यादों का झोंका / विजयानंद सिंह
पहाड़ों की रानी " मसूरी " वाकई खूबसूरती का स्वर्ग है।
बालकनी में सुबह की गुनगुनी धूप में चाय की चुस्कियां लेते हुए उसकी निगाह नीचे ढलान वाली सड़क पर बाहों-में-बाहें डाले आते-जाते प्रेमी युगलों को देखकर ठहर जाती है।
अनायास उसका मन यादों की गलियों में विचरने लगता है.....कॉलेज के वे दिन... कालेज से घर लौटते वक्त साइकिल जैसे खुद-ब-खुद उसके घर की ओर मुड़ जाती थी।उसकी गली में, दीवार से साइकिल टिका, जब वह सांकल खटकाता, तो अक्सर वही दरवाजा खोलती। अपनी किताब-कापियाँ वह उसकी टेबल पर पटक देता। वो उसकी कापियाँ पलटती.... पूछती - " आज क्या पढ़ाई हुई ? " आर्ट्स की स्टूडेंट होते हुए भी वह केमिस्ट्री, फीजिक्स,मैथ्स समझने का प्रयास करती। कभी वह उसकी कापी पर कुछ लिख देता। तो, वो भी उसकी कापी के पन्नों पर कुछ चित्र उकेरती। नजरें मिलतीं....बस ! स्मित हास्य से दिग-दिगंत मुस्कुरा उठते। जीवन के रंग निखर जाते...। उस दिन जब पता चला कि उसके पापा का एक्सीडेंट हुआ है, तो वह भी आनन-फानन में उसके घर की ओर दौड़ पड़ा था। उसे देख, वो पास आकर उससे लिपट गई थी..... ' पापा ! पापा ! ' केे कातर स्वर ने उसे अंदर तक हिला दिया था। सहसा, निःशब्द भाव अभिव्यक्त हो उठे थे....।
फिर, उस दिन....पिकनिक में, पहाड़ी झरने केे पास.....उसका साथ - साथ चलना, बार-बार मुुुड़-मुड़कर पीछे देखना... चहकना...और, चट्टानों पर चुपके से उसका नाम उकेरना भी... उसे याद है। अंतहीन यादों के झोंकों से उसका रोम-रोम स्पंदित हो उठा था।वर्षा की भीनी फुहारों से उसका तन - मन भींग गया था।
" कब से.....किस ख़्याल में डूबे हो.....? चाय ठंडी हो गयी....। " - सहसा पत्नी की आवाज से उसकी तंद्रा टूटी। " कुछ नहीं...! बस....ठंडी हवा का झोंका था। अंदर तक छू गया....। लगता है, ठंड बढ़ गई है..। " उसने ठंडी सांसें भरते हुए कहा।