यात्रा सोनल रेत की धरती की / कुमार रवीन्द्र
जैसलमेर की यात्रा
14 नवंबर 2008
रेत का एक महासमुद्र। आदिम भू–संरचना। चारों ओर बालू के ऊँचे–नीचे ढूह। अंतिम क्षितिज तक यानी जहाँ तक नज़र जाती है रेत का अनंत विस्तार। कहीं भी न तो कोई पेड़–पौधा न ही कोई जीव–जंतु। टी0 एस0 एलियट की कविता ‘वेस्टलैंड’ में वर्णित बंजरभूमि कहीं यही तो नहीं है। ऊँट की पीठ पर सवार मैं तलाश कर रहा हूँ इस बंजरभूमि के नपुंसक राजा को, जो सुदूर कहीं गरजते मेघों को तलाशता इसी महाबंजर में शायद नंगे पाँव कहीं भटक रहा होगा। अभी तो वह संभवतः कहीं मेरे भीतर समाया हुआ है। टेर रहा है वह अंदर से जल से भरे किसी महामेघ को, जिसकी गर्जना में छिपा है मानुषी आस्था का ‘ दत्ता–दयाध्वम्–दमयतः’ का महामंत्र। देह से मैं यहाँ हूँ जैसलमेर की सोननगरी से लगभग पैंतालीस किलोमीटर दूर स्थित सम गाँव के ‘सैंडड्यून्स’ के बीच, किंतु मन से आदम के अदन के सुरम्य उद्यान से निष्कासन के समय से अब तक के तमाम बंजरों के बीच भटक रहा हूँ। मनुष्य इन्हीं बाहर–भीतर के बंजरों के बीच ही तो भटकने को अभिशप्त रहा है। एक मृगमरीचिका–सी जलाकृति दूर झिलमिलाती–दिपती है, किंतु हम वहाँ कभी पहुँच नहीं पाते। मैं हरियाणा के शहर–ए–फिरोज़ा यानी ऐतिहासिक नगरी हिसार के बरसों पहले के बालू के छोटे–छोटे ढूहों से परिचित रहा हूँ, किंतु यहाँ तो एक सैलाब है रेत की ढूहाकृतियों का। मैं विमूढ़–आतंकित देख रहा हूँ सोनल माटी के इस महाविस्तार को। ऊँट की सवारी का यह पहला–पहला अनुभव। पत्नी सरला ऊँट के कूबड़ पर स्थित गद्दी पर और मैं पीछे पीठ की ढलान पर लटका–हुआ। ऊँट की सवारी का यह अनुभव कोई बहुत सुखद तो नहीं है, परन्तु दृष्टिपथ पर अवतरित होता सोनल रेत का सौन्दर्य मेरे कवि–मन को टेर रहा है। इस आदिम भूमि को ऊपर से दुलारती ढलती साँझ की सुनहली सूर्य–किरणें। सारा वातावरण स्वर्णिम आभा बिखेरता, हमें अपने में समोता। लगभग पाँच किलोमीटर की यह यात्रा हमें ले जा रही है ‘सनसेट प्वाइंट’ के अंतिम सिरे तक. जहाँ आज के सूर्य की रेत–समाधि लेने की बेला में क्षितिज पर पसरती लाली में समाकर हम भी लाल हो जाएँगे। हाँ. यही तो है समूची जीवन–यात्रा की सौन्दर्यमयी अंतिम नियति और मैं उसे निहार रहा हूँ पूरे भावोल्लास के साथ अपलक इस सुनहरी बंजरभूमि में।
लगभग आधे घंटे में हम पहुँच गए हैं रेत के इस महाप्रसार के चरमबिंदु यानी ‘सनसेट प्वांइट’ पर। वहाँ से चारों ओर बिखरे लहर–लहर सोनल सौन्दर्य को अवलोकना. उसे अपने भीतर समोना— हाँ, अभूतपूर्व था वह अनुभव मेरे लिए। ‘सनसेट प्वांइट’ पर ऊँटों का एक पूरा काफिला आ गया था. जो अलग–अलग यात्रापथों से होकर वहाँ पहुँचे थे। और फिर सूर्य ने एकाएक ढलकर छू लिया मरूभूमि के उस महासमुद्र को। दहकते अग्निज्वाल में परिवर्तित हो गया वह अनंत परिवेश। धरती के देवत्व का यह भी एक अलौकिक स्वरूप। उसे कैमरे में कैद करने की हमारी कोशिश कितनी अनर्गल रही. यह तो मैं बाद में जान पाया। हाँ. मन के कैमरे में जो छवियाँ इन कुछ क्षणों में अंकित हुईं. उन्हें मैं आजन्म सहेजता रहूँगा. यह तो निश्चित है। आकुल–आतुर हूँ मैं इस अनुभूति को अपने भीतर समो लेने के लिए।
हम कल अपराह्न में इंटर–सिटी एक्सप्रेस से दिल्ली से चलकर आज ही ढाई बजे के लगभग राजस्थान की इस सोनल नगरी यानी जैसलमेर पहुँचे हैं। हम यानी हम दोनों पति–पत्नी. मेरी बहन रमा. उसके पति सतीश और सतीश की मुँहबोली बहन विमला जी। राजस्थान पर्यटन विभाग के होटल मूमल में ताज़ा–दम होकर हम निकल आए हैं अपनी इस मरूभूमि यात्रा पर। हम सबके बूढ़े शरीर के लिए ऊँट पर चढ़कर यह यात्रा अपने–आप में एक साहसिक कार्य था। सतीश तो तुरन्त ही उतर गए और मरूभूमि के अनूठे सूर्यास्त दर्शन से वंचित हो गए। हमारी इस यात्रा की समाप्ति–स्थली पर वे सीधे सड़क–मार्ग से पहुँच गए। पर्यटन विभाग की ‘कैम्पिंग साइट’ पर हमें साँझ बितानी है राजस्थान की सम्मोहक संस्कृति के संग। पहले तो विशुद्ध पारंपरिक राजस्थानी ढंग से हमारा स्वागत हुआ और फिर हम खुले क्रीड़ांगन में विराज गए। शुद्ध भारतीय ढंग की आसन–व्यवस्था यानी मूढ़े और जमीन पर गद्दे और गाव–तकियों का प्रबन्ध। सब कुछ साफ़–सुथरा एवं आकर्षक। उम्र की वज़ह से हमने मूढ़ों का आसन चुना।
ठीक साढ़े छः बजे शुरू हुआ राजस्थानी गायन–नृत्य का सांस्कृतिक समारोह। खड़ताल–ढोलक–नगड़ियों की संगत। कई गान परिचित. किंतु उनकी अनूठी प्रस्तुति और कुछ रात के नीम–अँधेरे. नीम–रोशन वातावरण का प्रभाव। लगा जैसे कि हम किसी अन्य लोक में पहुँच गए हैं। गायन की कुछ पंक्तियाँ मन में ठहर गईं—‘अमरबेल–सी देह— सूखी लकड़ी’ की मानव देह की दो चरम–छोर स्थितियों का सम्मोहक रूपक मेरे अंतर्मन को टेर रहा है। ‘कागा सब तन खाइयो चुन–चुन खाइयो मास—दो नयना मत खाइयो पिया मिलन की आस’ के भावपूर्ण गायन ने मुझे भीतर तक भिगो दिया एक अछूती नेह–फुहार से। जीवन का समूचा रोमांस ही जैसे सिमट आया था इस बहुश्रुत दोहे में। ‘या खुदा—सूखे को पानी दे’ के गायन में जैसे इस बंजरभूमि की ही आत्मा की गुहार साकार हो उठी। ढोला–मरवण की कथा सुनी–पढ़ी थी. टी0 वी0 पर उसका आंशिक गायन भी सुना–देखा था. पर यहाँ उसके गायन ने पता नहीं मन के किन–किन सुदूर कोनों को भिगो दिया। बाह्य जगत जैसे विलीन हो गया। रह गया बस एक अनन्य आन्तरिक लोक सात सुरों की विविध मीड़ों का। मनुष्य के कंठ में बसी मिठास की जैसे अनन्त वर्षा—अवचेतन में समाती. उसे सराबोर करती। अंतिम प्रस्तुति थी राज्स्थान के प्रसिद्ध लोकनृत्य कालबेलिया की। पारंपरिक काले वस्त्रों में लिपटी दो युवतियों की बिजली की कौंध–सी चपल नर्तन–भंगिमाएँ चमत्कृत करतीं रहीं पूरे आधे घंटे तक और उसके साथ का गायन–वादन देह की शिरा–शिरा को जैसे एक नए आलोक. एक नई ऊर्जा से भरता रहा। दो घंटे से ऊपर का यह समय पता ही नहीं चला कब गुज़र गया। बीच के अन्य कुछ कार्यक्रमों में खड़ताल–ढोलक की जुगलबंदी एवं एक किशोर द्वारा पारंपरिक वेशभूषा में भवई नृत्य की चित्ताकर्षक प्रस्तुतियाँ भी अच्छी लगीं।
और फिर रात्रि–भोज। राजस्थान की खा।स पारंपरिक भोजन सामग्री यानी दाल–बाटी. गट्टे की तरकारी. बाजरे का चूरमा और इन सबके साथ ढेर सारा शुद्ध देसी घी। उम्र के हिसाब से हमने घी को छोड़कर अन्य सभी स्वादिष्ट भोज्यों का भरपूर स्वाद लिया। मन पहले ही जुड़ा गया था. अब देह भी जुड़ा गई।
मन की अलौकिक तृप्ति और शरीर की थकन लिए जब हम होटल मूमल वापस पहुँच. तो रात के साढ़े दस बज चुके थे। बिस्तर पर लेटते ही नींद आने में देर नहीं लगी और आँख सुबह ही खुली। किंतु जो नैश–यात्रा सपनों की हुई, उसमें जो सोनल–धूमिल छवियाँ अनवरत कोमल एहसासों का जाल बुनती रहीं, सुबह उन्हें छोड़कर उठने का मन नहीं कर रहा था। अर्ध - निमीलित आँखों से मैं उन्हें निहारता रहा, अंतरमन के किसी कोने में उनका जादू सँजोता–सहेजता रहा। स्मृतियाँ बनकर वे अनूठी छवियाँ बार–बार उभरी हैं मेरे गीतों में। स्मृतियों के ही तंतुओं से बुने जाते हैं तमाम काव्य–बिम्ब। और सोनल मरूभूमि की स्मृतियाँ तो मेरे लिए एकदम अलग ही रहीं। जहाँ–जहाँ वे उभरीं. वहीं–वहीं एक सोनल आभा मेरे गीतों में व्याप गई।
15 नवम्बर 2008
प्रातःभ्रमण मेरी जीवनचर्या का अंग रहा है। नित्यक्रियाओं से निपटकर मैं टहल आया हूँ होटल मूमल के पास के इलाके में। आसपास आबादी कम— खुले प्रशस्त मार्ग और सुनहले पथरीले टीले— अरावली पर्वत का ही एक छोर। यह आदिम लघु पर्वत बिखरा पड़ा है दिल्ली–हरियाणा से लेकर समूचे राजस्थान में अपनी विविध श्रंखलाओं में. अपने किसिम–किसिम के रंग–रूपों में। इससे जुड़ी हैं कितनी ही अनुपमेय शौर्य–गाथाएँ। यहाँ जैसलमेर में इस पर्वत का स्वरूप हलके तपे हुए सोने जैसा है। मार्ग के दोनों ओर श्रृंखलाबद्ध इन टीलों के बीच से उग रहा है सोनल सूर्य और मेरा कवि–मन उसकी अनूठी जोत में नहाकर सोनवर्ण हुआ जा रहा है। पूजा के उन क्षणों में उपज रहे हैं कविता–मंत्र. सोनबरन आदित्य को पूजते नए गायत्री मंत्र—
सोनबरन आदित्य महाप्रभु
सबके भीतर तुम्हीं समाये
तुमने रची जोत की भाषा
हुई उसी से सोनल धरती
चाहे पूजा का आँगन हो
चाहे होवे पर्वत–परती
सभी जगह तुमने हैं अपने
सोनरंग आशिष बिखराये
हाँ. उस सोनल द्वीप पर खड़े–खड़े मैं काल–देश की संज्ञा से कुछ पलों के लिए परे हो गया हूँ। किंतु लौटना तो है ही अपनी देह की सीमाओं में। लौटते में मैं सड़क के किनारे बिखरे पड़े छोटे–छोटे अग्निबरन पत्थर उठाता जारहा हूँ। ये स्मृतिचिह्न होंगे मेरी इस सोनपुरी की यात्रा के।
होटल मूमल में सब तैयार हैं।। मैं तैयार होकर गया था। सतीश ने दो ऑटोरिक्शा बुला लिए हैं। सबसे पहले जाना है जैसलमेर के साढ़े आठ सौ वर्ष से भी अधिक पुराने प्रसिद्ध किले को देखने। यशस्वी भट्टी राजपूतों की इतिहास–गाथा कहता यह किला सन् ११५६ में राजा जैसल द्वारा त्रिकुटा पहाड़ी पर सुनहले सैंडस्टोन से निर्मित कराया गया था। किले का आकार–प्रकार आज भी वैसे ही सुरक्षित है और यह भारत का एकमात्र ऐसा प्राचीन दुर्ग है. जिसमें आज भी आमजनों का वास है। बलुहे पत्थर के इस किले की भूमि भारत के भू–सर्वेक्षण विभाग के अनुसार लगभग १५४ लाख वर्ष प्राचीन है। प्राचीनता के इन आँकड़ों के बीच से गुजरते हुए इतिहास को अवलोकना. सच में. आतंकित करता है। अपने सत्तर–अस्सी बरस के सामान्य जीवन काल को बौना होते देखना कोई बहुत सुखद अनुभूति तो नहीं होती. किंतु दूसरी ओर मन के अतीत में अनन्तता से जुड़ने. उसका हिस्सा होने का जो एहसास होता है. वह भी अनूठा होता है। मैं इन्हीं दोनों एहसासों के बीच झूल रहा हूँ. जैसे–जैसे दूर से दिखता सत्यजित रे की फिल्म का यह अनोखा ‘सोनार किल्ला’ दृष्टि–पथ को घेर रहा है। अंदर से यह दुर्ग प्राचीन है और आधुनिक भी। किले की प्राचीर और बनावट प्राचीन. किंतु इसकी बसावट. इसके लगभग पाँच हजार वासियों का रहन–सहन एकदम आज का— भारत देश की प्राचीन–अर्वाचीन सभ्यता की बानगी देता।। ऊँची प्राचीरों से घिरा यह दुर्ग और उसके चार महाद्वार— गणेश पोल. भूत पोल. सूरज पोल और हवा पोल। दुर्ग के अंदर हैं कई गहरे कुएँ. जो यहाँ के वासियों की जल–आपूर्ति के एकमात्र साधन हैं। त्रिकुटा पहाड़ी या त्रिकूट पर्वत की किन गहराइयों से वे जल के सोते उमगते हैं. जो इन कुओं को निरन्तर भरा रखते हैं और वे सोते भी कितने आदिम होंगे. सोच–सोचकर मेरा मन विस्मित होता रहा। रामायणकालीन लंका के त्रिकूट पर्वत पर स्थित स्वर्णपुरी की भी याद आती रही। तुलसी की रामायण में वर्णित सोनलंका की वैभब–गाथा कहीं इसी दुर्गनगरी को देखकर तो नहीं उपजी थी। हाँ. आज की पर्यटन सुविधाओं से भी सुसज्जित है यह किला— तीस होटल और सौ से भी अधिक दूकानें। पूरी एक नगरी किले के अंदर ही। एक और बात गाइड ने हमें बताई. जो इस किले को विशिष्ट बनाती है। कई घरों के बरामदों में हमने गणेश एवं लक्ष्मी के विशाल भित्तिचित्र बने देखे। गाइड ने बताया कि रिवाज़ के अनुसार ये चित्र उस बात का संकेत देते हैं कि इन घरों में कुछ दिनों पूर्व ही विवाह–संस्कार संपन्न हुआ है। नव–विवाहिता पुत्रवधू के स्वागत में ये चित्र बनाए जाते हैं। और ये अगले विवाह तक यों ही बने रहेंगे। एक प्रकार से ये चित्र किसी गृह में लक्ष्मी–प्रवेश के प्रतीक के रूप में अंकित किए गए मांगलिक चिह्न होते हैं । भारतीय परंपरा के इस रूप को देखकर मेरा मन उत्फुल्ल हो गया। भौतिक–दैविक. दोनों दृष्टियों से संपन्न ये घर मुझे पूजाघर–से लगे। सर्वमंगल की यह कामना ही तो भारत की देन है विश्व–मानवता को। इसी से तो उपजी थी हर क्षण को पर्व बनाती भारतीय सांस्कृतिक संचेतना। विश्व–बंधुत्व और वसुधैव कुटुम्बकम् का महाभाव भी. जिससे हमारी ऋषि–मनीषा विश्व को एकसूत्र कर सकी। किले की बुर्जी से नीचे बिछी जैसलमेर की सोननगरी को देखते हुए मैं इन्हीं सब विचारों में डूबा रहा।
जैसलमेर की प्रसिद्धि इसकी हवेलियों के कारण भी है। उनमें से गुमानमल पटवा की पटवा हवेली की विशेष ख्याति है। राजशाही के जमाने में इस पटवा परिवार ने हीरे–मोती की गुँथाई की विशिष्ट कारीगरी के कारण ख़ूब यश अर्जित किया था। एक और गुप्त धंधा भी उनका रहा और वह था आज़ादी के बाद के शुरू के वर्षों में पाकिस्तान के इलाके से अफ़ीम की तस्करी का. जिससे इस परिवार ने खूब कमाई की। बाद में भारत सरकार ने जब तस्करी पर प्रतिबंध लगाकर सीमा पर कड़ी चौकसी कर दी. तो इस परिवार की कमाई को जैसे ग्रहण लग गया। राजशाही की समाप्ति से उनका हीरे–मोती का कारोबार भी समाप्तप्रायः हो गया। हवेली–परिसर में गुमानमल पटवा द्वारा बनवाई पाँच हवेलियों में से केवल हवेली नं0 तीन ही पटवा परिवार के पास बची है। पहली दो हवेलियाँ राजस्थान सरकार के पर्यटन विभाग के कब्जे में हैं और पर्यटकों के लिए वही खुली हुई हैं। दो अन्य हवेलियाँ निजी इस्तेमाल के लिए बाहरी उद्योगपतियों ने खरीद ली हैं और उनमें प्रवेश संभव नहीं है। इन हवेलियों का स्थापत्य. उनके अंदर की साज–सज्जा उन्हें, सच में, दर्शनीय बनाती हैं। उन्हें देखते हुए मुझे बार–बार काल के प्रभाव का भान होता रहा। एक कहावत है लक्ष्मी सात पीढ़ियों के बाद अपने पाँव फेर लेती है। इस बात की तस्दीक कर रहीं थीं ये हवेलियाँ। एक और बात मन में आती रही— कलात्मक सौन्दर्यबोध एवं भौतिक–आर्थिक समृद्धि का क्या रिश्ता है। क्या भ्रष्ट तरीकों से अर्जित धन से ही अधिकांशतः कला को प्रश्रय नहीं मिला है ? अठ्ठारहवीं सदी के एक अंग्रेज दार्शनिक मैनडेविल ने अपने ग्रंथ ‘दी फेबिल ऑफ दि बीज़’ में भ्रष्टाचार को हर प्रकार की समृद्धि का मुख्य कारक माना है। एक ओर हीरे–मोती की गुँथाई की कलात्मकता और दूसरी ओर अफ़ीम की तस्करी। मानुषी सभ्यता के विकास के इतिहास में इस प्रकार की विसंगति बराबर देखने में आती है। किंतु मनुष्य के विशुद्ध सांस्कृतिक विकास के लिए तो सहज साधु जीवन एवं गहन एकांतिक साधना बेहद ज़रूरी है। अजंता–एलोरा की कलात्मक सिद्धि. तुलसी–सूर–ग़ालिब की साहित्य–साधना. बैजू बावरा–तानसेन–स्वामी हरिदास या हमारे समय के मेहर के संगीत–साधक उस्ताद अलाउद्दीन खाँ जैसे व्यक्तियों की ऋषि भावभूमि के लिए तो एक त्यागी–तपस्वी जीवन जीना नितांत अनिवार्य है। माइकेलएंजलो या लियोनार्डो दा विंची अथवा बीथोवन या आइज़क न्यूटन का अव्यवहारिक होना. उनमें बुनियादी स्वार्थ दृष्टि का न होना ही तो सहायक रहा है मनुष्य के समग्र विकास के लिए। मैं मानुषी सभ्यता की इन्हीं विसंगतियों के बारे में सोचता रहा पटवा हवेली के बीच से गुजरते हुए।
हमारा अगला पड़ाव था गड़ीसर तालाब। इस महाताल का निर्माणकार्य जैसलमेर नगर के संस्थापक महारावल जैसल के समय में ही शुरू हो गया था. किंतु इसे पूरा करवाया महारावल गड़सी ने। संवत् 1909 में इसके भव्य प्रवेश द्वार का निर्माण तेलन नामकी एक वेश्या ने करवाया। जनता के विरोध के कारण उस समय के महारावल सैलन सिंह ने इसे गिराने के आदेश दे दिये. किंतु तेलन ने बड़ी चतुराई से इसके शिखर पर रातों–रात भगवान विष्णु की प्रतिमा की स्थापना करवाकर इसे तोड़े जाने से बचा लिया। तबसे एक ‘बदनाम झील’ की संज्ञा इसे प्राप्त हुई। एक सौ बीस वर्गंमील के क्षेत्रफल में फैला एक छोटी झील के आकार का यह ताल राजस्थान स्थापत्य की छतरियों और घाटों की दृष्टि से दर्शनीय है। ताल के बीच में पीले पत्थर से बनी महारावल जैसल की छतरी पानी में तैरती बड़ी सुन्दर लगती है। थोड़ी देर इस ताल के किनारे बैठना सुखद रहा। यहाँ रमा एक पत्थर पर पैर रखते समय फिसलकर गिर गईं। गनीमत थी कि कोई गम्भीर चोट नहीं आई।
और इसके बाद जैसलमेर राजशाही की पुरानी राजधानी लौद्रवापुर. जहाँ लगभग बारह सौ साल पुराने टूटे–बिखरे खंडहर कथा कहते हैं एक समय के वैभवशाली जीवन की. उसके धूल–धूसरित हो जाने की। वहाँ थोड़ी देर खड़े होकर काल की गति को देखना–परखना यानी मनुष्य के अहंकारों की अंतिम परिणित से रू–ब–रू होना मुझे ज़रूरी लगा। लौद्रवापुर में ही स्थित श्री चिन्तामणि पाश्र्वनाथ राज– परिवार और उस समूचे क्षेत्र पर जैनधर्म के प्रभाव की गाथा कहता है। मंदिर भव्य है और आज भी अपने मूल रूप में सुरक्षित है। अष्टापद गिरि पर यहीं स्थित है एक वृक्ष. जिसे कल्पवृक्ष की मान्यता प्राप्त है। इस वृक्ष को अक्षय कहा जाता है। महाभारत काल में भगवान श्रीकृष्ण इन्द्र को पराजित कर सत्यभामा की संतुष्टि हेतु स्वर्ग से कल्पवृक्ष को द्वारका लेकर आए थे। द्वारका नगरी तो उनके अंतध्र्यान होने के बाद जलमग्न हो गई थी और कहते हैं कि कल्पवृक्ष स्वर्ग वापस चला गया था। हो सकता है उसी कल्पवृक्ष की या तो कोई शाखा या कोई बीज यहाँ पनप आए हों। पास में है अमरसागर. जहाँ स्थित है श्री आदिश्वर भगवान का मंदिर। लौद्रवापुर की ओर आते हुए रास्ते में रामकुंडा में रामकुंडा मंदिर एवं रामनंदीय वैष्णव संस्थान भी हमने देखा।
दिन गुज़र चुका है और हम लौट रहे हैं मूमल होटल की ओर। सूरज पश्चिमी क्षितिज पर जैसे अपने ही रक्त में नहाया ढल रहा है। एक चिताग्नि–सा धधक रहा है उधर का आकाश। उसके साथ ही क्षितिज पर दिख रहे हैं पवन–ऊर्जा को साधते आधुनिकता के प्रतीक लौह डैनों वाले विद्युत–स्तंभ। मृत्यु और मानुषी जिजीविषा का एक साथ साक्षात्कार। आज दिन भर की अनुभव–समृद्धि को मैं सहेज रहा हूँ अपनी अनुभूतियों में। स्मृतियों की सर्जनात्मक छलनी से छनकर यही समृद्धि तो कल मेरी रचनाओं में छलकेगी। अतीत की भूमि पर खड़े होकर मैंने मनुष्य की जिजीविषा. उसकी नियति को देखा–परखा है। वही मेरी सर्जनात्मकता को एक नया आयाम देगा। सोनपुरी जैसलमेर की यात्रा को यहीं विराम। आज रात को यहाँ से प्रस्थान यानी एक नया यात्रापथ. एक नया सूर्योदय कहीं और।