यह व्याकरण किसने बनाया? / रवीन्द्र कुमार पाठक

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(अर्थात लिंग-विमर्श के लिंग-भेद का सांस्कृतिक नेपथ्य)

'अर्द्धमात्रा-लाघवेन पुत्रोत्सवं मन्यन्ते वैयाकरणाः' (परिभाषेन्दुशेखर) - व्याकरण-जगत में प्रसिद्ध इस सूत्र के पीछे एक पूरी सामाजिक मानसिकता झलकती है। इसका तात्पर्य है कि भाषा के व्याकरण को सूत्रबद्ध करते समय यदि वैयाकरण आधी मात्रा

की भी बचत कर लेता है तो उसे पुत्र जनमने का-सा आनंद होता है। व्याकरण-निर्माण के ज्ञानजन्य सुख की उपमा के रूप में यदि बेटे के जन्म का आह्लाद विद्वद्-वर्ग को सूझता है, तो यह कोई संयोग नहीं, बल्कि उसके मन में बैठा वह गहरा लिंग-भेद है जो समाज से होते हुए भाषा में, फिर भाषा से उसके विवेचन ('व्याकरण') तक में प्रविष्ट हुआ है।

भाषा-व्याकरण में 'लिंग' नामक अवधारणा सदियों से समाज में चल रहे स्त्री-पुरुषमूलक विभेद-भावना का ही प्रतिनिधित्व नहीं करती, बल्कि (जैसा समाज में रहा है, वैसे ही) पुंलिंग का वर्चस्व भी स्त्रीलिंग पर दिखलाती है। यानी, पुंलिंग के सामने स्त्रीलिंग को दोयम दर्जे का सिद्ध मानकर 'लिंग' नामक अवधारणा खड़ी हुई है।

भाषा के अधिकतर प्रभावशाली, निर्णायक, शक्तिसूचक शब्द पुरुषवाची हैं। इसके साथ, भाषा में स्त्रीलिंग शब्दों की व्युत्पत्ति पुंलिंग शब्दों से करने की सहज-सी प्रक्रिया रही है। यह प्रवृत्ति पुंलिंग शब्दों को मौलिक और स्त्रीलिंग शब्दों को उनसे व्युत्पन्न (यानी, अमौलिक) ठहराती है। यह 'बाइबिल' की विख्यात दंतकथा (प्रभु परमेश्वर ने कहा - “मनुष्य का अकेला रहना अच्छा नहीं। मैं उसके उपयुक्त एक सहायक बनाऊँगा।” अतः प्रभु परमेश्वर ने मिट्टी से पृथ्वी के समस्त पशु और आकाश के सब पक्षी गढ़े।...किंतु मनुष्य के लिए उसके उपयुक्त सहायक नहीं मिला। अतः प्रभु परमेश्वर ने मनुष्य को गहरी नींद में सुला दिया। जब वह सो रहा था, तब उसकी पसलियों में से एक पसली निकाली और उस रिक्त स्थान को माँस से भर दिया। प्रभु परमेश्वर ने उस पसली से, जिसको उसने मनुष्य में से निकाला, स्त्री को बनाया और उसे मनुष्य के पास ले आया। मनुष्य ने कहा, “अंततः यह मेरी ही अस्थियों की अस्थि है, मेरी देह की ही देह है; यह 'नारी' कहलाएगी; क्योंकि यह 'नर' से निकाली गई है।” - 'इब्रानी-अरामी बाइबिल', जेनिसिस (उत्पत्ति खंड), 2/18-23)) के अनुरूप है, जिसमें पुरुष के शरीर से स्त्री उत्पन्न हुई है। यह तो जीवविज्ञान के सिद्ध तथ्य को एकदम उलट के रख देना हुआ। स्त्री से जन्म लेने के बावजूद संतान पर पुरुष का हक मानना तो जारी है ही, बल्कि इससे भी बढ़कर प्रजनन क्रिया में स्त्री की मुख्य भूमिका को भी नकार कर पुरुष को मुख्य (बीजदाता, किसान) तथा स्त्री को गौण (खेत भर) कहा गया है, आज तक एक आम सामाजिक सोच में यही मूर्खता काम कर रही है। इसी सामाजिक विडंबना के परिप्रेक्ष्य में व्याकरण में 'लिंग' नाम का अध्याय बनकर खड़ा हुआ है।

भाषा की इस प्रकार की लिंगभेदी प्रवृत्ति अधिक सभ्य जातियों की भाषाओं में अधिक स्पष्ट होती है तथा कम सभ्य या असभ्यप्राय जातियों की भाषाओं में कम स्पष्ट या अस्पष्ट। इसका सीधा-सा कारण है कि स्त्री-पुरुष के बीच समता के सूत्र कथित असभ्य जातियों में ज्यादा हैं, क्योंकि स्त्री को दोयम दर्जे में डालने वाली विचारधारा (पितृसत्ता) सभ्यताकृत/सांस्कृतिक है और वे जातियाँ प्रकृति के अधिक निकट हैं। इसी से स्त्री-पुरुष के बीच विभेद करने वाली मानसिकता से जनजातीय भाषाएँ कम ग्रस्त या मुक्तप्राय हैं। सभ्यता में बढ़ी-चढ़ी जातियों की भाषाओं में वाक्य-प्रयोग के घटकों में भी लिंग-भेद की छाया अधिक दिखती है; साथ ही पुंलिंग प्रयोग में ही स्त्रीलिंग को समाहित मानने की जबरदस्ती भी खूब दिखाई देती है। फिर, यदि सभ्यता का विकास अधिक (वैज्ञानिक-लोकतांत्रिक मूल्यों की दृष्टि से) हो जाने के कारण स्त्री-पुरुष के बीच का विभेद कम होते गया, तो तत्-तत् भाषा में लिंग-भेद की सूचनाएँ भी धीरे-धीरे खोती जाती हैं। यह बात हम 'हिंदी' और 'अंग्रेजी' भाषाओं के संदर्भ में समझ सकते/सकती हैं। 'हिंदी' में जहाँ लिंग-भेद बहुत मजबूत अवस्था में है, वहीं 'अंग्रेजी' में अब इसकी धुँधली छाया भर रह गई है। यह बात थोड़ी देर में स्पष्ट हो जाएगी।

भाषा का विवेचन करके नियम निर्धारित करता है 'व्याकरण'। इसलिए, जब तक भाषा में लिंग-भेद का भाव बना रहेगा, वह व्याकरण के नियमों में भी झलकता रहेगा। अर्थात, कहा जा सकता है कि व्याकरण का लिंगभेदी होना भाषिक समाज के लिंग-भेदी होने का परिणाम है। फिर भी, वैयाकरण पूरी तरह निर्दोष नहीं कहला सकता। कारण है, उसकी 'पुत्रोत्सव'वादी मानसिकता। लिंग को लेकर व्याकरण-संसार में एक विचार व्याप्त रहा है कि बड़ा, स्वतंत्र या कठोर के वाचक शब्द पुंलिंग श्रेणी में आते हैं तथा छोटा, पराधीन या नाजुक के वाचक शब्द स्त्रीलिंग श्रेणी 333में होते हैं। यद्यपि यह बात सदैव घटित न हो सकी है, क्योंकि लिंग-धारणा के विकास का एक अपना जटिल इतिहास है। परंतु, भाषा-विकास में उक्त तरह के कोटीकरण को मोटे तौर पर स्वीकृति प्राप्त है। वैयाकरण उसमें कुछ अपनी तरफ से मजबूती ला देते हैं, जब वे भाषा का व्याकरण लिखने बैठते हैं। इस विसंगति का एक प्रमुख आधार वैयाकरणों की पाँत में स्त्री की नगण्यता भी है, वैसे इक्की-दुक्की स्त्री वैयाकरण होकर भी क्या कर सकती है जबकि पितृसत्तात्मक सोच सर्वाच्छादी है? जब पंडित किशोरीदास वाजपेयी 'आत्मा' के स्त्रीलिंग और 'परमात्मा' के पुंलिंग होने का तर्क पेश करते हैं तो बात खुलकर सामने आ जाती है। उनका कथन है - “आत्मा तो ईश्वर के अधीन है, स्वतंत्र नहीं है। परमात्मा स्वाधीन है, स्वतंत्र है। स्वतंत्रता की व्यंजना के लिए परमात्मा पुंलिंग में तथा पराधीनता के प्रदर्शन के लिए आत्मा स्त्रीलिंग में है।” ('हिंदी शब्दानुशासन', पृ. 182) स्पष्ट होता है कि स्त्री और पुरुष को लेकर गुणों या सामाजिक व्यवहार के कोटीकरण की लिंगभेदी-अलोकतांत्रिक मानसिकता 'व्याकरण' जैसे तटस्थ विवेचन के दावेदार शास्त्र में किस प्रकार प्रविष्ट हुई है। सदियों पहले से ही निर्मित किए गए इस झूठ से वैयाकरण भी बुरी तरह ग्रस्त दिखता है कि स्त्री पुरुष के सामने हीन, नाजुक और गुलाम होती है। यानी, वैयाकरण अपने विवेचनात्मक दायित्व का लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुसार निर्वाह न कर पाने की स्थिति में, स्त्री को अबला बनानेवाली अंतरराष्ट्रीय सांस्कृतिक परियोजना का (अनजाने में?) एक हिस्सा बन जाता है।

'लिंग' की अवधारणा का मजबूती से बने रहना (हिंदी-) व्याकरण पर पुरुषवादी होने का आरोप लगने की पृष्ठभूमि बनाता है। इसका सबसे पहला और बड़ा प्रमाण तो यही है कि इस अर्थ में पाणिनि और 'साहित्यदर्पण'-कार विश्वनाथ द्वारा प्रयुक्त 'व्यक्ति' शब्द को हटाकर (हिंदी-) व्याकरण ने 'लिंग' शब्द को अपनाया। यदि भाषा में भी पुरुष और स्त्री की भेदकता दिखलाना जरूरी ही था, तो उसके लिए पारिभाषिक शब्द के रूप में पुरुष-यौनांग 'लिंग' को ही क्यों चुना गया? यह चुनाव क्या उसी प्रकार नहीं है जिस प्रकार 'नारी' के व्यक्तित्व की पहचान 'नर' से उसके संबंध का मोहताज हो, जबकि जीववैज्ञानिक आधार पर 'नर' की पहचान ही 'नारी' (के जननी होने के कारण उस) के मोहताज होनी चाहिए। नारी-यौनांग 'योनि' को पारिभाषिक शब्द क्या नहीं बनाया जा सकता था, जो व्यापकतर अर्थ रखता है, न सिर्फ जीवविज्ञान की दृष्टि से, अपितु भाषा के सांस्कृतिक अर्थविज्ञान की दृष्टि से भी। 'पुंलिंग' व 'स्त्रीलिंग' की जगह 'पुंयोनि' व 'स्त्रीयोनि' शब्द निश्चित रूप से सटीक होते। 'योनि' का अर्थ जाति-प्रजाति तक चला जाता है, जबकि 'लिंग' का अर्थ 'चिह्न' तक ही सिमटकर रह जाता है। पंडित किशोरीदास वाजपेयी ने अपने 'हिंदी-शब्दानुशासन' में 'लिंग' की जगह पारिभाषिक शब्द के रूप में 'व्यक्ति' शब्द का प्रयोग कर अवश्य तर्क-बुद्धि का परिचय दिया है; भले वे इस बात पर सदा कायम नहीं रह सके हैं। 'योनि' से भी आपत्ति थी तो व्याकरण कोई तीसरा शब्द भी चुन सकता था, जैसा अंग्रेजी का 'जेंडर' शब्द है। हिंदी-संस्कृत भाषाओं की दिक्कत यह भी है कि उनमें प्राकृतिक लिंग 'sex' और सांस्कृतिक/व्याकरणिक लिंग 'gender' के वाचन के लिए गिन-चुनकर एक ही शब्द है और वह है अभागा 'लिंग'।

भाषा और उसके व्याकरण में लिंग-भेद या 'लिंग' अवधारणा के उपस्थित रहने का क्या अर्थ है? यानी, किस आधार पर कहा जा सकता है कि किसी भाषा में 'लिंग' की सत्ता है? लोक में स्त्री-पुरुष जातियों के वाचक शब्द भाषा में तो रहते ही हैं, जैसे लड़का - boy, लड़की - girl या पिता - father, माता - mother। परंतु, इनके रहने मात्र से भाषा में लिंग का अस्तित्व सिद्ध नहीं हो जाता। कारण कि इन प्रकार के अर्थों (पदार्थों) के वाचक शब्द उसी प्रकार माने जा सकते हैं, जिस प्रकार आदमी - घोड़ा, लड़की - शेरनी दो अलग-अलग स्वतंत्र अर्थों के वाचक शब्द हैं। लड़का-लड़की जैसे शब्दों का अर्थ-भेद प्राकृतिक लिंग (sex)-गत अर्थभेद है और आदमी-घोड़ा जैसे शब्दों का अर्थ-भेद प्राकृतिक जाति (प्राणी-वर्ग)-गत अर्थभेद है। बस, इतना-सा अंतर है।

परंतु, यह तो है लौकिक अर्थ के क्षेत्र में ही। जब तक व्याकरणिक अर्थ (व्याकरणिक कोटि) के रूप में 'लिंग' (gender) की भूमिका न दिखाई दे, तब तक भाषा (व्याकरण) में 'लिंग' की सत्ता अमान्य है। यानी, लड़का-लड़की जैसे शब्दों का लिंग-गत अर्थभेद भाषा में इनके प्रयोग-भेद के रूप में ढलता दिखलाई पड़े, तभी माना जाएगा कि भाषा में 'लिंग' की सत्ता है। उदाहरण से बात स्पष्ट करें। अंग्रेजी में sex और gender को लेकर प्रयोग-संबंधी (क्रिया, विशेषण या किसी संबंधसूचक) तत्व में कोई भेद नहीं दिखता - Boy goes है तो Girl goes ही है। क्रिया समान ही है दोनों के लिए। पर, हिंदी में 'लड़का' के लिए 'जाता है' प्रयुक्त होता है, तो 'लड़की' के लिए 'जाती है'। हिंदी में 'लड़का' व 'लड़की' को लेकर प्रयोग-भेद है; क्योंकि हिंदी भाषी समाज में 'लड़का' व 'लड़की' को लेकर व्यवहार-भेद गहरा है। संस्कृत के क्रिया रूपों (तिङन्तों में कोई लिंग-भेद नहीं है - 'रामः गच्छति' तो 'सीता गच्छति'। पर, इतना ही देखकर यह न समझ लेना चाहिए कि संस्कृत भाषा लिंग-भेदी नहीं है। कृदन्त क्रिया रूपों या विशेषणीभूत कृदंतों का भी विशाल संसार है जो गहन लिंगभेद का शिकार है - 'रामः गतवान्' तो 'सीता गतवती'। इसके अलावा, विशेषण और अन्य पुरुष के सारे सर्वनाम लिंग-भेद पर खड़े हैं।

पितृसत्तात्मक मनुवादी संस्कृति में ढली भाषा से लिंगभेद-हीन होने की उम्मीद भी कैसे की जाएगी? अंग्रेजी भाषा की मूल भाव-प्रकृति लिंगभेद को नहीं मानती, क्योंकि अंग्रेजी भाषी समाज में स्त्री-पुरुष भेद अपेक्षाकृत हल्का हो चुका है। कहने के लिए तो अंग्रेजी भाषा में पुंलिंग (masculine gender); स्त्रीलिंग (feminine gender); नपुंसक (क्लीब) लिंग (neuter gender); और उभयलिंग (comman gender) हैं, पर भाषिक प्रयोग में इनकी सत्ता प्रायः नहीं दिखती। अन्य पुरुष (third person) के तीन सर्वनाम (he,she, it) हैं - बस, इन्हीं से पता चलता है कि अंग्रेजी में पुंलिंग, स्त्रीलिंग व नपुंसक लिंग नामक कोई चीज भी है। फिर, इन सर्वनामों से बने सार्वनामिक विशेषण his, her,its आदि हैं, जिनसे भी 'जेंडर' नामक तत्त्व की सूचना मिलती है। शेष कोई प्रमुख क्षेत्र है ही नहीं, जिनसे पता चले कि अंग्रेजी भाषा पुरुष व स्त्री में भेद करती है। फिर, चौथा बहुकथित comman तो सिर्फ कहने की बात है। उसका सूचक तो कोई सर्वनाम या सार्वनामिक विशेषण भी नहीं है, जिससे संकेत मिले कि अमुक शब्द में है। परंतु, हिंदी में जब हम यह कहते हैं कि 'वह जाती है', फिर 'वह जाता है', तो स्पष्ट होता है कि प्रथम वाक्य का कर्ता 'वह' स्त्रीलिंग है, दूसरे वाक्य का कर्ता 'वह' पुंलिंग है। यानी, रूप एक होने के बावजूद ये दोनों 'वह' अलग-अलग अर्थों (स्त्री व पुरुष) के वाचक हैं। व्याकरण रूप को महत्त्व देता है, इसलिए कहा जा सकता है कि हिंदी के सारे सर्वनाम उभयलिंगी (comman gender) हैं - वह-वे, यह-ये, कौन, जो...सो (जिन...तिन), कोई, क्या, तू-तुम, मैं-हम। सभी एक ही रूप में दोनों लिंगों में प्रयुक्त होने की क्षमता रखते हैं अथवा स्त्रीलिंग और पुंलिंग दोनों अर्थों का वाचन हिंदी सर्वनाम करते हैं। अंग्रेजी में उभयलिंग तो सिर्फ कहने भर को है। फिर, बाकी तीन लिंग भी अंग्रेजी में क्षीण अस्तित्व ही प्रायः रखते हैं, वह भी कुछ संस्कार (he, she, it) रूप में, जो पुराने युग का अवशेष मात्र है। परंतु, हिंदी भाषा (-व्याकरण) में तो लिंग-भेद बड़ी दृढ़ता से बैठा हुआ है।

भाषा में 'लिंग' का अस्तित्व मानने का एक और क्षेत्र है - 'व्युत्पत्ति' या 'शब्द-निर्माण'। यद्यपि यह क्षेत्र 'व्याकरण'-बाह्य है। शब्द तो लोक के खेत में स्वतः आवश्यकतानुरूप पैदा होते रहते हैं अथवा जरूरत के हिसाब से लोक के कारखाने में बनकर प्रयोग में चलते दिखते हैं। वैयाकरण का कार्य प्रयोग/व्यवहार में दिख रहे शब्दों की निर्माण-प्रक्रिया का विवेचन भर कर देना है, शब्द बनाना नहीं। व्याकरण शब्दों की व्युत्पत्ति का विवेचन भी अब जाकर करने लगा है। प्राचीन काल में उसके लिए अलग संप्रदाय (स्कूल) था, जिसका नाम 'निरुक्त' था। खैर! आज तो 'व्युत्पत्ति' संप्रदाय व्याकरण का अनिवार्य अंग-सा बना हुआ है।

'व्युत्पत्ति' में देखा जाता है कि 'लिंग' की स्पष्ट भूमिका है। हिंदी और संस्कृत में तो है ही, अंग्रेजी में भी है। कुछ खास प्रत्यय ('स्त्री-प्रत्यय') कई भाषाओं में हैं, जो पुंलिंग शब्दों में लगकर स्त्रीलिंग शब्द व्युत्पन्न करते हैं - ऐसी व्यवस्था है, जिसका उल्लेख उन-उन भाषाओं के व्याकरणों में होता है। जैसे - लड़का+ई = लड़की, बाल+आ = बाला। god+ess = goddess, hero=ine = heroine । भाषा की यह व्यवस्था जिसका संधान व्याकरण ने किया है, स्त्रीलिंग को पुंलिंग के सामने कमतर आँकने की मानसिकता की देन है। क्या व्याकरण का यह दोष है अथवा लोक/भाषा में चल रही शब्द-निर्माण की प्रक्रिया की निर्दोष व्याख्या मात्र है? चाहे शब्द-निर्माण में लोक कितना भी स्वतंत्र हो, पर उसकी प्रक्रिया को 'पुंलिंग शब्द (स्त्री) प्रत्यय' के रूप में विवेचित करने और इस प्रकार पुंलिंग शब्दों को मूल और स्त्रीलिंग को व्युत्पन्न (गौण) बनाने का दोष तो व्याकरण ने ही अपने सिर पर लिया है। व्याकरण चाहे अपनी सीमा की कितनी भी सफाई दे, पर 'प्रकृति+प्रत्यय' कल्पना का ढंग तो थोड़ा-बहुत बदल ही सकता है, जिससे स्त्रीलिंग शब्दों को द्वितीयक (व्युत्पन्न) ही मानने की रूढ़ि टूटे। पर, नहीं। संस्कृत व्याकरण में तो स्त्री प्रत्यय मात्र हैं, पुंलिंग प्रत्यय नहीं। यानी, संस्कृत व्याकरण में पुंलिंग की प्राथमिकता का कोई विकल्प न सोचा गया है। हिंदी व अंग्रेजी में भी कमोबेश यही स्थिति है, पर थोड़ा-सा फर्क है। इसकी चर्चा आगे करेंगे। डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह की पुस्तक 'भाषा का समाजशास्त्र' में कहा गया है कि मुंडा भाषाओं में मूल शब्दों में पुरुषवाचक व स्त्रीवाचक अंशों/शब्दों को जोड़कर पुंलिंग व स्त्रीलिंग अर्थों की सूचना दी जाती है। ('भाषा का समाजशास्त्र', डॉ. राजेंद्र प्रसाद सिंह), पृ. IX-X) यदि ऐसा है तो निश्चय ही हिंदी-अंग्रेजी-संस्कृत आदि से मुंडा भाषाओं की लिंगगत व्युत्पत्ति अधिक तर्कपूर्ण है, क्योंकि व्युत्पत्ति ऐसी है ही नहीं कि स्त्रीलिंग-पुंलिंग में से किसी की किसी पर सत्ता सिद्ध हो। डॉ. सिंह ने इसका कारण यह बतलाया कि वे भाषाएँ अधिक प्राचीन हैं, इसलिए लिंग-भेद की अवधारणा उनमें धुँधली-सी है, प्रारंभिक अवस्था में है। भाषावैज्ञानिकों की मान्यता है कि पुंसत्व व स्त्रीत्व का लिंग-भेद बाद की घटना है।

'व्युत्पत्ति' पर विचार करते हुए यह भी ध्यातव्य है कि बहुत-से पुंलिंग व स्त्रीलिंग शब्द-युग्म एकदम स्वतंत्र शब्द होते हैं। जैसे पिता-माता (father-mother), पति-पत्नी (husband-wife), लड़का-लड़की (boy-girl) आदि। यहाँ ध्वनि परिवर्तन के किसी ऐसे नियम का संधान नहीं किया जा सकता जो 'पिता' शब्द से 'माता' को सिद्ध कर सके और इस प्रकार किसी ऐसे प्रत्यय की कल्पना नहीं की जा सकती जो 'पिता' में लगकर 'माता' शब्द की व्युत्पत्ति करता दिखे। ('माता' से 'पिता' की व्युत्पत्ति दिखलाने की कोशिश तो खैर वैयाकरण का पितृसत्तात्मक मन करेगा ही नहीं), फिर भी वैयाकरण बाज कब आया है? हर शब्द की व्युत्पत्ति दिखलाने का प्रयत्न करता ही है। क्या इसलिए कि स्त्रीलिंग शब्द को स्वतंत्र देखना वैयाकरण के पितृसत्तात्मक मस्तिष्क को अग्राह्य है, जो वह लिंगगत ऐसे शब्द युग्मों में भी स्त्रीप्रत्यय-जन्य व्युत्पत्ति की कथा गढ़ता है? पाणिनि ने 'पति' से 'पत्नी' की व्युत्पत्ति सिद्ध करने की जो व्याख्या दी, यह उनकी विवशता हो सकती है, वास्तविकता नहीं। 'पत्युर्नो यज्ञ संयोगे' (अष्टाध्यायी 4-1-33) - पति के यज्ञ कार्य में सहयोग प्रदान करने से 'पत्नी' की व्युत्पत्ति, स्त्री की निम्नतर सामाजिक स्थिति की आख्यात्री है। स्त्री का पत्नीत्व उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व की समाप्ति और 'पति' नामक मर्द-विशेष के सुख/कल्याण-साधन में उसके विलीनीकरण का पर्याय बना रहा है - यह त्रासद सच ही पाणिनि को 'पति' से 'पत्नी' शब्द की उक्त प्रकार से सिद्धि करने को विवश कर सका। इस पाणिनीय व्युत्पत्ति की छाया में महाभाष्यकार द्वारा यह वितर्क उठाया गया कि जब शूद्र को वेदपाठ या यज्ञादिक का अधिकार ही नहीं है तो शूद्र पुरुष की ब्याहता को उसकी 'पत्नी' कैसे कहा जा सकता है? तब खुद उन्होंने समाधान दिया कि लक्षणा से ऐसा कहा जा सकता है। (“यज्ञ-संयोग इत्युच्यते, तत्र नेदं सिध्यति-इयमस्य पत्नी। क्व तर्हि स्यात्। पत्नी-संयाजा इति, यत्र यज्ञसंयोगः। नैष दोषः। पतिशब्दो यमैश्वर्यवाची।सर्वेण गृहस्थेन पंचमहायज्ञा निर्वर्त्याः। यच्चादः सायं प्रातर्होम् चरुपुरोडाशान्निर्वपति तस्यासावीष्टे। एवमपि 'तुषजकस्य पत्नी' ति न सिध्यति। उपमानात् सिद्धं-पत्नीव पत्नी।” (-इति) 'महाभाष्य '- पतंजलि। “त्रैवर्णिकानामेव सभार्याणां यज्ञेऽधिकारो न तु शूद्रस्य। उपमा नादिति। अग्नि साक्षिपूर्वक पाणिग्रहणाश्रयादितिभावः।” - 'प्रदीप'-कैयट “न तु शूद्रस्येति। विद्याया अभावात् तस्यैवाऽनाधिकारे तद्भार्यायाः सुतरामिति भावः ननु पंचमहायज्ञेषु शूद्राणामप्यधिकारोऽस्तीति चेन्न, शूद्रस्येत्यस्याऽसच्छूद्रस्येत्यर्थात्। सच्छूद्राणामेव तेष्वधिकार इति प्रसिद्ध स्मृत्यादिषु। अग्नीति अग्निसाक्षिक-पाणिग्रहण निमित्त सादृश्यादित्यर्थः। इदमुपलक्षणम्, येषां तदपि नास्ति, तेषां सादृश्यान्तरं बोध्यम् ॥”) यानी 'यज्ञ-कार्य में सहयोग' का लक्ष्यार्थ 'सहयोग' लेकर शूद्र पुरुष की स्त्री को उसकी 'पत्नी' कहा जा सकता है। इन सब पचड़ों में पड़ने की जगह यदि 'पति' व 'पत्नी' जैसे शब्द-युग्म को 'आदमी' व 'घोड़ा' जैसे अलग-अलग स्वतंत्र शब्द मानकर चला जाता तो क्या गड़बड़ी होती? पुंलिंग की सत्ता कमजोर होती - यही न ? (औरत स्वतंत्र रह जाए, तो मर्दानगी किस काम की?) समग्रतः, वैयाकरण भी समाज में व्याप्त लिंगगत, जातिगत पूर्वग्रहों से स्वयं को बचा नहीं पाता।

प्रत्यय जोड़ने की जगह, लिंगगत व्युत्पत्ति का एक गौण क्षेत्र है - समास-प्रक्रिया द्वारा व्युत्पत्ति। जैसे - खिलाड़ी (पुं.) > महिला खिलाड़ी (स्त्री.); कोकिल (स्त्री.) > पुंस्कोकिल (पुं.)। Pea-Cock (पुं.) > Pea-Hen (स्त्री.)

यहाँ स्पष्ट है कि इस प्रकार की व्युत्पत्ति पुंलिंग से स्त्रीलिंग की ओर ही नहीं, बल्कि स्त्रीलिंग से पुंलिंग की ओर भी होती है। परंतु, यह व्युत्पत्ति का गौण क्षेत्र है। मुख्य क्षेत्र है प्रत्यय द्वारा व्युत्पत्ति, जहाँ पुंलिंगवाद का ही राज्य है- 'पुंलिंग (मूल शब्द) + स्त्री प्रत्यय = स्त्रीलिंग शब्द' - इस रूप में।

इतने विवेचन से स्पष्ट है कि यदि 'व्युत्पत्ति' को व्याकरण का अनिवार्य अंग माना जाए, तब तो अंग्रेजी भाषा में भी लिंग की सत्ता है क्योंकि उसमें लिंग की भूमिका व्युत्पत्ति में है। परंतु, यदि केवल भाषा-प्रयोग (पदत्व और वाक्य-रचना) को व्याकरण का विवेच्य मानें, तो अंग्रेजी भाषा में लिंग की सत्ता नहीं है क्योंकि वहाँ भाषा-प्रयोग में लिंग की कोई भूमिका नहीं है। हिंदी भाषा तो दोनों दृष्टियों से 'लिंग' की सत्ता को स्वीकार किए बैठी है।

(हिंदी) भाषा और उसके व्याकरण के पुरुषवादी होने के ढेर सारे संकेत मौजूद हैं। हम बिंदुवार विचार करते हैं।

(1) उपर्युक्त 'व्युत्पत्ति' नामक प्रकरण में स्त्रीलिंग की पुंलिंग के सामने हीनता प्रकट की गई है। इसी संदर्भ में, जब जातिवाचक संज्ञाओं से भाववाचक संज्ञाएँ बनाते हैं तो किसी जातिवाची पुं. शब्द को ही मूलवत मानकर आचरण करते हैं, भले उसका स्त्रीलिंग भी परंपरा में प्रतिष्ठित रहा हो। जैसे 'आचार्य' और 'आचार्या' दोनों शब्द मौजूद हैं, परंतु हम (आचार्य-कर्म/गुण हो या आचार्या-कर्म/गुण, दोनों के लिए) 'आचार्य + त्व = आचार्यत्व' शब्द ही बनाते हैं। इसी प्रकार 'अध्यक्ष' व 'अध्यक्षा' दोनों के कर्म को 'अध्यक्षता' ही कहते हैं। जैसे पंडित नेहरू ने सभा की अध्यक्षता की। इंदिरा गांधी ने सभा की अध्यक्षता की। ऐसा हम भूलकर भी नहीं कहते कि 'इंदिरा गांधी ने सभा की अध्यक्षाता की।'

(2) व्याकरण में 'एकशेष' की प्रक्रिया भी व्याख्यायित हुई है। लिंग के क्षेत्र में भी 'एकशेष' अपना काम करता रहा है। भाषा-प्रयोग में स्त्रीलिंग, पुंलिंग दोनों श्रेणियों के शब्द मौजूद रहने पर यदि 'एकशेष' करना चाहें तो हम प्रायः 'पुंलिंग' शब्द को रख लेते/लेती हैं और स्त्रीलिंग शब्द को उसी में समाहित मान लेते/लेती हैं। संस्कृत में 'माता च पिता च' की जगह 'पितरौ' शब्द रख दिया गया और 'मातृ-पितरौ' (माता-पिता) का अर्थ इसी से निकलने लगा। 'मातरौ' भी कहकर उसमें 'पिता' को समेटा जा सकता था, परंतु वैसा नहीं किया जा सका। कारण यही हो सकता है कि भले 'मनुस्मृति' ने कहने के लिए 'सौ आचार्यों के बराबर पिता का महत्त्व (है) तथा पिता से सौगुना माता का महत्त्व (है)' कहा है, पर मनुवादी परंपरा में यथार्थ तो यही है कि पुरुष के आगे स्त्री का मूल्य ही क्या है? 'एकशेष' की उक्त प्रक्रिया ने 'पिता' के बराबर भी 'माँ' को न रहने दिया और 'पिता' में ही 'माँ' को विलीन कर छोड़ा। कालिदास ने 'रघुवंशम्' में कहा - 'जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ' अर्थात संसार के माँ-बाप पार्वती और परमेश्वर (शिव) की मैं वंदना करता हूँ, तो उसी परंपरा में उनकी मानसिकता फिट हुई लगती है। ठीक है कि भाषा की संरचना सदियों की समाज-गति का परिणाम है, परंतु असाधारण व्यक्ति उसमें अपनी तर्कबुद्धि से (लोकतांत्रिक सुधारार्थ) कुछ विचलन तो ला ही सकते हैं। कुछ नहीं तो 'पितरौ' की जगह कालिदास 'मातृ-पितरौ' लिख सकते थे। उनका पक्षपात तो इसी से साफ हो जाता है कि पत्नी (पार्वती) का निर्विशेषण नाम भर लिखते हैं, पर पति (शिव) को सीधे 'परमेश्वर' बना डालते हैं।

'एकशेष' के ढेर सारे प्रयोग हमसे होते हैं। समाज का मानसिक झुकाव जिधर होता है - दो लिंगों में से उसी एक का ग्रहण कर शेष को उसी में वह समाहित मान लेता है। संकेत स्पष्ट है कि पुरुष वर्चस्व के इस समाज में प्रायः पुंलिंग रह जाता है और स्त्रीलिंग छूट जाता है। जैसे 'बच्चे और बच्चियाँ खेल रहे हैं।” - ऐसा वाक्य प्रयोग करने में हम परेशानी का अनुभव करते/करती हैं (क्योंकि स्त्री को अलग से जगह देने में समाज ही नहीं, सरकार भी परेशानी का अनुभव करती है और उसे पुरुष/पति के घर में ही ठूँस देती है, भले उसकी अलग से नौकरी हो)। हम 'एकशेष' में बोलते/बोलती हैं - 'बच्चे खेल रहे हैं।' इसी प्रकार, 'पचास आदमी बैठ सकते हैं' का प्रयोग कर हम मानकर चलते/चलती हैं कि इसमें 'औरतें' भी आ गईं। पर, 'औरतें बैठ सकती हैं' - इस प्रयोग में हम मानकर चलते/चलती हैं कि इसमें 'आदमी' नहीं आ पाते। (बेचारा पुरुष! औरत की जगह में बैठकर अपनी मर्दानगी को बट्टा लगाने से डरता है। औरत की कमाई खाना उसके पौरुष को कब रास आएगा? वह तो औरत को नौकरी से हटवा कर ही मूँछें टाइट रख सकता है, भले अपनी बेरोजगारी में उसे भी भूखा मार डाले।) अंग्रेजी में भी man का प्रयोग कर woman को उसमें स्वतः समाहित मान लेते हैं/लेती हैं; परंतु इसका उलटा कभी नहीं होता।

भाषा में कार्यरत यह पूरी प्रवृत्ति पितृसत्तात्मक सामाजिक संरचना के उस विराट दोष की छाया है, जिसमें स्त्री को कहीं भी जगह न देने पर मौन सहमति है। हर जगह 'पुत्र' शब्द चला है, 'भाई' शब्द चला है, 'भाई-चारा' शब्द चला है। लगता है 'बहन' रहती ही नहीं दुनिया में। 'हिंदू-मुस्लिम-सिक्ख-ईसाई / सब आपस में भाई-भाई' का नारा कितने हिंसक रूप से अधूरा है। क्या यह उसी खंडित चेतना से नहीं निकला, जिससे गर्भ में या जन्म के बाद कन्याओं को साफ कर देने की खुराफाती सोच निकली? इसी तरह, अंग्रेजी में नियमावली के लिए manual, प्रबंध करने के लिए manage, अधिदेश के लिए mandate, डंदकंजम़, श्रम-घंटे के लिए manhour, साहसपूर्वक के लिए manfully, कृत्रिम के लिए man-made, ढंग के लिए manner, चाल चलने के लिए manooeuver, हवेली के लिए manor, श्रमशक्ति के लिए manpower, निर्माण करने के लिए manufacture, पांडुलिपि के लिए manuscript, मानवता के लिए manpower तथा बुरी तरह पीटने के लिए mangle जैसे शब्दों का चलन क्या उसी सामाजिकता की प्रतिच्छाया नहीं है, जिसमें किसी महत्त्वपूर्ण कार्य में woman को स्थान न दिया गया है, चाहे वह निर्माण हो, व्यवस्था हो, ताकत हो या ताकत-प्रदर्शन कर पीटना (घरेलू हिंसा?)।

हिंदी भाषा में कहीं-कहीं 'एकशेष' की प्रक्रिया में पुंलिंग भी स्त्रीलिंग में विलीन होते दिखा है, पर गहराई से देखें तो वहाँ भी पितृसत्ता का स्वार्थ नजर आता है। 'गायें/बकरियाँ चल रही हैं' - इस प्रयोग में पुंलिंग 'बैल/बकरे' भी आ जाते हैं, तो कारण यही है कि चूँकि समाज की स्वार्थबुद्धि 'गाय/ बकरी' की तरफ ज्यादा ढरी रहती है, इसलिए उन्हें प्रमुखता मिलती है। कहावत भी है - 'हे भगवान! इंसान को बेटा देना और जानवर को बेटी।' 'औरत के हक में' पुस्तक में तसलीमा नसरीन ने एक बंगला कहावत दी है कि 'अभागे की गाय मरती है और भाग्यवान की बीवी'। मानव में स्त्री को पुरुष से हीन मानने की प्रवृत्ति पशु जगत में स्वार्थवश उलटी हो जा रही है। इस स्वार्थबुद्धि के अलावा, क्षुद्रचेतन की बात आने पर भी कभी स्त्रीलिंग में पुंलिंग का विलीनीकरण दिखता है। जैसे 'जुएँ रेंगती हैं' या 'कोयलें कूक रही हैं'। चूँकि इन क्षुद्रचेतनों में लिंग-भेद से हमारे स्वार्थ में कोई अंतर नहीं आता, इसलिए हमने यहाँ 'स्त्रीलिंग' को महत्त्व दे दिया, तो हमें कोई घाटा तो नहीं है।

(3) पुंलिंग विशेषण से स्त्रीलिंग संज्ञा/सर्वनाम को भी विशेषित करने की प्रवृत्ति हिंदी भाषा में दिखती है, परंतु इसका विपरीत एकदम नहीं होता। जैसे 'सुंदर' (पुं.) विशेषण लड़की के लिए भी चल जाता है, पर 'सुंदरी' (स्त्री.) विशेषण 'लड़का' के लिए एकदम नहीं चलता। वैसे इस घटना को हिंदी में कम हो रहे लिंग-भेद के रूप में भी विश्लेषित किया जा सकता है। संस्कृत भाषा विशेषणों में अनिवार्यतः लिंग-भेद रखती है, जिससे हिंदी बहुत हद तक मुक्त हो चुकी है। हिंदी में अकारांत (पुं.?) विशेषणों के स्त्रीलिंगी रूप की जरूरत नहीं पड़ती, पर संस्कृताभिमानी जन वहाँ भी हस्तक्षेप किए बिना नहीं मानते। 'बुद्धिमान लड़की' को 'बुद्धिमती' बनाकर ही छोड़ते हैं। वैसे लिंग-भेद मिटना अच्छा ही है, पर उसके मिटने का रूप पुंलिंग को ही स्वीकार करके हो, यह प्रवृत्ति निश्चय ही स्त्री-विरोधी मानसिकता की देन है। यदि एक क्रिया रूप रखना ही है तो 'जाती है' जैसा रखकर भी हिंदी काम चला सकती है, पर लिंग-भेद मिटाने का रास्ता 'जाता है' से ही होकर जाए - यह मर्दानापन ही कहा जा सकता है। यहाँ तर्क यह नहीं है कि स्त्री व पुरुष की पोशाक का लिंग-भेद मिट रहा है - पुरुष पोशाकों की स्वीकृति में। कारण, पोशाक न पुरुष होती है, न स्त्री। वह सुविधाजनक या असुविधाजनक तो हो सकती है, परंतु स्त्री व पुरुष में कैसे बँट सकती है? यह तो कोई मूढ़ ही कह सकता है कि ओढ़नी-सलवार या ब्लाउज-साड़ी की जगह पैंट-शर्ट अपना कर लिंग-भेद मिटाने की स्त्रियों की प्रवृत्ति में उनका मर्दानापन का शिकार बनना है। लिंग-भेद मिटने का रास्ता स्त्री व पुरुष दोनों को साड़ी जैसी असुविधाजनक पोशाक में अँटाकर नहीं खुल सकता। यही ठीक है। परंतु, पोशाक का यह तर्क भाषा में नहीं चल सकता। 'जाता' व 'जाती' दोनों में से कोई भी न विशेष सुविधाजनक है, न असुविधाजनक। किसी एक को अपना कर लिंग-भेद मिटे तो आपत्ति की क्या बात है? परंतु, असली बात मिटाने के तरीके के पीछे काम कर रही मानसिकता की है। बेटियों को दुलार में लोगों द्वारा 'बेटा' या 'पुत्तर' कह दिया जाना खुशी का नहीं, दुःख का विषय ही है। बेटी को बेटी रूप में ही स्वीकार करते जाना, उस पर दुलार लुटाना या गर्व करना ही सही रास्ता है। एक अखबार में एक रोचक खबर पढ़ी कि लड़कियाँ अपने भीतर की हर हीन भावना को मिटाकर भाषा-प्रयोग के स्तर पर भी स्मार्ट बन रही हैं। अखबार ने दिल्ली की कुछ ऐसी होनहार नौकरीशुदा बालाओं की बदल रही भाषिक प्रवृत्ति पर निगाह करते हुए सूचना दी कि वे 'मैं जाता हूँ' जैसे प्रयोग ही अब धड़ल्ले से कर रही हैं। इस प्रवृत्ति को उनके द्वारा (सुविधाजनक) 'जीन्स' को अपना लेने की प्रवृत्ति से नहीं मिलाना चाहिए। यह बेटी के ऊपर बेटे को तरजीह देने की सामाजिकता में ढलने का उदाहरण अधिक लगता है। वैसे लिंग-भेद चाहे जिस रास्ते से मिटे, सुखद ही है। घी दाल में गिरे या भात में, बात तो एक ही है !

(4) हिंदी भाषा में जहाँ कहीं लिंग की अनिश्चितता होती है, वहाँ सिर्फ पुंलिंग का प्रयोग किया जाता है। जैसे 'कौन आ रहा है?' / 'कौन था?' परंतु, इसकी जगह यदि 'कौन आ रही है ?/ कौन थी ?' कहा जाता है, तो अर्थ ही बदल जाता है। तब, लिंग का अनिश्चय नहीं है। यह तो निश्चित हो चुका कि आने वाले का लिंग स्त्री. है, परंतु सवाल इसलिए पूछा जा रहा है ताकि पता चले कि वह स्त्री आखिर है कौन? उसकी पहचान क्या है?

(5) जहाँ कहीं लिंग-विशेष जानकर भी उसे प्रकट करना विवक्षित न हो, वहाँ पुंलिंग का प्रयोग होता है। जैसे किसी पुरुष को ही नहीं, किसी स्त्री को भी आते देखकर कहा जा सकता है - 'कोई आ रहा है।' इसकी जगह 'कोई आ रही है' नहीं चल सकता।

(6) वाच्य-प्रकरण में जब क्रिया कर्ता या कर्म के प्रभाव से मुक्त हो जाती है (यानी कर्मवाच्य भावे प्रयोग व भाववाच्य हो) तब हिंदी में वह पुंलिंग-एकवचन में होती है। जैसे राम ने खाया। सीता ने खाया। राम ने साथियों को बुलाया। यहाँ अब बैठा जाएगा।

संस्कृत व्याकरण का नियम है कि जहाँ लिंग-विशेष की विवक्षा न हो, वहाँ नपुंसक लिंग-एकवचन सहज रूप से होता है। यह स्थिति कहलाती है - 'लिंग सर्वनाम'। यही बात संस्कृत भाववाच्य में है। जैसे रामेण गन्तव्यम्। (राम को जाना है।) सीतया गन्तव्याम्। (सीता को जाना है।) कुछ लोग यह वितर्क रख सकते/सकती हैं कि चूँकि हिंदी में 'नपुंसक लिंग' नहीं है, इसलिए 'अलिंगता' या 'लिंग सामान्यता' या 'लिंग की अविवक्षा' अथवा भाववाच्य में हिंदी 'पुंलिंग' का प्रयोग करती है। अतः, हिंदी का पुंलिंग-प्रयोग पुरुषवादी नहीं, विवशता-जन्य है। परंतु, यह कहने वाले यह क्यों नहीं सोच पाते कि 'लिंग-सामान्यता' या 'लिंग-निरपेक्षता' का कार्य क्या स्त्रीलिंग नहीं कर सकता? फिर, संस्कृत में भी पुंलिंग व स्त्रीलिंग से इतर, जो लिंग कल्पित किया गया, वह 'नपुंस' (यानी, जो पुरुष न हो) के रूप में क्यों कल्पित हुआ? पुरुष लिंग का अभाव बतलाते, उसे नकारते जो लिंग कल्पित किया गया ('नपुंसक लिंग'), वह एक प्रकार से पुरुष लिंग को महत्त्व प्रदान कर ही रहा है। तभी तो उसके अभाव को 'लिंग सामान्यता' के लिए उपयुक्त मान ले रहा है। समाज में सेक्स (प्राकृतिक लिंग) से निरपेक्ष जनों को 'नपुंसक' (यानी, जिनमें पुंसत्व या मर्दानगी का अभाव हो) कहा जाता है। उनकी जनगणना अलग से न करके पुरुष-वर्ग में ही उन्हें गिना जाता रहा। पुंलिंग का वर्चस्व यहाँ भी सिद्ध है। नालायकी के लिए हम 'नपुंसक' शब्द का इस्तेमाल करते/करती हैं। जैसे 'यह सरकार नपुंसक हो गई'। यानी, सरकार अब मर्द न रह गई। व्याकरण ने ऐसा पारिभषिक शब्द क्यों नहीं बनाया जो पुंसत्व या स्त्रीत्व के प्रति निरपेक्षता का संकेत करे? 'नपुंसक' की जगह 'नपुंस्स्त्री' या 'अलिंग' क्यों नहीं ? या, 'स्त्रीतर' (जो स्त्रीलिंग न हो) ही क्यों न बन सका पारिभाषिक शब्द? स्पष्टतः व्याकरण की सोच पुरुषवादी है।

(7) 'अव्यय' शब्दों के लिंगहीन होने की व्यवस्था व्याकरण देता है। अतः, उक्त तर्क पर हिंदी-व्याकरण उन्हें पुंलिंग मानकर चलता है। संस्कृत व्याकरण उन्हें नपुंसक लिंग मानता है। क्रिया के विशेषण (क्रिया-विशेषण) भी स्थानीय आधार पर (यानी वचनहीन अलिंग रहनेवाली क्रिया का विशेषण होने से) अव्यय बन जाते हैं, अतः उनमें भी अलिंगता आ जाती है। इससे हिंदी-व्याकरण उन्हें पुंलिंग मानकर चलता है। जैसे राम अच्छा करता है। सीता अच्छा करती है। दोनों स्थितियों में रूप 'अच्छा' ही है, 'अच्छी' नहीं। यही तो पुंलिंगवाद है।

(8) सभी क्रियार्थक भाववाचक संज्ञाएँ हिंदी में पुंलिंग होती हैं (संस्कृत में नपुंसक लिंग)। जैसे 'पढ़ना अच्छा होता है।' इसे 'पढ़ना अच्छी होती है' नहीं लिख सकते। सबसे मूल बात तो यह है कि क्रियार्थक संज्ञाओं का निर्माण ही धातु + ना' पुंप्रत्यय से होता है, 'नी' स्त्रीप्रत्यय से नहीं। 'ग्रंथ पढ़ना चाहिए।' और 'पुस्तक पढ़नी चाहिए।' उदाहरणों में 'पढ़ना' और 'पढ़नी' (क्रियार्थक) संज्ञा नहीं हैं, बल्कि विशेषणात्मक स्थिति रखते हैं, जो यहाँ क्रिया के घटक बने हैं। जब भी क्रियार्थक संज्ञा बनेगी तो रूप पढ़ना आदि (पुंलिंग-सिद्ध) ही होंगे, यह तय है।

(9) समास के क्षेत्र में भी हिंदी ने पुंलिंग की विजययात्रा ही जारी रखी है। द्वंद्व समास से बने समस्त पद हिंदी में पुंलिंग होते हैं। जैसे राजा-रानी आए। स्त्रीलिंग होने की नौबत तभी आती है, जब 'द्वंद्व समास' के सारे पद पहले से ही स्त्री. हों। जैसे सीता-गीता-रीता गयीं। 'समाहार द्वंद्व' तो प्रायः पुंलिंग एकवचन ही होता है (संस्कृत में नपुंसक लिंग, एकवचन होता है)। जैसे कंकर-पत्थर, तन-बदन। 'दाल-रोटी' आदि स्त्रीलिंग हैं तो तभी जब इसके सभी पद पहले से ही स्त्रीलिंग हैं। वैकल्पिक द्वंद्व में भी पुंलिंगवादी वर्चस्व का यही नियम लगता है। जैसे पाप-पुण्य, धर्माधर्म आदि पुंलिंग हैं। तत्पुरुष समास में तो उत्तर पद प्रधान होता है, अतः वहाँ यदि उत्तर पद स्त्रीलिंग हो जाता है, तो समस्त पद के स्त्रीलिंग होने की मजबूरी है ही। अन्यथा समस्त पद पुंलिंग ही होता है। जैसे 'राजपुत्री' स्त्रीलिंग है, परंतु 'यशोदानंदन' पुंलिंग। समास की यह व्याख्या उसी सामाजिक विसंगति का प्रतिनिधित्व करती है, जिसके तहत किसी समूह में एक भी मर्द मौजूद हो तो वह पूरे समूह को अपना वशीभूत कर लेता है।

(10) स्त्रीलिंग शब्द को पुंलिंग की तुलना में हीनतर समझा जाता है - इसका एक और संकेत व्याकरण में है। ऊनवाचक अर्थ में स्त्रीप्रत्यय का प्रयोग स्वीकृत है। डिब्बा + इया = डिबिया। 'डिब्बा' (पुं.) से 'डिबिया' (स्त्री.) की हीनता प्रसिद्ध है। (इस व्यवस्था में अपवाद बहुत कम हैं - 'अरण्य' का स्त्री. 'अरण्यानी' अथवा 'डोरा' का स्त्री. 'डोरी' अपेक्षाकृत बृहत अर्थ में है।)

इन रूपों में (हिंदी-) व्याकरण में 'लिंग' नामक अवधारणा प्रतिष्ठित है, जो 'व्याकरण' जैसे शास्त्र (जो देश, संप्रदाय, नस्ल आदि के आधार पर शब्दों के बीच भेदभाव नहीं करता) में भी स्त्री व पुरुष के बीच भेदभाव खड़ा करती है। इतना ही नहीं। स्त्री को पुरुष के सामने तुच्छ भी ठहराती है। परंतु, बात यह है कि व्याकरण का इस तरह से पुरुषवादी होना मूलतः भाषा के पुरुषवादी होने का कुपरिणाम है और वह भाषा स्पष्टतः पितृसत्तात्मक मानसिकता वाले समाज की उपज है; परंतु गौणतः वैयाकरणों के भी पुरुषवादी होने का कुफल है - व्याकरण का पुरुषवादी होना, जैसा कि पीछे भी कहा गया है। पंडित कामता प्रसाद गुरु ने 'हिंदी व्याकरण' के 'शब्द-साधन' नामक खंड में 'लिंग' का विवेचन करते हुए कहा कि कुछ धर्म जो केवल स्त्रियों में संभव हैं, उनके सूचक स्त्रीलिंग शब्दों के पुंलिंग जोड़े संभव नहीं हो सकते। उदाहरणरूप में उन्होंने जो शब्द पेश किये (सती, गाभिन, सौत, धाय आदि) वे विवेच्य हैं। (हिंदी व्याकरण, पृ. 171) गुरुजी यहाँ पर स्त्री के प्राकृतिक धर्म (जैसे गर्भधारण) की ही पाँत में पितृसत्तात्मक संरचना द्वारा थोपे गए बोझों (धाय, सौत, सती आदि) को भी बैठा लेते हैं। अब सोचा जाए कि क्या 'धाय' की भूमिका सिर्फ स्त्री निभा सकती है? इस शब्द का पुंलिंग न होना भीषण अन्याय है, जिस पर गुरुजी जैसे मौलिक चिंतक ने भी मुहर लगा दी है। इससे भी भीषण अन्याय तो स्त्री के धर्म के रूप में सतीत्व को उपस्थित करना है। (अक्सर समाज द्वारा थोपे गए) पति की गुलामी करने और उसकी चिता पर जल मरने (और अक्सर स्त्री को जबरन मार डालने) की क्रूरता को भी स्त्री का सहज धर्म (सतीत्व) मान लेना वैयाकरण की किस असंवेदनशीलता का प्रमाण है। ऐसे उदाहरण पेश कर वह क्या समाज के लिंग-अन्याय को मजबूती प्रदान नहीं करता? स्त्री को कमजोर, घरेलू, विद्या/प्रतिभा से दूर, देह-बोध/सौंदर्य में ही ग्रस्त आदि हीन रूपों में उदाहरण बनाना आम है। गुरु जी ने विशेषण-चर्चा के दौरान 'पतिव्रता सीता' का भी उदाहरण दिया है। (हिंदी व्याकरण, पृ. 88) क्या आवश्यकता है ऐसे उदाहरणों की, जो विवाह में स्त्री-पुरुष समता के लक्ष्य को करारा झटका देते रहें और स्त्री के व्यक्तित्व का गला घोंटते रहे? ऐसे उदाहरण तो स्त्री को पुनः 'करवा चौथ' की गुलाम, अंधी गली में धकेलने की फिल्मी-बाजारी परियोजना का ही हिस्सा बनने को तैयार दिखते हैं। 'हिंदी व्याकरण का इतिहास' के लेखक अनंत चौधरी ने 'नागरी लिपि और हिंदी वर्तनी' पुस्तक में किसी प्रसंग में एक उदाहरण दिया है - 'लड़की शराब पिए जा रही थी।' ('नागरी लिपि और हिंदी वर्तनी', पृ. 402) क्या इसकी जगह 'लड़की भाषण दिए/किताब पढ़े/कुश्ती किए जा रही थी' जैसे उदाहरण लेखक को नहीं सूझ सके? इसी तरह पं. किशोरीदास वाजपेयी ने 'हिंदी शब्दसुशासन' के 'वाक्य विचार' में उदाहरण दिया है - “बेटी पराये घर का धन होती है।” ऐसे उदाहरण स्त्रीलिंग में जन्म लेने के प्राकृतिक संयोग का दंड लड़की को देने का औचित्य ठहरा देते हैं - एक ही साथ उसे वस्तु (धन) भी बना देते हैं और पराया भी ठहरा देते हैं। (स्त्री-विरोधी उदाहरण देने की परंपरा दीर्घ है। 'अष्टाध्यायी' के 'कर्मणा यमभिप्रैति सम्प्रदायनम्' (1-4-32) के संदर्भ में वार्तिककार कात्यायन ने जो सूत्र दिया (“क्रियया यमभिप्रैति सोऽपिसंप्रदायनम्”) उसका उदाहरण दिया 'पत्ये शेते' (पति के लिए सोती है)। यह कौन-सा उदाहरण है भला? स्त्री के सारे व्यक्तित्व को नकार कर सिर्फ पुरुष की यौन दासी बना देने वाली कोढ़-मानसिकता पर मुहर लगा देना है - यह उदाहरण देकर।) भाषा और उसके व्याकरण से लिंग-भेद का अवसान किए बिना लिंग-भेद-रहित समाज स्थापित करने की, जेंडर-जस्टिस (लिंगाधारित न्याय) को सफल बनाने की लोकतांत्रिक प्रतिबद्धता का लक्ष्य कैसे पूरा हो सकता है?

लिंग-व्यवस्था के पैरोकार चाहे लाख कहें कि अर्थ-अभिव्यंजना संबंधी सुंदरता-सूक्ष्मता आदि भेदों के लिए लिंग जरूरी है, उपयोगी है; परंतु सत्य यही है कि लिंग नामक कोटि भाषिक संस्कृति में स्त्री व पुरुष भावों के बीच जितने सौंदर्य या माधुर्य की रचना नहीं करती, उससे ज्यादा वह लिंग-भेद पैदा करती है। समाज ही केवल भाषा नहीं बनाता बल्कि भाषा भी समाज को बनाती है। भाषा ही वह स्पेस है जहाँ जेंडरगत मिथ्या अस्मिताएँ गढ़ी जा सकती हैं। समाज के भेदभावों को (खासकर जेंडरजनित भेदों को) स्वाभाविकता प्रदान करने में अहम भूमिका निभाती दिखती है भाषा। जब तक व्याकरण में लिंग-व्यवस्था रहेगी तब तक सामाजिक लिंग-भेद को भी वह विचारधारात्मक सहयोग देती रहेगी। एक रोचक विसंगति द्रष्टव्य है। 'महाभारत-अनुशासन पर्व' के उमा-महेश्वर संवाद में व्याकरणिक लिंग को मूढ़ सामाजिकता तक में घसीटा गया है। वहाँ पतिव्रता स्त्री को सीख दी गई है कि पुंलिंग शब्दों के वाच्य पदार्थों (सूर्य, चंद्र, वृक्ष आदि) तक से वह अपने को बचाए। सिर्फ एक ही पुंलिंग उसके मन में-जीवन में रहे- उसका पति! वाह ! यह तो 'मानस' द्वारा निर्धारित नारी की उत्तम कोटि (जो स्वप्न में भी दूसरे पुरुषों को नहीं देखती) से भी एक बाँस आगे की बात है। स्त्री को (थोपे गए) पुरुष-विशेष के प्रति यौन-प्रतिबद्ध यानी 'पतिव्रता' बनाने की गुलामी-शिक्षा के इन मास्टरों से पूछा जाना चाहिए था कि जहाँ एक ही वस्तु के वाचक कई शब्द अलग-अलग लिंगों में हों, वहाँ स्त्री क्या करेगी ? जैसे संस्कृत में 'पुस्तक' नपुंसक लिंग है, 'ग्रंथ' पुंलिंग है तो वहाँ स्त्री को क्या करना चाहिए ताकि उसके पातिव्रत्य पर आँच न आए? चलिए, यह समस्या भी दूर हुई, क्योंकि पातिव्रत्य के कल्पकों की दृष्टि में स्त्री विद्या की अधिकारिणी ही नहीं है। परंतु, स्त्री खुद अपनी वैवाहिक स्थिति के वाचक संस्कृत शब्दों 'दार' (पु.), 'पत्नी'(स्त्री.), 'कलत्र' (नपुं.) के प्रसंग में क्या करेगी? किसके साथ रहेगी, किससे दूर? तीनों तो एक ही चीज हैं। क्या स्त्री तीनों के प्रति तटस्थ रहेगी? क्या खुद से तटस्थ रह सकती है वह? फिर, उसी की देह में 'योनि' स्त्री. पर 'भग' पुं.। स्त्री क्या करेगी उसका? दोनों एक ही अर्थ को कहते हैं। स्त्री पुंलिंग 'केश' व 'स्तन' रखेगी या...? 'पतिव्रता' होना कितना कठिन हो गया! की पराकाष्ठा हो गई। व्याकरणिक लिंग-व्यवस्था ने यहाँ तक करामात दिखा दी है । इसी से 'व्याकरण' से लिंग-भेद का अंत करना ही होगा।

व्याकरण से लिंग-भेद तो पूरी तरह तभी मिटेगा, जब भाषा से ही उसका अन्त हो जाएगा। परंतु, वैसा होने में काफी देर है, क्योंकि भाषा ठीक तभी होगी, जब समाज ठीक हो जाए - स्त्री-पुरुष भेदभाव की समाप्ति हो जाए। फिर, यह भी तो हो सकता है कि भाषा से लिंग-भेद मिट जाए, पर अवधारणा के स्तर पर 'व्याकरण' में लिंग मौजूद ही हो जैसा कि अंग्रेजी में है अथवा कुछ नहीं तो वैयाकरण मन में कार्यरत पितृसत्तात्मक मूल्य, उदाहरण देते समय अपना काम करते रहें - स्त्री को हीन रूप में और पुरुष को दबंग रूप में पेश करते। इसलिए कहना होगा समाज या भाषा में सुधारचाहे देर से ही हो, किंतु व्याकरण व वैयाकरण को तो अपने स्तर से ऐसे प्रयास शुरु कर देने चाहिए, जिससे लिंग-भेद व पुरुष-वर्चस्व की स्थितियाँ हतोत्साह होती जायें तथा स्त्री-सशक्तीकरण का संदेश अँगड़ाई लेने लगे। ऐसा भाषा से होते हुए देर-सबेर समाज तक भी पहुँचेगा। यद्यपि व्याकरण के पास प्रयास करने का अवकाश (स्पेस) कम है, पर जो कुछ है, उसी में वह अपना करे।

स्त्रीलिंग को न्याय देने और व्याकरण को लिंग-निरपेक्ष बनाने के प्रयास का यह मतलब नहीं होगा कि व्याकरण में प्रयुक्त 'कारक', 'कर्ता', 'पुरुष', 'तत्पुरुष' पारिभाषिक शब्दों को पुरुषवाची मानकर बदल डालें। पारिभाषिक शब्द चाहे जिस मानसिकता से बने हों (स्पष्टतः यहाँ पुरुषवादी मानसिकता तो है ही); पर आगे चलकर वे व्युत्पत्यर्थ-बंधन से मुक्त होकर संकेतक/प्रतीक मात्र रह जाते हैं । वैसे ही व्याकरण के कुछ स्त्रीवाची पारिभाषिक शब्द 'वृत्ति', 'सन्धि', 'संज्ञा', 'क्रिया', 'व्युत्पत्ति', 'निरुक्ति' आदि भी हैं, जो अब व्युत्पत्यर्थ-बंधन से मुक्त होकर तकनीकी शब्द मात्र बन चुके हैं। इस स्थिति में 'रमेश' ही नहीं, 'राधा' को भी 'कर्त्त' ही कहना होगा (जिस प्रकार प्रतिभा पाटिल को 'राष्ट्रपति' या मायावती को 'मुख्यमंत्री' ही कहते हैं) 'राधा' को 'कर्त्री' या 'कारिका' न कह सकेंगे। इसी तर्क पर 'लिंग' शब्द को भी पारिभाषिक शब्द के रूप में स्वीकारा जा सकता है। पीछे इन शब्दों पर जो भी आपत्त्यिा उठायी गई हैं, वे सब लिंग-भेदी समाजशास्त्र को खँगालने के लिए। लिंग-भेद मिटाने के लिए 'व्याकरण' को सर्वप्रथम 'व्युत्पत्ति' क्षेत्र में सार्थक हस्तक्षेप करना होगा। यानी, उसे 'लड़का' से 'लड़की' की व्युत्पत्ति करने से बचना होगा, god से godess की व्युत्पत्ति से बचना होगा और कहना होगा कि ये दोनों शब्द स्वतंत्र मूल शब्द (प्रातिपदिक) हैं; कोई किसी पर आश्रित या किसी से व्युत्पन्न नहीं। दोनों के अपने-अपने कारकीय या वैभक्तिक रूप चलते हैं। तब, उनमें चिपके लिंगगत अर्थ की छाया 'सुबंत' रूप बनते समय पड़ती है - जैसे आकारान्त होने पर भी 'लड़का' (पुं.) और 'लता' (स्त्री.) का रूपायन लिंगार्थ-भेद से अलग-अलग हो रहा है। इस प्रकार, 'व्युत्पादन' से लिंग को खारिज करने के बाद भी 'रूपायन' में वह बना रहता है। वाक्य में विशेषण, क्रिया, संबंधसूचक तत्वों में भी लिंग झलकता रहता है - 'रूपायन' का ही असर है यह। वह तो तब तक न हटेगा जब तक भाषा-संरचना न बदले। इसके लिए भाषिक समाज की मनोवृत्ति बदलनी चाहिए। (लड़की यदि 'मैं जाता हूँ' बोल रही है तो यह मनोवृत्ति बदलने का ही संकेत है। इसमें असंगति भी क्या है? 'हम जाते हैं' से सर्वत्र पुरुष-स्त्री दोनों काम चला ही रहे हैं, चाहे उनकी संख्या एक हो या अनेक) ।

यदि व्युत्पत्ति से लिंग को पूर्णतया खारिज करते हैं तो 'लड़का' या 'लड़की आदि को रूपांतरशील वर्ग का (विकारी) शब्द बतलाने हेतु परिभाषा में से यह बात हटानी होगी कि जिस शब्द में लिंग-वचन-कारक (विभक्ति)वश आकृति-परिवर्तन हो, वह विकारी शब्द है । तब कहना होगा कि जिस शब्द में 'वचन कारक' कृत रूपांतर हो सके, वह रूपांतरशील शब्द है, अन्यथा वह है 'अव्यय'। तब 'अव्यय' की परिभाषा से 'सदृशं त्रिषु लिंगेषु' (जो तीनों लिंगों में समान हो) अंश निकालना होगा। अव्यय की अरूपांतरशीलता की व्याख्या उसके 'प्रातिपदिक विभक्ति' कृत अरूपांतर में होगी, न कि लिंगकृत अरूपांतरशीलता में। इसी तरह क्रिया-पद की रूपांतरशीलता उसके लिंगगत परिवर्तन में नहीं, बल्कि ' तिङ् ' विभक्ति से या उसके स्थानापन्न कृदन्तों से वचनकृत रूपांतर में व्याख्यायित होगी। 'व्युत्पादन' से लिंग को पूर्णतः अपदस्थ करने की बात क्रांतिकारी होगी। क्यायह संभव है? ऐसा करने में कुछ उलझनें भी हैं। जैसे कृदन्तों या तद्धितान्तों के पुंलिंग-स्त्रीलिंग दोनों रूपों जैसे-जाता-जाती, बुद्धिमान-बुद्धिमती) को तब 'लड़का' व 'लड़की' की तरह हीदो स्वतंत्र शब्द (प्रातिपदिक) मानना होगा। तब व्याख्या करनी मुश्किल होगी कि ये विशेषणात्मक रूप दो तरह के क्यों हैं? जब 'लड़का' व 'लड़की' एक ही स्तर के दो स्वतंत्र शब्द हैं तो उनके ये विशेषणात्मक रूप अलग-अलग क्यों हैं ? प्रातिपदिककारी व्युत्पादक प्रत्ययों - कृत, तद्धित - को यदि हम लिंग-निरपेक्ष मानकर चलें तो भी मानना होगा कि व्युत्पन्न प्रातिपदिकों में फिर 'लिंग-प्रत्यय' लगकर उन्हें स्त्रीलिंग व पुंलिंग प्रातिपदिकों में ढाल देते हैं। लिंग-प्रत्यय लिंग-सापेक्ष ही तो हैं - स्त्रीप्रत्यय स्त्रीलिंगार्थ, पुंप्रत्यय पुंलिंगार्थ। इसका समाधान यदि यह करें कि जिस तरह कई तद्धित प्रत्यय खास 'अंत' वाले या खास शब्दों के साथ विहित हैं, उसी प्रकार ये लिंग-प्रत्यय खास लिंग के साथ विहित हैं। पर, यहाँ भी हमने 'लिंग' की व्युत्पादक भूमिका मान ही ली।

समग्रतः, 'अव्यय' आदि की परिभाषाओं के लिए 'लिंग' की विकारी भूमिका दिखलाना आवश्यक न होकर भी उक्त संदर्भ में 'लिंग' की विकारी भूमिका दिखलाना आवश्यक है। तब, वैयाकरण को यह व्यवस्था देनी चाहिए कि 'लड़का' शब्द में 'ई' प्रत्यय लगने से 'लड़की' शब्द बना है, साथ ही 'लड़की' शब्द में 'आ' प्रत्यय लगने से 'लड़का' शब्द बना है। यानी, 'द्विमुखी व्युत्पत्ति प्रक्रिया' है। अगर ऐसा करना ऐतिहासिक न लगे, तो भी पुंलिंग की दादागीरी समाप्त करने के लिए यह व्यवस्था वरणीय है। आखिर व्याकरण की समग्र व्यवस्था पूर्णतः ऐतिहासिक सत्यों पर आधारित कहाँ है? वह व्याख्या की संगति या सुविधा के लिए बहुधा कल्पना पर भी आधारित होती है। फिर, लिंग-संबंधी व्युत्पत्ति की उक्त व्यवस्था पूरी तरह अनैतिहासिक भी कहाँ है? 'आ' पुंप्रत्यय का व्युत्पत्ति में प्रयोग पंडित किशोरीदास वाजपेयी ने भी किया है, भले वे 'द्विमुखी व्युत्पत्ति प्रक्रिया' में आस्थावान न रहे हों। हिंदी में 'पुंप्रत्यय' का ऐतिहासिक साक्ष्य सर्वप्रथम पंडित अंबिका प्रसाद वाजपेयी ने 'हिंदी-कौमुदी' में दिया - 'बहनओई' से 'बहनोई' बनता है आदि। यह पुंप्रत्यय हिंदी की अनन्य विशेषता है। अंग्रेजी में भी widow+er =widower जैसी एक-दो व्युत्पत्त्यिाँ पुंप्रत्यय की हैं। संस्कृत भाषा ऐसे प्रत्यय से वंचित है। 'व्याकरण' द्वारा एकमात्र स्त्रीप्रत्यय की कल्पना किए रखना उसे पुरुषवादी बनाता है। हिंदी-व्याकरण को स्त्रीप्रत्यय के समांतर पुंप्रत्यय खोजने का काम जारी रखना चाहिए। इसी के साथ, लिंगगत व्युत्पत्ति में और व्यावहारिकताएँ भी देखनी होंगी। जो रिश्ते पूर्व सिद्ध हैं (मौसी, फूफी, जीजी, बहन, ननद आदि) उनमें ही पुंप्रत्यय लगाकर पुंलिंग शब्द (मौसा, फूफा, जीजा, बहनोई, ननदोई आदि) बनाना उचित होगा; न कि इसका उलटा करना। 'चाचा' से 'चाची' की व्युत्पत्ति इसलिए वैज्ञानिक है क्योंकि 'चाची' उत्तरसिद्ध है। किंतु, 'लड़का' व 'लड़की' अथवा 'पति' व 'पत्नी' में से कोई पूर्व या उत्तर नहीं, बल्कि दोनों सहसिद्ध हैं। फिर प्रथम से द्वितीय की व्युत्पत्ति बतलाना कैसा? दोनों को या तो स्वतंत्र मानिए या दोनों को परस्पर व्युत्पन्न मानिए - द्विमुखी व्युत्पत्ति प्रक्रिया से। इसके साथ, सामासिक व्युत्पत्ति के क्षेत्र में भी हमें ऐसी व्यवस्था रखनी होगी कि पुंलिंग और स्त्रीलिंग की समता हो। जैसे 'खिलाड़ी', 'मजदूर', 'राष्ट्रपति', 'पुलिस', 'इंजीनियर' आदि व्यावसायिक/पदमूलक या 'भेड़िया', 'ह्वेल ' आदि प्राणिवाचक नामों को लिंग-निरपेक्ष मान कर स्त्री के लिए प्रयोग की स्थिति में उसमें 'स्त्री' लगा देंगे, 'पुरुष' के लिए प्रयोग की स्थिति में 'पुरुष'। जैसे पुरुष खिलाड़ी, महिला खिलाड़ी; नर भेड़िया, मादा भेड़िया आदि। 'वेश्या' के लिंगांतरण 'पुरुष वेश्या' को भी असंगत नहीं मानना चाहिए। जब पुंलिंगवाची 'खिलाड़ी' आदि शब्दों से 'स्त्री' शब्द को समस्त करने से स्त्रीलिंग बन सकता है, तो स्त्रीवाची (वेश्या) शब्द से 'पुरुष' को समस्त करने से पुलिंग शब्द क्यों नहीं बनेगा? इस बारे में जो असंगति लग रही हो, उसे पितृसत्तात्मक सोच का नतीजा मानना होगा।

व्याकरण की ढेर सारी पुस्तकों में विलोम या विपरीतार्थक शब्द समझाते हुए अक्सर पुंलिंग व स्त्रीलिंग शब्दों को परस्पर विलोम बता दिया जाता है। यह कितनी खतरनाक बात है! 'पुरुष' का विलोम 'स्त्री' - ऐसा पढ़ाने वाले बच्चों के मन में कैसा लिंगभेदी जहर भर रहे हैं! अपने अज्ञान में वे घरेलू कलह व हिंसा का उनमें बीजारोपण कर रहे हैं। 'पुरुष' व 'स्त्री' को प्रकृति ने विलोम नहीं, पूरक बनाया है। पूरकता सहयोगी होती है, विलोमता संघर्षी। वस्तुतः विलोम का क्षेत्र लिंगगत द्वैत नहीं, शेष गुणगत द्वैत है। 'स्त्री' व 'पुरुष' समान हैं - सृष्टि के लिए समान रूप से आवश्यक। उनमें विरोध भाव सांस्कृतिक गढ़न है, न कि नैसर्गिक। 'रात' और 'दिन' परस्पर विलोम हैं, 'अच्छाई' व 'बुराई' परस्पर विलोम हैं; पर 'स्त्री' व 'पुरुष' नहीं। इसी तरह 'ब्राह्मण' व 'शूद्र' तथा 'आर्य' व 'म्लेच्छ' को परस्पर विलोम बताना भी गलत है। व्याकरण की जो पुस्तक ऐसा लिखे, वह जातिवादी व नस्लवादी है। 'स्त्री' व 'पुरुष' का तो प्राकृतिक अस्तित्व भी है; किंतु 'ब्राह्मण-शूद्र' या 'आर्य-नस्ल' तो पूर्णतया कल्पनाश्रित अवधारणाएँ हैं। इन सबकी सावधानी बरतना वैयाकरण के लिए बहुत जरूरी है।

'लड़का' व 'लड़की' जैसे शब्द तो भाषा में रहेंगे ही, क्योंकि प्राकृतिक लिंग के भेद की सूचना देने वाले ये दो शब्द उसी प्रकार आवश्यक हैं, जिस प्रकार 'इंसान' और 'चिड़िया' दो अलग-अलग शब्द जरूरी हैं, जो प्राकृतिक जाति की सूचना देते हैं। यहाँ सिर्फ 'प्राणी' कहकर काम नहीं चलाया जा सकता था। इसी तरह केवल 'लड़का' या केवल 'लड़की' कहकर दोनों का वाचन नहीं कराया जा सकता। परंतु, 'लड़का' व 'लड़की' को लेकर भाषा में लिंग का भेद नहीं खड़ा होना चाहिए। हो गया है, तो उसका यथाशीघ्र अंत करना ही मूल ध्येय होना चाहिए। इस जेंडरवाद ने व्याकरण के अंतर्गत सारे शब्दों को (चाहे वे चेतन के वाचक हों या अचेतन के; सत्त्व के वाचक हों या भाव के) ही 'मर्द' व 'औरत' की खेमेबंदी में बाँट रखा है (वहीं संस्कृत में 'मर्दानगी'-रहित वर्ग भी है 'नपुंसक लिंग' नाम से)। फिर, इस करेले को नीम पर चढ़ा दिया गया - मर्द (पुंलिंग) को औरत (स्त्रीलिंग) पर वर्चस्व या ग्रासक व्यक्तित्व देकर। लिंग-व्यवस्था के इस अमानवीय चेहरे की प्लास्टिक सर्जरी के बिना समाज तक, परिवार तक लोकतंत्र कैसे उतर सकता है? भाषा को सही किए बिना इंसान को सही नहीं किया जा सकता। विनोबा का यह विचार बिलकुल जायज है कि भाषा में पुंवाची व स्त्रीवाची सारे शब्दों के लिए एक ही क्रियारूप, विशेषण रूप आदि होने चाहिए। (विनोबा भावे, 'स्त्रीशक्ति', सर्व सेवा संघ प्रकाशन, राजघाट, वाराणसी) हर व्याकरणिक व्यवहार उनके प्रति समान होना चाहिए। परंतु यह होगा कैसे? इसके लिए भाषा सुधारनी होगी, भाषा सुधारने हेतु भाषिक समाज की मनोवृत्ति सुधारनी होगी। मनोवृत्ति बिना सामाजिक-सांस्कृतिक क्रांति के, समता के विचारों के प्रसार के बिना कैसे सुधरेगी? समाज में स्त्री-सशक्तीकरण से, वास्तविक स्तर पर लिंग-भेद मिटने से या भाषिक आंदोलन से ही बदलेगी भाषा। यानी, जो कुछ होगा, भाषिक समाज की तरफ से ही। परंतु, वैयाकरण भी तो भाषिक समाज का ही नागरिक है। अपनी जिम्मेदारी समझते हुए उसी को पहल करनी चाहिए, जो कुछ ऊपर कहा गया है। साथ में एक कार्य उसे और करना होगा - लक्षणों के उदाहरण प्रस्तुत करते समय समाजशास्त्रीय सावधानी बरतना। वह लिंग-भेद (साथ ही जाति, मजहब, राष्ट्र, नस्ल आदि भेदों) की मानसिकता से मुक्त होकर उदाहरण दे। स्त्री पर थोपे गए पितृसत्तात्मक मूल्यों - पातिव्रत्य, सतीत्व, सामंतवादी यौन नैतिकता, शर्म व हीन भावना तथा पैदा की गई मजबूरियों जैसे अशिक्षा, घरेलूकरण, परजीविता, यौन-दलन, प्रसव-बाध्यता, वेश्यावृत्ति, विधवा समस्या आदि से उसे मुक्त करने की मानसिकता से उदाहरण पेश किए जाएँ। स्त्री की वंचनाओं एवं पीड़ाओं के प्रति सहानुभूति दिखलाते और पुरुष के समक्ष उसकी बराबरी, प्रतिभा व ताकत को बतलाते उदाहरण बनने चाहिए। पढ़ती, खेलती, गाती, झूमती, नौकरी करती, विमान उड़ाती, कुश्ती करती या कंपनी सँभालती स्त्री उदाहरण बने, न कि खाना पकाती या पति की सेवा करती। मनमाफिक दोस्ती बनाने या मनोवांछित वस्त्र पहनने तक को छछनती स्त्री उदाहरण बने, मातृत्व या देवी की झूठी गरिमा की चाशनी में लपेटी स्त्री नहीं। इसके साथ घरेलू कामकाज करते मर्द भी उदाहरण बनें, सिर्फ पैसा कमाते या ऑफिस सँभालते मर्द नहीं। ऐसा होगा तभी भाषा की विसंगति दूर होगी तथा वह सुषमा से भरपूर होगी। हर शब्द को जेंडर के खाँचे में बैठाना लिंगवादी राजनीति का हिस्सा है, जिसने शब्द-ब्रह्म की महिमा घटाने का अपराध किया है। यदि हम अपने को आध्यात्मिक कहते हैं तो इस पाप से तो हमें मुक्त रहना चाहिए ।