यादों के चिराग / से.रा. यात्री
कपड़े बदलकर जब अपने होटल से वह बाहर निकला तो उसकी ऊब और अकेलापन बहुत कुछ कम हो गया था। हाथ घड़ी उसने निश्चिन्तता की सांस ली-अभी भी कान्फ्रेस में कई घंटे की देर थी। दायें-बायें दुकानों के बोर्ड पढ़ते हुए वह आगे बढ़ने लगा और समय काटने की गरज से एक किताबों की बड़ी-सी दुकान में घुस गया। पहले उसने कई किताबों को अलमारी में ही लगी-लगाई हालत में देखा और फिर काउण्टर पर पड़े सूचीपत्र को पढ़ने लगा। सूचीपत्र देखते-देखते उसकी आंखें एक नाम पर ठहर गयीं--'अनीता हालदार'। उसने काउण्टर पर खड़े आदमी को उक्त नाम दिखाया और किताब लाने की फरमाइश की। दो मिनट के बाद पुस्तक उसके हाथ मे आ गयी-'यादों के चिराग'। बहुत अच्छे ढंग से छपे उस उपन्यास को उसने उलटा-पुलटा और आमुख पर लेखिका का पूरा पता देखकर उसने किताब की कीमत चुका दी। उसकी आंखों में सहसा एक पुरानी स्मृति उभर उठी। निश्चय ही यह वही अनीता थी जो किसी जमाने में बेहद हिलाने वाली कविताएं लिखा करती थी। अपने सहपाठी नरेन्द्र और वसन्त राव के साथ वह कभी-कभी उसके घर भी जाया करता था।
काउण्टर पर वह कुछ क्षणों के लिए अचल खड़ा रहा। अतीत उसके सामने साकार हो गया। बीस वर्ष पूर्व वह उसी नगर में विद्यार्थी था। उसे यह सोचकर एक झटका-सा लगा कि अब इस नगर में वह एक बेगाना आदमी है। उसके इर्द-गिर्द काउण्टर के आसपास कई लोग इस दौरान आकर खड़े हो गये थे। वह किताबों की दुकान से निकलकर बाहर फुटपाथ पर आ गया। चलते-चलते अनीता के बारे में वह सोचने लगा। वह उन दिनों बाईस-तेईस की तरूणी थी-शायद किसी गर्ल्स कालेज में नयी-नयी अध्यापिका लगी थी। औसत कद की इकहरे बदन की आकर्षक लड़की थी। नरेन्द्र के उससे पारिवारिक सम्बन्ध थे इसलिए उसके यहां जाने में कोई सामाजिक रोक-टोक भी नहीं थी।
एकाएक वह आगे बढ़ते-बढ़ते रुक गया-भीड़ चौराहे पर ट्रैफिक सिपाही का संकेत पाने के लिए खड़ी थी। कुछ पल बाद भीड़ आगे बढ़ी तो वह भी चल दिया। अनीता के प्रति उन दिनों वह एक बहुत ही करूण-कोमल खिंचाव महसूस किया करता था। वह उम्र में उन लोगों से शायद दो-तीन वर्ष बड़ी ही होगी लेकिन नरेन्द्र, वसन्त और उसके प्रति उसका रूख एक अभिभाविका जैसा ही रहता था। हो सकता है यह रवैया वह बतौर कवच इस्तेमाल करती रही हो। उसे स्वयं पर भी आश्चर्य हुआ। वह भी उस जमाने में कविताएं लिखा करता था। उसने खुद का मजाक उड़ाने की कोशिश की। एक उम्र में सभी को कला और काव्य का शौक चर्राया करता है। उसने अपने उस युग के चेहरे का ध्यान किया। चेहरे पर तब हमेशा एक पीलापन तैरता था-कल्ले अन्दर को धंसे हुए थे-वह अपने दुर्बल स्वास्थ्य की वजह से हमेशा झेंपा-झेंपा रहता था। उसे साथ ही अपने वर्तमान स्वरूप का भी ध्यान आया। देह भर गयी है। चेहरे पर सेहत की लाली है-शरीर खासा मजबूत है और वह 'क्लीन शेव्ड' चिकने गालों वाला भरा-पूरा आदमी है।
उसे यह बात बहुत विचित्र-सी लगी कि अनीता अब भी उसी नगर में रह रही थी; वही पहले वाला मकान था, वही गली-मोहल्ला। उसे हैरत हुई कि कोई आदमी या औरत सारी जिन्दगी एक ही नगर में कैसे काट सकता है जब कि उसने स्वयं तरह-तरह के परिवर्तन देखे हैं। कारोबार के सिलेसिले में पढ़ाई के बाद बाहर गया। विदेशों में घूमा, अच्छा मुनाफा कमाया-विवाह किया और फिर राजनीति फलवती भी हुई और यह अनीता आज भी वहीं की वहीं है। कविता-उपन्यास लिखती है।
अनीता की अचलता ने उसमें एक कौतूहल जगा दिया। 'देखूं तो आज कैसी लगती है?' अतीत को देखने की जिज्ञासा कभी-कभी आदमी को बेकाबू कर देती है। उसने पास से गुजरती एक खाली टैक्सी को हाथ दिया और उसे गली-मोहल्ले को नाम बतलाकर उसमें सवार हो गया। टैक्सी में बैठकर उसने भीड़ के अथाह समुन्दर को देखा। बीस वर्षों में दुनिया कहां से कहां जा पहुंची; दुनिया ही क्यों वह स्वयं भी तो बहुत-से पड़ावों से गुजर चुका है।...वह विचारों के ज्वार में बहने लगा। उसके विचारों का क्रम तब टूटा जब टैक्सी एक संकरी-सी गली के मोड़ पर पहुंचकर खड़ी हो गयी। वह झटके से उठा और टैक्सी का भाड़ा चुकाकर गली में बढ़ गया।
उसने अपने हाथ में लगी हुई पुस्तक से मकान का पता देखा और उसे सहसा खयाल आ गया कि अनीता के मकान में घुसने से पहले एक लोहे के सींखचों का फाटक है। वह चलते-चलते उस जर्जर फाटक के पास जा पहुंचा। फाटक बन्द था लेकिन ठेलने से एक बार वह ऊपर से नीचे तक डगमगाया और कड़-कड़ की आवाज करता खुल गया। कुछ आगे एक बन्द द्वार था और शायद इसीके उस तरफ अनीता थी। वह एक क्षण बंद दरवाजे के सामने भीतर तक स्तब्ध होकर खड़ा रहा गोया किसी तिलिस्म को तोड़ने से पहले कुछ निर्णय कर लेना चाहता हो। चित्रपट में जैसे फ्लैशबैक एक पल में ही वर्षों के अन्तराल पार कर जाते हैं उसी तरह वह कुछ पल उसे कभी बीस वर्षों के उस पार कभी इस पार लाने-ले जाने लगे।
उसने सिर को एक झटका देकर कंधों को उचकाया (वह ऐसी स्थितियों में विद्यार्थी जीवन में भी यही किया करता था) और घंटी का बटन दबा दिया। न जाने क्यों उसे हांफने की अनुभूति हुई और सहज ढंग से सांस लेने में दिक्कत महसूस होने लगी। आंखों के आगे केचुए-से तैरने लगे। तभी हल्के कदमों की आहट हुई और दरवाजा खुल गया। उसने देखा, एक अधेड़ औरत उसके सामने खड़ी है। सफेद वायल की साड़ी में वह एक सम्भ्रान्त महिला लग रही थी। उसके खुले हुए गंगा-जमुनी बाल पीठ पर फैले हुए थे। वह बीस वर्षों के उस छूट गयी तरूणी की आकृति अपनी आंखों में लाने की अजहद कोशिश करने लगा किंतु उसे इस क्षण उसमें कोई सफलता प्राप्त नहीं हुई।
सामने खड़ी स्त्री को देखकर उसे अपना खयाल आया। वह स्वयं ही कहां अब उतना ओजपूर्ण और युवक रह गया है। उसके सिर पर गंजेपन का आक्रमण हो चुका है और पढ़ते समय प्रायः चश्मे की सहायता लेनी पड़ती है। रात को कई बार नींद नहीं आती तो बगैर ट्रैंक्विलाइजर के चैन नहीं मिलता। उसने अनीता की ओर देखकर ही स्वयं के परिवर्तन चीह्रने की नजर पायी लेकिन उसने मस्तिष्क में उभरते अपने बुढ़ापे के विचारों को बरबस धकेल दिया। महिला सम्भ्रम में पड़ी उसको पहचानने की कोशिश कर रही थी। अनायास ही वह बोल उठा, “मैं अनीता जी से मिलने...।” अभी वह पूरा वाक्य भी नहीं बोल पाया था कि वह महिला प्रसन्नता से पुलक उठी, “ओ हो रमेन्द्र जी! धन्य भाग है आज...अन्दर तो आओ!” और अनीता ने उसके कुरते की लटकती बांह छू ली।
अनीता के पीछे चलते हुए वह कमरे के बीचों-बीच जाकर खड़ा हो गया। अनीता ने उसके लिए कुर्सी खींच दी और बैठने के लिए कहा। उसकी आंखें कमरे में चारों तरफ चक्कर काटती रहीं। निगाह में आ सकने योग्य कोई बड़ा परिवर्तन वहां नजर नहीं आया। वह कुर्सी पर बैठते हुए बोला, “अनीता जी, न आप बदलीं और न आपका मकान। सब कुछ ज्यों का त्यों, जस का तस है।” अनीता के चेहरे पर एक आत्मीय मुस्कान उभरी और वह कहने लगी, “रमेन्द्र, अब ज्यों का त्यों न कहकर 'सब कुछ पुराना' कहिए।” रमेन्द्र ने हंसकर कहा, “कमरे में ठण्डापन भी पुराने दिनों की तरह ही बरकरार है।”
स्वयं को नियंत्रित करके अनीता ने कहा, “मकान भी पुराने होकर आदमियों की तरह ठंडे पड़ जाते हैं।” मेज पर रखे हुए अनीता के हाथों पर उसकी नजर पड़ी तो वह सोचने लगा कि बीस वर्ष पहले ये पतली सुबक उंगलियां और इनके गुलाबी नाखून वह चोरी-छिपे देखा करता था। जब अनीता चलती थी तो उसकी गुलाबी एडियां गुलाब के फूलों की रंगतभरी पत्तियों से मेल खाती थीं। एक वह वक्त था जब वह अनीता के सामने आते ही दब्बू हो जाता था; कई बार तो असम्बद्ध-सी बातें करके झेंप जाता था। शायद तब वह अनीता को प्रभावित करने के लिए पागल रहता था।
बहुत देर तक दोनों में से कोई भी समय की कुहेलिका से बाहर नहीं निकला तो वातावरण में बोझिलपन उभरने लगा। यकायक वह सचेत हो उठा और सहजता कायम करने के खयाल से कहने लगा, “एक पुस्तक की दुकान में तुम्हारा उपन्यास 'यादों के चिराग' देखा तो सोचा, चलो, अनीता जी से ही मिला जायें। युगों बीत गये आपसे मिले।” अपनी चेतना में उसे कुछ चुभता-सा लगा। एक ही वाक्य में उसने असावधानी में अनीता को 'तुम्हारा' भी कहा था और 'आप' भी। वह झेंपकर अकारण हंसने लगा और अपगी खिल्ली उड़ाने लगा, “यह भी खूब रही कि आप मुझे पहचान भी नहीं सकीं; मैं मोटा भी तो कितना हो गया हूं?” और सहसा अनजाने आवेश में वह कह उठा, “अब तो पुराने दिन ही सपने हो गये एक तरह से।”
“मैं जानती हूं, अब तुम देश के नेता हो गये हो। मैंने स्पीच देते हुए तुम्हारे फोटो बहुत बार अखबारों में देखे हैं।”
उसने हवा में पंजा लहराया जैसे अपने अखबारों में छपे हुए चित्रों को नकारकर वह मामूली बात सिद्ध करना चाहता है। सहज होने की कोशिश में उसने अपनी टांगे आगे को फैला दीं और जेब से सिगरेट केस निकालकर एक सिगरेट जलाने लगा। उसे सिगरेट जलाते देखकर अनीता इधर-उधर कुछ तलाश करने लगी; शायद वह 'ऐश ट्रे' की खोज कर रही थी। वह बोला, “माफ करना; यह मैंने एक बुरी आदत पाल ली है। अगर आपको एतराज हो तो...।” अनीता उसकी ओर आंख तरेरकर बोली, “बेवकूफी मत करो; मजे से सिगरेट पियो। अब मैंने बुढ़ापे में बहुत कुछ बेमन से भी स्वीकार करना सीख लिया है। मैं अभी चाय बनाकर लाती हूं।”
अनीता के चले जाने के बाद उसे अजीब-सी तसल्ली मिली। उसने खड़े होकर दीवारों पर लगी हुई तस्वीरों को ध्यान से देखना शुरू किया और सिगरेट की राख इधर-उधर झाड़ने लगा। मेज के निकट पहुंचकर उसने दो-तीन पत्र-पत्रिकाएं उलटी-पुलटीं। पत्रिकाओं में अनीता की कविताएं छपी हुई थीं। उसने उन कविताओं को सरसरी तौर पर पढ़ा भी लेकिन उन कविताओं ने उसे कहीं नहीं अटकाया। उसे लगा, कविता अब उससे बहुत दूर की चीज है। कविता के बारे में सोचते-सोचते न जाने वह कहां से कहां जा पहुंचा। उसे अनीता के आने का भी पता नहीं चला।
अनीता ने उसके सामने चाय का प्याला और चूड़े की प्लेट रखी तो वह चौंक गया। एक चम्मच भरकर चूड़ा उसने मुंह में डाल लिया और उसे चुभलाने लगा। यकायक अनीता को कुछ याद आया, “अरे मैं तो भूल ही गयी।” जरा देर बाद जब अनीता लौटी तो उसके हाथ में मलाई की अदरखी की एक प्लेट थी। वह उसके सामने प्लेट रखते हुए बोली, “याद है, यह तुम्हारी खास पसंद की चीज है; बहुत शर्माने की हालत में भी तुम एकाध टुकड़ा इसका जरूर चखा करते थे।”
इसपर उसे एक बहुत पुरानी बात याद आयी। नरेन्द्र उससे मजाक करते हुए कहा करता था, “अनीता तुझको देखकर ही तो मिठाई लाती है वर्ना हम लोगों को तो वह चले-वने खिलाकर टरका देती है।” उसे उन दोस्तों की बहुत याद आयी। उसका बेहद मन हुआ कि वह उन लोगों के बारे में कुछ पूछे लेकिन यह सोचकर चुप लगा गया कि कहीं अनीता यह न समझे कि उसे अपने इतने घनिष्ठ लोगों का भी कोई पता-ठिकाना मालूम नहीं है। वह चुपचाप चाय पीता रहा और मलाई की अदरखी बिना खास इच्छा के यों ही खाता चला गया। उसे इस तरह चुपचाप खाते चले जाने पर हया आयी तो बोला, “वसन्त-नरेन्द्र वगैरह आते हैं कभी या...?”
“वसन्त, नरेन्द्र कौन?” अनीता के तेवर पर उसे हैरत हुई। उसके माथे की नसें उभर आयीं; शायद वह इन नामों के आदमियों को याद करने की भरसक कोशिश कर रही थी। बहुत देर बाद याद करते हुए बोली, “तुम्हारा मतलब रमण और बासु से तो नहीं है?”
“अच्छा, हां, वह लम्बा लड़का नरेन्द्र नहीं, रमण था। वसन्त का नाम बासु था? पता नहीं क्यों, क्या अजीब 'एसोसिएशन' है, उन दोनों का नाम मुझे वसन्त और नरेन्द्र के रूप में ही याद रहता है।”
“हां, कभी-कभी ऐसा भी हो जाता है-जिसे मन जिस रूप में स्वीकार करे, उसका वही नाम याद रहता है। वसन्त की पिछली लड़ाई में मौत हो चुकी है। रमण फिर कभी नहीं आया। वसन्त की मौत पर, उसका अखबार में फोटो छपा था और उसकी विधवा पत्नी को महावीर चक्र मिला था।”
उसने जल्दी-जल्दी हां-हां की जो स्पष्टतः इस घटना के प्रति उसका अज्ञान प्रकट करती थी। बात बनाने की कोशिश में उसने एक अटपटा दार्शनिक वाक्य कहा, “आखिर सभी छूट गये-यही जिंदगी की विडम्बना है।” अनीता ने उसकी बात पर कोई खास ध्यान दिये वगैर कहा, “तुम्हें सुरजीत की कुछ याद है? अरे वही गठीले बदन का स्पोर्ट्समैन। जंगलात का बड़ा ठेकेदार हो गया है। कई साल पहले नुमाइश में आया था तो थोड़ी देर के लिए अपनी बीबी को लेकर यहां भी आया था। मगर पाजी की बात तो देखो, सामान-बिस्तर सब होटल में छोड़ आया था।”
वह सुरजीत को स्मृति पर भरसक जोर देने के बाद भी याद नहीं कर पाया। 'होगा कोई सुरजीत' मन ही मन उसने कहा और चाय का खाली प्याला प्लेट में रख दिया। शायद अनीता को भी अब किसीके संबंध में कुछ नहीं कहना था। उसकी जिंदगी में आने वालों का प्रकरण अब बाकी नहीं रहा था तो बातें बंद हो गयीं और एक अप्रिय चुप्पी कमरे में ठहर गयी। अनीता ने भी शायद इसे नोट किया। वह बर्तन उठाने के बहाने से जाने लगी तो वह सहसा पूछा पूछ बैठा, “क्या अभी कालेज में पढ़ाना जारी है?”
“अब मैं उस कालेज की प्रधानाचार्या हूं, जनाब!” अनीता ने व्यंग्यात्मक लहजे में कहा, गोया वह प्रधानाचार्या को मुंह चिढ़ा रही हो। और वह यकायक पूछ बैठी, “क्या तुम भी वहीं हो? मेरा मतलब क्या कभी-कभी कविता लिखते हो?”
ठठाकर हंसने का नाटक बोला, “कविता? तुम कहती क्या हो? क्या और दसरी आफतें कम हैं कि इस विपत्ति को भी मैं ही झेलूं?” अपनी बात खत्म करके बगल की दीवाल के पड़ा पड़े अलबम को उसने योंही उठा लिया। अलबम का आवरण लगभग गल-सा गया था और उसकी रेशमी डोरी के बल खुलकर झूलने लगे थे। अलबम आहिस्ता से उसने अपने घुटनों पर रख लिया और उसके पृष्ठ पलटने लगा। बीच से पहले ही एक पृष्ठ पर एक फोटो लगा था जिसमें वसन्त और नरेन्द्र के साथ वह भी बैठा था।
अपनी तस्वीर देखकर उसे अपरिचित किस्म की भावुकता का अहसास हुआ। कभी वह कैसा था...कहां है उसका वह स्वरूप...वह उम्र? एक चीज जो कहीं आज भी चुपचाप ठहरी पड़ी थी उससे सर्वथा छिन चुकी थी। वह उस तस्वीर में देर तक खोया रहा। उसे गुम-सुम देखकर अनीता ने कहा, “स्वयं को क्यों खोते हो रमेन्द्र...वक्त बीतने के साथ क्या आदमी नहीं बीत जाता?” हड़बड़ाकर उसने अलबम बंद कर दिया। अपने घुटने पर पड़े कुर्ते को वह ऐसे झटकने लगा, गोया गीले कपड़े को फटकार रहा हो। अन्दर से वह पूरी तरह हिल गया था। लेकिन उसने स्वयं को अनुशासित करते हुए कहा, “मुझे तुम्हारी पुरानी कविताओं की पंक्तियां अब भी याद है...हालांकि उनका एक्जेक्ट वर्डिंग...।”
अनीता ने उसकी ओर विद्रूप से देखा और ठठा कर हंस पड़ी, “हां, हां, क्यों नहीं? तुम्हें मेरी कविताएं याद आ जाती हैं और तुम यकायक बीस साल बाद मुझसे मिलने आ जाते हो...क्यों ठीक है न?”
वह अनीता की चोट को सम्भाल नहीं पाया तो उसकी राजनीति ने उसका ठीक वक्त पर साथ दिया। वह अनीता के सारे व्यंग्य को दरगुजर करके बड़े भोलेपन से बोला, “अब मैं फिर से कविता लिखना शुरू कर दूंगा और यहां तुम्हारे पास ही भेज दिया करूंगा। बोलो, तुम उनमें संशोधन कर दिया करोगी?”
अनीता सारा व्यंग्य एकबारगी भूल गयी और बहुत भोली हो आयी, “अरे! कहीं लिखो भी तो। तुम्हें अपनी पालिटिक्स से इतनी फुर्सत ही कहां है!” यकायक राजनीति का संदर्भ आते ही उसकी नजर अपनी कलाई की घड़ी पर गयी, सात बजकर बीस मिनट निकल चुके थे। वह व्यस्तता से उठते हुए बोला, “अच्छा, अब मैं चलूंगा। आज एक खास मीटिंग होने जा रही है पालिसी लाइन को लेकर।”
अनीता उसकी हड़बड़ी देखकर बोली, “बस्स! इतनी ही देर के लिए आये थे नेता जी?” वह उठकर चल ही दिया तो अनीता भी उसके साथ चलने लगी लेकिन अनीता का उपन्यास जो मेज पर रख दिया था-उसे वहीं भूल गया। अनीता ने उपन्यास उठाकर उसके हाथ में देते हुए कहा, 'यादों के चिराग' तो भूले ही जा रहे हो-यह तो तुमने मेरा पता अपने पास रखने की गरज से खरीदा था शायद।”
उसने झेंपते हुए कहा, “पता नहीं कुछ दिनों से क्या होता जा रहा है-मैं चीजों को भूल जाता हूं।” उसने उपन्यास अनीता के हाथ से लेकर बगल में दबाते हुए हाथ जोड़े और मुस्कराते हुए बोला, “अच्छा, कभी फिर आऊंगा; और हां, तुम क्या कभी उधर नहीं आतीं? कभी उधर भी आओ न।”
अनीता का उत्तर सुनने की फुर्सत शायद उसे अब नहीं थी-वह तेजी से मकान के बाहर निकला और गली में द्रुत चाल से बढ़ने लगा। गली के मोड़ पर उसने यों ही जरा-सा मुड़कर पीछे देखा, अनीता अब भी फाटक के अन्दर खड़ी उसे देख रही थी।
मुख्य सड़क पर पहुंचकर उसने टैक्सी ले ली और होटल का पता देकर उसमें बैठ गया। मीटिंग में पहुंचने से पहले होटल से आंकड़ों के पेपर्स उसे लेने थे। उसे अपने पर हल्की-सी खीझ हुई। होटल से चलते समय ही ब्रीफकेस साथ ले लिया होता तो वह सीधा मीटिंग में जा सकता था। वह कान्फ्रेंस में कही जाने वाली बातों को क्रम से सोचने की कोशिश करने लगा।
टैक्सी होटल के सामने जाकर ठहर गयी तो वह हड़बोंग में उतरा और बगैर मीटर देखे हुए उसने ड्राइवर के कहे अनुसार किराया चुका दिया और होटल के भीतर जाने लगा। ड्राइवर ने पीछे से उसे अवाज दी, “साहब, आपकी किताब तो यहीं रह गयी।”
वह उतावली में झुंझलाते हुए बोला, “ठीक है, इसे तुम अपने पास ही रखो।”
ड्राइवर हैरत से उसे देखता रह गया। किताब में उसकी भी कोई दिलचस्पी नहीं थी लेकिन उसने यों ही कौतूहलवश उसे खोलकर देख लिया और 'यादों के चिराग' का मतलब जानने की इच्छा होते हुए भी कुछ भी अनुमान नहीं लगा सका।