यात्रा और मंज़िल / जयप्रकाश मानस

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वह हर सुबह नए जूते पहनकर निकलता। मोबाइल में गूगल मैप खोलता। कार की इग्निशन ऑन करता। रोज़ एक नया रास्ता चुनता पर हमेशा उसी मॉल में पहुँच जाता-जहाँ वही दुकानें, वही लोग, वही चेहरे।

एक दिन कार ख़राब हो गई। उसने पैदल चलने का फ़ैसला किया। रास्ते में एक बूढ़ा मिला जो पेड़ के नीचे बैठा था।

"कहाँ जा रहे हो?" बूढ़े ने पूछा।

"मंज़िल की तलाश में।"

बूढ़ा हँसा: "मेरे पास बैठो। यहीं तुम्हारी मंज़िल है।"

"यहाँ? इस सड़क किनारे?"

"हाँ; क्योंकि जब तक तुम चलते रहोगे, मंज़िल भागती रहेगी। जब बैठोगे, तभी वह तुम्हारे पास आएगी।"

उस दिन से वह वहीं रह गया। उसी पेड़ के नीचे। लोग आते, पूछते: "तुम्हारी यात्रा कैसी चल रही है?"

वह मुस्कुराता: "बहुत अच्छी। मैंने आज तक की सबसे लंबी यात्रा पूरी की है-ख़ुद तक पहुँचने की।"

और फिर एक दिन वह बूढ़ा गायब हो गया। पर वह आदमी अब भी वहीं है। उसी पेड़ के नीचे। बैठा हुआ। देखता हुआ कि कैसे लोग मंज़िलों के पीछे भागते हुए उसके सामने से गुज़र जाते हैं।

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