत करते हैं। जब वे सड़क पर सामान्य रूप से चल रहे हैं, तब भी उनकी उंगलियां मुद्राएं प्रस्तुत कर रही हैं।
चंद रीलों बाद ही हम उन्हें अफगानिस्तान के कबीलों में घूमते हुए देखते हैं और वे आतंकवादियों को प्रशिक्षित करते हैं, परंतु हिंसा के दृश्यों में उन्हें आतंकवादियों के परिवार के सदस्यों के मरने का भी उतना ही गम है, जितने अमेरिकी कैदियों के मारे जाने का। स्पष्ट है कि नायक विश्व का प्रतीक है और उसे हर इंसानी जख्म पर मरहम लगाने का जुनून है। आणविक विस्फोट को बेअसर करने के प्रयास वाले दृश्य में भी वह नमाज अदा करना नहीं भूलता। उसे अफगानिस्तान में रोपित किया है भारतीय गुप्तचर सेवा ने, ताकि वह पाकिस्तानी खुफिया संस्था और आतंकवादियों के परस्पर मदद करने के प्रमाण जुटा सके। अफगानिस्तान के दृश्य बहुत ही परिश्रम और प्रतिभा से गढ़े गए हैं।
एक ओर हम देखते हैं कि एक पिता अपने मासूम बच्चे की आंख पर पट्टी बांधकर उसे स्पर्श करके हथियार का नाम बताने को कहता है और वह बच्चा बखूबी पहचान कर लेता है। सड़कों पर हथियार ऐसे बेचे जा रहे हैं, जैसे सब्जी और फलों की दुकान से खरीदारी कर रहे हैं। एक बूढ़ी औरत के संवाद में अफगानिस्तान का दर्द और पुरुष सोच के पाखंड पर भी प्रहार है- 'अफगानिस्तान में पहले रूसी घुसे, फिर तालिबान आए, फिर अमेरिकी। इन सारे बंदरों की दुम पीछे न होते हुए आगे है।' इन दृश्यों में एक शॉट शायद अनजाने ही बन गया है और सोचकर किया गया है तो फिल्मकार को सलाम। शॉट यह है कि एक भारीभरकम बंदूक के ऊपर एक मक्खी या उसके जैसा कुछ बैठा है। यक-ब-यक अनजाने एक शायर की पंक्ति याद आ गई कि 'एक चिडिय़ा ने तोप के दहाने पर घोंसला बनाया है।' जब एक्शन फिल्म में इस तरह कविता के स्पर्श के कुछ शॉट्स हों, तो लगता है कि जितने का टिकट खरीदा है, उससे कहीं ज्यादा मिल रहा है। आज मनोरंजन जगत में नियमित वेतन तो लापता है, परंतु कभी-कभी बोनस मिल जाता है। नियामत के बरसने का अंदाज भी निराला होता है। फिल्म में हम अफगानिस्तान के टीलों के साथ ही अमेरिका की गगनचुंबी इमारतें देखते हैं और अचरज होता है कि एक इतना गरीब क्यों और दूसरा इतना सुविधा-संपन्न क्यों?
पूरे घटनाक्रम के साथ ही नायिका का दृष्टिकोण भी बदल रहा है और एक दृश्य में मृत्यु को निकट पाकर वह अपनी बेवफाई के लिए अफसोस जाहिर करती है तथा मोहब्बत का इजहार भी करती है। इस दृश्य को कमल हासन ने बकमाल निभाया है।
इस फिल्म में शेखर कपूर ने भी अभिनय किया है और लंबे अरसे बाद उन्हें परदे पर देखना सुखद लगता है। वे पहले की तरह भावपूर्ण और संयत हैं। राहुल बोस खलनायक हैं और उन्होंने परदे पर आतंक का भाव जगाया है तथा साबित किया है कि भयावह प्रस्तुत होने के लिए सुगठित लंबी-चौड़ी काया की नहीं, वरन अभिनय क्षमता की आवश्यकता है। वे अपनी निगाह से खौफ पैदा करते हैं। एक जगह सारे फसाद को इस तरह बयान किया गया है कि 'अमेरिका पेट्रोल के लालच में खून बहा रहा है और जिहादी अल्लाह के नाम पर।' ओसामा बिन लादेन की मृत्यु के बाद भी अमेरिका के लिए खतरा कम नहीं हुआ है, क्योंकि आतंकाद की जड़ें गहरी हैं। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद सदियों से बसे फलस्तीनी लोगों की जमीन पर इजरायल की स्थापना से छापामार जंग शुरू हुई है और उसके बहुत पहले पेट्रोल के लिए पश्चिम ने लंबा जाल बुना था। शोषण की यह दास्तां पुरानी है, परंतु जहालत से ज्यादा लंबी नहीं है।
कमल हासन फिल्म में किसी की आलोचना नहीं कर रहे हैं और अमेरिकी खुफिया एजेंसी एफबीआई की मदद करते हुए भी उसके मंसूबों के साथ कोई हमदर्दी नहीं दिखाई गई है।
आतंकवाद पर अनेक देशों में अनगिनत फिल्में बनाई गई हैं और कमल की फिल्म किसी अनछुए कोण को प्रस्तुत नहीं करती। यह तो एक सुपरस्टार को विविध रूपों में प्रस्तुत करने के लिए बनाई गई फिल्म है। दरअसल सेंसर बोर्ड ने प्रमाण पत्र देकर कोई गलती नहीं की और अगर इसे २४, २५, २६ जनवरी की छुट्टी पर प्रदर्शन की इजाजत मिल जाती तो यह अपनी लागत निकाल लेती। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता का कहना है कि यह उन्होंने व्यक्तिगत रोष के कारण नहीं किया। ज्ञातव्य है कि जब जयललिता लोकप्रिय फिल्म सितारा थीं, तब कमल हासन उनकी कुछ फिल्मों से बतौर सहायक जुड़े थे। कहीं उन दिनों अनजाने ही उनसे कोई कोई चूक हो गई हो, यह मुमकिन नहीं लगता क्योंकि जयललिता अत्यंत सफल सितारा थीं। आज अगर वे फिल्म निर्माण की कठिनाइयों को याद करें तो उन्हें कमल के दुख का अनुमान होगा।