यादें, जो भुलाए न बनें / अरुण नारायण
मनोहर श्याम जोशी से दिल्ली में संघर्ष के दिनों जान-पहचान हुई। वे मेरी फ्रीलांसिंग जीवन के बेहद कटु दौर थे और उतने ही दिलचस्प भी। इस पहचान के माध्यम पंकज बिष्ट थे। बिष्ट जी से मेरी बेहद अंतरंगता थी। मासिक ‘समयांतर’ के वैश्वीकरण विशेषांक की उन दिनों तैयारी चल रही थी। इसके लिए मनोहर श्याम जोशी से भी एक लेख लिखवाने का निर्णय लिया गया था और इसके लिए उन्होंने अपनी सहमति भी दे रखी थी। ‘ग्लोबल गांव का सांस्कृतिक संकट’ नाम से उक्त अंक में जोशी जी का वह लेख छपा। इस लेख के डिक्टेशन लेने के दौरान ही जोशी जी से मेरी पहली भेंट हुई। यह पहचान आने वाले दिनों में और प्रगाढ़तर हुई। पहली बार इस सिलसिले में पंकज बिष्ट के अनुरोध पर ही जनवरी 2005 में उनके घर गया था। तब वह साकेत में डी.डी.ए-53 के फलैट में रहते थे। उस समय दिल्ली में भयंकर ठंढी थी। पंकज बिष्ट और रामशरण जोशी की सख्त हिदायत थी कि हर हाल में हमें जोशीजी से वह आलेख लिखवा कर ही दम लेना है। उस दिन मैं कनाट प्लेस की बस से साकेत स्थित उनके आवास पर पहुंचा था। उनका आवास खोजने में कोई खास परेशानी नहीं हुई थी। फोन पर हुई वार्ता में जोशी जी ने बतलाया था कि उनके घर के सामने कपड़े पर आयरन करने वाला ठेला लगाता है। उनके घर पहुंचने के रास्ते उस ठेले वाले पर नजर गई तो मैंने जोशी जी के बारे में उससे पूछा। उनके घर की ओर इंगित करते हुए इशारों में उसने रास्ता बतला दिया। मकान की बाहरी ओर से पतली-सी सीढ़ियां थी जो प्रथम तल पर जाती थी। इसी प्रथम तल्ले पर रहते थे जोशी जी और ठीक सीढ़ी के पास ही उनके नाम का एक बड़ा-सा लेटर बाॅक्स टंगा रहता जिसमें देश भर से आयी बेशुमार पत्रिकाएं और पत्रों की बाढ़ लगी रहती। बेल बजाई तो उन्होंने स्वयं दरवाजा खोला। मेरे आगमन और औपचारिक अभिवादन बाद वे मुझे बालकनी की ओर ले आये। वहां पहले से ही तीन कुर्सियां लगीं थीं। जिसमें एक पर उनकी पत्नी बैठी थीं। वह नाटे कद की थीं। उस समय स्वेटर या अन्य कोई ऊनी पोशाक बुनने में अपनी रफ्तार में मगन थीं। जोशी जी ने बैठने का इशारा किया और एक सक्षिप्त-सी जानकारी मुझसे ही मेरे बारे ली। फिर लेख लिखवाने के लिए पैड और कलम मुझे थमा दिया। उस दिन वह लेख पूरा नहीं हो पाया। उन्होंने अगले दिन बुलाया। दूसरे दिन भी पूरे दिन उनका बोला हुआ लिखता रहा, लेकिन उस दिन भी वह लेख पूरा नहीं हो पाया। दरअसल जोशी जी जैसा चाहते थे, वह लेख, वैसा बन नहीं पा रहा था। वे बार-बार लिखवाते, काटते और कभी-कभी पूरा लेख ही काट देते और नए सिरे से फिर शुरू करवाते। यह सब करते-कराते तीसरा दिन भी गुजर गया। और तब भी बात नहीं बनती दिखी। उधर ‘समयांतर’ का अंक फाइनल होकर बेसब्री से उस लेख की प्रतीक्षा में था। बार-बार पंकज बिष्ट और रामशरण जोशी जी का फोन आता। लेकिन मनोहर श्याम जोशी जी की दुविधा यह थी कि वह लेख जैसा वह चाह रहे थे बन नहीं पाया था। अंततः उन्होंने लगातार प्रेशर के कारण असंतुष्ट भाव से वह लेख दिया जो ‘समयांतर’ के फरवरी, 2005 वाले वैश्वीकरण विशेषांक में छपा। उस विशेषांक का अतिथि संपादन रामशरण जोशी ने किया था और संपादन सहयोग में मेरा भी नाम था। संपादन से जुड़ाव और पंकज बिष्ट की घनिष्ठता के कारण यह लाजिमी ही था कि जोशी से से उक्त आलेख को पाने के लिए मैं इतनी मशक्कत करता।
मनोहर श्याम जोशी के साथ तीन-चार दिनों तक काम करने का यह अनुभव काफी उबाऊ और नीरस था। यह बात तब मेरी समझ से परे थी कि कोई व्यक्ति इस हद तक यातनामय होकर भी लिखने में रत रह सकता है। इस लेख को लिखवाने में वे जबर्दस्त मानसिक यातना और उलझन से रू-ब-रू हुए थे। और मैं बार-बार उनके लिखे हुए को काटे जाने से खीझ उठता था। लेकिन जब उन्होंने अपने लिखे हुए का डिक्टेशन लेने का अनुरोध मुझसे किया तो उनके प्रति अपनी इन तमाम आरंभिक नकारात्मक बातों के बावजूद पता नहीं क्यों, इतनी जल्दी उनके बोले हुए को लिखने के उनके प्रस्ताव को सहर्ष स्वीकार भी कर लिया था। इसके पीछे कहीं न कहीं मेरा यह मनोविज्ञान काम काम कर रहा था कि हिंदी के इतने महत्वपूर्ण लेखक की सदिच्छा का सम्मान किया जाना चाहिए। शायद यही वह दायित्वबोध था जिसके दवाब मैंने हामी भरी थी। फिर यह जिजीविषा भी कहीं न कहीं रही थी यह जानने की कि इतने बड़े लेखक की सृजन प्रक्रिया की बारीकियों को समझूं...कि वह किन-किन प्रक्रियाओं से होकर किसी रचना को उसकी परिणतियों तक पहुंचाता है। उस समय मैंने यही तय किया था कि फिलहाल फ्रीलांसिंग को थोड़ा विराम दूंगा और कायदे से लेखन की बारीकियों का जोशी जी से क, ख, ग, घ सीखूंगा। मैंने अपने मन को समझाया था कि लेख लिखवाने की जोशी जी की मनःस्थिति नहीं रही होगी इसलिए शायद उन्हें उस समय इतनी मशक्कत करनी पड़ी होगी। लेकिन बाद में मैंने पाया कि वे ‘आउटलुक’ वाले साप्ताहिक स्तंभ लिखवाने और और उपन्यासों में भी इसी तरह कई-कई बार काट-छांट करवाते हैं। मैंने डेढ़- दो महीने लगातार उनके साथ काम किया। उस समय वे ब्रिटिशकाल के चर्चित ‘भुवाल स्टेट कांड’ पर अपने उपन्यास ‘मैं कौन हूं’ का दूसरा ड्राफ्ट तैयार कर रहे थे और चाहते थे कि होली के बाद अपने बेटे के अमेरिका स्थित घर जाने के पहले ही पूरा कर लें और इसे वाणी प्रकाशन को शीघ्र सौंप दें ताकि उनके अमेरिका से लौटते-लौटते वह साया हो जाए। हालांकि उस अवधि में उनकी यह योजना पूरी नहीं हुई और होली आ जाने के कारण मैं भी घर लौटने का बहाना कर एक अखबार में डेस्क पर अपनी नौकरी तय कर ली। यह नौकरी मुझे पहले भी मिल रही थी, लेकिन मैं द्वंद्व में था कि आखिर रास्ता कौन-सा चुनूं? अखबार की नौकरी के अपने बहुत सारे खतरे थे। वहां पैसे बहुत कम मिलते और काम का दबाव इतना ज्यादा होता कि पढ़ने का समय ही नहीं मिलता था। जोशी जी के साथ काम करने का अनुभव आर्थिक रूप से काफी घाटे वाला प्रतीत हो रहा था। वे इतना भी पैसा नहीं दे पा रहे थे जिससे मैं रहने-खाने के खर्च की चिंता से मुक्त हो सकूं। हालांकि वे आश्वासन खूब देते थे। उस दरम्यान वाणी प्रकाशन में मेरी नौकरी की बाबत अरुण माहेश्वरी से बात भी की थी। उस समय वे अपने प्रकाशन गृह से एक लघु पत्रिका लाना चाहते थे। इसके लिए मैं माहेश्वरी से उनके दरियागंज स्थित कार्यालय में मिला भी। लेकिन अंततः कोई बात नहीं बनी।
मैं गहरे पशोपेश में था। जोशीजी को छोड़ना भी नहीं चाहता था और उनके साथ काम करते हुए अपना मासिक खर्च भी पूरा नहीं जुटा पा रहा था। समझ में नहीं आता था कि हमारा भविष्य क्या होगा। उनके संपर्क में आने के बाद साहित्य की एक और खेमेबाजी को मैं बहुत करीब से जान पाया। पहले राजेंद्र यादव, कमलेश्वर, अशोक वाजपेयी, नामवर सिंह, विष्णु खरे, सुधीश पचौरी, रवींद्र कालिया आदि ग्रुप मुझे दिखलाई पड़ते थे। इसके अलावा जलेस, प्रलेस और जसम की सक्रियता भी कमतर न थी और इनके भी अपने-अपने मंच थे। इसमें अच्छी बात यह थी कि ये सभी साहित्य की केंद्रीय धुरी थे और सभी तमाम तरह की भिन्नता के बावजूद वामपंथी थे। इसके अलावे भी मठ और गढ़ कम नहीं थे। दलित साहित्यकार भी उन्हीं दिनों एक बैनर तले एकजुट होने शुरू हुए थे। मनोहर श्याम जोशी के पास आया तो पहली बार यह अहसास हुआ कि सफलता जोड़-तोड़ से भी हासिल की जा सकती है और जिनपर इनकी कृपा होगी उसे ये कुछ भी करवा सकते हैं। जहां तक मुझे याद पड़ता है जोशी जी वाम रंग में रंगे नौजवानों को मूर्ख समझते लेकिन वामपंथी मठों से अपना संबंध मधुर बनाए रखते थे। इसका गणित उन्हें मालूम था। शायद वे इस चीज को भांपते थे कि ये वाम संगठन अलग-अलग क्षेत्रों में उनके अनुकूल वातवरण की सृष्टि कर सकते हैं इसीलिए उनकी यह रणनीति रही हो शायद। उनकी बात से भी लगता था कि उन्हें इस बात का इलहाम था कि सभी दलों और विचारधाराओं को अस्वीकार करने के कारण लोग उन्हें ‘सिनिक’ ठहराते हैं। मीडिया और प्रकाशन की दुनिया में वे किसी को भी सम्मानजनक नौकरी दिलवाने का सामर्थ रखते थे। वे नेशनल बुक ट्रस्ट से लेकर कई महत्वपूर्ण कमिटियों के भी सदस्य और उसके सलाहकार थे। इसकी वजह से भी उनसे जुड़े रहने में ही मेरा हित दिखता था। वे कहते भी कि मैं पंकज बिष्ट से जुड़ा हूं जो सबसे विरोध ही मोल लेते हैं। ऐसे में उन्हें नहीं लगता था कि मेरे बारे में कोई सोचेगा भी। वह कहते मैं कुछ दिनों तक उनका साथ दूं ताकि वे अपने अधूरे उपन्यास को पूरा कर लें फिर वे मुझे कहीं अच्छी जगह सेट करवा देंगे। उस दौरान उन्होंने अपने ‘आउटलुक’ में लिखे जा रहे स्तंभ संग्रह का फोटो स्टेट करवाया और मुझे उसको विषयवार समेटकर उसका समायोजन करने का भी काम सौंपा था और कहा था कि इससे भी मुझे कुछ पैसे मिल जाएंगे। उन्होंने अपने साक्षात्कार की सामग्री किताब रूप में लाने हेतु अपने शिष्य प्रभात रंजन को दे रखी थी, लेकिन वे उसे संयोजित करने का अवकाश नहीं निकाल पा रहे थे। इसको लेकर वह उनसे मन ही मन उनसे बहुत रंज चल रहे थे। कहते थे–बहुत ही कुटिल प्राणी है। मिलेगा इस तरह जैसे आपकी बड़ी चिंता करने वाला हो। उस दिन उन्होंने यह भी बतलाया था किस तरह ‘सहारा समय’ की कथा प्रतियोगिता में उन्होंने उनकी कहानी को पुरस्कृत करवाया। उस साक्षात्कार को भी मुझे ही संयोजित करने को कहा था उन्होंने और आश्वस्त किया था कि उससे भी मुझे चार-पांच हजार रुपए मिल जाएंगे। लेकिन दुर्योग से इन दोनों ही काम का वक्त नहीं निकला। उनके लेखन डिक्टेशन में ही इतना समय चला जाता कि उसके लिए अलग से समय ही कहां मिलता। उनका ‘आउटलुक’ का स्तंभ भी बीच में ही छूट गया। इसमें उन्होंने आधुनिकता, इस्लाम और अमेरिका–इन तीन विषयों पर अपने विचार अभिव्यक्त किए थे। स्वाधीनता संग्राम में वकीलों के योगदान पर भी ‘आउटलुक’ में उन्होंने एक महत्वपूर्ण लेख लिखा था।
उपन्यास लिखवाने के दौरान वह उसकी पृष्ठभूमि के बारे में लगातार पढ़ते-गुनते रहे। मैंने यह नोट किया कि वह उस उपन्यास को लिखवाते वक्त अपनी साहित्यिक कल्पना का भरपूर उपयोग करते। कई मौके तो ऐसे आते जब वह दस-दस, बीस-बीस और पचास पेज तक काट-छांट डालते। इस समय उनकी मनःस्थिति बड़ी पीड़ादायी हो उठतीं। कभी-कभी खीझभरे स्वर में माथे की ललाट पर हथेलियां रखते हुए पत्नी की ओर मुखातिब होते और कहते–भगवती, इसमें गोबर भर गया है। यह बड़ी दारूण घड़ी होती। ऐसे मौके पर उनकी पत्नी अपने कर रहे काम को वहीं छोड़ देतीं और उनकी हर क्रिया को बहुत गौर से फौलो करतीं। इस उपन्यास को लिखते समय भुवेश सान्याल और स्वाधीनता आंदोलन में बंगाल और उन विषयों पर वह गूढ़ से गूढ़ पुस्तकें पढ़ते रहे। एक अंग्रेजी पुस्तक उस दौरान बराबर संदर्भ के लिए उलटते। वह किताब अगर भूल नहीं रहा तो संभवतः अंग्रेजी लेखक अमिताभ घोष की थी। ‘प्रिंसली इंपोस्टर’ यही नाम था उस पुस्तक का। उस किताब में स्टीकरों का ढेर लगाए रखते और लिखवाने के क्रम में उलट-फेरकर उसका अवलोकन करते। मैंने ऐसा महसूस किया कि शाम छह बजे मेरे जाने के बाद वह रात में पढ़ते थे और एक बांग्ला भाषी सज्जन से भी सलाह मशविरा लेते थे। सुबह मेरे दस बजे आने के पहले आगे क्या लिखवाना है इस तरह से अपना माइंड सेट रखते थे। उनके घर से रूख्सत होते कभी-कभी सात बज जाते। उनके घर से निकलते ही मैं सार्वजनिक परिवहन की बस आउटर मुंद्रिका पर सवार होता जो दिल्ली की कई काॅलोनियों का चक्कर लगाती हुई मुझे आनंद विहार बस अड़डे पर उतारती। आनंद विहार पहुंचते-पहुंचते लगभग ढाई घंटा लग जाता था और वहां से वसुंधरा के सेक्टर 11 पहुंचने में आधे घंटे। हर दिन मैं नौ- दस बजे घर पहुंचते-पहुंचते अपने को टूटा निचुड़ा हुआ-सा महसूस करता।
अपने बारे में तटस्थ होकर सोचना, अपना मूल्यांकन स्वयं करना मैंने पहली बार जोशी जी की इस सोहबत में ही जाना। वह भी उनके द्वारा अहसास करवाये जाने के बाद। मेरे लिखे हुए को वे खुद देखते। वर्तनी संबंधी भूलों को दूर करने के गुर बतलाते। अक्सर मैं उसका फाॅलो नहीं कर पाता। बावजूद इसके वह पुनः बड़े धैर्य के साथ मुझे मेरी गलतियों की ओर ध्यान खींचते। अगर उसके बाद भी मैं गलतियां करता ही जाता तो उनका गुस्सा सातवें आसमान पर तैर रहा होता। वह बहुत जोर फटकार लगाते। कहते ‘यह हिंदी का दुर्भाग्य है कि तुम अपने को लेखक कहते हो और तुम्हें भाषा को कहां और किस तरह बरतना चाहिए, यह भी नहीं आता।’ उनके बार-बार की कांट-छांट से अत्यधिक चिड़चिड़ा हो जाने के कारण यह गलतियां मुझसे ज्यादा होतीं। सोचता पता नहीं कब ऐसे भंवर से पार पाउंगा। पार कर पाउंगा भी या नहीं। कभी-कभी उनकी तिक्तता मुझे भीतर से झुंझला कर रख देती। इस तरह की नौबत तब आती जब वे लिखना कुछ चाहते और उनसे लिखा कुछ जाता। कभी- कभी यह प्रक्रिया उनके साथ दो-तीन दिन अवाध गति से चलती। ऐसे मौकों पर वे मेरी अच्छी-खासी धुलाई कर देते। ऐसे विकट समय में उनकी पत्नी मुझे पुत्रवत स्नेह और ढाढ़स देतीं। मिष्ठान खिलातीं। उन दिनों जोशी जी के एक और व्यवहार ने मुझे उनके प्रति रंज किया। आता तो सीधे उनके डिक्टेशन शुरू हो जाते। जैसे ही डेढ़-दो बजे का समय होता वे मुझे ताकीद करते कि घर से बाहर जाइए और आधे घंटे में कुछ खाकर आ जाइए। मुझे उनका यह व्यवहार उनके प्रति वितृष्णा पैदा करता था। मेरी अपेक्षा रहती थी कि मेरे साथ घरैया की तरह व्यवहार करें। जब कभी ऐसा व्यवहार उनका दिखता भी था। कोई उनके घर आता तो वे उससे मेरा परिचय साहित्यकार के रूप में कराते। एक बार सुभाष धूलिया उनके घर आये हुए थे। तो उन्होंने उनसे भी मेरा परिचय अच्छे से करवाया। उनके चले जाने के बाद बतलाया कि वे उनके पड़ोस में आ गए हैं। लेकिन खाने के मोर्चे पर वे बहुत निर्मम मालूम पड़ते। मैं हर दिन उनके घर से निकलता और बगल में पी.भी.आर. के पास तीन रुपया का छोला और दो रुपया का कुल्चा खरीदता लेकिन इससे पूरी तरह भूख मिटती नहीं थी बल्कि इसे खाने के बाद भूख और प्रबल हो उठती थी। किसी तरह अतृप्त-सा होकर ही संतोष करता। सच तो यह है कि मुझ-सा फटेहाल फ्रीलांसर के जीवन का यह बहुत ही नाजुक दौर था किसी किसी दिन तो ऐसी स्थिति आ जाती कि मेरी जेब में आनंद विहार से वसंधुरा लौटने के ऑटो के ही पैसे रहते। उसके अलावे एक पैसे नहीं रहते। वह तो शुक्र था कि परिवहन निगम से मासिक पास बनवा लिया था इस कारण वहां आने- जाने की चिंता न थी। लेकिन भूख में अंदर से कमजोरी कुछ ज्यादा ही पीड़ादायी हो जाती। आंखों के आगे अंधेरा छा जाता और दिमाग चक्कर काटता। बहुत जोर से उंघाई आती, लेटने की तलब होती लेकिन जोशी जी के लेखन के समय वह आराम कहां? वह तो अविराम भाव से गतिमान रहते थे। हमारी इस दुविधा को वे कितने समझते थे यह तो मैं नहीं कह सकता लेकिन मेरे संघर्ष का इलहाम उन्हें था। उनके साथ काम करते हुए बराबर यह महसूस हुआ कि उनके मन में मेरे प्रति एक हमदर्दी थी। इसकी वजह यह भी रही हो कि मुसीबतों में घिरे रहने की वेदनापूर्ण स्थिति में भी मैंने कभी उनके समक्ष अभाव का रोना नहीं रोया। वह तब तक के मेरे जीवन के सबसे बुरे दिन थे। उतना विकटपूर्ण आर्थिक हालत पटना में एकाध बार हुई थी जब एक सर्वे करने वाली कंपनी में उसके तीन दिन दिनों के लंबे-चौड़े प्रवचन के बाद कंपनी के सिगरेट सर्वे के लिए दीघा गया था एक सप्ताह। और वहां भी अंततः एक पैसा हाथ नहीं आया था। हम जैसे मध्यवर्गीय बेकार नौजवान उन दिनों घर से भी उपेक्षा का दंश झेल रहे थे और दैनंदिन जीवन भी पहाड़ की मानिंद दुरूह और अभेद्य जान पड़ता था। जीवन और मौत का फासला ऐसे ही करुण क्षणों में मिट जाता है। और लोग आत्महत्या का रास्ता अख्तियार करते हैं। यहां हर अभाव के बाद भी मन को एक संतोष था कि हिंदी के एक बड़े लेखक से जुड़ा हुआ हूं। हमारे यहां सामंतवाद ने यही तो सीखाया है कि कुछ नहीं के बाबजूद गर्विली दर्पोक्ति में अपना यह खोखलापन हम नहीं छोड़ पाते। फिर मन को एक रचनात्मक सुकून भी तो इन्हीं स्थितियों में मिलता था। एक दिन उन्होंने कहा कि उनके पास बहुत सारे वस्त्र हैं अगर मैं चाहूं तो वे मुझे दे सकते हैं। उस दिन मुझे उनका यह व्यवहार बहुत बुरा लगा था। लेकिन अपना प्रतिरोध दर्ज करने का साहस नहीं हुआ था। मन ही मन कई दिनों तक मैं घुटता रहा था। बाद में मुझे अपनी इस प्रश्नाकुलता पर गहरा अफसोस हुआ। जिस तत्परता से मैं उनके घर से पत्रिकाएं और किताबें ले जाता था शायद उन्होंने सोचा हो इसे वस्त्र भी दिया जाए। इसीलिए उन्होंने पूछा होगा। मुझे तब उनका यह पूछना बुरा लगा था। उस दिन मेरे स्वाभिमान को गहरा आघात लगा था, लेकिन तब मन ही मन मैंने इसे बिसार दिया था। उनके घर हर दिन काम खत्म करते वक्त जो चाय मिलती वह दिन भर की थकान को सोख लेती। मैंने अब तक के जीवन में इतना सुस्वादु चाय कभी नहीं पिया। उस चाय में गोल मिर्च का स्वाद भी समाहित था जो पूरे दिल्ली में मुझे कहीं नहीं मिली। युवा कवि आर.चेतन क्रांति दंपति के घर की चाय बहुत अच्छी लगती थी, लेकिन भगवती आंटी वाली चाय के आगे वह भी फीका ही मालूम पड़ती। जोशी जी से जुड़ी कई और बातें याद आती हैं। लेकिन स्पेस का अभाव है इसलिए उसपर आगे कभी।
आज जब जोशी जी हमारे बीच नहीं हैं, अपनी अकर्मण्यता पर मुझे गहरा पश्चाताप हो रहा है। उन्होंने जो सौ रुपये होली से घर से लौटने के बाद पटना से मखाना लाने के लिए दिए थे, वह मखाना मैं उन तक नहीं पहुंचा पाया। एक तो संयोग ऐसा रहा कि उनसे छूटते ही मैं दिल्ली छोड़ गुवाहाटी चला गया और बाद के दिनों में दिल्ली पहुंचा भी तो जल्द ही बिहार विधान परिषद में नौकरी लग गई। यह सब जाबिर हुसेन साहब की सदाशयता थी कि बगैर परिचय के भी उन्होंने मुझे इस लायक समझा। फरवरी, 2006 में विश्व पुस्तक मेले में जब दिल्ली जाना हुआ तो इच्छा थी कि उनके दिए गए सौ रुपय उन्हें चुकता करता चलूं किंतु वहां मेला और मित्रों परिचितों से मिलने-जुलने में ही इतना वक्त निकल गया कि उनके पास नहीं जा पाया। अब जबकि वे नहीं हैं सोचता हूं उनके घर जाउंगा तो कैसा लगेगा? उनकी पत्नी भगवती जोशी मुझे बहुत आदर देती थीं, लेकिन जोशी जी की अनुपस्थिति में मिलते हुए मैं उन्हें सांत्वना का कौन-सा शब्द कहूंगा। मैं तो खुद ही शुरू से ही संकोची और अंतर्मुखी स्वभाव का रहा हूं। मेरा संशयग्रस्त मन इस समय अजीब उहापोह में है। उसे समझ में नहीं आ रहा कि वह मनोहर श्याम जोशी के इस रुपये का का कर्ज इस जन्म में चुका पाऊँगा भी या नहीं।