यह सेल्फ और 'सेल्फी' का युग है / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 25 जुलाई 2014
कुछ वर्ष पूर्व ऑस्ट्रेलिया के एक व्यावसायिक फोटोग्राफर ने अपने प्रिय टेनिस खिलाड़ी को देखा तो उससे प्रार्थना की कि वह उनके साथ अपना फोटो लेना चाहता है। आसपास कोई कैमरामैन नहीं होने के कारण उसने स्वयं के कैमरे को इस्तेमाल करके तस्वीर ली, जिसे डेवलप करने पर उसने उसे धुंधला पाया तो लंबे परिश्रम के बाद वह ऐसा लेंस लगा पाया कि स्वयं के हाथ में कैमरा पकड़कर अपनी अच्छी तस्वीर ले सके। यह बात उन दिनों की है जब कैमरे से सुसज्जित मोबाइल बाजार में नहीं आए थे। उस ऑस्ट्रेलियन कैमरामैन ने इस तरह के फोटो को सेल्फी कहा। यह जानकारी दो दिन पहले मैंने किसी अखबार में पढ़ी थी। उसमें 'सेल्फी' के प्रयोग करने वाले का नाम सचित्र प्रकाशित हुआ था। खेद है कि उस दिन के सारे अखबार रद्दी में बिक चुके हैं।
बहरहाल आजकल स्वयं के मोबाइल से लिए गए 'सेल्फी' को अपने इंटरनेट साइट पर डालने का फैशन टेक्नाेलॉजी से खिलौनों की तरह खेलने वाले युवा वर्ग में अत्यंत लोकप्रिय है। प्राय: युवा वर्ग इस 'सेल्फी'के खेल से मनोरंजन प्राप्त करता है। परिवार के फोटो एल्बम यादों का हिस्सा बन जाते हैं। आजकल विवाह के समय कैमरामैन की सुविधा के लिए कुछ रीतियां दूल्हा -दुल्हन को बार बार करना पड़ती हैं, यहां तक कि सात की जगह चौदह फेरे हो जाते हैं। शिवानी की 'चौदह फेरे' लोकप्रिय रचना है। शादियों को लंबे समय तक एल्बम में सुरक्षित रखा जाता है परन्तु वे प्राय: कम समय में टूट जाती हैं। जिस ढंग से आजकल फोटोग्राफ लेना और संकलित करना जीवन शैली का हिस्सा हो गया है, उससे लगता है कि 1839 के पहले हुई शादियां खारिज करना होंगी क्योंकि स्थिर छायांकन का अाविष्कार ही 1839 में हुआ है।
सेल्फी का आग्रह महज यादों को सजाने के साथ ही यह भी संकेत देता है कि आजकल आत्म मुग्ध होने का चलन पहले से कहीं अधिक हो गया है। आत्म प्रशंसा पर मुग्ध होना हमेशा ही रहा है परन्तु बाजार, विज्ञापन और टेक्नालॉजी ने इसे बीमारी की हद तक बढ़ा दिया है। यह भी लगता है कि सब बोल रहे हैं, कहीं कोई सुन भी रहा है, यह बताना कठिन है जैसे सभी तीव्र गति से भाग रहे हैं परन्तु किसी को कहीं 'पहुंचते' हुए नहीं देख पा रहे हैं। अब खिलौनों और खेलकूद में लट्टू या भंवरा शायद विलुप्त हो गया है। मुझे याद आता है कि बचपन में कुछ चतुर चुस्त लोग लट्टू को हवा में उछालकर अपनी हथेली पर ले लेते थे। क्या यह क्रिया भी एक तरह की सेल्फी ही थी। दरअसल पूरे मनुष्य इतिहास में कम या ज्यादा प्रमाण में 'सेल्फी' मौजूद रही है गोयाकि वह मनुष्य स्वभाव का 'स्थायी' है, या कहें जीवन गीत का मुखड़ा है।
राजे महाराजे और बादशाह अपने दरबार में सवैतनिक इतिहासकार रखते थे और उन सवैतनिक लोगों के लिखे इतिहास में उनके मालिक की झूठी प्रशंसा भरी रहती थी। विष्णु खरे ने बताया कि 'दरबारी इतिहास' के अतिरिक्त एक 'सबॉल्टर्न इतिहास' भी होता है जो युद्ध में भाग लेने वाला सैनिक लिखता है। इतिहास का यह संस्करण प्रामाणिक माना गया है। कई बार विचार आता है कि यह संभव है कि युद्धरत सैनिक भी शाम को अपने खेमे में डायरी लिखते समय संभवत: तटस्थता खो चुका है और यथार्थ में कल्पना की रेखा उसके अनचाहे ही जाती है। कल्पना इस तरह यथार्थ की सगी बहन हो जाती है और ये जुड़वां बहनें हमशक्ल नहीं होती। आजकल तो सरकार पुराने दस्तावेजों के डिजिटल स्वरूप को बनाने में टेक्नोक्रेट को आदेश देती है कि कुछ फाइलें नष्ट कर देना और उनका डिजिटाइल स्वरूप मत बनाना जिसका अर्थ है कि भविष्य में शोध करने वालों को 'दरबारी इतिहास' पर निर्भर करना होगा। उस कालखंड का इतिहास भावी पीढ़ियों को इसकी विज्ञापन फिल्मों या कथा फिल्मों के साक्ष्य पर लिखना होगा। एक मायने में सारे पुरस्कार भी 'सेल्फी' के स्वरूप में ही बदल जाते हैं और शीघ्र मैं इस सेलिब्रेटी सर्कस का एक सदस्य बनने वाला हूं। शोहरत प्राय: सृजन शक्ति को डस लेती है।