यादें / भीष्म साहनी
ऐनक के बावजूद लखमी को धुन्धला-धुन्धला नज़र आया । कमर पर हाथ रखे, वह देर तक सड़क के किनारे खड़ी रही । यहाँ तक तो पहुँच गई, अब आगे कहाँ जाए, किससे पूछे, क्या करे ? सर्दी के मौसम को दोपहर ढलते देर नहीं लगती। अन्धेरा हो गया, तो वह कहीं की नहीं रहेगी। इतने में दाईं ओर से एक धूमिल-सा पुँज उसकी ओर बढ़ता नज़र आया, जो आगे बढ़ता जाता, और कुछ-कुछ स्पष्ट होता जाता था । कोई आदमी है। इससे पूछ देखूँ ? परन्तु पुरुष की वह धूमिल-सी काया ऐन उसके सामने पहुँचकर, एक मकान की ओर घूम गई ।
— वीर जी, सुनो तो, बेटा...बाबू बनारसीदास का मकान कहाँ है ?
आदमी ठिठक गया। क्षण भर उसकी आँखें जर्जर बुढ़िया पर टिकी रहीं। फिर वह आगे बढ़ आया ।
—चाची लखमी ?
— हाय, बच्चा, तूने मुझे झट से पहचान लिया। तू मेरी गोमा का बेटा है। तू मेरा रामलाल है न ?
और पतला हड़ियल हाथ उस आदमी के कन्धों और चेहरे को सहलाने लगा ।
— हाय, मैंने अच्छे करम किए थे, जो तू मिल गया। मैं कहूँ, अभी अन्धेरा हो गया, तो मैं कहाँ मारी-मारी फिरूँगी ? मेरे दिल को ठण्ड पड़ गई, बच्चा राजी-ख़ुशी हो? महाराज तुम्हें सलामत रखे।
बुढ़िया सिर ऊँचा उठाकर, बचे-खुचे दो दाँतों से मुस्कराती, असीसें देने लगी।
— सरीरों के लेखे, बेटा, दुनिया से जाने का वक्त आ गया। मैंने कहा, आँख रहते एक बार अपनी गोमा को तो देख लूँ। कौन जाने, नसीब में फिर मिलना हो या न हो — फिर कमर पर हाथ रख कर, बड़े आग्रह से बोली — मुझे उसके पास ले चल, बेटा। घण्टे भर से यहाँ भटक रही हूँ। कोई पूछने वाला नहीं। मैं कहूँ, मिले बगैर तो मैं जाऊँगी नहीं।
हाथ का सहारा दिए रामलाल बुढ़िया को अन्दर ले चला ।
— अरी गोमा, कहाँ छिपी बैठी है ? देख तो, कौन आया है ? घर के अन्दर क़दम रखते हुए, चाची लखमी बत्तख की तरह किकियाई और खिलखिला कर हँस पड़ी ।
— कुछ नज़र नहीं आता, बच्चा। आँखों में मोतियाबिन्द हो गया है। एक आँख मारी गई है। सारे वक़्त लगता है, धूल उड़ रही है — बुढ़िया साँस लेने के लिए रुकी। फिर रास्ता टटोलती, धीरे-धीरे बरामदा पार करने लगी — डॉक्टर नरसिंगदास ने आँखों का ऑपरेशन किया। एक आँख ही मारी गई। मैंने कहा, चल माना, एक तो बच गई। भला हो डॉक्टर का, एक तो छोड़ दी। दोनों फोड़ देता, तो मैं कुछ कर सकती थी, बेटा ? आगे की क्या ख़बर ? क्या मालूम, कल ही अन्धी हो जाऊँ ? मैंने सोचा, आँख रहते तो अपनी गोमा को ज़रूर देख आऊँगी।
बुढ़िया धीरे-धीरे चलती, कहीं अन्धकार और कहीं प्रकाश के पुँजों को लाँघती हुई, आगे बढ़ने लगी ।
— अरी गोमा, देख तो, तुझसे कौन मिलने आया है। मक्कर साधे कहाँ बैठी है?
अपने आगमन की स्वयं सूचना देते हुए, चाची लखमी किकियाई, और फिर हंसने लगी । उसकी आवाज़ मकान के कमरों में से गूँज कर लौट आई। कोई जवाब नहीं आया ।
— बालकराम सेठी की सलिहाज है न । बेचारी बड़ी अच्छी है । मुझे टाँगे पर बिठाकर यहाँ तक छोड़ गई । मैं परबस जो हुई, बेटा ! बूढ़ा आदमी परबस हो जाता है ।
रामलाल ने बुढ़िया को रसोईघर की बगल में एक छोटी-सी कोठरी के सामने लाकर खड़ा कर दिया, और पाँव की ठोकर से दरवाज़ा खोल दिया ।
कोठरी में घुप्प अन्धेरा था । रामलाल ने आगे बढ़कर बिजली का बटन दबाया । एक अन्धा-सा बल्ब टिमटिमाने लगा ।
— अरी गोमा, मछली बनी बैठी है? बोलती क्यों नहीं ?
कोठरी की सामने वाली दीवार के सहारे एक बूढ़ी औरत खाट पर से पाँव लटकाए बैठी थी । पर वह लखमी को अभी तक नज़र नहीं आई । कोठरी में खाट के पायताने के साथ जुड़ा हुआ एक कमोड रखा था, और साथ में एक टीन का डिब्बा । बुढ़िया ने एक पटरे पर पाँव रखे हुए थे । टाँगों पर, जो सूजन के कारण बोझिल हो रही थीं, दो-दो जोड़े फटे मोजों के चढ़े थे । कोठरी में से पेशाब, मैले कपड़ों और बुढ़ापे की गन्ध आ रही थी । इन लोगों के अन्दर आ जाने पर, दो चूहे, जो बुढ़िया की खाट पर ऊधम मचा रहे थे, भाग कर अपने बिलों में घुस गए ।
— कौन है? — धीमी-सी आवाज़ आई ।
— पहचान तो, कौन है? — लखमी बोली ।
बुढ़िया चुप रही । फिर सहसा घुटनों पर से दोनों हाथ उठा कर, आगे की ओर बढ़ाते हुए बोली — आवाज़ तो लखमी की लगती है । लखमी, तू आई है ?
— और कौन होगा?
अंधे बल्ब की रोशनी में लखमी की आंख के सामने गोमा का आकार उभरने में काफी देर लगी। स्थूल देह, उलझे हुए इने-गिने सफेद बाल, चौड़ा झुर्रियों-भरा चेहरा, जिसमें से दो कांतिहीन आंखें सामने की ओर देखे जा रही थीं।
लखमी के कांपते हाथ हवा को टटोलते हुए, गोमा के कंधों तक जा पहुंचे। और दोनों स्त्रियां एक-दूसरे से चिपट गयीं। जब अलग हुई, तो देर तक अपने दुपट्टों में नाक सुड़कती, और आंखें पोंछती रहीं। रामलाल ने आगे बढ़ कर, कोने में रखा एक पीढ़ा उठाया, और मां की खाट के सामने रख दिया।
बैठो, चाची! और लखमी को दोनों कंधों से पकड़ कर, धीरे से पीढ़े पर बिठा दिया।
मैं उठ नहीं सकती, लखमी। खाट के साथ जुड़ी हूं। तू देख ही रही है। जाना मुझे था, चले वह गये। मेरा धागा लम्बा है। जल्दी टूटता नजर नहीं आता। पिछले काम अभी भोगने बाकी हैं।
दोनों औरतें देर तक आमने-सामने बैठी, दुपट्टों में सिसकती रहीं।
मैं कहती हूं, हे भगवान, अब तुझे मुझ से क्या लेना है? इतनी बड़ी दुनिया है तेरी। मुझे यहां तेरा कौन-सा काम करना रह गया है? तू मुझे संभाल क्यों नहीं लेता। पर नहीं, वह नहीं सुनता। तब मैं कहती हूं, अच्छा, कर ले जो करना चाहता है। कभी तो मुझ पर तरस खायेगा।
लखमी ने मुंह पर से दुपट्टा हटाते हुए कहाजब से दिल्ली आयी हूं, दिल तड़पता रहा है, कि कब गोमा से मिलूंगी, कब गोमा से मिलूंगी।
देर तक दोनों औरतें सिर हिलाती और आहें भरती रहीं। फिर गोमा अपने बेटे की ओर सिर घुमा कर बोलीबेटा, लखमी तेरी चाची है। पहचाना इसे, या नहीं?
इस पर लखमी हुमक कर बोल उठीहाय, इसी ने तो मुझे पहचाना। मैं अंधी क्या पहचानूंगी? यही तो मुझे अंदर लाया।
मैंने झट पहचान लिया, मां। कुशल्या के ब्याह पर मिली थी। बहुत मुद्दत हो गयी।
बेटा, लखमी के साथ मैंने बड़े अच्छे दिन बिताये हैं।
इसे क्या मालूम? यह तब पैदा ही कहां हुआ था?
रामलाल के बाल कनपटियों पर सफेद हो रहे थे, और एक छोटी-सी गोल-मटोल तोंद पतलून की पेटी में कसी, बाहर निकलने के लिये हांफ रही थी। अपनी बलगामी खांसी के कारण रामलाल सारे वक्त मुंह से सांस लेता था।
उस वक्त तेरी गोद में शामा थी, और मेरी विद्या बस यही चार पांच साल की रही होगी। क्यों, लखमी?
हाय, विद्या मेरी आंखों के सामने आ गयीबिलकुल गुड़िया जैसी। कैसी खिडुली थी।कहते हुए, लखमी दुपट्टे के छोटे से फिर आंखें पोंछने लगी।
कोई किस-किस को याद करें? तेरी सुरसती किसी से कम थी? यों हंसती-हंसती चली गयी। शामा किसी से कम थी?
छोटी कहां है?
वह जालन्धर में रहती है। वहां उसका घरवाला नौकरी करता है।
उसका भी घर-बाहर अब भरा-पूरा होगा?
उसके घर दो बेटे, दो बेटियां हैं।
अच्छा है, सुख से रहें! भगवान अपनी दया बनाये रखें।
गोमा ने फिर अपने बेटे की ओर मुंह फेरा। बेटा, हमने बड़े अच्छे दिन बिताये हैं। गली-मुहल्लेवालियां कहें, 'अरी, तुम सगी बहिनें हो, रिश्ते की हो, कौन हो, जो तुम्हारा आपस में इतना प्यार है?' मैं जवाब दूं, 'हम बहिनें ही नहीं, बहिनों से भी ज्यादा हैं। खाट पर बैठी गोमा ने चहक कर कहा, और अपने सूखे झुर्रियों-भरे मुंह पर हाथ फेरने लगी। मानों हंसने से अकड़ी हुई झुर्रियां खुलने लगी हों।
हम एक ही घर में रहती थीं। एक तरफ मेरी रसोई थी, दूसरी तरफ इसकी। सामने आंगन में छोटा-सा कुआं था। पर हम सदा कुएं के पास बैठ कर रसोई करती थीं।
कुएं की बात सुन कर, लखमी उचक कर बोलीऐसा मीठा पानी था उसका, कि तुम्हें क्या बताऊं? छोटी-सी कुंई थीइतनी सी। बैठे-बैठे मैं उसमें से डोलची लटका कर, पानी निकाल लेती थी।
बुढ़िया गोमा ने हाथ उठा कर, एक सूखी सफेद लट पीछे हटायी, जो उत्तेजना में माथे पर लुढ़क आयी थी।
दोपहर को इसका मालिक बैंक से आता, और तेरे पिता जीस्वर्ग में बासा हो उनकादफ्तर से आते। खाना खाने बैठते, तो दोनों एक-दूसरे से कुश्तियां करते। खाना परोसने में थोड़ी-सी भी देर हो जाती, तो थालियां खनकाने लगते।
गोमा फिर हंसने लगी। उसकी स्थूल देह थिरक-थिरक गयी। हंसने पर उसकी छाती में से उठने वाली खर्र-खर्र की आवाज और ऊंची हो गयी।
इधर उनके आने का वक्त होता, उधर हम भागती हुई रोटियां लगवाने चली जातीं। हमारे घर से तीन, गलियां छोड़ कर एक झूरी बैठती थी। क्या नाम था उसका लखमी?
खाट पर से लटकती टांगें, जिन पर फटे हुए मोजे चढ़े थे, उत्साह से हिलने लगीं। फर्श पर एक कोने में एक चूहे ने बिल में से सिर निकाला, और इधर-उधर झांकने लगा।
बन्तो नाम था उसका। मर-खप गयी होगी। अब कहां बैठी होगी? 'बन्तो, बन्तो' कह कर सभी बुलाते थे उसे।
हां, बन्तो! हाय, कैसी आंखों के सामने आ गयी है। रोज लखमी की और मेरी दौड़ लग जाती, कि तंदूर तक पहले कौन पहुंचती है। यह मुझ से ज्यादा फुर्तीली थी। तब भी बड़ी पतली थी। चंगेरे बगल में दबाये, हम ऐसी भागतीं, कि हवा से बातें करती जातीं। बन्तो कहती, 'अरी, शरम बेच खायी है, जो गलियों में नंगे सिर भागती फिरती हो? गोमा कहे जा रही थीयह हरे रंग की घंघरी पहनती थी, जिस के नीचे सफेद गोटा लगा रहता था। क्यों, लखमी? और मैं हमेशा काले-रंग की घंघरी पहनती थी। हम हंसती-बतियाती गली-गली जातीं, और सारे शहर का चक्कर लगा आती थीं। शहर का चक्कर लगा आती थीं। इस पर लखमी ने आगे झुक कर कहाअरी गोमा, याद है, जब भागसुद्दी के घर से भांग पी आयी थी? और दुपट्टे की ओट में अपने दो दांतों को छिपाती हुई हंसने लगी।
गोमा भी हंसने लगी। हंसते-हंसते गोमा को खांसी आ गयी, और खांसी का दौरा देर तक उसे परेशान करता रहा। फिर आंखें पोंछ कर, लखमी की ओर उंगली से इशारा करते हुई, अपने बेटे से कहने लगी-इसे हर वक्त शरारतें ही सूझती रहती थीं। इसी ने मुझे भांग पिलायी थी। चल, चुप रह, नहीं तो तेरा सारा पोल खोल दूंगी।
लखमी मुंह पर हाथ रखे, बत्तख की तरह किकियाये जा रही थी।
— यह मुझे भागसुद्दी के घर ले गई — गोमा कहने लगी — मुझ से बोली, आ तुझे साग के पकौड़े खिलाऊँ। मुझे क्या मालूम, कि उनमें क्या भरा था? खाने की देर थी, कि मैं तो तरह-तरह के तमाशे करने लगी। कभी गाती, कभी हाथ मटकाती। फिर मैं हंसने लगी। हंसने क्या लगी, कि मेरी हंसी रुके ही नहीं। हंसती ही जाती थी। मेरी हंसी यों भी एक बार शुरू हो जाय, तो बन्द होने को नहीं आती थी। मुझे नहीं मालूम, कि मैं कब भागसुद्दी के घर से निकली। मुझे इतना याद है, कि मुझे गली में रुक्मणी मिली। रुक्मणी याद है, लखमी ? वही ट्रँकों वाले शामलाल की घरवाली, कहने लगी, हाय री गोमा, तुझे क्या हो गया है? पागलों की तरह हंसे जा रही है ? बस, जी, उसका यह कहना था, कि मेरी हंसी बन्द हो गई। हाय, मुझे क्या हो गया है ? हाय, मुझे क्या हो गया है ? मैं बोलने लगी। और अन्दर-ही अन्दर मेरा दिल गोते खाने लगा। मेरी ऐसी बुरी हालत हुई कि तुम्हें क्या बताऊँ? और इस सारी शरारत की जड़ तेरी यह चाची थी, जो तेरे सामने बैठी है।
— तू कौन-सी कम थी ? नहले पर दहला थी। शेखों के खेत में से मूलियाँ कौन तोड़ता था ? मुझ से न बुलवा, नहीं तो तेरे बेटे के सामने तेरी सारी करतूतें गिना दूँगी।
— बता दे, अब छिपा कर क्या करेगी? — गोमा ने हँस कर कहा । फिर रस ले-लेकर सुनाने लगी — चौबीस घण्टे हम एक साथ रहती थीं। सवेरे मुँह-अन्धेरे तालाब पर नहाने जातीं। कुछ नहीं, तो तीन मील दूर रहा होगा तालाब। फिर सतगुर की धर्मशाला में माथा टेकने जातीं। और साग-सब्ज़ ले कर पौ फटने तक घर भी पहुँच जातीं।
रामलाल कभी एक के मुँह की ओर कभी दूसरी के मुँह की ओर देखता हुआ, सोच रहा था कि ये किन लोगों की चर्चा किए जा रही हैं ? कौन थी वह, जो भागती हुई गलियाँ लाँघ जाती थी, और हँसने लगती, तो हँसती ही जाती थी, हँसती ही जाती थी ?
चाची लखमी कुछ कहने जा रही थी, जब रामलाल बीच में बोल उठा — चाय पियोगी, चाची लखमी ? चाय मँगवाऊँ ?
— हाय, क्यों नहीं पियूँगी ? तेरे घर आकर चाय नहीं पियूँगी ? — कहते-कहते लखमी भाव-विह्नल हो उठी — तेरी तो राह देख-देख कर आँखें थक गई थीं हमारी । तुझे तो हमने तरस-तरस कर लिया है, बेटा । लाखों पर तेरी कलम हो ! तूने हमें बहुत इन्तज़ार करवाया। आ तो, तेरा मुँह चूम लूँ । आ, मेरे बच्चे ।
लखमी उठ खड़ी हुई, और रास्ता टटोलती हुई, रामलाल की ओर बढ़ आई। फिर लार-सने होंठ कभी रामलाल के नाक को, कभी माथे को, कभी गालों को चूमने लगे — तेरी माँ ने कैसे-कैसे दिन देखे हैं, बेटा, तुझे क्या मालूम ? चार बहिनों के बाद तू आया था। हर बार जब मेरी माँ प्रसूत में होती, तो तेरा ताऊ बाहर खाट बिछा कर बैठ जाता, और हर बार गालियाँ बकता हुआ उठ जाया करता। बड़ा गुस्सैल आदमी था । एक-एक कर के चारों का दाना-पानी दुनिया से उठ गया । तब तू आया। सलामत रहो, बेटा ! जुग-जुग जियो ।
रामलाल दीवार के साथ पीठ लगाए खड़ा, सिर हिलाता रहा। फिर लखमी के दोनों कन्धे पकड़, धीरे-से उसे पीढ़े पर बिठा दिया, और कुछ खाने का सामान लाने बाहर चला गया। जब लौट कर आया, तो दोनों सहेलियाँ गा रही थीं। लखमी की किकियाती आवाज़ और गोमा की खरखराती आवाज़ से कोठरी गूँज रही थी। खाट पर बैठी उसकी माँ आँखें बन्द किए, दोनों हाथों से अपने सूजे हुए घुटनों पर ताल दे रही थी।
जेठ माया दा माण न करिए,
माया काग बन्देरे दा,
पल विच आवे, छिन विच जावे,
सैर करे चौफेरे दा...
पर दो ही पँक्तियां गाने के बाद गोमा का दम फूलने लगा, और उसे खाँसी आ गई।
— हाय, नहीं गाया जाता। — उसने कहा।
पर खाँसी रुकने पर, वह फिर अगली पँक्ति गाने लगी —
हाड़ होश कर दिल विच बन्दे,
काल नगार वजदा ई,
ए दुनिया भाण्डे दी न्यायीं,
जो घड़िया सो भजदा ई...
सहसा दोनों रुक गईं। गीत का बहुत हिस्सा दोनों को भूल चुका था।
— छोड़, गोमा। मुझे विराग के गीत अच्छे नहीं लगते। चल, वह गीत गाएँ, जो सुखदेई गाया करती थी। हाय, कैसा मीठा गाती थी। लखमी ने कहा, और नया राग छेड़ दिया।
गोमा कुछ देर तक अपनी फूली साँस को ठिकाने पर लाने के लिए रुकी रही। फिर वह भी साथ गाने लगी।
गाना सुन कर घर जाग गया। रामलाल का छोटा बेटा अपने एक दोस्त का हाथ पकड़े, दरवाजे के बाहर पहुँच गया, और सहमी आँखों से कभी दादी की ओर तो कभी दूसरी बुढ़िया की ओर देखने लगा। रसोई का नौकर, जो अभी-अभी दोपहर की छुट्टी बिता कर घर लौटा था, दरवाजे की ओट में खड़ा, पूरी बत्तीसी निकाले गाना सुनने लगा।
गोमा को बार-बार खाँसी आने लगती। वह खाँसती भी जाती, और बीच-बीच में गाती भी जाती। आखिर उसका दम फिर फूल गया, और वह चुप हो गई।
खोखली, खरज आवाज़ें सहसा बन्द हो जाने से घर भर में मौन छा गया। बच्चे एक-दूसरे की ओर देख कर हँसे, और खेलने के लिए बाहर भाग गए।
सहसा लखमी बोल उठी — हाय, मेरी कैसी मत मारी गई है। शाम पड़ गई, तो मैं कहीं की न रहूँगी। जिसके आसरे आई हूँ, वह छोड़ कर चली गई, तो मेरा क्या बनेगा? — फिर रामलाल की ओर मुंह कर के, बड़े आग्रह से बोली — बच्चा, मुझे बालकराम सेठी के घर तक छोड़ आएगा? इधर तेरे ही मुहल्ले में उसका घर है न?
— छोड़ आऊँगा, चाची ! पर बैठो न। अभी तो आई हो।
— नहीं, बच्चा, अब बहुत देर हो गई है। अन्धेरे से मैं बहुत डरती हूँ।
और घुटनों से हाथों को दबाए, 'हाय, राम जी' कह कर, उठ खड़ी हुई।
— मैं तीन बार हड्डियाँ तुड़वा चुकी हूँ, बच्चा। एक दिन सड़क पर जा रही थी। पीछे से किसी साइकल वाले ने आकर टक्कर मार दी। मैं औन्धे मुँह जा गिरी। भला हो लोगों का, जो उन्होंने मुझे खाट पर डाल कर घर पहुँचा दिया। कुछ न पूछो। अपने बस की बात थोड़े ही है। घर वाले सारा वक़्त कहते रहते हैं — लखमी, तेरे पाँव घर पर नहीं टिकते। तेरा मरना एक दिन सड़क पर होगा...।
बुढ़िया किकियाई। फिर गोमा की ओर देख कर बोली — गोमा, तू भी अंग हिलाती रहा कर। बैठ गई, तो बैठ ही जाएगी। गोमा सिर हिला कर बोली — अंग न हिलाऊँ, तो दो दिन न जी पाऊँ, लखमी। इस हालत में भी मैंने कुछ नहीं तो दस सेर रुई कात कर दी है। पूछ ले इसी से। तेरे सामने खड़ा है।
लखमी पैर घसीटती कोठरी के बीचोबीच पहुँच गई और रामलाल की ओर हाथ बढ़ा कर बोली — रात पड़ गई है, बच्चा। मैं रात से बहुत डरती हूँ। रात बूढ़ों की दुश्मन होती है। मुझे बालकराम सेठी के घर तक छोड़ आ। फिर गोमा की ओर घूम गई, और हाथ जोड़ कर बोली — अच्छा, गोमा, अब संजोगी मेले। अब मैं फिर नहीं आऊँगी। अब अगले जन्म में मिलेंगी। मेरा कहा-सुना माफ करना, बहिन। और आगे बढ़ कर, फिर उसकी छाती से चिपट गई।
थोड़ी देर बाद रामलाल लखमी का हाथ थामे, उसे बाहर ले जाने लगा। लखमी की अब भी सांस फूल रही थी, और टांगें लरज-लरज जाती थीं।
कोठरी में से बाहर निकलते हुए, रामलाल ने बिजली बुझा दी, और दरवाजा बंद कर दिया। कोठरी में फिर घुप्प अंधेरा छा गया, और सूना मौन फिर चारों ओर से घिरने लगा। दोनों चूहे फिर बिल में से निकल गये, और गोमा के बिस्तर पर ऊधम मचाने लगे।