यात्रा अंतराष्ट्रीय हिंदी सम्मेलन की / सूर्यबाला
अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन से बुलावा आया तो खुश होने के बदले मैं परेशान हो आई. क्योंकि निमंत्रण बड़े बेमौके आया था। कहाँ तो मैं अमेरिका में बसे बाल-बच्चों के पास जाने के लिए सूटकेसों में मिर्च के आचार और मट्ठियाँ सहेज रही हूँ, कहाँ ये निमंत्रण-पत्र कैरेबियन देशों में हिन्दी के प्रसार-प्रसार के लिए कबीर, तुलसी के योगदानों का खुलासा करने के लिए कह रहा है। जैसे मैं सलमानखान या गोविंदा होऊँ। कोई-सा डबल रोल पकड़ दो-कर ले जाऊंगी।
लेकिन लोगों ने सुना तो मेरी नासमझी पर तरस खा गए-कमाल करती हैं आप! बाल-बच्चों की खातिर अमेरिका तक जा रही हैं, हिन्दी की खातिर एक देश और नहीं फलांग सकतीं? कुल पांच-छह घंटे ही तो लगने अमेरिका से जाने में। वैसे भी हिन्दी लेखन आजकल, साहित्य में पैदा बाद में होते हैं, अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों में पहले हो आते हैं। पिछले तीन दशकों से आप हिन्दी का नमक खा रही हैं और आज ज बनमक की कीमत चुकाने का अवसर आया, तो पापड़-बड़ियों का वास्ता दे रही हैं। कहाँ गया आपका हिन्दी प्रेम?
इन शब्दों ने मेरा उद्बोधन किया, मेरे ज्ञानचक्षु खोले। पति-परिवार तो मेरे निर्णय से अति प्रसन्न। अमेरिका पहुंचते ही पिता ने पुत्र को बुलाकर आदेश दिया, ' अपनी माँ के लिए हिंदी-सम्मेलन तक का टिकट ला दो। सम्मेलनवालों का दिया किराया कम पड़ रहा हो तो हिचकना मत, अपने पास से लगा देना। सुना है, अंतरराष्ट्रीय हिंदी-सम्मेलनों के निमंत्रण इन दिनों ब्लैक में बिक रहे हैं। क्योंकि इस अवसर में हवाई यात्राएँ हैं, मुफ्त के सैर-सपाटे हैं, दूतावासों में भोज हैं, सहयोगी संस्थाओं में यजमानी है, खाने-पीने, उठने-बैठने, घूमने-फिरने आदि के तरह-तरह के भत्ते हैं।
प्रवासी बेटा प्रसन्नचित्त अपनी पत्नी से बोला, 'मां आईं हैं तो क्या... हफ्ते भर बाद ही अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में चली जाएंगी! तुम्हें परेशान होने की ज़रूरत नहीं।'
बेटे ने तुरत फुरत उसी शाम मुझे टिकट भी लाकर पकड़ा दिए. जैसे पूरी एक मोटी चेकबुक। देखा तो चकरा गई. पूरी छह टिकटें-तीन आने की, तीन जाने की। एक तरफ की तीन? सम्मेलन तो एक ही जगह है। मुझे अपनी पसंद के हवाई जहाज छांटने हैं लगता है तूने कबीर, सूर और तुलसी के तीन अलग-अलग सम्मेलन समझ लिये हैं। मुझे तीनों पर एक ही सम्मेलन पर बोलना है समझा।
बेटा झुंझलाया, 'टिकट भी एक ही सम्मेलन के हैं, लेकिन यहाँ से ट्रिनिडाड जाने के लिए तीन फ्लाइट्स चेंज करनी होंगी आपको। स्ट्रैंटन (पेनसिल्वेनिया) से फिलाडेल्फिया, फिलाडेल्फिया से मियामी और मियामी से पोर्ट ऑफ स्पेन-यानी ट्रिनिडाड।' समझी आप।
'क्या कह रहा है! ...' मेरे पैरों के नीचे से अमेरिका की धरती खिसकती जा रही थी। चेहरे पर कई हवाई जहाज दम-के-दम उड़ानें भरने लगे थे। संभलकर बोली, 'मुझसे तो कहा गया था, कुल पांच-छह घंटों की दूरी है।'
'दूरी तो पांच-छह घंटों की ही है, लेकिन तीन हवाई जहाज मिलकर दो-दो घंटे में आपको पहुंचाएंगे।'
फिर भी, ठीक तरह से जांच ले! तू सम्मेलन के टिकट लाया है न... या हवाई जहाजों की रिले-रेस के! '
बेटे ने हुमककर कहा-'मैंने तो जांच कर ही लिये हैं, आप जांच लीजिए, क्योंकि जाना आपको है।'
'मुझे जाना है, इसीलिए तो कह रही हूँ। तीन-तीन हवाई जहाज मैं कैसे बदल पाऊंगी, बेटा? तू किसी तरह एक का इंतजाम करा दे।'
'तो सम्मेलन वालों को लिख दीजिए-एक ऐसा हवाई जहाज भेज दें, जो आपको मेरे घर के दरवाजे से उठाकर, सीधे सम्मेलन-कक्ष में उतार दे, वरना तो आपको अमेरिका की दो घरेलू और एक अंतरराष्ट्रीय-उड़ान भरनी ही होंगी।'
मेरे पैरों के नीचेवाली अमेरिका धरती अब पूरी तरह खिसक चुकी थी (खैर, उसकी तो कोई बात नहीं, विदेशी धरती थी) लेकिन अमीर देशों के साथ यही खराबी होती है। ज़्यादा पैसे, तो ज़्यादा हवाई-जहाज। एक-एक पैसेंजर के पीछे तीन-तीन हवाई जहाज। सनकपने की हद है।
ऊपर से विदेशों के एयरपोर्ट। इनके नाम से मेरी घिग्घी बंध जाती है। जिस भी एयरपोर्ट पर पहुंचती हूँ, एक-न-एक हादसा होकर रहता है। बीसों टर्मिनल्स, सैकड़ों 'एंट्रीज' , हजारों 'इग्जिट्स' सभी से लोग घुस रहे हैं, निकल रहे हैं, जैसे पूरी दूनिया में, एयरपोर्टों की एंट्रीज और इग्जिट से घुसने और निकलने के सिवा लोगों को और कोई काम ही नहीं। यह तो मुझे बहुत बाद में पता चला कि दरअसल इतनी सारी 'इग्जिटों' से निकल-निकलकर लोग अपनी ज़िन्दगी की सही 'एंट्री' तलाशते रहते हैं। शायद कुछेक को मिल भी जाती है! ...
'आपको भी मिल जाएगी-तीनों उड़ानों में। बेकार परेशान हो रही हैं आप।' बेटा तरस खाकर समझाने लगा, 'सारी सूचनाएँ जगह-जगह साफ-साफ लिखी होती हैं और आप तो पढ़ी-लिखी हैं, अपने टिकट से सही फ्लाइट नंबर और टर्मिनल मिलाती जाइएगा, बस।'
पूरा परिवार एकजूट होकर मुझे घर से बाहर, अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में भेजने के लिए कृतसंकल्प था। अचानक ही उनका हिंदी-प्रेम बांध तोड़कर बह चला था। वे हिन्दी और अमेरिकी एयरपोर्टों की तारीफों के पुल बांधते नहीं अघा रहे थे। पूरे पांच दिन के इस 'सेतुबंध' कार्यक्रम के उपरांत, छठे दिन, आने-जाने के पूरे छह टिकटों के साथ मैं एयरपोर्ट पहुंचा दी गई. बेटा जाते-जाते आश्वस्त कर गया कि आप सिर्फ़ टर्मिनल नंबर 10 ढूंढकर बैठ जाइए और अपने वाले प्लेन का नंबर याद रखिए. जब नंबर पुकारा जाए तब सारे यात्रियों के साथ उठकर प्लेन में बैठ जाइए, बस।
मैंने सचमुच 10 नंबर का टर्मिनल ढूंढ लिया और एक आरामदेह कुर्सी पर बैठ गई. बैठने के साथ ही मेरा खोया आत्मविश्वास जाग गया। मैं अगल-बगल बैठे लोगों से विश्वबंधुत्व, अर्थात भाईचारा स्थापित करने की कोशिश करने लगी। मैंने उन्हें यह भी जतला दिया कि हमारे लिए अंग्रेज़ी बोलना-समझना कोई समस्या नहीं है। (समस्या तो देश में हिन्दी बोलने-समझने की है) , अतः वे चाहें तो अंग्रेज़ी में भी भरपूर भाईचारा स्थापित कर सकते हैं, लेकिन उन लोगों ने ज़रा भी रूचि दिखाई ही नहीं। मुझे शक हुआ कि कहीं 'भाईचारा' शब्द से उन्हें 'चारे' की बू तो नहीं आ रही... लेकिन तभी मेरे अगल-बगल के लोग, मेरा साथ छोड़ दनादन उठने लगे तो मैंने घबराकर कारण पूछा। पता चला प्लेन नंबर ' सात, चार, पांच, छह, दो अब दस की जगह टर्मिनल नंबर ग्यारह से जाएगा।
'अरे! ये तो मेरा वाला प्लेन है, आपको कैसे पता?' कहती हुई मैं हड़बड़ाकर उठी।
'अभी-अभी अनाउंसमेंट हुआ न, जब आप भाई-चारा स्थापित कर रही थीं।' और मुस्कराते हुए मेरा सहयात्री आगे बढ़ गया। दौड़ती हुई मैं उसके पीछे।
मियामी पहुंचकर इमीग्रेशन-कलीयरेंस का ध्यान आया। अब अमेरिका के बाहर जो जाना था। सिर घुमाया तो चारों और काउंटरों और कतारों की जबरदस्त भीड़। जैसे पूरा ब्रह्मांड टूट पड़ा हो। मुझे लगा, या तो सभी ग्रह-नक्षत्रों के निवासी अमेरिका माइग्रेट कर रहे हैं या अंतरराष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन में सहभागिता करने जा रहे हैं।
अंततः औपचारिकताएँ पूरी हुईं। मैंने जल्दी से पलटकर दूसरी टिकट बुक खोली। फ्लाइट नंबर देखा और रटती-रटाती दौड़ चली... सुरंगों, एस्केलेटरों और लाउंजों से होकर भागती भीड़ के साथ-साथ। ... टिकट देखती और भागती, भागती और रूकती। घोषणाओं का 'अनहद-नाद' जारी था। सूचनाएँ लाल, हरी, नियोन लाइटों की शक्ल में सरकती जा रही थीं। कुछ बिजली की तरह चमकतीं और जब तक मैं पूरा पढ़ पाती, विलीन हो जातीं।
अंत में सोचा, इतनी देर में तो आधी मुंबई छान मारती। क्यों न इतने भाग रहे विदेशियों में से पूछ लूं। 'एक्सक्यूज मी! यू.एस. एयरवेज का टर्मिनल नंबर सात?'
सुननेवाला रूका, मुझे ऊपर से नीचे तक जांचा। तभी उसकी निगाह मेरे टिकट पर पड़ी-वह चौंका, 'लेकिन आपका यह टिकट तो' यू.एस.-एयरवेज का नहीं, बल्कि अमेरिकन एयरलाइन का है-और वह टर्मिनल दूसरी तरफ है। क्षमा करें, मुझे लगता नहीं कि आपको यह फ्लाइट मिल पाएगी। एनी वे, ट्राई योर लक्! ... मेरा चेहरा फक्...
प्लेन, सचमुच उड़ चुका था-मेरी जगह, मेरे होशो-हवास लेकर अब रोने-धोने जैसी स्त्री-सुलभ और स्त्रियोचित क्रियाओं को छोड़कर और कुछ सूझता ही नहीं था। स्त्री-चेतना और लेखकीय अस्मिता को काटो तो खून नहीं। लेकिन ऐसी विकट स्थिति में जब लेखिका पस्त थी, 'पत्नी' सक्रिय हो उठी और अमेरिकावाले घर में फोन लगा दिया और जैसे ही पति की आवाज सुनी अंतराष्ट्रीय सम्मेलन का सारा गुरूर बांधकर बह चला-'म-म-मै-म-म-मियामी से बोल रही हूँ... हिच्च। मेरा प्लेन, हिच्च... मुझे लिये बिना ही उड़ गया, हिच्च। अब मैं क्या करूंऽऽऽऽ'
पति ने डपटकर कहा, 'पहले हिच्च-हिच्च करना बंद करो!'
'कर दिया-सुनो, अब मैं फौरन घर वापस आना चाहती हूँ... हिच्च-सॉरी। हाँ, मुझे कहीं जाना-वाना नहीं। मैं शेष-जीवन, अपने देश में ही, हिन्दी के प्रचार-प्रसार में लगाऊंगी।'
पति ने दुबारा डपटा-'स्वदेश के लिए' हिंदी-सेवाव्रत'लेने की बाद में सोचना..., पहले यह पता करो कि सम्मेलन तक पहुंचने की अगली फ्लाइट कब है?' -मैंने कहा न, मुझे कहीं नहीं जाना, मुझे घर वापस आना है। '
'ओह हो... लेकिन घर में हम सभी ठीक-ठाक हैं। कोई परेशानी नहीं। तुम्हें इतनी जल्दी लौटने की क्या ज़रूरत है?'
'इसलिए, क्योंकि मुझमें सम्मेलन तक पहुंचने की हिम्मत नहीं बची है।'
'तो एक काम करो-जैसे मुझे फोन किया है वैसे ही सम्मेलनवालों को फोन कर दो कि आधी दूर मैं आई, आधी दूर आप लोग आ जाओ.' इतना सुनना था कि मेरी पत्नीत्व की कुंडलिनी पूरी तरह जाग्रत् हो गई. उसी के बूते मैं आपा खोकर चिल्लाई, 'मेरी जान पर बनी है, आधे रास्ते फंसी पड़ी हूँ और आपको मखौल सूझ रहा है। मैं बार-बार विनती कर रही थी कि मुझे इन तिकड़मी हवाई-जहाजों के चक्कर में मत डालो। ट्रेनें तक तो कभी बदली नहीं, हवाई जहाज कहाँ से बदलती! अपने शहर के गली मुहल्ले तो याद रहते नहीं, इतने सारे द्वीपों, महाद्वीपों का हिसाब कहाँ से बिठाती मैं!'
स्थिति गंभीर होती देख, फोन बेटे ने संभाला, मम्मी पहले आप शांत होइए और यह बताइए कि प्लेन आपसे छूटा कैसे? '
'मैंने कहाँ छोड़ा, वह खुद ही मुझे लिये बिना उड़ गया। मैं तो जब से चली, एक टर्मिनल से दूसरे टर्मिनल, एक काउंटर से दूसरे काउंटर भाग ही रही हूँ।'
'ओह मां! लेकिन इतना भागने से पहले आपको पूछ लेना था न किसी से।'
'पूछा तो कई बार, लेकिन ये अमेरिकन, कायदे की अंग्रेज़ी भी तो नहीं बोल पाते।'
'ओह... तो यह बात है, आप उनका अंग्रेज़ी में बताया समझीं नहीं।'
'अरे, तो वे ही कहाँ समझे मेरी अंग्रेज़ी वह तो एक ने जब अचानक टिकट देखा तब कहीं असलियत उसकी समझ में आई.'
'और तब तक आपका हवाई जहाज उड़ चुका था।'
'छोड़-अब तो तू बेटा, मेरे फोन का' तार'(टेलीग्राम) समझ और जल्दी-से-जल्दी मुझे वापस बुलाने की जुगत बिठा।'
'वापस तो आप अभी आ ही नहीं सकतीं न, क्योंकि वापसी का टिकट सात दिनों बाद का है। जब तब आप आगे नहीं जाएंगी, आप पीछे भी नहीं लौट पाएंगी।'
'तो... अब क्या करूं बेटा।'
'हिम्मत से काम लीजिए और सम्मेलन तक हो आइए. आपके इस तरह दहाड़े मारकर रोने से हिन्दी का कोई फायदा नहीं होने वाला। आप वही कर रही हैं जो पिछले साठ वर्षों से हिन्दी वाले कर रहे हैं। लीजिए, अभी पापा ने संयोजकजी से बातें कीं। उन्होंने आश्वस्त किया है कि एक बार आप वहाँ के एयरपोर्ट तक पहुंच जाएँ, बाद की सारी जिम्मेदारी उनकी। इसलिए फिलहाल तो आप सिर्फ़ पंद्रह मिनट बाद छूटने वाली यह वाली फ्लाइट पकड़िए, क्योंकि इस बार आप सही टर्मिनल पर बैठी हैं।'
पोर्ट ऑफ स्पेन अर्थात् ट्रिनिडाड की फूलों भरी धरती पर उतरते ही पांव पंखुड़ियों-से हलके हो आए. एयरपोर्ट पर अगवानी 'रामधुनी' कर रहे हैं तो आवास की व्यवस्था 'सिरीराम' संभाल रहे हैं। आवभगत सिल्विया कुबलाल सिंह कर रही हैं तो सम्बोधित प्रधानमंत्री। सम्मेलन स्थल में चारों तरफ हिन्दी की तख्तियाँ व पर्चियाँ हैं और मंच के पीछे रंग-बिरंगी झालरों में झूलती अपनी वर्णमाला।
अपनी भाषा की घुट्टी, अपनी बोलियों की कुंज गली अपनी-सी धूप, अपना-सा आकाश... यह धरती यह देश, विदेश कैसे हो सकता है? ...
विश्वास कर पाने का बस एक ही आधार था... जहाँ हिन्दी को इतना आदर-सम्मान मिल सकता है, वह स्थान, विदेश ही हो सकता है।
इतनी हिन्दी और ऐसी हिन्दी हमें अपने देश में क्यों नहीं मिलती? कब तक मिलेगी?