यादों के साये / एलिस फ़ैज़ / फ़ैज़ अहमद फ़ैज़
यह बात लगभग नामुमकिन है कि किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में औपचारिक आदर-भाव के साथ बात की जाए जो चौबीस साल तक रगे-जाँ की तरह साथ रहा है, एक ऐसा व्यक्ति जो मेरा पति है।
फ़ैज़ पर लिखते समय जाती बातें और साथ झेले हुए अनुभव विचित्र आकर्षण की तरह दामने-दिल को खींचते हैं। लेकिन जब यह चुनने का प्रश्न उठे कि क्या लिखूँ तो वही बातें चुननी चाहिए, जो दूसरों के जीवन पर अपने प्रभाव की मुहर लगा सकें, दूसरों के दिलों को यूँ छू लें कि उनका स्पर्श मुस्कान और मुक्त हँसी को जन्म दे सके,... यही नहीं, बल्कि जो बातें आँसुओं के सीमाँचल तक पहुँचा दें।
मैं विगत दिनों की ओर देखती हूँ... मेरी निगाहें अनिवार्यतः बंदीगृह के दरवाजे़ से होकर विगत तक पहुँचती हैं। जेल के ये साल हमारे सम्मिलित जीवन में एक अवरोधक अंतराल की तरह नज़र आते हैं। मगर इन बरसों ने हम दोनों को वह कुछ दिया है जो किसी तरह भी हम हासिल नहीं कर सकते थे; चंद साल, जिनमें घुटनियों चलती हुई एक बच्ची छोटी-सी लड़की बन गई; जिनमें एक लड़की धीरे-धीरे नौजवान महिला बन गयी; जिसमें जीवन के एक अचानक मोड़ की तरह ‘किसी’ के सर के बालों पर सफ़ेदी छाने लगी, और किसी चेहरे पर झुर्रियां आहिस्ता-आहिस्ता अपना जाल बुनती रहीं। जेल के दरवाज़े अवरोधस्वरूप हमारे बीच में थे; लेकिन उन दरवाज़ों में दाखि़ल होते हुए, उनसे निकलते हुए जं़जीरों की झनकार और तालों में कुंजियों के घूमने की आवाज़ के साथ जं़जीरों-बेड़ियों से बंधे ये दिन अपने पीछे-पीछे हर्ष और आनंद से भरे-पूरे क्षण लेकर आये: अविश्वसनीय रूप से मानो आंचल में फूलों का उपहार लिये, ये क्षण। ... मैं उन दिनों के ग़म बल्कि ग़मों की बात नहीं करूंगी। क्योंकि मौत (और ग़म) ने अपनी इच्छाएं हम दोनों को सौंपी हैं।... मैं तो ख़ुशी के क्षणों की याद ताज़ा करना चाहती हूं,ताकि सूरज की रौशनी से ये बीते हुए क्षण जगमगा उठें... हालांकि मैं जानती हूं कि साये भी उतने ही प्यारे होते हैं।
जब मार्च की एक सुब्ह को फ़ैज़ ने मुझे और सोते हुए बच्चों को ख़ुदा हाफ़िज़ कहा तो मेरे सामने सबसे पहला और संगीन मस्अला यह था कि चार सौ रुपये मासिक की आमदनी से घर को कैसे चलाया जायेगा।न चाहते हुए भी उदास दिल से हमने शफ़ीउल्ला के अलावा दूसरे पुराने नौकरों को अलग कर दिया; शफ़ीउल्ला, जो अब भी हमारे साथ हैं। सहज-स्वभाव, अपनापे की मूर्ति, फ़ैज़ की सौतेली बहन हमारे साथ रहने के लिए आ गयी, ताकि वह बदले हुए हालात में ज़िंदगी बसर करने में मेरी मदद कर सके। पहली चोट हमारे बच्चों पर पड़ी। क्वीन मेरी कॉलेज से उनका नाम कटवाकर केन्याज़ मिशन स्कूल में दाखि़ल कराना पड़ा। मुझे तो इस बात का अंदाज़ा बाद में हुआ कि यह फै़सला हमारी बच्चियों के लिए कितना लाभकर सिद्ध हुआ। मुनीज़ा अक्सर मुझे बुरा-भला कहती: ‘जब अब्बा यहां थे तो मेरे पास एक आया थी। स्कूल में झूले थे, चकरघिन्नी थी, तरह-तरह के खेल थे...!’ अपनी नयी परिस्थिति में उसे फ़र्श पर बैठना पड़ता था। लेकिन प्रार्थना-पद्धति के नये रूपों ने उसमें एक अजीब-सा बौद्धिक मानसिक उत्साह पैदा कर दिया था...मेरी ननद की आपत्तियों के बावजूद वह रात को सोने से पहले अपने घुटनों पर झुककर, सज्दे के लिए आधी झुकी-सी भाव-मुद्रा में, ‘आस्मानी बाप’ (परमेश्वर) की स्तुति बिगड़ी हुई और किंचित हास्यास्पद-सी उर्दू में करती। एक रात जब वह अपने स्रष्टा से विनती करने में लीन थी और हम उसे सुलाने के लिए प्रतीक्षा कर रहे थे, उसने कहा ‘और आस्मानी बाप..तुम जो हैदराबाद जेल में हो, जल्दी से वापस आ जाओ!’ जब हमने अपनी घुटी हुई हँसी पर काबू पा लिया और मुनीज़ा की शेष प्रार्थना सुन ली, तो उसे बिस्तर में लिटा दिया। फिर उसे (अर्द्धनिद्रा की दशा में) यह कहते हुए सुना: ‘बाजी...बहुत जल्द सब कुछ ठीक हो जायेगा!’
जेल में मुलाक़ात की इजाज़त मुद्दतों की प्रतीक्षा के बाद मिलती है, और हर मुलाक़ात की याद (अगली मुलाक़ात तक) हम सीने में लगाये रहते। अगली मुलाक़ात तक हर पिछली मुलाक़ात की एक-एक निगाह, एक-एक शब्द, अंग-परिचालन की एक-एक गति को हृदय और मस्तिष्क में परम निधि के समान सुरक्षित रखते। ये मुलाक़ातें दो-तीन महीने में एक बार होतीं। ... हर मुलाक़ात के लिए हमें सिन्ध मरुभूमि के विस्तारों को पार करना पड़ता। ये यात्राएँ थका देने वाली थीं। और फिर उस थकन पर ख़र्चों का बोझ। जेलर हर मुलाक़ात की निगरानी करता। ख़ास तौर पर मेरी मुलाक़ात की निगरानी; क्योंकि मुझे ‘संभावित’ जानकारियों का माध्यम समझा जाता था। हम मुलाक़ात के उन क्षणों को हलकी-फुलकी घटनाओं और मित्रों के संदेशों से मधुरतम बनाते; ताकि उनका बोझ सुखानुभूति के तले दब जाये।
मुझे अच्छी तरह याद है कि एक मुलाक़ात के मौक़े पर जब मैं एक कहानी सुना रही थी, हमारा जेलर उस कहानी की दिलचस्पियों में यों गुम हो गया कि जब संतरी और जेलर की ड्यूटी का वक़्त पूरा हो गया, तो उसने दूसरे जेलर से कहा: ‘भाई, थोड़ी देर ठहर जाओ। मैं इस कहानी का अंजाम तो सुन लूँ !’
मित्रों ने मुझसे अक्सर पूछा कि भला किसी ग़ैर की मौजूदगी में बातें कैसे होती होंगी ! दो दिलों की मुलाक़ात के दरमियान किसी तीसरे की मौजूदगी ! हर बात सुनता हुआ आदमी ! सच पूछिए तो हमें अक्सर किसी और की मौजूदगी का एहसास ही कब होता था! हाँ, कभी-कभी ‘दरमियान का पर्दा’ अपनी मौजूदगी से मुलाक़ात को तंग कर देता था, और जैसे, शुरू-शुरू में जेलर साहब मेरे और फ़ैज़ के दरमियान बैठने पर इसरार फ़र्माते थे।
फ़ैज़ की गिरफ़्तारी और उनके अवैध एकांत कारावास (मैं अवैध इसलिए कह रही हूं कि एक नियत अवधि से अधिक किसी व्यक्ति को एकांत कारावास की यातना में बांध रखना अवैध है) के तीन महीने बाद मैं अपनी दोनों बच्चियों के साथ उनसे मिलने लायलपुर जेल गयी। हमें सुपरिन्टेंडेंट के कमरे में पहुंचा दिया गया। उसने मेरा नाम पूछा। मैंने बता दिया। फिर उसने हम तीनों को देखा। मुझे अब यह महसूस होता है कि शायद उस क्षण हम बहुत अकेले, मायूस, चिंताकुल और बुझे-बुझे नज़र आ रहे थे, मानो हमारे चेहरे हमारी मानसिक भावस्थिति के आईने बन गये हों। सुपरिन्टेंडेंट ने मुझसे पूछा ‘आपकी यही दो बच्चियां हैं?’ मैंने उसे बताया कि ‘यही बच्चियां हमारी पूंजी हैं हमारी ज़िंदगी का हासिलज़रब (गुणनफल)।’ उसने झिझकते हुए सवाल किया ‘कोई लड़का नहीं है?’ मैंने नकार में गर्दन हिलायी।... उसने एक आह भरी...एक लंबी आह! फिर मेरी तरफ़ देखा और कहा ‘कैसे अफ़सोस की बात है ! कैसी अफ़सोसनाक बात!...’ उसके लहजे से मुझे यह एहसास हुआ जैसे अब किसी बेटे की मां बनना मेरे मुक़द्दर में नहीं, जैसे...मेरा सुहाग लुट चुका हो !
और जब फ़ैज़ कमरे में दाख़िल हुए तो दोनों बच्चियां दौड़ती हुई उनकी गोद में समा गयीं। मुनीज़ा ने जैसे बुड़बुड़ाते हुए कहा ‘अब्बू! ‘वो’ कहते थे कि आपके हाथ और पैर काट डाले जायेंगे!’ ‘वो’ कौन थे, यह मुझे कभी नहीं मालूम हो सका। लेकिन उस क्षण जब हमारी (मेरी और फ़ैज़ की) निगाहें एक-दूसरे से मिलीं तो हमें मालूम हुआ कि बेयक़ीनी (भविष्य के प्रति निराशा) के अनुभव और भय के बीच हम ही अकेले नहीं गुज़र रहे थे।
हैदराबाद तक हमारे सफ़र का मतलब था अधिक मुलाक़ातें। उन मौक़ों पर हम (स्वर्गीय) सुहरवर्दी के साथ ठहरते, जो मुलज़िम की क़ानूनी पैरवी कर रहे थे। सलीमा और मुनीज़ा सुहरवर्दी साहब से जैसे बेसाख़्ता प्यार करने लगीं, और उनसे निकट आती गयीं। सुहरवर्दी मरहूम बच्चियों के लिए नृत्य-संगीत की धुन पर ‘वाल्ट्ज़’ करते गोल घेरे में नृत्य। एक दिन सलीमा ने अपने सर को झटकते हुए कहा ‘आज मैं नहीं नाचूंगी।’ लेकिन मुनीज़ा फ़ौरन उछल कर खड़ी हो गयी। सुहरवर्दी साहब ने अपना हाथ आगे बढ़ाया, और पुरानी दुनिया के शिष्टाचार का मूर्त नमूना बनकर, जैसे नृत्य की फ़र्माइश करते हुए किंचित झुके। मुनीज़ा ने एक युवा महिला की तरह झुककर उस प्रार्थना को स्वीकार कर लिया। सुहरवर्दी साहब का चेहरा प्रसन्नता से खिल उठा और वह दोनों कमरे में एक आहिस्ता और मद्धम-से फ्ऱांसीसी अंदाज़ के शाहाना नृत्य (उपदनमज) में तन्मय हो गये। बाद में सुहरवर्दी साहब ने गाड़ी में सिन्धु नदी तक चलने का प्रस्ताव पेश किया। और फिर दरिया की मौजों पर कश्ती चलाते हुए उन्होंने हमें एक पंजाबी लोकगीत सुनाया, जो लड़कियों को पहले से याद था। यह सब कुछ कितना आनंदप्रद था ! लेकिन जब हम यह सोचते कि यह कुशाग्रबुद्धि और प्रतिभाशाली व्यक्ति कल सुब्ह न्याय की प्राप्ति के लिए जेल की चारदीवारी के अंदर अपना संघर्ष शुरू कर देगा, तो हर बात अर्थहीन और अप्रासंगिक मालूम होने लगती।
‘दरबारे-वतन में जब इक दिन...’
यह फ़ैज़ की अत्यधिक प्रिय और लोकप्रिय क़व्वालियों में से है। मुझे हैदराबाद की एक ईद याद है जब अधिकतर बंदियों के परिवार एक ही स्थान पर इकट्ठा हो गये थे। शोख़ रंगों के रंगारंग और भड़कीले कपड़े पहने हुए इतने बच्चे वहां जमा थे जिन्हें देखने वाला यह भी भूल जाता कि बिना किसी अपवाद के उन सबके बाप ऐसे अभियोगों में पकड़े गये थे जिनके आधार पर सरकारी वकील मृत्युदंड तक की मांग कर सकता था। ईद की उस पार्टी में यह क़व्वाली जिस जोश, चाव और तेज़ धुन में गायी गयी, उसकी कल्पना भी एक मुश्किल काम है।... और जब क़व्वाली ख़त्म हुई तो उस वक़्त तक तमाम बच्चे, बीवियां और माएं सभी इस क़व्वाली में शरीक हो चुकी थीं। सबके होंठों पर यही बोल थे :
‘दरबारे-वतन में जब इक दिन सब जानेवाले जायेंगे’
हम सबने निहायत पुर-तक़ल्लुफ़ दावत का इन्तज़ाम किया। और जब हम ‘घर’ यानी डाकबंगले वापस पहुँचे तो बच्चियों ने कहा ‘ऐसा खाना तो हमने बहुत दिनों से नहीं खाया था! है ना, अम्मी?’
खाने की बात पर मुझे एक दिलचस्प वाक़िआ याद आया। यह उन दिनों का वाक़िआ है जब फ़ैज़ को सज़ा दी जा चुकी थी, और वह अपनी कै़द की मीआद मंटगोमरी जेल में पूरी कर रहे थे। मुनीज़ा और सलीमा ने अपने अब्बू को ख़त में लिखा ‘हम आ रहे हैं। आप दोपहर के खाने के लिए कोई अच्छी चीज़ ज़रूर पकाइयेगा!’ हमें एक साथ दोपहर का खाना खाने की इजाज़त दे दी गयी थी। जब हम लोग मंटगोमरी जेल पहुंचे तो नाइब सुपरिन्टेन्डेन्ट लोधी साहब ने मुनीज़ा से कहा ‘तुम्हारे अब्बू ने यक़ीनन तुम्हारे लिए कोई ख़ास चीज़ पकायी होगी।’
‘आपको कैसे मालूम हुआ?’ मुनीज़ा ने पूछा।
‘मैंने तुम्हारे ख़त में पढ़ा था।’ लोधी साहब ने जवाब दिया।
जेल के अधिकारीगण निश्चय ही चिट्ठी-पत्राी की जांच करते थे। मुनीज़ा उठकर खड़ी हो गयी और बोली ‘तो क्या तुम मेरे ख़त पढ़ते हो?’
‘हां।’ लोधी साहब बोले।
‘उफ़ ! बदतमीज़ कहीं के !’
मैं नहीं कह सकती कि यह वाक्य सुनकर लोधी साहब पर क्या बीती। लेकिन मुझे यह अच्छी तरह याद है कि उनके चेहरे पर उस वक़्त कैसे भाव छा गये थे। चेहरे का रंग उड़ गया था। बेचारे लोधी साहब !
जब 1959 के शुरू महीनों में मार्शल ला के अंतर्गत फ़ैज़ फिर जेल के मेहमान बने तो लाहौर जेल से वह लाहौर क़िले में भेज दिये गये। मैंने उनसे मुलाक़ात के लिए प्रार्थना-पत्रा दिया। सी.आई.डी. के अधिकारियों ने जानबूझकर झूठ से काम लिया। उन्होंने इस बात से अपनी अनभिज्ञता प्रकट की कि फ़ैज़ लाहौर जेल से क़िले में ले आये गये हैं। चुनांचे (इस जानबूझकर बोले गये झूठ की वजह से) मैं लाहौर जेल गयी और वहाँ पता चला कि फ़ैज़ तो वहाँ से जा चुके हैं। और जब मैंने मुलाक़ात के लिए दोबारा प्रार्थना-पत्रा दिया तो मैं गुस्से के मारे सचमुच उबल पड़ी थी। आखि़रकार मैं अपनी बूढ़ी सास के साथ लाहौर क़िले पहुंची। फ़ैज़ को उनकी कोठरी से बुलाया गया। उन्हें देखते ही मुझे अंदाज़ा हुआ कि या तो उन्हें शेव करने की इजाज़त नहीं दी गयी या उन्होंने ख़ुद ही दाढ़ी बनाने का कष्ट नहीं उठाया। उनके चेहरे से पता चलता था कि उनके पिछले चौबीस घंटे ख़ुशगवार हर्गिज़ न थे।
मैंने पूछा ‘तुमने नाश्ता किया है?’
फ़ैज़ ने मुस्कराते हुए जवाब दिया ‘हां।’
‘क्या?’ यह था मेरा दूसरा सवाल।
‘ओ..! एक बन, एक प्याली चाय !’ फ़ैज़ ने जवाब दिया।
‘बन्’ का शब्द सुनते ही मैं जैसे बारूद बन गयी। जैसे किसी ने बंदूक की लबलबी पर हाथ रख दिया हो। मेरे स्वभाव में यह परिवर्तन क्योंकर हुआ? इसका जवाब मुझे भी कभी न मिल सका। लेकिन शायद उस वक़्त ‘बन्’ एक अर्थपूर्ण चिन्ह बन गया था। एक संकेत उन तमाम अन्यायों, दुख-दर्द, अपमान, धोखा-फ़रेब और झूठ का था, जिनका मैं गत कई महीने से शिकार थी।
मैं क्रोध से उत्तेजित होकर जेलर की तरफ़ पलटी और चीख़ उठी: ‘तुमने मेरे शौहर को बन दिया !.
.. सिर्फ़ बन !’ जेलर का मुंह खुला। मगर मैंने उसे एक शब्द भी कहने का मौक़ा न दिया। मैं फिर बरस पड़ी: ‘तुम क्या जानो ! उन्होंने अपनी ज़िदंगी में कभी बन नहीं खाया। तुमने बन ही तो कहा था? बन ! बन !’
बेचारा ग़रीब आदमी कुछ न बोला। लेकिन अपने आवेशपूर्ण भाषण के बाद मैंने एक अजीब-सी शान्ति अनुभव की। ऐसा सन्तोष जिसे कोई नाम नहीं दिया जा सकता। उस क्रोधावेश से भरे समय के एक घंटे बाद जब मैं घर गयी तो मैंने अंडों, मक्खन, डबल रोटी से एक टोकरी भरी और जेलर के नाम एक पुर्ज़ा लिखकर भेज दिया कि ‘नाश्ता इस क़िस्म की चीज़ को कहा जाता है।’
बाद में ‘बन्’ के वाक़िए पर हम दोनों बेतहाश हंसा करते थे, ऐसी हँसी जो ख़त्म होने को ही न आती थी। क्योंकि, लाहौर के क़िले की-सी काल-कोठरी में कै़द आदमी के लिए ‘बन्’ का महत्व ही क्या था !... लेकिन शायद उस समय उस ‘बन्’ का महत्व उस लंबे और थका देनेवाले एकाकीवास और खोखलेपन से जुड़ गया था जो भविष्य के पर्दे में छुपा हुआ था।
मेरी सास ने मुझे बाद में बताया कि मेरे पुरजोश भाषण को सुनकर वह यह समझी थीं कि फ़ैज़ को शायद क़िले में यातना दी गयी थी जिस पर मैं बिगड़ रही थी।
फ़ैज़ से (विभिन्न जेलों में) मिलने के लिए हमें अक्सर रेलगाड़ी में सफ़र करना पड़ता था। हम लोग तीसरे या दरमियाने दर्जे में सफ़र करते थे। इसलिए बच्चियों को साथ के यात्रियों से बात भी ज़रा ज़ियादा ही करनी पड़ती थी। (ऊँचे क्लासों के मुसाफ़िर — तौबा ! कसे रा बा-कसे कारे न बाशद ! यानी किसी को किसी से कोई मतलब नहीं।) सलीमा से जब कोई पूछता कि उसके माता-पिता कौन हैं और क्या करते हैं, तो वह झिझक जाती थी। एक ऐसे मौक़े पर मैंने उसे यह कहते सुना (उसका चेहरा सुर्ख़ हो गया था-क्योंकि उसे सफ़ेद झूठ से नफ़रत थी) ‘अब्बू हैदराबाद में काम करते हैं !’ मुनीज़ा उसकी तरफ़ मुड़ी और गुस्से में उसके हाथ पर हाथ मारती हुई बोली — ‘चल ! झूठी कहीं की ! जेल में हैं !’
कुछ दिन हुए मुझे एक कापी मिली, जिसमें जेल से फ़ैज़ की वापसी के बाद तक के वाक़िआत हैं। इतने दिनों की ग़ैरहाज़िरी के बाद हमें एक बार फिर फ़ैज़ को अपनी घरेलू ज़िंदगी का हिस्सा बनाना था हमारी घरेलू ज़िन्दगी, जो पितृसत्तात्मक व्यवस्था के स्थान पर एक विशुद्ध और सुदृढ़ मातृसत्तात्मक व्यवस्था बन गयी थी ! हम इस कापी को ‘एकता-योजना’ (वन यूनिट प्लैन) कहते थे और हममें से हरेक का नाम पाकिस्तान के किसी भूतपूर्व प्रान्त के नाम पर था। इस ‘एकता’ में एक भानजा भी शामिल था। हमारा काम और ज़िम्मेदारी यह थी कि पुरानी और नई आदतों में और घर के नए सदस्यों के साथ आपसी मतभेदों का फ़ैसला करें घरेलू ज़िन्दगी को बेहतर और सुखद बनाने के लिए ।
हम हर सप्ताह एक मीटिंग करते थे। शिकायतें पेश होती थीं, और उनके हल ढूंढ़े जाते थे। अब मैं इस कापी पर नज़र डालती हूं तो ऐसे वाक्य और याददिहानियां नज़र आती हैं:
‘मैं कुछ सहेलियों को चाय पर बुलाना चाहती हूं। क्या इसकी गुंजाइश निकल सकती है?’
‘हमें घर पर सालगिरह की पार्टी करनी चाहिए।’
‘अब्बू को बालरूम डांसिंग सीखने की मश्क़ ज़रूर करनी चाहिए।’
‘नसीर को अपनी अल्मारी के ख़ाने ख़ुद साफ़ करने चाहिए।’
‘अब्बू को एक दिन में तीस से ज़ियादा सिगरेट नहीं फूंकने चाहिए। अगर वह नहीं मानेंगे तो मैं यह शिकायत कापी पर पांच मर्तबा लिखूंगी।’
‘घर पर जब कोई दावत हो तो बड़ों के साथ बच्चों को भी बुलाया जाये।’
कभी-कभी ‘सीमाप्रांत’ की तरह मुनीज़ा आंदोलनकर्त्ता बन जाती और शोर मचाती। उसकी ज़िंदगी में यह नया अनुशासन शांति के साथ नहीं आया। फ़ैज़ ‘सिंध’ थे, क्योंकि सलीमा कहती थी ‘अब्बू तो सिंध से ही तअल्लुक़ रखते हैं।’ और मैं ‘बलूचिस्तान’ थी, शायद इसलिए कि कभी-कभी मैं दूसरों के लिए असुविधा का कारण बन जाती। हमारे आर्थिक साधन सीमित थे, और मांगें बढ़ती जा रही थीं। और हमें बहुत-सी अच्छी चीज़ों की सीमा बांधनी पड़ती थी (आसान उर्दू में ‘राशनबंदी’) और यह सीमाबंदी उस वक़्त तक आवश्यक थी जब तक फ़ैज़ जेल से लौटकर दोबारा काम शुरू न कर देते। लेकिन जल्द ही हमारा लोकतंत्र सफल हो गया। और कुछ ही अर्से बाद हमारा घर ऐसे ढंग पर चल रहा था जैसे घर का सरपरस्त इस घर से बाहर कभी गया ही न हो।
उर्दू से अनुवाद : शमशेर बहादुर सिंह