याचक और अयाचक / ब्रह्मर्षि वंश विस्तार / सहजानन्द सरस्वती

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ग्रन्थ में बहुत जगह जो प्रवृत्त और निवृत्त शब्द आए हैं उनके सम्बन्ध में लोगों का कहना है कि ये शब्द सकाम और निष्काम कर्म अथवा सांसारिक और विरक्‍त के वाचक है, न कि याचक और अयाचक या पुरोहित और उससे भिन्न के। हमें इसमें विवाद नहीं हैं कि इन शब्दों के उक्‍त अर्थ भी हो सकते हैं। पर, याचक और अयाचक आदि अर्थ नहीं हो सकते इसे हम न तो मान ही सकते और न यह संभव ही है। ग्रन्थ के 85-86 आदि पृष्ठों से आईने की तरह झलकता है कि वहाँ प्रवृत्त और निवृत्त शब्दों के याचक, अयाचक के सिवाय और अर्थ हो ही नहीं सकते। इसमें तो वाद-विवाद के लिए स्थान है ही नहीं। लेकिन जिन मूर्खों ने इन शब्दों का द्वैत और अद्वैत अर्थ किया है उन्होंने तो कमाल ही कर डाला है! मगर उनके बारे में कुछ न कहना ही उचित है। क्योंकि यह उनकी अनोखी सूझ हैं जो कथमपि संभव नहीं और न जिसे आज तक किसी ने माना ही है।

बहुत लोगों का कहना है कि पुरोहित याचक नहीं हो सकता, पुरोहित और याचकता एक चीज नहीं है। निस्संदेह पुरोहिती और याचकता कभी भी एक चीज नहीं हैं और न हमने ऐसा लिखा ही है। पर, पुरोहित समाज को हमने याचक अवश्य लिखा है और वह अनुचित नहीं, ठीक ही है। याचक नाम है माँगनेवाले का, दो-देही कहनेवाले का। फिर भी, माँगनेवाला हाथ फैलाता है और पुरोहित भी दान लेने के समय या दक्षिणा के समय अवश्य हाथ फैलाता है। इसी समानता से पुरोहित को भी याचक कहा है। जैसे श्येन नाम बाज पक्षी का हैं। मगर अभिचार कर्म का नाम श्येन इसी कारण रखा गया है कि जैसे श्येन दूसरे पक्षियों को अपने चंगुल में फँसा लेता है उसी तरह वह अभिचार कर्म भी शत्रु को फँसा कर मार डालता हैं। यह वैदिक कर्म के ज्ञाता मीमांसकों को विदित हैं। इसी प्रकार 'सिंहो देवदत्त:' - देवदत्त तो सिंह हैं, इत्यादि व्यवहारों में भी जान लेना चाहिए। सिंह कहने से देवदत्त जंगल का जानवर नहीं हो जाता अथवा आजकल के सिंह नामधारी पशु नहीं हैं।

रह गई एक बात। कभी-कभी लोग यह कह बैठते हैं कि जो अयाचक हैं, या उस दल के हैं वे पुरोहिती नहीं कर सकते। नहीं तो फिर अयाचक कैसे रहेंगे, या उनका दल अयाचक क्यों कर कहलाएगा? मगर विचारना तो यह है कि पुरोहितों में भी बहुतों के अयाचक रहने पर भी जैसे उसका दल याचक कहलाता है। कारण, उनमें प्रधानता या मनोवृत्ति अधिकांश लोगों की उसी तरफ पाई जाती है। मालूम होता है, कि उन पर गोया पुरोहिती की छाप लगी हुई हैं। ठीक उसी प्रकार अयाचक दल में भी कुछ पुरोहितों के होने से भी वह दल अयाचक ही कहलाएगा। क्योंकि प्रधानता या छाप तो उसी की है और मनोवृत्ति भी वैसी ही है। नियम भी है कि जिसकी प्रधानता होती है उसी से व्यवहार किया जाता है। जैसे जिस गाँव में ब्राह्मणों की प्रधानता हो वह ब्राह्मणों का गाँव कहाता है। मगर इसका यह अर्थ नहीं है कि उस गाँव में दो-चार घर भी शूद्रादि न होंगे। यह बात ग्रन्थ में लिखी जा चुकी हैं। एक बात यह भी कही जा चुकी हैं कि पुरोहिती का ग्रहण या त्याग तो व्यक्‍तिगत धर्म है न कि ब्राह्मणों में कोई ऐसा समाज हो सकता है जो पुरोहिती से एकबारगी ही अलग हो। फिर क्षत्रियों में और उस समाज में बाहरी व्यवहार में फर्क क्या रह जावेगा? दुनिया तो व्यवहार ही देखती है। शास्त्र कौन देखने जाता है? इसलिए इच्छा हुई तो हमने आज पुरोहिती की और कल छोड़ दी। फिर परसों कर ली। इसका कोई नियम न तो हो सकता है और न होना उचित है। शास्त्रकारों ने इसके लिए कोई बंधन नहीं रखा है। और शास्त्र दृष्टि से ब्राह्मणों में याचक या अयाचक नाम का कोई दल हो नहीं सकता। हाँ, व्यक्‍तिगत रूप से प्रवृत्त, निवृत्त या याचक, अयाचक ये दो प्रकार के ब्राह्मण हो सकते हैं। एक भाई याचक है तो दूसरा अयाचक। अभी तक यह होता भी आया है। मगर यह दलबंदी तो बहुत ही हाल की है, जैसे गौड़, मैथिल आदि दलबंदी। मगर यह वहीं तक ठीक है जहाँ तक व्यवहार और शास्त्र का विरोध न हो। मगर यदि पुरोहिती के न करने और करने का किसी दल विशेष का अधिकार दे दिया जावे तो फिर शास्त्र और व्यवहार दोनों का विरोध होगा फलत: अत्याचार होना अनिवार्य है, जैसा कि हम देख भी रहे हैं। मनुस्मृति के चौथे अध्याय के प्रारंभ में श्‍लोकों से स्पष्ट है कि याचित और अयाचित वृत्तियों से ब्राह्मण जीविका करते हैं और यह उनकी मर्जी पर है कि चाहे जिसे करें। मगर वहाँ की याचिक वृत्ति पुरोहिती नहीं है किंतु भिक्षा।

इसी सम्बन्ध में एक बात दक्षिणा और प्रतिग्रह की है। इन दोनों शब्दों का अर्थ और इनका भेद ग्रन्थ में प्रतिपादित है। जिसका निचोड़ यह है कि दक्षिणा तो कर्म कराने की मजदूरी है और प्रतिग्रह किसी के पापों को हटाने के लिए अपना ब्रह्मतेज या तपोबल दे कर उसके बदले में अन्न, धनादि के स्वीकार को कहते हैं। और पुरोहिती के अन्तर्गत प्रतिग्रह खामख्वाह आ भी नहीं जाता। हाँ, दक्षिणा तो पुरोहित को लेनी ही पड़ती है और वह ठीक भी है, जिसे वह अपने काम में ला सकता है। मगर प्रतिग्रह के लिए तो वह मजबूर नहीं है और चाहे तो ले कर किसी परोपकार कार्य में लगा सकता है। इसलिए दक्षिणा और प्रतिग्रह या दान लेने को एक समझ कर जो पुरोहिती करने में हो-हल्ला मचाया जाता है वह नितान्त अनुचित और हेय है।