यादों भरे वे दिन (रामशरण शर्मा ‘मुंशी’) / नागार्जुन

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उस समय तक मैं दिल्ली का बाशिंदा नहीं हुआ था। ‘साइटिका’ से पीड़ित अवस्था में खुर्जा में रहता था जहां मेरी पत्नी (अब स्वर्गीय) श्रीमती धनवंत कुमारी शर्मा लड़कियों के एक कॉलेज में अध्यापिका थीं। पत्नी के (जिन्हें सब ‘धन्नो’ जी कहते थे) एक फुफेरे भाई ने, जिनकी ससुराल दिल्ली में थी, दिल्ली चल कर एक वैद्य जी को दिखा लेने पर बहुत ज़ोर डाला था। अतः उन्हीं के साथ मैं पहली बार दिल्ली आया और उनकी ससुराल में ही ठहरा था। वैसे तत्कालीन बंबई के सैंडहर्स्ट रोड स्थित केंद्रीय कार्यालय में कार्यरत अवस्था में जब इस बीमारी का शिकार बना था, वहां कई जगह मेरा इलाज कराया गया जिनमें सबसे लंबा इलाज मुंबई के जे. जे. हॉस्पिटल में चला था। उसके जनरल वार्ड में मुझे तीन महीने रहना पड़ा था। किंतु हालत में कोई सुधार न होने पर, डॉक्टरों की राय से, जलवायु बदलने के लिए मुझे मेरे प्रांत उत्तर प्रदेश भेज दिया गया था। उत्तर प्रदेश आने के बाद भी हालत सुधरने के बजाय बिगड़ती ही गयी। एक महीना मुझे लखनऊ के अस्पताल में भी बिताना पड़ा था। कुछ समय बाद मैं जब अपने एक भाई के निमंत्राण पर, जो बुलंदशहर में थे, रहने गया तो हालत में कुछ सुधार के आसार नज़र आये। लेकिन शरीर तब भी टेढ़ा का टेढ़ा था। खुर्जा बुलंदशहर के पास ही है। धन्नो जी के वहां अध्यापिका हो जाने पर मैं भी खुर्जा चला आया था। डायसन कार्टर की पुस्तक ‘सिन एंड साइन्स’ का अनुवाद मैंने पी. पी. एच. के लिए, खुर्जा में रहते हुए ही किया था। हिंदी में वह ‘पाप और विज्ञान’ नाम से छपी। यहां यह बता देना प्रासंगिक होगा कि श्री नरोत्तम प्रसाद नागर मेरी बीमारी की हालत का जायज़ा लेने बुलंदशहर आकर मुझसे मिले थे। नागार्जुन के ‘प्रथम दर्शन’ का सुयोग भी मुझे उन्हीं के कारण उपलब्ध हुआ। नागर जी उन दिनों दिल्ली में ‘सोवियत भूमि’ पत्रिका के संपादकीय विभाग में कार्यरत थे। मैंने उनके घर पत्रा डाल कर उन्हें सूचित कर दिया था कि अमुक दिन मैं दिल्ली पहुंचूंगा और अपने एक रिश्तेदार के यहां अमुक पते पर ठहरूंगा। नागर जी वहां आकर मुझसे मिले थे। एक दिन वह मुझे पहाड़ी धीरज के अपने किराये के मकान पर भी ले गये थे। उन्हीं दिनों एक शाम उन्होंने दिल्ली की कपड़ा मिल के कुछ मज़दूर साथियों से मेरी मुलाक़ात कराने का कार्यक्रम बनाया। उन्हें शंकर शैलेंद्र से मेरी घनिष्ठता के बारे में मालूम था; यह भी कि मुंबई में मैं अक्सर शनिवार की शाम को शैलेंद्र की ‘खोली’ पर जाया करता था, जहां दूसरे मज़दूर साथी भी आ जाते थे और हम लोग वहां अपने-अपने दिमाग़ के ‘बोरे’ उलटते थे जिससे शैलेंद्र को कविताओं के लिए 50 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 ‘मसाला’ और मुझ जैसे व्यक्ति को ‘काफ़ी सोचने-विचारने को’ मिल जाता था। इसलिए दिल्ली के मज़दूर साथियों से मिलने के कार्यक्रम का मैंने खुले दिल से स्वागत किया था। दिल्ली मेरे लिए अपरिचित, भद्र-जनों की नगरी थी। यहां मैं दूसरों के सहारे आया था, दूसरों के सहारे ही कहीं आ-जा सकता था। निश्चित दिन निश्चित समय पर नागर जी आ गये और कभी बस से कभी पैदल चल कर कुछ समय बाद हम दोनों अपने गंतव्य स्थान पर पहुंच गये। जिन साथी के दरवाज़े पर हम लोग रुके उनका नाम लाल बिहारी पांडे था। वह यूनियन में सक्रिय होने के साथ ही, पार्टी सदस्य भी थे। उन्हीं के चबूतरे पर हम लोग जमे। कुछ ही देर में अन्य मज़दूर साथियों का आना शुरू हो गया। साथियों के एकत्रा हो जाने पर नागर जी ने संक्षेप में मेरा परिचय दिया। नागर जी जिन साथियों को जानते थे, उनका परिचय स्वयं देते थे, पर जिनके बारे में नहीं जानते थे उनके परिचय के लिए पांडे जी की ओर संकेत कर देते थे। मसलन, एक साथी का जो लगभग मेरी ही उम्र के थे, परिचय कराते हुए नागर जी ने बताया, ‘ये कामरेड ओमप्रकाश शर्मा हैं। मिल में काम करते हैं, जासूसी और सामाजिक उपन्यास भी लिखते हैं।’ मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई कि एक मज़दूर लेखक से परिचय हुआ। ज़्यादातर साथी मेरे नाम से परिचित थे क्योंकि मैं मुंबई में ‘जनयुग’ से संबद्ध था। मैं खड़ा हुआ उनसे हाथ मिलाता और उनके हालचाल पूछता जाता। मुझे पता चला था कि धुनाई-सफ़ाई खाते की गर्द से ओमप्रकाश शर्मा के गले व छाती में दर्द रहता है; शायद उन्हें मिल की नौकरी छोड़नी पड़े। यह बात मैंने मन में नोट कर ली। बाद में दिल्ली में बसने पर, उन साथी से घनिष्ठ मित्राता हो गयी। यह क्रम चल ही रहा था कि एक बुज़्ाुर्ग आगंतुक का, जो मटमैला सा कुर्ता पहने, कंधे पर लाल अंगौछा डाले, मेरी ओर बढ़े आ रहे थे, स्वयं परिचय कराते हुए नागर जी ने कहा, ‘ये नागार्जुन हैं।’ वैसे तो मैं बुजुर्ग को देख कर पहले ही कुछ ‘अतिरिक्त विनम्रता’ धारण कर चुका था। पर मुझे अपने कानों पर विश्वास नहीं हुआ। मुझे लगा, नागर जी ने मज़दूर साथी का जो नाम बोला है वह मैंने ग़लत सुना है (नागर जी वैसे भी बहुत धीरे बोलते थे)। इसलिए मैंने पूछा, ‘कौन ?...’ इस बार उन्होंने ज़रा ज़ोर से बोलने की कोशिश करते हुए कहा, ‘नागार्जुन।’ मेरी स्व-आरोपित ‘अतिरिक्त विनम्रता’ वहीं पानी-पानी हो गयी। नागार्जुन ने प्यार से मेरे कंधे पर हाथ रख कर पूछा, ‘तुम्हीं रामविलास के भाई मुंशी हो ?’ मैंने अपनी झुकी मुंडी स्वीकृति में हिला दी। नागार्जुन को उस शाम के कार्यक्रम की सूचना थी। भ् भ् भ् नागार्जुन के नाम से मैं बंबई से ही परिचित था। केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन μ हिंदी जगत की इन दो विभूतियों की अपने मित्रों से और घर पर भी μ अक्सर चर्चा होती रहती थी। जब मैं छात्रा था, उस समय से ही कवि केदार को जानता था। नागर जी से भी उनका परिचय लखनऊ से प्रकाशित ‘चकल्लस’ के दिनों से था। नागार्जुन की कविताएं भी हम लोग बड़े मनोयोग से पढ़ते थे। मुंबई में व्यतीत हुए दिनों में शैलेंद्र से भी इन दोनों कवियों की सहज-सरल भाषा व ‘गहरी पकड़’ पर चर्चा होती थी। मुझे एक बात पर अपनी पत्नी से ईर्ष्या थी। मैं जिन दिनों मुंबई के जे. जे. हॉस्पिटल के जनरल वार्ड में था, मुझे पता चला था कि आगरा के पास चूड़ी बनाने के मशहूर केंद्र फीरोज़बाद में चूड़ी मज़दूरों की एक सभा हुई थी। वहां के मज़दूरों के बीच पार्टी का काम अच्छा था। मेरी पत्नी उन दिनों पार्टी में नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 51 खूब सक्रिय थीं। (बाद में वह कॉ. रुस्तम सैटिन समेत उ.प्र. में पार्टी कन्ट्रोल कमीशन की सदस्य भी रहीं)। उन्हें सभा का अध्यक्ष बनाया गया था। उस सभा में नागार्जुन भी उपस्थित थे और उन्होंने अपनी कविता ‘कांग्रेस की बूढ़ी गाय’ तथा अन्य कुछ कविताएं सुनायी थीं। उस सभा को मेरे भाई साहब (राम विलास जी) ने भी संबोधित किया था। मुझे ईर्ष्या इस कारण थी कि वह न सिर्फ़ मुझसे पहले से नागार्जुन से परिचित थीं, वरन् उनका कविता-पाठ भी सुन चुकी थीं। बाद में, मेरे दिल्ली में आ बसने पर, तुर्कमान गेट के 2203, गली डकौतान वाले मकान में नागार्जुन से अक्सर भेंट होती रहती थी। उस मकान के नीचे के हिस्से के अलग-अलग कमरों में सपरिवार मैं, बिहार के सुप्रसिद्ध किसान नेता कार्यानंद शर्मा के सुपुत्रा सच्चिदानंद शर्मा अपने परिवार सहित तथा एक अन्य साथी जवाहर चौधरी भी अपने परिवार सहित रहते थे। हम लोगों के पुत्रा-पुत्रियां लगभग सम-आयु थे। एक साथ खेलते और ऊधम मचाते थे। एक बार नागार्जुन आये तो उन्होंने मेरी बड़ी बेटी कादंबरी शर्मा की एक कॉपी पर अपनी कविता ‘पांच पुत्रा भारत माता के’ लिख कर दे दी। मैंने देखा कि एक-दो दिन बाद ही सब बच्चों को वह कविता कंठस्थ हो गयी है। वे आंगन में खड़े होकर बडे़ उन्मुक्त भाव से कविता सुनाते। इसी तरह उन्हें ‘कई दिनों तक चूल्हा रोया, चक्की रही उदास’ कविता भी याद हो गयी थी जिसकी ‘भीत पर छिपकलियों की गश्त’ और ‘चूहों की भी हालत रही शिकस्त’ वाली पंक्तियों को वे, विशेष मज़ा लेते हुए स्वरारोह के साथ, सुनाते थे। मैंने नोट किया कि इतनी सहज-सरल भाषा में शायद ही हिंदी का कोई दूसरा कवि राजनीतिक यथार्थ से सराबोर कविताएं लिख रहा हो जो बच्चों तक के मन में आसानी से उतरती चली जाती हैं। इसी तरह की उनकी और भी कई कविताएं हैं। नागार्जुन की यह बहुत बड़ी सिद्धि थी। कहने की ज़रूरत नहीं कि नागार्जुन ने उस घर के बच्चों के बीच भी, देखते ही देखते, अद्भुत अपनत्व का वातावरण निर्मित कर लिया था। भ् भ् भ् नरोत्तम नागर बहुधा हमारे तुर्कमान गेट वाले मकान में आते रहते थे। मैं उन दिनों की चर्चा कर रहा हूं, जब वह साप्ताहिक पत्रा ‘हिंदी टाइम्स’ के संपादक थे। नागार्जुन के भी दिल्ली आ जाने से उनको बहुत बल मिला था। पाठक शायद जानते होंगे कि नागर जी प्रेमचंद जी के सुपुत्रा अमृत राय के साथ ‘हंस’ के संपादक रह चुके थे। वामपंथी विचारधारा के लगभग सभी लेखकों से उनका परिचय था और वे नागर जी का बहुत सम्मान करते थे। ‘हिंदी टाइम्स’ के स्टाफ़ में जो लोग थे, उनके अतिरिक्त वह जगह-जगह के अपने परिचित लेखकों से लिखवाया करते थे। नागार्जुन की दिल्ली में उपस्थिति का लाभ नागर जी न उठायें, यह कैसे संभव था ?... इसलिए, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं कि 22 अक्तूबर 1960 के ‘दीपावली विशेषांक’ के प्रथम पृष्ठ पर नागार्जुन की हस्तलिपि में, उनके हस्ताक्षरों सहित, उनकी कविता ‘आलोक प्राण यह पर्व’ छपी जिसकी पंक्तियां हैं: धुली अमावस, धुले निखिल संसार व्यक्ति-व्यक्ति हों सुख में साझीदार 52 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 कुटी-कुटी में मिटे तिमिर का गर्व दीप-देह आलोक-प्राण यह पर्व जन-जन का मानस हो जलज-समान संजो सकें हम लक्ष्मी का वरदान। पर, इसी अंक के पृष्ठ 12 पर उनकी प्रसिद्ध लंबी कविता ‘पुरानी जूतियों का कोरस’ भी, खूब सजा कर, उनके चित्रा सहित छापी गयी। कविता तीन दृश्यों में विभाजित है। तरह-तरह की जूतियां हैं। ‘चिप्पियों वाले चमरौधे’ और ‘जूती सलीमशाही’ से लेकर ‘निज़ाम की ज़रीदार जूती’ तक। सबका अंदाज़े-बयां, उनकी वर्ग स्थिति के अनुसार, अलग-अलग है। यह व्यंग्य कविता बहुत लोकप्रिय हुई। ‘जूती सलीमशाही’ के बोल हैं: मुझे पहन कर इठलाती थी रूपनगर की रानी फ़ौजी बूट भरा करते थे मेरे आगे पानी नाक रगड़ते थे मुझ पर लुक-छिप कर प्रणय भिखारी अरे कहां से कहां आ गयी मैं किस्मत की मारी ! ‘फ्रेंच शू’ में नागार्जुन का व्यंग्य अभिव्यक्त हुआ है इस रूप में: बाल डांस में हम उनसे टकराये काकटेल में घुल-मिल कर मुस्काये चले गये आस्ट्रिया युवक उत्सव में विश्व शांति का सौरभ ही ढो लाये। ‘ज़रीदार जूती निज़ाम की’ सिर्फ़ दो पंक्तियों में अपनी दास्तान कह डालती है: सौ पूत एक हज़ार नाती हरम के चेहरों की याद नहीं आती। अंत में पुरानी जूतियों का सहगान है: आओ हम सब चलें, राष्ट्रपति भवन पधारें महामहिम के जूतों की आरती उतारें जीरादेई की धरती अब भी रोती है फसल नहीं है, धूल उड़ा कर खुश होती है बैठ गये हैं जो कानों में उंगली डाले उनके सर पर हाथ बनें हम चंपी वाले जादूगर हैं सबका होश दुरुस्त करेंगे व्रत लेते हैं, दुखियारों का दैन्य हरेंगे है अनमोल हमारी धूल नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 53 धूल हमारी धूल हमारी धूल है अनमोल हमारी धूल। ‘दीपावली अंक’ में केदारनाथ अग्रवाल की कविता ‘उजाला दौड़ा’ पृष्ठ तीन पर दी गयी है: नवजात उजाला दौड़ा कन-कन बन गया रुपहला मधु गीत पवन ने गाया संगीत हुई यह धरती हर फूल जगा, मुस्काया। दीपावली के इस अंक में उन्होंने हिंदी के प्रख्यात पुराने पत्राकार का ‘छै ! छै !! छै !!!’ लेख भी छापा और विद्यासागर नौटियाल का लेख ‘मेले की बहार’ भी। ‘हिंदी टाइम्स’ के अंतिम पृष्ठ पर पहले यशपाल जी की ‘चक्कर क्लब’ छपती थी, पर अब एक उपनाम से वह मुझसे अंतिम पृष्ठ लिखवाते थे। शायद उनको सुविधा यह थी कि यदि मेरा लिखा उन्हें पसंद न आया तो फ़ोन से कहला देते थे ‘नागर जी ने बुलाया है।’ मैं समझ जाता था कि पिछला मैटर रद्दी की टोकरी में गया... और उनके कार्यालय जाकर नया मैटर लिख आता था। हां तो, ‘हिंदी टाइम्स’ के 19 नवंबर 1960 के अंक में फिर नागार्जुन की दो कविताएं छपीं। (नागार्जुन का कोई कविता संग्रह इस समय मेरे पास नहीं है, इसलिए मैं नहीं जानता कि ये उनमें मौजूद हैं या नहीं। इसीलिए यहां दे रहा हूं)। पहली: टप-टप चूता रहा रात भर घर का कोना रही फफकती, नहीं थमा ढिबरी का रोना फटी भीत के छेदों में खोये थे झींगुर भूल गये थे क्या अपनी शहनाई के सुर ! दूसरी: चंदन वन की सर-सर घ्वनि में शब्द-वेध का त्रास भरूं क्या? शीशमहल के सोपानों पर श्लथ छंदों में प्रास भरूं क्या? कल तक डूबे थे, उन पंकिल खेतों का उपहास करूं क्या? शरद शेष के इन आवारा मेघों का विश्वास करूं क्या? यहां कह देना अप्रासंगिक न होगा कि नागर जी हिंदी के पुराने और नये सभी प्रगतिशील और जनवादी लेखकों से संपर्क रखते थे। उन्होंने शील जी से भी लिखाया। उनकी कविताएं छापीं। नागार्जुन की सर्वाधिक लोकप्रिय कविताओं में से एक ‘आओ रानी हम ढोयेंगे पालकी’ की चर्चा पर पहुंचने से पहले उनकी एक और कविता ‘हिंदी टाइम्स’ से देने की अनुमति चाहता हूं। यह कविता 54 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 मुझे इसलिए प्रिय है क्योंकि गांव की युवा पीढ़ी के प्रति नागार्जुन की प्रीति और उनका विश्वास इसमें अनूठे रूप में मुखर हुए हैं। कविता का शीर्षक है: ‘धरती की रूह, युग का हुलास’। (यह कविता 24 दिसंबर 1960 के अंक के पृष्ठ 10 पर उनके चित्रा के साथ छपी है): लगे हैं काम में सैकड़ों तरुण-तरुणियां बोते हैं, निराते हैं करते हैं मेड़ों की मरम्मत उठा-उठा कर देखते हैं अधपकी बालियां फसलों की झील में सीने तक डूब कर देते हैं हांक दूर के साथियों को ऊंचा करके खुर्पी वाला हाथ... लावारिस जीव नहीं हैं ये नये गांव की नयी औलाद हैं कि जिनकी खातिर कुदरत भी करती है इंतज़ार कि जिन्हें पाखंडी मौसम भी देता है दुलार। क़ैद करो इनका एक-एक स्पंदन निब की नोक में क़ैद करो बांध लो स्वर की लहरों में इनका एक-एक इंगित रंखाएं, रंग, चमक-दमक... सब कुछ टांक कर रख लो इनका! नये गांव की नयी औलाद हैं ये धरती की रूह, युग का हुलास। भ् भ् भ् उन दिनों वामपंथी दलों में शायद ही कोई ऐसा दल हो, जो भारत के कॉमनवेल्थ में बने रहने का समर्थन करता हो। इसलिए ब्रिटेन की साम्राज्ञी के भारत आगमन का जब सरकार ने बानक बनाया तो ‘महारानी’ के ‘स्वागत’ में राजनीतिक रूप से सजग लेखकों की जो प्रतिक्रिया हुई वह बड़ी हद तक नागर जी द्वारा संपादित पत्रा में प्रतिबिंबित होनी ही थी। जिस अंक में यह प्रतिक्रिया सामने आयी वह संयोगवश ‘हिंदी टाइम्स’ का नव-वर्षांक था। इसके नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 55 आवरण पृष्ठ पर, नीले आसमानी रंग में शांति कपोत का (संभवतः सुप्रसिद्ध चित्राकार जे. स्वामिनाथन द्वारा बनाया) चित्रा था। आवरण पृष्ठ पर इस चित्रा के बायीं ओर अंक की मुख्य रचनाओं की जो सूची दी गयी, उसमें सबसे ऊपर है μ नागार्जुन: ‘आओ रानी हम ढोयेंगे पालकी’। अन्य रचनाओं में, पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ की ‘यह तस्वीर’, अमृतलाल नागर की ‘दास्ताने तीतर-बुलबुल-बटेर’, केदारनाथ अग्रवाल की ‘दरसन दइ मुसकइयो’, जनकवि खेमसिंह नागर की ‘भूत निहंगे नाचैं’, आदि हैं। ‘आओ रानी हम ढोयेंगे पालकी’ तीसरे पृष्ठ पर नागार्जुन के चित्रा के साथ छपी है। कविता महाराजाओं-महासेठों और नेताओं द्वारा ढोयी जाती पालकी के रेखाचित्रों से अलंकृत है। कविता के मर्म को स्पष्ट करने वाली पंक्ति है, ‘रफ़ू करेंगे फटे-पुराने जाल की’। यह फटा-पुराना जाल है कॉमनवेल्थ के रूप में साम्राज्यवाद का। साम्राज्यवाद के फटे-पुराने जाल के ‘रफू’ किये जाने का काम आज भी जारी है। फ़र्क़ सिर्फ़ यह है कि साम्राज्यवादी ताक़तों का सरगना अब ब्रिटेन नहीं बल्कि अमरीका है और देश के प्रधान मंत्राी जवाहरलाल नेहरू नहीं, एक अन्य व्यक्ति हैं। कविता, हर सुनने वाले आम इन्सान की समझ में आने वाले सहज-सरल शब्दों में शुरू होती हैμ आओ रानी हम ढोयेंगे पालकी यही हुई है राय जवाहरलाल की रफू करेंगे फटे-पुराने जाल की यही हुई है राय जवाहरलाल की आओ रानी हम ढोयेंगे पालकी। रानी के स्वागत के लिए धन-कुबेर निश्चय ही उत्सुक होंगे, इसलिए नागार्जुन रानी को परामर्श देते हैं: धन-कुबेर उत्सुक दीखेंगे उनको ज़रा दुलार लो होठों को कंपित कर लो रह-रह के कनखी मार लो। लेकिन साथ ही रानी को चेतावनी देना भी नहीं भूलते, एक बात कह दूं मलका थोड़ी सी लाज उधार लो, बापू को मत छेड़ो अपने पुरखों से उपहार लो। नागार्जुन जन-हित के सजग प्रहरी के रूप में लेखकों की टीम के साथ काम करना जानते थे। ‘जनयुग’ के लखनऊ से दिल्ली आ जाने पर मज़दूरों और किसानांे के बीच लोकप्रिय अपने पुराने आकार में निकाले जाने पर, मेरे मन में नागार्जुन से प्रत्येक सप्ताह ‘जनयुग’ के लिए किसी-न-किसी सामयिक मसले पर एक कविता लिखाने का विचार पनपा। मैं जानता था कि इसके लिए उन्हें राज़ी करना आसान काम नहीं है। फिर भी सोचा, बात करके देखते हैं। मना ही तो कर देंगे। मैंने उनसे बात की। सौभाग्य से, आग्रह करने पर, वह लिखने को तैयार हो गये। इसके एवज में, जहां तक मुझे याद है, उनके लिए कुछ पैसों की व्यवस्था भी कर दी गयी थी। 56 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 वह प्रायः दोपहर में, भोजन की छुट्टी से कुछ समय पहले आते। भूखे हुए, तो बिना तकल्लुफ, मेरे लिए धन्नो जी द्वारा टिफिन में रखे गये भोजन में हाथ बंटाते। भूखे न हुए तो कहते, ‘तुम झटपट खा लो, फिर चलते हैं।’ खाना खा लेने के बाद हम लोग, झंडेवालान के डाकखाने के सामने के पार्क में जा बैठते। जिस मसले पर लिखने की बात तय हुई होती, उस पर कुछ और चर्चा की ज़रूरत उन्हें महसूस होती तो उस पर थोड़ी और बातचीत हो जाती, वर्ना वह कह देते, ‘तुम चलो। मैं लिख लूं तो आ जाऊंगा।’ मैं कार्यालय जाकर अपने काम में लग जाता। थोड़ी देर में वह आते और कविता मेरे सामने रख देते। ठीक लगी तो मैं प्रेस में भेजने के मैटर के साथ रख देता। कहीं कुछ सुधार या निखार की गुंजाइश मुझे लगती तो मैं कहता, ‘चलो एक प्याला चाय पीकर आते हैं।’ और हम लोग पार्क के पास स्थित चाय की दूकान की तरफ़ चल देते। रास्ते में मैं साफ़-साफ़ अपने मन की बात कह देता। वह सुनते चलते। हम लोग चाय पी चुकते तो वह कहते, ‘तुम चलो। मैं भी अपने मन को ज़रा उलट-पलट लूं।... अभी आता हूं।’ मैं चला आता। थोड़ी देर में वह आते और फिर कविता, कुछ बदली पंक्तियों के साथ, मेरे सामने रख देते। ऐसा कभी नहीं हुआ कि उनकी कोई कविता μ वह इस प्रक्रिया से होकर गुज़री हो अथवा नहीं μ मैंने नहीं छापी। वैसे, मेरा अनुमान है कि उन्हें इस तरह की प्रक्रिया में रस आने लगा था। मेरे पास इस समय ‘जनयुग’ की उन दिनों की प्रतियां नहीं हैं। लेकिन मैंने सुना था कि शोभाकांत अजय भवन के पुस्तकालय जाकर ‘जनयुग’ से उन कविताओं की प्रतिलिपि ले गये थे। जहां तक मैं समझता हूं, नागार्जुन का मेरे प्रति स्नेह भाव अंत तक बना रहा। भ् भ् भ् लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि वह मेरे प्रति सदा ‘सहिष्णु’, ‘सुकोमल’ एवं ‘उदार’ रहे हों। स्नेह भाव तो मेरे भाई साहब का भी मेरे प्रति अंत तक रहा, लेकिन कोई सामान्य मसला हो या सैद्धांतिक, वह मेरी ‘टांग घसीटने’ का कोई भी मौक / ा हाथ में आने पर ‘चूकते’ नहीं थे। यहां दृष्टि के सामने नागार्जुन हैं, इसलिए एक क्षेपक यह भी। पी.पी.एच. से प्रकाशित ‘बाल जीवनी माला’ के लिए मैं ‘निराला’ पुस्तिका रामविलास जी से लिखा चुका था। उसे लिखने से पहले भाई साहब का प्रश्न था, ‘बच्चों को निराला जी के बारे में क्या बताया जा सकता है ? वे निराला जी के बारे में समझेंगे ही क्या ?’ मेरा कहना था कि यह तो बताने के तरीक़े पर निर्भर है। काफ़ी बातचीत होने के बाद उन्होंने सीधा सवाल दागा, ‘तुम मुझे बताओ मैं किस बच्चे के लिए लिखूं। तुम मुझे वह बच्चा दिखा दो। मैं लिख दूंगा।’ मुझे जब और कुछ न सूझा तो मैंने कहा, ‘यह सेवा खड़ी है। आप सेवा के लिए लिख दीजिए।’ सेवा उनकी मझली बेटी का नाम है। वह कुछ देर सोचते रहे। फिर पूछा, ‘सेवा के लिए... ?’ मैंने कहा: ‘हां।’ बोले, ‘अच्छा।...लिख दूंगा।’ और कुछ समय बाद ‘बाल जीवनी माला’ की ‘निराला’ की पांडुलिपि मेरे हाथ में आ गयी। लेकिन वह धाराप्रवाह बातचीत थी सेवा और भाई साहब के बीच। मेरी कल्पना में बच्चों के लिए छोटे-छोटे अध्यायों वाली पुस्तिका बसी थी। एक सांस में सारी पुस्तिका पढ़ जाने का धैर्य शायद ही किसी बच्चे में होता। एक-दो जगह के बारे में मेरे अपने भी कुछ सुझाव थे। सवाल था, ‘अब ...? अब क्या किया जाय ?’ अगर भाई साहब से कुछ कहूंगा तो उनका सीधा नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 57 जवाब होगा, ‘पांडुलिपि पसंद नहीं। वापस कर दो।’ और मैं कुछ नहीं कर पाऊंगा। मैंने अमृतलाल नागर, केदारनाथ अग्रवाल और नागार्जुन तीनों को एक निजी पत्रा लिखा जिसमें कहा कि मैं पांडुलिपि को छोटे-छोटे अध्यायों में बांटना चाहता हूं। मेरे मन में जो सुझाव थे, वे भी उन्हें लिख दिये। मैं जानता था कि तीनों निराला जी का बहुत सम्मान करते हैं। तीनों भाई साहब के अभिन्न मित्रा हैं और मेरे गुणों-दुर्गुणों से भी भली भांति परिचित हैं। ये लोग जो सलाह देंगे, उसे मैं निश्चय ही मानूंगा। जब तीनों की तरफ़ से मुझे हरी झंडी मिल गयी, तो पांडुलिपि में मुझे जो करना था मैंने किया। और ‘निराला’ छप कर आ गयी। भाई साहब के पास भी वह पहुंची। मैं इसे अपना सौभाग्य ही कहूंगा कि भाई साहब की कोई प्रतिकूल प्रतिक्रिया नहीं हुई। हां, तीनों दिग्गजों को मैंने यह संकेत दे दिया था कि भाई साहब को उस पत्रा के बारे में नहीं मालूम है। तो जिन दिनों भाई साहब दिल्ली आये हुए थे और हम लोगों के साथ ही गली डकौतान वाले मकान में ठहरे थे, एक दिन नागार्जुन भी उनसे मिलने आये। छुट्टी का दिन होने के कारण धन्नो जी ने हम लोगों को साथ बैठा कर भोजन कराने की व्यवस्था की थी। हम तीनों साथ बैठे अलग-अलग थालियों मंे भोजन कर रहे थे। धन्नो जी चौके से गरम रोटियां लाकर हम लोगों की थालियों में डालती जा रही थीं। खाते-खाते कुछ देर बाद नागार्जुन ने कहा, ‘बस अब खा चुका हूं।’ लेकिन धन्नो जी ने ‘एक गरम रोटी तो और खा लीजिए,’ कहते हुए उनकी थाली में एक गरम रोटी और डाल दी।’ नागार्जुन ने धन्नो जी की तरफ़ देखते हुए, किंचित डाटते हुए, कहा, ‘मना कर दिया, फिर भी डाले जा रही हैं, डाले जा रही हैं !’ तभी भाई साहब ने टिप्पणी कसी, ‘तुम्हारी बीवी है, जो इस तरह डाट रहे हो ?...’ नागार्जुन चुप्प। उनके चेहरे का भाव देखते बनता था। जैसे कोई गुनाह करते पकड़े गये हों। भाई साहब मधुर-मधुर मुस्करा रहे थे। भोजनोपरांत बातचीत चल रही थी। तभी नागार्जुन को अचानक जैसे कुछ याद आया हो। अपने सुपरिचित अंदाज़ में उन्होंने भाई साहब की जांघ पर आत्मीयता भरी ज़ोर की थपकी मारी। फिर बोले, ‘रामविलास, तुम्हें तुम्हारे भाई की एक करतूत दिखाता हूं।’ और उन्होंने अपने कुर्ते की जेब में हाथ डाला। मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा था। कोई ऐसी बात तो मैंने भाई साहब के बारे में किसी से कही नहीं थी, जो उनके सामने कहने में डरता होऊं। तभी नागार्जुन ने एक पत्रा जेब से निकाला और चुपचाप भाई साहब को थमा दिया। भाई साहब जब गंभीरता से वह पत्रा पढ़ रहे थे तो मैंने ज़रा उझक कर देखना चाहा कि किसका पत्रा है। पत्रा मेरी ही हस्तलिपि में था। अरे यह तो वही पत्रा था जो मैंने ‘निराला’ की पांडुलिपि के बारे में तीन दिग्गजों को लिखा था ! मेरी क्या दशा थी, मैं ही जानता हूं। भाई साहब ने पत्रा पढ़ कर उसे नागार्जुन को लौटाते हुए कहा, ‘अरे तुम लोगों ने तो इसे अब जाना है। मैं तो इसके बचपन से इसकी हरकतों को जानता हूं।’ इति क्षेपक। भ् भ् भ् 58 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 मेरे सामने सवाल था, ‘बाल जीवनी माला’ के लिए प्रेमचंद की जीवनी लिखाने का। अमृत राय से उसे लिखाने की बात पक्की हो गयी थी। वह लिख भी रहे थे। पत्रों से हम दोनों एक-दूसरे से संपर्क बनाये रहते थे। उन्होंने जीवनी लिख डाली। लिख ही नहीं डाली, पांडुलिपि अपनी माता जी को और पत्नी को सुनायी भी। बाद में मुझे पत्रा लिखा कि यहां राय यह बनी है कि इसे हम लोग ही छापें। ग़्ाुस्सा तो मुझे आया। पर क्या करता ? चुप रहा। हां, अपने संबंधों में इसके कारण कभी कोई ‘खटास’ नहीं आने दी। तो सवाल था, अब किससे लिखाऊं। मेरा मन जाकर ‘बलचनमा’ के लेखक पर अटका। मुझे लगा कि प्रेमचंद की जीवनी लिखने को अगर नागार्जुन तैयार हो जायें, तो क्या कहने ! आखिर ‘गोदान’ के बाद हिंदी कथा साहित्य का अगला डग ‘बलचनमा’ ही तो था। नागार्जुन से अपने मन का तार जोड़ने में बहुत दिक़्क़त नहीं हुई। इतने दिनों के ‘सत्संग’ में हम लोग एक-दूसरे को अच्छी तरह जान चुके थे। नागार्जुन प्रेमचंद की जीवनी ‘बाल जीवनी माला’ के लिए लिखने को तैयार हो गये। फिर तो जब भी मैं उनसे मिलता, पूछ लेता, ‘कोई दिक़्क़त तो नहीं ? लिख रहे हैं न !’ उनका उत्तर होता, ‘हां, लिख रहा हूं।’ धीरे-धीरे यह कठिनाई होने लगी कि पता ही न चलता कि वह कब कहां हैं। मैं उन्हें पत्रा लिखता, तो किस पते पर ? वह रमते जोगी थे। महीने पर महीने बीतते जाते, फिर साल भी। कोई ताज्जुब नहीं कि उनके बारे में अपने परिचितों से पूछने पर पता चलता: ‘सुना है, पिछले दिनों बिहार में थे।’ कोई कहता, ‘सुना है, मुंबई में थे। फिर पता नहीं कहां चले गये।’ एक दिन मुझे अचानक उनका वह ‘मंत्रा’ याद आया, जो उन्होंने मुझे भी दिया था लेकिन जिसे मैं कभी ‘सिद्ध’ नहीं कर पाया। उनका कहना था, ‘मुंशी, चुपचाप दिल्ली से तीन-चार महीने के लिए ग़ायब हो जाया करो और जो लिखना हो, लिख कर फिर अपने ठीहे पर आ जाया करो।’ लेकिन जिस तरह के काम और ज़िम्मेदारियों से मैं जुड़ा रहा हूं, उनके चलते इस मंत्रा को सिद्ध कर पाना मेरे लिए असंभव साबित हुआ। यहां तक कि, प्रेमचंद की जीवनी के प्रसंग से पहले, एक बार जब भाई साहब का पोस्टकार्ड आगरा से आया था कि ‘नागार्जुन ने केदार पर बहुत ज़ोरदार कविता लिखी है। सुनना चाहो तो काम से एक दिन की छुट्टी लेकर आ जाओ।’ किरात के फंदे के तौर पर, मुझे ललचाने के लिए, उन्होंने पोस्टकार्ड पर लाल स्याही से उस कविता की कुछ पंक्तियां भी लिख भेजी थीं: केन कूल की काली मिट्टी, वह भी तुम हो कालिंजर का चौड़ा सीना, वह भी तुम हो कृषक वधू की दबी हुई कजरारी चितवन वह भी तुम हो। कुपित कृषक की टेढ़ी भौंहें वह भी तुम हो खड़ी सुनहली फसलों की छवि छटा निराली वह भी तुम हो। लाठी लेकर काल-रात्रि में करता जो उनकी रखवाली वह भी तुम हो। नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 / 59 पर उनके इस सारे प्रयत्न के बावजूद, बहुत इच्छा होते हुए भी, मैं अपना काम छोड़ कर आगरा जा नहीं पाया था। बहरहाल, काफ़ी समय बीत जाने पर जब दिल्ली में नागार्जुन एक बार पकड़ में आये तो मुझे कहना पड़ा, ‘सच-सच बताइये कि प्रेमचंद की जीवनी लिख रहे हैं या इस बार दिल्ली से आपके ‘ग़ायब’ होने से पहले मुझे आपको रेल के डिब्बे से उतार कर लाना पड़ेगा ?’ वह समझ गये कि मैं बहुत परेशान हो चुका हूं, इसलिए ऐसी बात मेरी ज़बान से निकली है। बोले, ‘धीरज रखो, इस बार प्रेमचंद को तुम्हें सौंप करके ही दिल्ली से बाहर जाऊंगा।’ मैं निश्चिंत तो तब भी नहीं हुआ। लेकिन एक दिन वह आये और कई कापियों की एक सिली हुई गड्डी मेरे सामने मेज पर रख कर बोले, ‘लो अब इसे गांठो या रद्दी की टोकरी में फेंको। मुझे जो करना था, मैंने कर दिया है।’ उनके ‘गांठो’ में जो प्यार अंतर्निहित था, उसने मुझे निरस्त्रा कर दिया। प्रेमचंद की वैसी जीवनी मैं ‘बाल जीवनी माला’ के लिए किसी दूसरे से लिखा पाने की कल्पना आज भी नहीं कर पाता हंू। जीवनी में एक जगह नागार्जुन कहते हैं: धनपत के बचपन का चित्रा अधूरा रह जायेगा अगर कजाकी को हम उसमें से हटा देंगे... ‘कजाकी डाक का हरकारा था। जाति का पासी था। बड़ा ही साहसी, बड़ा ही ज़िंदादिल, बड़ा ही हंसमुख। रोजाना डाक का थैला लेकर आता...’ और सुनोगे ? अच्छा सुनो... ‘जब वह दौड़ता तो उसकी बल्लमी झुंझुनी बजती... उसे देखते ही मैं खुशी से पागल हो उठता, दौड़ पड़ता और एक क्षण में कजाकी का कंधा मेरा सिंहासन बन जाता। जब कजाकी मुझे कंधे पर लिये हुए दौड़ने लगता तब तो ऐसा महसूस होता मानो मैं हवा के घोड़े पर उड़ा जा रहा हूं...’ लगता है, ‘और सुनोगे ? अच्छा सुनो।’ नागार्जुन नहीं, बल्कि प्रेमचंद ही ‘कजाकी’ कहानी सुन रहे बच्चों से पूछते हैं। भ् भ् भ् पी.पी.एच. ने ‘राहुल स्मृति’ पुस्तक प्रकाशित करने का फ़ैसला कर लिया था। नागार्जुन राहुल जी के साथ काफ़ी घूमे-फिरे थे। उनके साथ की यात्राआंे पर उन्होंने लेख भी लिखे थे। हम लोगों ने नागार्जुन के दो पूर्व-प्रकाशित लेख उस पुस्तक में शामिल करने का फ़ैसला किया। एक था, ‘टिहरी से नेलङ्’ और दूसरा, ‘राहुल जी μ उनका साहित्य और व्यक्तित्व’। इन लेखों को ‘राहुल स्मृति’ में शामिल करने की उनसे अनुमति लेनी थी। इसके लिए मैं और स्वर्गीय साथी पदम कुमार जैन की पत्नी श्रीमती पुष्पमाला जैन, जो देहरादून स्थित ‘महापंडित राहुल सांकृत्यायन मेमोरियल ट्रस्ट’ की अध्यक्ष थीं और ‘राहुल स्मृति’ में मेरे साथ सह-संपादक के रूप में काम कर रही थीं, नागार्जुन से मिलने दिल्ली में उनके निवास स्थान पर गये। 60 / नया पथ 􀂙 जनवरी-जून (संयुक्तांक): 2011 नागार्जुन ने बड़ी प्रसन्नता से दोनों लेख शामिल करने की अनुमति दे दी। मैंने उन्हें बताया कि ‘बाल जीवनी माला’ के लिए राहुल जी की जीवनी भदंत आनंद कौसल्यायन से लिखायी है। बोले, ‘बहुत ठीक किया है। वह साधिकार उन पर लिख सकते हैं।’ कुछ देर तक इधर-उधर की बातचीत के बाद हम लोग नागार्जुन के अच्छे स्वास्थ्य की कामना करके चले आये। ...उस समय मुझे नहीं मालूम था कि मेरे लिए ये नागार्जुन के अंतिम दर्शन साबित होंगे। भ् भ् भ् लेकिन वह कितने ही ग़ायब हों आंखों के सामने से, क्या वह कभी हमारी चेतना से विलुप्त हो सकते हैं ?... नहीं। नागार्जुन ने अपने गद्य और पद्य दोनों से हिंदी भाषा और साहित्य को जितना और जिस रूप में समृद्ध किया है, उसके लिए हिंदी जगत सदा उनका ऋणी रहेगा। उन्होंने हमारे इस युग की प्रगति में सक्रिय योगदान किया है। उनके कवि-मित्रा केदार के शब्दों में कहें तो, जो युग के रथ का घोड़ा है, वह जन मारे नहीं मरेगा μ नहीं मरेगा।। मो.: 09818692055