यह श्रान्त दिन / बुद्धिनाथ मिश्र
वर्ष 2012 की आखिरी साँस। बिलकुल, गाय की पूँछ पकड़कर वैतरणी करने की स्थिति में है। पश्चिमी देशों में और उनकी नकल करनेवाले हमारे महामहिम मीडिया में भी खूब जोर-शोर से हल्ला मचा था कि आखिरी मास में महाप्रलय होगा। मगर वह हुआ नहीं। अलबत्ता, लहरें गिनकर पैसा बनानेवालों ने ‘भेड़िया आया, भेड़िया आया’ का शोर मचाकर अपना बैंक बैलेंस जरूर बढ़ा लिया। जिसका शोर नहीं मचा, वह है भारतीय भाषाओं की अपरिमित सृजनशीलता। यह हमारे बुद्धिजीवियों की मानसिक दासता ही है कि अंग्रेज़ी में छपी साधारण पुस्तकों की चर्चा वे चटखारे ले-लेकर करते हैं, बल्कि उन पुस्तकों को वे अपने ड्राइंग रूम में सजाकर गर्वित भी होते हैं। मगर हिन्दी की हजारों पत्र-पत्रिकाओं में फूट रही सृजन की सहस्रधाराओं की ओर नज़र उठाकर भी नहीं देखते। पिछले तीन दशकों में अखबारों के साहित्यिक परिशिष्टांक हमारे देखते-देखते गायब हो गये। मगर साहित्यिक पत्रिकाओं की बाढ़-सी आ गयी है। मैं उन रचनाकारों के प्रति श्रद्धावनत हूँ जो बड़े परिश्रम से रचना लिखते हैं, उसे अपने व्यय से टाइप कराते हैं, स्पीडपोस्ट या कूरियर से पत्रिकाओं को भेजते हैं और निष्काम भाव से उसके छपने की प्रतीक्षा करते हैं। पत्रिकाएँ पारिश्रमिक देती हैं या उन्हे देना चाहिए, इस ओर उनका तनिक भी ध्यान नहीं होता। बिना किसी आर्थिक अपेक्षा के , केवल छप जाने की लालसा से रचनाशील रहना एक बड़ी तपस्या है, जिसमें सैकड़ो रचनाकार इस समय रत हैं। उनसे भी प्रणम्य वे रचनाकार हैं जो अपने परिवार की सुख-सुविधा के हिस्से की राशि से पुस्तक छपाते हैं, अपने खर्च से उसका लोकार्पण कराते हैं, लोगों को इस आग्रह से उसे पोस्ट करते हैं कि वे उसपर दो-चार पंक्तियाँ लिखकर भेजें और यदि किसीने कुछ लिखकर भेज दिया तो अन्तःकरण से उसके प्रति कृतकृत्य होते हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि जबतक ये दधीचि की सन्तानें भारतीय भाषाओं में जीवित हैं, सृजन की स्रोतस्विनी अविरल प्रवाहित होती रहेगी।
मेरे पास प्रतिदिन दो-चार साहित्यिक पत्रिकाएँ और हर सप्ताह दो-एक सद्यःप्रकाशित स्तरीय पुस्तकें आ जाती हैं। सेवा से अवकाश ले लेने के कारण अब छुट्टी की परवशता नहीं है। सो, राहुल जी और नागार्जुन जी की तरह ज्यादा समय यात्राओं में ही बीतता है। अब हवाई यात्रा कम, रेल यात्राएँ अधिक होती हैं। इस रेल यात्रा के अपने मज़े हैं। आपके पास इतना अवकाश होता है कि आप पुस्तकों का और पत्र-पत्रिकाओं का एकनिष्ठ पारायण कर सकें। हिन्दी का क्षेत्र बहुत विस्तृत है, इसलिए हिन्दी में छपनेवाली सारी पुस्तकों की जानकारी सभी साहित्यप्रेमी पाठकों तक नहीं पहुँचती। हिन्दी का नया साहित्य वही नहीं है, जिसे दिल्ली के प्रकाशक छापते हैं और लेखक को बिना एक पैसा दिये सारा माल गटक जाते हैं। हिन्दी साहित्य के असली दलित वे साहित्यकार हैं, जो वर्षों की साधना को पुस्तक रूप देते हैं और उसे पूरी श्रद्धा से दिल्ली के स्वनामधन्य प्रकाशकों को सौंपते हैं और छप जाने के बाद चरणामृत की तरह मिली पाँच प्रतियों को माथे से लगाकर धन्य हो जाते हैं। उसका कोई कॉपीराइट होता है या उसपर रॉयल्टी भी मिलती है, यह सिर्फ़ गिने-चुने सुजान जानते हैं। बाकी लेखक जानकर भी क्या करेंगे? उन्हें कुछ मिलना तो है नहीं। इसलिए प्रकाशक इस कष्टकर व्यावहारिक ज्ञान से उन्हे दूर ही रखते हैं। अगर कोई गला साफकर इसपर प्रकाशक से कुछ निवेदन करना भी चाहता है, तो कुछ का कुछ बोल जाता है। उदयप्रताप सिंह जी ने इसे बेहतर शब्द दिये हैं,
क्या मेरी जुबाँ पर भी
जादू तेरा चलता है?
क्या सोचके आया था
क्या मुँह से निकलता है!
इस वर्ष वे भी पुस्तकें छपी हैं, जिनके प्रकाशक इतने समर्थ नहीं थे कि वे विज्ञापन और प्रचार की हवा मिठाई बना सकें। इसलिए उनकी तमाम पुस्तकें छपकर भी अनदेखी अनसुनी रह गयीं। इनमें से ही कुछ पुस्तकें मेरे सामने किसी दीदावर के इन्तज़ार में अपनी बेनूरी पे रोती नरगिसों की तरह दिख रही हैं। एक गीत संग्रह है जगदीश मोहन रावत का चाँद उतरा धरा पर। जयपुर में केन्द्रीय विद्यालय संगठन के उपायुक्त श्री रावत के लिए प्रशासनिक कार्यों और काव्य-सृजन के बीच सन्तुलन बनाना कठिन है, फिर भी गीत लिखते हैं। इन गीतों में प्रणय के सोपानों पर चलती गजगामिनी है, निशा के सघन केशों में तडित-सा रेशमी कम्पन है, विरही पुरुष का करुण क्रन्दन है, उन्मादिनी प्रकृति है, और ‘जर्जर डालों पर मुस्काते हरित पत्र’हैं। गीत की बानगी यों है:
आज मैने चाँद देखा है उतरता
कर रहा अठखेलियाँ सुन्दर धरा पर।
तारकों की पंक्ति से सजने लगी है
रात की चादर सलोनी जगमगाकर।
समकालीन स्थितियों से लगातार जूझनेवाले नवगीतकार सुभाष वसिष्ठ ( नई दिल्ली) का ताज़ा गीत-संग्रह बना रह जख्म तू ताज़ा अपने कथ्य और शिल्प के वैविध्य के कारण ध्यान आकृष्ट करता है। एक गीत की ये पंक्तियाँ बहुत थोड़-से शब्दों में बहुत कुछ कह जाता है, नवगीत के मुहावरे में:
हर हवा का तर्क अपना
और उसकी पुष्टि में जेबित
सहस्रों हाथ
एक सहमा चिड़ा नन्हा
खोजता चोरी गये
जो कलम औ दावात।
इस वर्ष के गीत-संग्रहों में सहारनपुर के डॉ. विजेन्द्र पाल वर्मा का कागज़ का भी मन होता है विशेष रूप से उल्लेखनीय है, क्योंकि ये सामान्य जन के बीच अपनी सहजता और सार्वभौमिकता के कारण अत्यन्त लोकप्रिय हैं। एक गीत ‘बेटियाँ चली गयीं ससुराल’ की कुछ पंक्तियाँ सहेजने योग्य हैं:
एक हाँक में जगीं हमेशा
गहरी निंदिया सोते
कौन भला भूखा सोया है
घर में उनके होते
अब सुख में हों, या हम दुख में
कौन पूछता हाल?
देहरादून की डॉ. रेणु पंत जवाहर नवोदय विद्यालय के प्राचार्य की भूमिका निभाते हुए भी पर्वतारोहण से लेकर कविता-लेखन तक बड़ी ऊर्जा के साथ करती हैं। उनका पहला काव्य-संग्रह फिर पंख लगे पहाड़ को का लोकार्पण पिछले दिनों राजभवन में राज्यपाल मार्गरेट अलवा ने किया था। इस संग्रह में नारी की पीड़ा और पहाड़ के दुख-दर्द पूरी संजीदगी से अभिव्यक्त हुए हैं। साथ ही, वे टीवी सीरियलों में जमीनी हकीकत से दूर, दिखाई जा रही घरेलू सियासत और पारिवारिक मूल्यों के मूर्ति-भंजन पर कड़ी आपत्ति करती हैं और विज्ञापन के इन्द्रजाल पर वज्राघात करती हैं:
माँ बच्चे को
कैसे और कितना प्यार करे
चोट लगने पर
कितना क्या उपचार करे
माँ को कुछ पता नहीं होता
अब विज्ञापन बताता है।
जन्मना अयोध्या से जुड़े और उ.प्र. सिविल सेवा के विभिन्न पदों पर सेवा देने के बाद सम्प्रति उ.प्र. हिन्दी संस्थान के निदेशक पद पर कार्यरत सुधाकर अदीब का सौमित्र लक्ष्मण की जीवन-गाथा पर आधारित मम अरण्य अपनी भाषा-शैली में महान कथाकार अमृत लाल नागर की भूली -बिसरी पगडंडी की याद दिलाता है। अधिकतर रामायणों में राम के वनवास के दौरान अद्वितीय त्याग और तपस्या की प्रतिमूर्ति लक्ष्मण मौन-से चित्रित किये गये हैं। मगर इस उपन्यास में लक्ष्मण अपने विचारों को विस्तार से व्यक्त करते हैं।
सन् साठ के दशक में अपने गीतों और गज़लों से हिन्दी काव्य-मंच को आन्दोलित करनेवाली डॉ. मधु चतुर्वेदी के साठ वर्ष पूरे होने के उपलक्ष्य में इस वर्ष आयोजित अक्षर आयोजन मधुमय साठ वसन्त इस अर्थ में महत्वपूर्ण है कि इसमें उनके तमाम बिखरे काव्य एकत्रित हुए हैं। उनके गीत, गज़ल, हाइकू, दोहे, बाल कविताएँ न केवल पठनीय हैं, बल्कि संग्रहणीय भी हैं। यहाँ उनके चार हाइकू सुनाने का लोभ मैं संवरण नहीं कर पा रहा हूँ:
ये चारपाई/बिठाकर किसीको/खिला न पाई।
प्रीत के पाँव/रचा मेंहदी, गये/ दर्द के गाँव।
हैं दुश्मने जाँ/जो मिला रहे हैं/ तेरी हाँ में हाँ।
हे दिनमान/लोग रात को भी /रहे दिन मान।
वयोवृद्ध पत्रकार नंदकिशोर नौटियाल की अलकनंदा उत्तराखंड के पर्वतों की कुल बीस दिनों की यात्रा-कथा है, जिसमें पिछले साठ-सत्तर वर्षों के समय की त्रासद पीड़ा को बड़ी रोचकता से और आत्मीयता से प्रस्तुत किया गया है। उत्तराखंड के निर्माण के दस साल बाद सामान्य जन में उपजी अपने जननेताओं के प्रति उदासीनता और कुंठा को इसमें पर्याप्त स्वर दिया गया है। अलकनंदा हिमालय की गोद से निकलनेवाली उन तमाम अमृतवाहिनी नदियों की प्रतीक है जो किन्हीं राजाओं की अतृप्त आत्मा को मुक्ति दिलाने के लिए श्रम और साधना की गंगा बनकर मैदानों की ओर बहती चली जा रही हैं... कभी न लौटने के लिए। साथ में बहाये ले जा रही हैंपर्वतों का सीना छीलकर उनकी माटी, उनके पुत्रों की मिहनत और मनीषा। इस यात्रा-कथा पर अच्छी फिल्म बन सकती है।
इस साल म.प्र. की सुसंस्कृत राजधानी भोपाल के सात गीतकारों का समवेत संग्रह सप्तराग इस माने में उल्लेखनीय है कि इसमें प्रतिष्ठित गीतकार शिव कुमार अर्चन से लेकर नवोदित गीतकार मनोज जैन ‘मधुर’ तक हुई इस नगर की हिन्दी गीत-यात्रा की झलक मिलती है। भोपाल में साहित्यिक वातावरण इन गीतकारों को सम्यक पनपने का अवसर प्रदान करता है। यह संकलन उनको सर्पित है ‘जो गीत में दृढ़ आस्था रखते हैं और उनको भी जो इसकी मृत्यु की अफ़वाह को सच मान बैठे हैं। ’इस संग्रह के अन्तिम गीत की चन्द पंक्तियाँ संकेतों में बहुत कुछ कह देती हैं:
तुम बरसने को धरा पर बादलो
आओ न आओ
मैं तुम्हारी स्वाति का विश्वास
लेकर जी रहा हूँ
एक अविकल अनकही-सी
प्यास लेकर जी रहा हूँ।
साल लगभग बीत चुका है। कल आखरी दिन है। मुझे अपनी इन काव्य-पंक्तियों के साथ विदा लेने की अनुमति दीजिये:
आज का यह श्रान्त दिन
लेता विदा तेरे भुवन से
एक निर्मल प्रात देकर
एक नव मधुमास देकर।
वर्ष शुभ तेरे लिए इक
माँगता मैं उस गगन से
चाँद को जिसने सजाया
चाँदनी का हास देकर।