यादगार / श्याम सुन्दर अग्रवाल
विरसा सिंह बस से उतरकर, गाँव वाली सड़क पर पहुँच कर रुक गया। विलायत से आने के पश्चात, वह अपने मामा के लड़के से मिल कर आ रहा था। उस गाँव के बाहर बने बहुत बड़े एवं सुंदर गेट को देख कर उसने सोचा कि वह भी अपनी माँ की स्मृति में अपने गाँव के बाहर एक वैसा ही सुंदर गेट बनवायेगा। विलायत में विरसा सिंह ने कड़े परिश्रम से बहुत सारा धन कमाया था। इस कमाई में से वह अपने गाँव में एक स्मारक बनवाना चाहता था। सलाह-मशविरा तो वह कई दिनों से दोस्त-मित्रों के साथ कर रहा था। किसी ने धर्मशाला बनवाने की सलाह दी तो किसी ने डिस्पैंसरी की। किसी ने श्मशान-भूमि में कमरा व शैड बनवाने को भी कहा। बरसात में मुर्दा फूँकने में बड़ी परेशानी होती थी। लेकिन विरसा सिंह कोई निर्णय नहीं ले सका था। वह सड़क के बीचों-बीच खड़ा गेट की कल्पना करने लगा। जब लोग यहाँ से गुजरेंगे तो उसकी माँ का नाम पढ़कर उसे याद किया करेंगे। कुछ देर तक खड़ा, वह गेट की लंबाई, चौड़ाई व ऊँचाई का अनुमान लगाता रहा। आकाश में बादल उमड़ आए थे और मौसम खराब होता जा रहा था। बारिश आ जाने के डर से वह चल पड़ा। वह मुश्किल से गाँव के बाहर बने स्कूल तक ही पहुँच पाया था कि बारिश आ गई। खुले मैदान में बैठे विद्यार्थियों को तेजी से वृक्षों की ओर भागते देख, वह भी उधर को ही हो लिया। विद्यार्थियों के लिए वृक्षों की छत काफी नहीं थी। वे स्वयं भी भीग रहे थे और उनकी कापी-किताबें भी। विरसा सिंह थोड़ा-थोड़ा भीगता हुआ अध्यापक से स्कूल के बारे में बातें करता रहा। बारिश कुछ थमी तो वह विद्यार्थियों के साथ ही गाँव की ओर चल पड़ा। बच्चों के साथ जाते हुए उसे अपना बचपन याद आ रहा था। वर्षा वाले दिन उसकी माँ उसे स्कूल ही नहीं भेजती थी। बारिश में भीगने से उसे बुखार जो हो जाता था। विरसा सिंह सीधा सरपंच के पास गया और माँ की स्मृति में स्कूल में कुछ कमरे बनवाने का निर्णय सुना दिया।