यादों के झुरमुट में भूलन कांदा / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि : 07 नवम्बर 2012
कोई तीन दशक पूर्व मैं व फिल्मकार आरके नैयर, मदन जोशी और छायाकार राघू करमरकर का पुत्र छत्तीसगढ़ गए थे। उन दिनों नैयर साहब कांकेर की जनजातियों के जीवन से प्रेरित फिल्म रचना चाहते थे और कहानी थी एक जनजाति की युवा स्त्री की, जिसे बेच दिया जाता है और वह शहर में रहकर अपनी नृत्य-कला से प्रसिद्धि पाकर अपने ग्राम लौटती है तथा शोषण करने वालों को दंडित करती है। बाद में इसी कथा को राजधानी के रूप में विकसित होते भोपाल की पृष्ठभूमि में करके मैंने इसे विजयपथ सिंघानिया को दिया था। बहरहाल, उन दिनों मध्य प्रदेश में विट्ठलभाई पटेल मंत्री थे और उनकी अनुशंसा पर हमें सरकारी सहायता मिली। हम कांकेर के निकट तक पहुंचे। किसी कारण वह फिल्म नहीं बन पाई। दरअसल जितनी फिल्मों की परिकल्पना की जाती है, मात्र उसकी दो प्रतिशत बन पाती हैं, क्योंकि सिनेमा का अर्थशास्त्र और सितारा गणित कुछ अलग किस्म का है।
इसके कुछ वर्ष पूर्व मैंने गुलशेर खान शानी से मिलकर उनकी 'सांप और सीढ़ी' की फिल्म संभावना पर लंबी बात की थी और पांच हजार की राशि के एवज में उन्होंने मुझे उसके अधिकार भी दिए थे। फूलो अता का पात्र अत्यंत सशक्त था और निष्णात अभिनेत्री की तलाश में वे जुटे रहे और फिल्म नहीं बन पाई। शानी साहब की श्रेष्ठ कृति 'काला जल' पर सीरियल बन चुका है और उनकी 'शालवनों का द्वीप' भी महत्वपूर्ण है। मेहरुन्निसा परवेज की जनजातियों के जीवन पर रची कहानियां बहुत अच्छी हैं। वर्तमान में संजीव बख्शी की 'भूलन कांदा' पर फिल्म बनाई जा सकती है। अपराध और दंडविधान पर इसमें प्रस्तुत दृष्टिकोण अत्यंत मानवीय है।
कोई छह दशक पूर्व छत्तीसगढ़ के किशोर साहू ने अनेक सफल एवं सार्थक फिल्में रची हैं और विजय आनंद की 'गाइड' में उन्होंने अभूतपूर्व अभिनय किया था। उन्हीं के दौर में बुंदेलखंड के एनए अंसारी की भी अपनी सिनेमाई शैली थी। बहरहाल, छत्तीसगढ़ की धरती पर कदम रखते ही मैं सत्यदेव दुबे एवं हबीब तनवीर का स्मरण करूंगा। दुबेजी मुंबई रंगमंच पर एक दादा के रूप में याद किए जाते हैं। हबीब तनवीर साहब ने तो जनजातियों से ही कलाकार लेकर अद्भुत नाटक प्रस्तुत किए हैं। तीजनबाई ने पंडवानी शैली में गाकर देश-विदेश में नाम कमाया और उन्हीं के पदचिह्नों पर ऋतु वर्मा चल रही हैं। कुछ वर्ष पूर्व राकेश ओमप्रकाश मेहरा की 'दिल्ली 6' में छत्तीसगढ़ के एक लोकगीत 'ससुराल गेंदा फूल' का इस्तेमाल किया गया, परंतु एआर रहमान और प्रसून जोशी ने मूल रचनाकारों के नाम तक नहीं लिए। मेरे लिखे विरोध के लेख भी उनके द्वारा अनदेखे ही रहे। विगत वर्ष नक्सलवाद पर छत्तीसगढ़ के कुछ युवा लोगों ने अच्छी फिल्म बनाई थी, परंतु मार्केटिंग नहीं कर पाए। प्रकाश झा की 'चक्रव्यूह' बात छत्तीसगढ़ की करती है, परंतु भोपाल और पचमढ़ी में उन्होंने अपना फिल्मी भूगोल रचा।
बहरहाल, छत्तीसगढ़ में मुंबई की नकल करके भी लोकल फिल्में बनाई जाती हैं। दरअसल अपने प्रांत में फिल्म के महत्व को स्थापित करने के प्रयास में सरकारी लोगों को स्टूडियो स्थापना का गैर-व्यावहारिक जोश आ जाता है। इस तरह के अनेक प्रयास विफल ही हुए हैं और आवश्यक मात्र इतना है कि अपने क्षेत्र की लोक-संस्कृति से प्रेरित व्यावहारिक बजट की प्रयोगवादी फिल्मों को बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए और इससे भी अधिक जरूरी है अपने प्रदेश के स्कूलों में फिल्म आस्वाद की कोई प्रमाणिक किताब लेकर उसे ऐच्छिक विषय की तरह पढ़ाया जाना चाहिए ताकि कालांतर में सचेत दर्शकों की पीढिय़ां तैयार हों। यह अच्छे नागरिक रचने की प्रक्रिया का ही एक हिस्सा है।
आज रायपुर प्रदेश पर हर कदम सजगता से रखूंगा कि कहीं भूलन कांदा पर पैर न पड़ जाए और मैं स्थिर हो जाऊं। जब आज देश ही भूलन कांदा पर जा गिरा है, तब एक व्यक्ति के स्थिर होने से कोई अंतर नहीं होता।