यादों के झरोखे (आत्मकथा) : राजमणि शर्मा / लालचंद गुप्त 'मंगल'

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समीक्षा

यादों के झरोखे (आत्मकथा) : राजमणि शर्मा ; वाणी प्रकाशन, दिल्ली; संस्करण: 2021; पृष्ठ: 160 ; मूल्य: 300 रुपये।

आत्मकथा, गद्य-साहित्य की, वह विधा है, जिसमें आत्मकथाकार द्वारा, प्रकाशन-योग्य वृत्तों के माध्यम से, स्वयं को ही, व्यवस्थित रूप में, विवृत किया जाता है। आदर्श आत्मकथा में व्यक्ति (आत्मकथाकार) तो साकार होता ही है, उसका समाज (युग-परिवेश) भी साकार होता है। अच्छी आत्मकथा जीवन की वह फ़िल्म होती है, जिसमें कल्पना के लिए कतई-कोई स्थान नहीं होता, लेकिन, कदम-कदम पर, खुरदरापन अनिवार्यतः होता है। साफ-स्पष्ट और सत्य-दृढ़ रूप में चित्रित यही खुरदरापन, यही ज्वलंत यथार्थ, जब अपनी मंज़िल पर पहुँचता है, तभी वह अपने पाठक को दिशाबोध प्रदान करने में सफल होता है । ‘यादों के झरोखे’ की भूमिका में प्रोफ़ेसर राजमणि शर्मा ने भी आत्मकथा के इसी वैशिष्ट्य पर बल दिया है -- ‘‘हर तरह के अभावों-अपमानों से जूझते हुए एक व्यक्ति किस प्रकार अपना जीवन निर्मित करता है, इसकी कटु-यथार्थ गाथा है -- ‘यादों के झरोखे।’ ... यदि भावी पीढ़ी इस पथ का अनुसरण कर पायी, तो मैं अपने जीवन की आहुति को सार्थक मानूँगा ।’’ आइये, अब ‘यादों के झरोखे’ में प्रवेश करें और राजमणि जी के जीवन-संघर्ष तथा उपलब्धियों की जाँच-पड़ताल करें ।

बहुमुखी प्रतिभा और विविधमुखी व्यक्तित्व के धनी प्रोफ़ेसर राजमणि शर्मा का जन्म 02 नवम्बर, 1940 ई. को, भले ही उनके ननिहाल-गाँव ‘आँका’ में हुआ था, लेकिन असली पालन-पोषण तो पैतृक गाँव ‘लम्भुआ’ में ही हुआ, जो जौनपुर-सुल्तानपुर के सड़क-मार्ग पर जौनपुर से 23 किलोमीटर की दूरी पर अवस्थित है। पराधीन भारत का यह गाँव कोई अलग-से अजूबा नहीं था, बल्कि उत्तर भारत के परम्परित गाँवों जैसा ही था -- समस्त जात-बिरादरियों, रूढ़ियों-कुरीतियों और अच्छाइयों-बुराइयों में धँसा-फँसा, ढँका-दबा, भूखा-नंगा और गला-सड़ा एक सामान्य-सा गाँव । इसी गाँव में एक प्रख्यात ज्योतिषी-कर्मकाण्डी, गरीबों के सहायक और हितचिन्तक पण्डित उदयराज शर्मा (‘शास्त्री जी’, राजमणि के पिताश्री ‘बाबूजी’) का एकमात्र घर ऐसा था, ‘‘जहाँ दोनों जून भोजन बनता था।’’ इसी घर में शान-शौकत से राजमणि का बचपन बीता; लेकिन ‘‘कब क्या घट जाय, क्या हो जाय, कुछ भी निश्चित नहीं इस असार-संसार में ।’’ अभी राजमणि पाँचवीं कक्षा में थे कि उनके पिताश्री को एक असाध्य रोग ने घेर लिया -- रोग से अधिक, घरवालों तथा अन्य परिजनों के दुर्व्यवहार से, उन्हें मर्मान्तक पीड़ा हुई। घर से अलग कर दिये जाने पर तो आर्थिक विकटता ने अपना रौद्र रूप ही दिखाना शुरू कर दिया। इस परिस्थिति का सर्वाधिक दुष्प्रभाव राजमणि को झेलना पड़ा। समय पर फीस जमा न करवा सकने के कारण स्कूूल से बार-बार नाम कटना, स्याही-दवात और कॉपी-किताब की माँग पर माँ से चाँटे और मास्टर से मार पड़ना । यही है वह पृष्ठभूमि, जहाँ से राजमणि के कँटीले-पथरीले-दर्दीले जीवन में संघर्ष का अंकुर फूटा और धीरे-धीरे उपलब्धियों के वटवृक्ष-रूप में विकसित हुआ ।

‘स्वस्थ’ होते ही उदयराज शर्मा ने बम्बई की राह पकड़ी, किन्तु पहले जैसी (आर्थिक) स्थिति तो लौटनी नहीं थी, लौटी भी नहीं ।... ‘‘बाबू जी की अनुपस्थिति में माँ, बहन, घर, खेती-बारी, जानवरों के चारे की व्यवस्था’’ राजमणि की ही ‘‘जिम्मेदारी थी, और उम्र थी मात्र ग्यारह वर्ष।’’ येन-केन-प्रकारेण सुल्तानपुर रेलवे-स्टेशन के लैम्प की रोशनी में पढ़कर हाई स्कूल पास किया ही था कि बिन-पूछे शादी कर दी गयी । ‘‘शादी और अगले सात साल ... ज़िन्दगी में तूफ़ान बनकर आये ।’’ आगे पढ़ने के फेर में, लखनऊ में पोस्टमैन सगे मौसा के यहाँ, आर्थिक मजबूरी में, भरे-पूरे परिवार की चाकरी करनी पड़ी; लेकिन कब तक ? विद्रोह-स्वरूप गाँव की राह पकड़ी । पढ़ाई छूटी और वर्ष बर्बाद हुआ। इसके लिए घरवालों ने राजमणि को ही दोषी ठहराया। अपमान का घूँट पीते हुए, पाँच-छह महीने जूझते रहने के बाद, मन में निश्चय किया कि ‘‘अब आगे की पढ़ाई अपनी कमाई से ही करूँगा और सन् 1957 की नाग-पंचमी को बम्बई की राह पकड़ ली।’’ पिताश्री पहले से ही बम्बई में थे । हतभाग्य ! बम्बई का जीवन तो और-भी नारकीय था । मरता क्या न करता, इस जीवन को अपनाना ही एकमात्र विकल्प था । बाबूजी के कहने पर एक मारवाड़ी की दुकान पर नौकरी शुरू की और ‘भैयाजी’ सम्बोधन पाया, लेकिन तीसरे ही दिन विद्रोह कर दिया। ईश्वर रूपी एक अध्यापक की अहैतुक कृपा से चार ट्यूशन मिल गयीं । सुबह-शाम ट्यूशन और दिन में वाचनालय में अध्ययन-मनन। अंग्रेज़ी-हिन्दी की टाइप सीखी । एक सौ दस रुपये महीना की टाइपिस्ट की नौकरी मिल गयी । समय निकालकर ‘मध्यमा’ और ‘साहित्यरत्न’ की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर लीं । वर्धा द्वारा संचालित स्कूलों में कुछ अध्यापन-कार्य भी मिल गया। इस प्रकार, आय हो गयी लगभग 250 रुपये महीना । झट से, अपने नारकीय बसेरे से पीछा छुड़ाया । दिन-भर खटना, पढ़ना-पढ़ाना, कार्य करना, कुल मिलाकर, प्रातः 5 बजे से रात्रि 9 बजे तक की भागदौड़ ही अब राजमणि की दिनचर्या थी । उपर्युक्त परिस्थिति और परिवेश के आलोक में राजमणि शर्मा का यह कथन सर्वथा सत्य है कि ‘‘खतरे उठाना तो मेरी ज़िन्दगी का हिस्सा रहा है । इसी ने मुझमें संघर्ष तथा निश्चिन्तता की अटूट क्षमता भरी है।’’

पाठकबन्धु ! अभी तक तो आपने राजमणि जी की संघर्षगाथा का ट्रेलर ही देखा है, पिक्चर तो अभी बाकी है। लगभग सात साल के साढ़े-साती वाले बम्बइया-जीवन की ऊब-उकताहट और उत्तरप्रदेश से इण्टरमीडिएट करने की ललक ने राजमणि को गाँव लौटने के लिए प्रेरित-विवश किया। सौभाग्य से, लौटते ही, जून 1964 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में क्लर्क की नौकरी मिल गयी - पहले व्याकरण-प्रभाग में, फिर केमिस्ट्री विभाग में, तत्पश्चात्, कुछ दिन हिन्दी-स्टेनो रेक्टर-कार्यालय में, और, अंततः, हिन्दी-विभाग में । कुल अढ़ाई वर्षों के इस लिपकीय जीवन में बहुतेरे ‘बड़े’ लोगों की नीचाई से सुपरिचित होने का सुअवसर मिला। इस प्रकार, बकौल आत्मकथाकार, नौकरी में ‘‘स्थायित्व तो मिला, किन्तु आर्थिक दृष्टि से क्षति भी हुई । माता-पिता, भाई-बहन, पत्नी-बच्ची, सभी का खर्च मुझे ही तो उठाना था । खैर! मैंने इसकी राह निकाली -- टाइप मशीन खरीदी और येन-केन-प्रकारेण सबको पालता रहा।’’

कहानी आगे बढ़ती है, तो ज्ञात होता है कि आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की कृपा से राजमणि शर्मा को, नौकरी में रहते हुए, बी.ए. करने की अनुमति मिल गयी । बाद में एम.ए. (हिन्दी) भी कर ली । दो वर्ष का अवैतनिक अवकाश लेकर, 300 रुपये मासिक छात्रवृत्ति के साथ, विभागाध्यक्ष डॉ. विजयपालसिंह के निर्देशन में, पीएच.डी. ज्वाइन कर ली । इसी अवधि में द्विवर्षीय लिंग्विस्टिक डिप्लोमा भी अर्जित कर लिया। थीसिस जमा होने के बाद छात्रवृत्ति बंद हो गयी और राजमणि जी को एक साल तक बेरोज़गार भटकना पड़ा । संक्षेप में, झटके-पर-झटके बर्दाश्त नहीं हो रहे थे । फलस्वरूप गंभीर रूप से अस्वस्थ हुए । चौतरफ़ा घुप्प-अंधेरा, निराशा-ही-निराशा । एक बार तो जीवन-मुक्ति के लिए नींद की ढेर-सारी गोलियाँ भी निगल लीं । अच्छे-भले लोगों की सहायता और सदाशयता से ‘रणवीर रणंजय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, अमेठी’ में हिन्दी-प्राध्यापक नियुक्त हुए । लगभग साढे़-चार साल बाद बनारस में वापसी हो सकी, क्योंकि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभाग में, भाषाविज्ञान के लिए आरक्षित पद पर, स्थायी नियुक्ति हो गयी थी । इस प्रकार 26 सितम्बर, 1980 ई. से सेवा-निवृत्ति तक, रीडर-प्रोफ़ेसर होकर, आप कृतकार्य हुए । इस समूचे कालखण्ड का निचोड़ यही है कि राजमणि जी की योग्यता और निष्ठा से तो सभी प्रभावित रहे, ‘‘पर, मेरा कोई कार्य बिना अवरोध के हो पाना मेरे भाग्य में ही नहीं रहा ।’’ हाँ ! ‘‘ईमानदारी से सम्बन्ध-निर्वाह मेरा अपना एक गुण रहा।... बदला लेना मेरे शब्दकोश में है नहीं । अस्तु, सब-कुछ ईश्वर पर छोड़ता रहा, सहता रहा।’’

राजमणि शर्मा ने अपनी यह आत्मकथा ‘‘जीवन की राह आसान बनाने वाले कारकों को सादर’’ समर्पित की है। इन कारकों में, मुख्य रूप से, सर्वश्री जगन्नाथप्रसाद शर्मा, हजारीप्रसाद द्विवेदी, रामसिंह तोमर और विश्वम्भरनाथ उपाध्याय आदि उल्लेखनीय हैं । यदि आप मुझसे किसी-एक कारक का नाम जानना चाहते हैं, तो वह एकमात्र नाम श्रीमती राजमणि शर्मा का है । ‘यादों के झरोखे’ साक्षी है, और, जितना मैं व्यक्तिगत रूप से जानता हूँ , ससुराल-पक्ष से असहनीय अपमान, अवहेलना और डाँट-डपट सहकर भी, इस देवी के मुख पर, संकट-संघर्षग्रस्त राजमणि शर्मा के प्रति, कभी उदासी और अवसाद का भाव नहीं आया - हमेशा गरिमा और गर्व का भाव ही झलकता रहा । परिणामस्वरूप वह पले-पले, पदे-पदे राजमणि के कन्धा-से कन्धा मिलाकर चलती रहीं, जूझती रहीं और उन्हें सफलता की सीढ़ियाँ चढ़ाने में सफल रहीं । आप कितनी साहसी-कर्मठ हैं, कितनी स्वाभिमानी-दृढ़निश्चयी हैं, कितनी संतुष्ट-विश्वस्त हैं और आपके मन-प्राणों में राजमणि जी के प्रति कितना अगाध स्नेह-प्यार तथा सेवा-समर्पण समाया हुआ है, इसका अनुमान तो ‘प्रेयसी, प्रियतमा और माँ’ नामक अध्याय का पारायण करके ही लगाया जा सकता है; इसीलिए राजमणि शर्मा ने अपनी समूची ‘‘सफलता का अर्ध्य’’ पत्नी को ही समर्पित किया है।

‘यादों के झरोखे’ का एक अत्यंत रोमांचक पक्ष है- काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभागीय शिक्षकों और विभागाध्यक्षों की कुटिलताओं का नग्न निरूपण, आँखों देखे घटनाक्रमों का सविस्तार आख्यायन। राजमणि शर्मा ने अपने विभाग की अकादमिक-साहित्यिक गतिविधियों में व्याप्त जिस टुच्चेपन-लुच्चेपन, हल्केपन-छोटेपन, कमीनेपन-नंगेपन और लीचड़पन-कीचड़पन का उद्घाटन किया है, वह तथाकथित विद्या-पण्डितों और विश्वविद्यालयीय राजनीति की पोल खोलने तथा बखिया उधेड़ने के लिए पर्याप्त सामग्री उपलब्ध कराता है । जिस विभाग/संस्थान में कलुषित मानसिकता, गन्दी-घटिया-घातक सोच, उठापटक-कुकृत्य, ईर्ष्या-पक्षपात, झूठ-फरेब, प्रतिद्वंद्विता-दलबंदी, जातिवाद-क्षेत्रवाद, चरित्र-हनन, पत्नी-परोस प्रबन्धन तथा शिष्यों-सहयोगियों के शारीरिक-मानसिक-अकादमिक-साहित्यिक शोषण आदि का बोलबाला हो, उस ‘काजल की कोठड़ी’ में कोई स्वयं को कैसे पाक-साफ रख सकता है ? इस कंटकाकीर्ण और झंझावाती परिवेश से राजमणि जी स्वयं को कैसे निकाल लाये, यह देख-सुनकर आश्चर्य होता है । मैं सहमत हूँ राजमणि जी से, जब आप कहते हैं - ‘‘मनुष्य की सार्थकता और सफलता प्रयत्न करने में है - बशर्ते सत्य, ईमानदारी, कर्त्तव्यनिष्ठता और परोपकार जैसे मानवीय मूल्य इस प्रयत्न के आधार हों।’’

उपर्युक्त विवेचन-विश्लेषण के आलोक में, निष्कर्ष-रूप में, मैं यह कहने की स्थिति में आ गया हूँ कि ‘संघर्ष-गाथा’ और ‘पुण्य-स्मरण’ नामक दो खण्डों तथा 5+8 कुल तेरह अध्यायों में विभक्त ‘यादों के झरोखे’ एक पठनीय, मननीय, संग्रहणीय और अविस्मरणीय आत्मकथा है । यहाँ जो-कुछ कहा गया है, सच-सच कहा गया है और सच के सिवाय कुछ नहीं कहा गया है । यह एक बेलाग-बेबाक-अनौपचारिक आत्मकथा है। यह अपनी सपाटबयानी और धाकड़पन में एक लासानी आत्मकथा है । यह एक रोचक-रोमांचक और श्रेष्ठ-प्रशस्य आत्मकथा है। यह एक मार्मिक, प्रशांत और कलापूर्ण आत्मकथा है । आकार-लघुता में भी यह अपनी व्यक्तित्व-गुरुता से निष्पन्न आत्मकथा है। अपनी वस्तुपरकता, पारदर्शिता, स्थूल-सूक्ष्म विवरणात्मकता, गहनता और प्रेरणा की विवृति की दृष्टि से भी यह एक उत्तम आत्मकथा है । निस्संदेह, ‘यादों के झरोखे’ से आत्मकथा-विधा की वास्तविक छवि खिली है और इसके प्रकाशन से हिन्दी आत्मकथा-साहित्य को गौरव एवं लोकप्रियता की प्राप्ति हुई है।