यादों की डायरी / प्रियंका ओम
तुम्हारे बाद का मौसम।
तुम्हारी याद का मौसम।
प्रकृति के चार मौसमों की तरह तुम्हारी यादों के भी चार मौसम हैं!
कभी-कभी ऐसा लगता है गले में कुछ अटक-सा गया है। ना बाहर निकल रहा है और ना अंदर जा रहा है। घुटन-सी महसूस करती हूँ। ये तुम्हारी यादें ही तो हैं जो गले में अटकी हैं हिमखण्ड सी. फिर यही यादें पिघल के आँखों से बरस जाती हैं और धुँधला कर देती हैं सब।
अब सपनों की नई कोपलें नहीं फूटती, अरमानों की नई कलियाँ भी नहीं खिलतीं। जर्जर हो चुके मन से तुम्हारी यादें खोखली हँसी के पत्ते बन झड़ते रहती हैं।
कश्मीर की ठंडी वादियों में चलने वाली बर्फीली हवा के थपेड़ों-सी तुम्हारी यादें जब मुझे कँपकपा देती हैं, तो तुम्हारी ही यादों के कुछ गर्म अखरोट वाली चाय के कप लेकर मैं घर के किसी कोने में तुम्हारे साथ बिताये कुछ गर्माहट भरे पलों के गर्म लिहाफ़ लेकर कोकून-सी बन जाती हूँ।
जाड़े की ठण्ड में रजाई लपेट कर मुझे कोकून बना देख, तुम्हारी हँसी के फव्वारे फूट जाते थे वही "कोकून" शब्द आज मुस्कराहट की सलवटें बना जाती हैं। मेरे चेहरे की मुरझाई हुई परत पे, होठों के आस-पास और थोड़ी-सी आँखों के नीचे भी। ये सलवटें जिन्हें देखने के लिए तुम कितने जतन किया करते थे अगर कभी मैं रूठ जाती। लेकिन अब हंसाती रहती हैं तुम्हारी यादें!
मेरे अधूरे उपन्यास के पन्नों की तरह बिखरी हुई है तुम्हारी यादें। बेतरतीब... यहाँ-वहाँ, नींद में, ख़्वाब में, ख्याल में और जेहन में भी। लेकिन इक दूसरे से जुड़ी हुयी। जानते हो बिखर कर भी जुड़े रहने में ही इनकी ख़ूबसूरती है। खूबसूरत तस्वीरों से बने कोलाज सी!
तुमने कहा था "मुझे याद मत करना, हिचकी आती है।" सुनो हिचकी आएगी तो पानी पी लेना क्योंकि तुम्हें याद करना दिल के धड़कने और सांस लेने जैसा ही तो है।
मेरी भी तो बार्इं आँख फड़कती रहती है उसका क्या? मैं तो अपनी पलकों पर तुलसी पत्ता रख लेती हूँ और अनजाने में ही अगर तुलसी पत्ते पर पैर लग जाता है तब पाप की भागी भी तो बनती हूँ।
तुम्हारे इंतज़ार में धूप में जलना और पसीने में भीग चुके बदन से चिपके कपड़े की याद आज भी चिपचिपा कर देती है!
मेरी नंगी बाहों की टैनिंग नहीं गई है ये टैनिंग मुझे तुम्हारे गेंहुए रंग की याद दिलाती है। सोने-सा चमकता हुआ। सोना तो औरतों को बहुत प्रिय है और तुम कहते हो तुम्हें याद न करूँ।
तुम्हारी यादों के उमस ने मेरे दिन-रात को सीलन से भर दिया है। एक ही कुल्फी शेयर करते वक़्त कब सोचा था कि ज़िन्दगी इतनी लिज़लिज़ी हो जायेगी।
कितने खुश थे तुम। ऑस्ट्रेलिया जा रहे थे। तुम्हें दूसरे देश में रहने का वी़जा मिल गया था और मुझे मेरे अपने देश में रहने की सजा। तुम्हें न देख पाने की सजा। तुम्हें न छू पाने की सजा। हाँ तुमसे अलग रहने की सजा।
तुमने कहा था "मेरी ख़ुशी की खातिर क्या तुम इतना नहीं सह सकोगी? तुमसे दूर रहने का दर्द मैं भी तो सहूँगा लेकिन जीवन की कुछ आवश्यक ख़ुशियों से ये सजा छोटी है श्वेता।"
मेरी दाई आँख फड़कने लगी थी। स्त्रिओचित स्वभावगत मन किसी अनिष्ट की आशंका से भयभीत हो गया था। तुम्हें रोकना चाहती थी किन्तु इक्कींसवी सदी में ऐसी बातें कहाँ शोभा देती हैं। फिर तुम भी तो कह देते "लड़कियाँ दिल से सोचती हैं" तुम रहते भी तो दिल में ही हो, तुम्हीं बताओ दिल के रिश्ते में दिमाग का क्या काम! लेकिन फिर भी तुम्हारे उल्लास के समक्ष मेरा भय तुच्छ लगा था। जिसे मैंने बहुत कुशलता से बिछोह के दर्द का आवरण दे दिया था।
मेरे कुछ कहने से पहले ही तुमने कहा था "दूर होने से धमनियों में बहने वाले रक्त के साथ क्या तुम्हारा प्रेम भी श्वेत हो जायेगा श्वेता?" मेरी चुप्पी का मौन सुनकर तुमने फिर कहा था "अगर हो भी गया तो क्या, मेरे जीवन की धुरी भी तो श्वेता है जिसके चारों ओर मैं अनवरत चक्कर काटता रहता हूँ।"
"और ऑस्ट्रेलिया में बहुत सारी श्वेतलानाएँ हैं।" कहते हुए मैंने तुमसे परिहास किया था।
लेकिन क्या वे श्वेतलानाएँ भी मेरे बिछोह के दर्द में यूँ ही तड़पेंगी और फिर अपने दर्द को कम करने के लिए परिहास करेंगी?
अब वह परिहास भी तुम्हारी यादों में खोये हैं।
कई बार मुझे तुम्हारे साथ पढ़ने वाली लड़कियों से ईष्र्या होती थी जो बहुत ही बेतकल्लुफी से तुमसे हंस-हंस के बातें करती थीं।
तुमने कहा था "प्यार में ईष्र्या स्वाभाविक है, ईष्र्या के बिना प्रेम अधूरा है।"
मैं रंगे हाथों पकड़ी गई थी "तुम्हें कैसे पता कि मुझे जलन होती है?"
तुमने कहा मेरा हृदय तुम्हारे हृदय की धडकनों से हाई स्पीड वाले वाइ-फाइ से जुड़ा हुआ है। तुम मेरे मन की सारी बातें बिना कहे ही समझ लेते हो।
तो फिर मेरे अन्दर के डर को क्यों समझ नहीं पाए थे? काश कि समझ गए होते।
तुम्हारी यादें भी तुम्हारी तरह बहुत महत्त्वाकांक्षी है जब कभी मैं सोने का उपक्रम करती हूँ तब यही यादें सपने में आकर मेरी नींदें ख़राब करती हैं। बहुत ही शातिर हैं तुम्हारी यादें। किसी घुसपैठिये-सी घुस आयी हैं मेरी ज़िन्दगी में और मुझे सम्मोहित कर बड़ी चालाकी से अपने वश में कर लिया है अब मेरी सोचने और समझने की शक्ति भी तुम्हारी यादों के वश में है।
कभी-कभी मेरे मन के अन्दर तुम्हारी याद बहुत छटपटाती है। पिंजरे में कैद परिंदे के जैसे लेकिन तुम्हीं बताओ इतना साहस कहाँ से लाऊँ कि अपने मन का पिंजरा खोल सकूँ। क्या तुम बर्फ से घिरे पराये प्रवास में मेरी यादों की गर्मी को अपने तन से जुदा कर पाए थे? तुम भी तो वहाँ की बर्फीली सर्दी में मुँह से निकली भाप में मेरी तस्वीर ढूँढ़ लिया करते थे या कभी उसी भाप से आइना धुंधला करके उसपे मेरा नाम लिखा करते थे!
घर के अकेलेपन में, किसी अँधेरे कोने में अपनी परछाई से तुम्हारी बातें करना। कलियों और भौरों की तरह रूठना मानना। कभी नदी के पानी-सा हँसना खिलखिलाना और कभी चिड़ियों की चहचाहट का लड़ना झगड़ना भी तुम्हारी याद दिलाता है।
माँ ने तो झाड़-फूँक करने वाले बाबा को बुला लिया था कि मुझपे किसी बेरहम भूत का साया है।
हाँ तुम बेरहम हो। अपनी याद को भी अपने साथ क्यों नहीं ले गये जिसने मुझे विक्षिप्त-सा कर दिया है।
अपने ढोंगी प्रयासों से हार कर बाबा ने कहा बहुत जिद्दी भूत है।
किसकी जिद तुम्हारी या मेरी, तुम्हें दूर न जाने देने की मेरी जिद या मेरे पास रहने की तुम्हारी जिद!
पापा मुझे डॉक्टर के पास ले गए थे। डॉक्टर ने कहा मेरा सोना बहुत ज़रूरी है, नींद की गोलियाँ बेअसर हो चुकी हैं और इंजेक्शन से मुझे बहुत दर्द होता है। दर्द तो तब भी बहुत हुआ था जब तुम मुझे छोड़ गए थे हमेशा-हमेशा के लिए और मैं तुम्हें रोक नहीं पाई थी।
न यकीन की इमारत में कोई तूफ़ान आया था और न ही विश्वास के हसीन चेहरे पर संशय की झुर्रियाँ उभरी थीं फिर भी बरसात में सिली पपड़ियों की तरह जब आँसू रह-रह कर गिरने लगे तो तुमने अपनी ऊँगली काट अपने खून से मेरी मांग भर दी थी। तुमने कहा था "जानता हूँ काफी फ़िल्मी है लेकिन इसके सिवा और कोई उपाय नहीं।" और ये भी कहा था "अब रोज सिन्दूर लगाना, सुहागन होने के लिए सुहागरात भी हो ऐसा ज़रूरी तो नहीं।" मैं सिर्फ़ बुत बन तुम्हें देखती रही तुम्हारे दूर जाने का एहसास भी तब हुआ जब तुम्हारे हाथ धीरे-धीरे मेरे हाथ से दूर जा रहे थे और मेरे शरीर की सारी शिराएँ भी तुम्हारी ओर खिंची चली जा रही थी। नहीं चांrटियों की तरह लाइन बना कर नहीं बल्कि भेड़ बकरियों के झुण्ड के जैसे।
तुम्हारे पीछे-पीछे मेरी नींद, मेरा चैन और मेरा सुकून सब चल निकला था। क्या तुम्हारे पास भी Pied Piper of Hamelin की तरह कोई पाइप था या पृथ्वी की तरह कोई गुरुत्वाकर्षण केंद्र जिसके आकर्षण में सब खिंचा चला जा रहा था!
तुम्हारे चले जाने के बाद से मेरे अंदर एक दर्द पल रहा है। तुम्हारी यादों का दर्द। जो चीखता है चिल्लाता है और कभी-कभी कराहता भी है ये दर्द। जानती हूँ तुम्हें भी सुनाई देती होगी सिसकने की आवाज़ और तुम तड़पते भी होगे लेकिन तुम्हारी भी तो अपनी विवशता है।
ज्वालामुखी-सा फट जाना चाहता है ये दर्द और तबाह कर देना चाहता है अपने इर्द-गिर्द का सारा जीवन। वह जीवन जो मेरे लिए पहले से मृतप्राय है।
तुमने कहा था " बेपरवाह लोगों में एक अजीब-सा आकर्षण होता है, मेरा बेपरवाह होना ही तुम्हें आकर्षित करता था चुम्बक के नॉर्थ पोल की तरह और तुम खिंच रहे थे साउथ पोल की तरह। तब कहाँ पता था ये खिंचाव नहीं जीवन भर का बंधन है!
हमारी दोस्ती को रिश्ते का नाम देने का फैसला किया था हमारी फैमिली ने। मैं भी कहाँ बच पाई थी। नंबर वाले चश्मे के अन्दर से झांकती तुम्हारी बड़ी-बड़ी, गोल-गोल आँखें अर्जुन के तरकश से निकले दो तीर थे, मैं परास्त हो चुकी थी। तुम मुझे जीत चुके थे।
शिव पहाड़ की चट्टानों पर चाक से कई बार लिखा तुम्हारा-मेरा नाम और नाम के बीच का जोड़ चिह्न भी बारिश बहा ले गयी होगी अपने संग। लेकिन eucalyptus के पेड़ पर चाकू से हृदय चित्र के अन्दर लिखे हमारे नाम को क्या कोई भी मौसम मिटा पाया होगा?
Eucalyptus की खुशबू में लिपटी हवा जब मुझे तर कर देती है तब एहसास होता है तुम मेरे अन्दर समा चुके हो और मैं एक साथ दो शरीर जी रही हूँ, माँ ठीक कहती है मुझपर किसी भूत का साया है।
डॉक्टर ने कहा मुझे चौबीस घंटे डॉक्टर के देख-रेख की ज़रूरत है, घर में रखना ठीक नहीं। माँ रोने लगी थी जब उनसे तुम्हारी माँ ने कहा था "मेरे साथ ठीक ही हो रहा है।"
सच कहूँ तो कुछ भी ठीक नहीं है। हमारे घर के सामने लटक रहे बिना करंट वाले बिजली तार-सी हो गई हूँ। दो खम्भे के बीच झूलते हुए, जिनपे एक तोता और एक मैना बैठकर प्यार भरी बातें भी करते हैं। नहीं ये खम्भे तुम्हारी यादों से जुड़ाव और अलगाव वाले नहीं है जिनके बीच मैं झूलती रहती हूँ, ये समाज और बंधनों के खम्भे हैं जो एक ओर से तुम्हारे पास ले जाने वाले मेरे प्रयासों को विफल करते हैं तो दूसरी ओर तुम्हारी यादों के खम्भे जो मुझे खुद से जुदा नहीं करते! दोनों ही ओर मैं बहुत कस के बंधी हूँ।
एक बार तुम मुझसे रूठ गए थे कि मैंने तुम्हारा इंतज़ार क्यों नहीं किया। अब देखो न ये इंतज़ार ही मेरी किस्मत है लेकिन बहुत मुश्किल था तुमसे अलग रहना इसलिए तुम्हारे अस्तित्व को मैंने खुद में घोल लिया है। मैंने तुम्हें आत्मसात कर लिया है। तुम्हारी माँ कहती है मैं डायन हूँ, मैंने तुम्हें खा लिया है। "
तुम्हारे अंतिम संवाद के परिहास मुझे हमेशा ही रुलाते है, "तुम कहती थी ना दूर होना भी पास रहने जैसा ही है, बस आँखें बंद करके देखो, मैं अपनी आँखें बंद कर रहा हूँ हमेशा के लिए, तुम्हारे पास हो जाने के लिए श्वेता क्योंकि यहाँ की बर्फीली श्वेतलानाएँ भी तुम्हारे प्यार की गर्मी को दूर न कर सकी!"
ऑस्ट्रेलिया में रंगभेद की लड़ाई में गोली तुम्हारे सीने में लगी थी। तुम मुझ पर अघात कहाँ सह पाये थे? तुम रक्तरंजित हो गए थे और मैं श्वेत।
वैसे तो सफ़ेद कोई रंग नहीं, लेकिन फिर भी ये रंग तुम्हें बेहद पसंद था, मैंने कहा भी था "प्रेम का प्रतीक तो लाल रंग है।" तुमने कहा था "लाल रंग तो हमारी रगों में है, प्रेम ने हमारे समस्त शरीर को लाल रंग से आच्छादित कर रखा है, आँखों में चाहत की डोरियाँ भी लाल हैं और शर्म से तुम्हारे गाल भी लाल हैं। बाह्य आवरण से प्रेम का कोई वास्ता नहीं।"
लेकिन बाह्य आवरण से प्रेम का गहरा रिश्ता होता है। देखो न अब जब तुम नहीं हो तो श्वेत रंग ही मेरा आवरण है!
आज हमारी शादी की वर्षगांठ है, मैंने जी भर के शृंगार किया है, जूड़े में तुम्हारी यादों के गज़रे, जिसकी ़खुशबू में नहा कर मेरा तन मोगरे-सा महक गया है, तुम भी तो अगर की तरह जल रहे हो और मेरा घर आँगन चन्दन हो गया है।
तुम्हारी तरह तुम्हारी यादों की डायरी भी मुझसे दूर हो रही है। मुझे मेन्टल एसाइलम ले जाया जा रहा है। अब वहीं रहूंगी तुम्हारी यादों की राख के साथ जिससे लिपटा रहता है मेरा मन विषधर भुजंग सा।